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________________ मोह बंधपरिण- प्रवासायपाविप्रयागम में हमारा का कथन किया गया है। उस मोह के बंध के कारस इस प्रकार कहे गए हैं जिससे दर्शन मोह के कारण यह जीव सत्तरकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण संसार में दुःख भोगता है, उसके बंध में ये कारण हैं, जिनेन्द्र देव, वीवराग चारणी, निर्ग्रन्थ मुनिराज के प्रति काल्पनिक दोषों को लगाना धर्म तथा धर्म के फल रुप श्रेष्ठ आत्मामों में पाप पोषरण की सामग्री का प्रतिपादन कर भ्रम उत्पन्न करना, मिथ्या प्रचार करना आदि असत् प्रवृत्तियों द्वारा दर्शन मोह का बंध होता है। चारित्र मोह के उदय वश यह जीव चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमारम हुःख भोगा करता है। उससे यह जीव क्रोधादि कषायों को प्राप्त होता है। क्रोधादि के तीव्र वेगवश मलिन प्रचण्ड भावों का करना, तपस्वियों की निंदा तथा धर्म का ध्वंस करना, संयमी पुरुषों के चित्त में चंचलता उत्पन्न करने का उपाय करने से, कपार्यों का बंध होता है। अत्यंत हास्थ, बहुप्रलाप, दूसरे के उपहास करने से स्वयं उपहास का पात्र बनता है । विचित्र रूप से क्रीड़ा करने से, औचित्य की सीमा का उल्लंघन करने से रति वेदनीय का आनष होता है। दूसरे के प्रति विद्वेष उत्पन्न करना, पाप प्रवृत्ति करने वालो का संसर्ग करना, निंदनीय प्रवृत्ति को प्रेरणा प्रदान आदि अरति प्रकृति कारम हैं। दूसरों को दुःखी करना और दूसरों को दुःखी देख हर्षित होना शोक प्रकृति का कारण है। भय प्रकृति के कारस यह जीव भयमोत होता है। उसका कारण भय के परिणाम रखना, दूसरों को डराना, सताना तथा निर्दयतापूर्म वृत्ति करना है । ग्लानिपूर्ण अवस्था का कारस जुगुप्मा प्रकृति है । पवित्र पुरुषों के योग्य आचरण की निदा करना, उनसे घृणा करना आदि से यह जुगुप्सा प्रकृति बंधती है ! स्त्रीत्व विशिष्ट स्त्रीवेद का कारण महान क्रोधी स्वभाव रखना, तीव्र मान, इर्षा, मिथ्यावचन, तीवराग, परस्त्री सवन के प्रति विशेष सक्ति रखना, खी सम्बन्धी भावों के प्रति तीन अनुराग भाव है । पुरुषत्व संपन्न पुरुषवेद के क्रोध की न्यूनता, कुटिलभावों का अभाव, लोभ तथा मान का प्रभाव, अल्पराग, स्वस्त्री संतोप, ईर्षा भाव की मंदता, आभूषस आदि के प्रति उपेक्षा के भाव आदि हैं। जिसके उदय से नपुंसक वेद मिलता है, उसके कारण प्रचुर प्रमास में क्रोध, मान, माया, लोम से दूषित परिणामों का सद्भाव, परखो-सेवन, अत्यंत हौन आचरस एवं दीन रागादि है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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