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________________ ( २४० ) चरिमे बादररागे णामागोदाणि वेदणीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य जं सेसं ॥ १० ॥ चरम समयवर्ती बादरसांपरायिक क्षपक नाम, गोत्र, एवं मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा वेदनीय को वर्ष के अंतर्गत बांधता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्त राय, रुन घातिया कर्मों को एक दिवस के अन्तर्गत बांधता है। " जं चावि संछुहंतो खवेइ किटिं अबंधगो तिस्से। सुहमम्हि संपराए प्रबंधगो बंधगियराणं ।। ११ ।। जिस कृष्टि को भी संक्रमण करता हुअा क्षय करता है, उसका वह बंध नहीं करता है। सूक्ष्मसांप रायिक कृष्टि के वेदनकालमें वह उसका प्रबंधक रहता है। किन्तु इतर कृष्ट्रियों के वेदन या क्षपण काल में वह उनका बंध करता है । जाव ण छदुमत्थादो तिरह घादीण वेदगो होई। अधऽणतेरणं खइया सव्वण्ह, सव्वद रिसी य ॥ १२ ॥ जब तक वह छद्मस्थ रहता है, तब तक ज्ञानाबरणादि घातिया त्रयका वेदक रहता है। इसके अनंतर क्षण में उनका क्षय करके सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बनता है। ___ विशेष-मोहनीय के क्षय होने पर क्षीणमोह गुणस्थान प्राम होता है। वह जीव घातिया श्रय का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है। तत्वार्थसूत्र में कहा है "मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम्" (१०-१)। केवलज्ञान सूर्य का उदय होने के लिए सर्व प्रथम मोक्ष क्षय को अनिवार्य माना है, उसके होने के अनंतर ही शेष घातिया क्षय को प्राप्त होते हैं ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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