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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज संकामगपट्ठवगो के बंधदि के व वेदयदि अंले । सकामेदि व के के केस असंकामगो होइ ॥१३०॥ संक्रमण-प्रस्थापक किन किन कर्माशों को बांधता है, किनकिन कर्माशों का वेदन करता है तथा किन किन कमीशों का संक्रमण करता है तथा किन किन कर्माकों का असक्रामक होता है? वस्ससदसहस्साई विदिसंखाए दु मोहणीयं तु। बंधदि च सदसहस्सेसु असंखेज्जेसु सेसाणि ॥१३१॥ द्विसमयकृत अन्तरावस्था में वर्तमान संक्रमण-प्रस्थापक के मोहनीय कर्म तो बर्ष शतसहस्र स्थिति संख्यारुप बंधता है और शेष कर्म असंख्यात शतसहस्र वर्ष प्रमाण बंधते हैं । विशेष-गाथा में प्रागत 'तु' शब्द पाद पूरण हेतु है अथवा अनुक्त समुच्चयार्थं है। यह गाथा द्विसमय कृत अन्तरकरण के दो समय पश्चात् स्थिति बंध को कहती है "एसा गाहा अंतर. दुसमय कदे टिदिबंधपमाणं भणइ" । भयसोगमरदि-रदिगं हस्त-दुगुका-णवुसगित्थीयो। असादं णीचगोदं अजसं सारीरगं णाम ॥१३२॥ ___ भय, शोक, अरति, रति, हाम्य, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद. असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अयशःकोति और शरीर नामकर्म को नियम से नहीं बांधता है। विशेष—एदाणि णियमा ण बंधई" इनको नियम से नहीं बांधता है। यहां अयशःकी तिसे सभी अशुभनाम कर्मकी प्रकृतियों को ग्रहण करना चाहिये। शरीरनाम कर्मसे बैंक्रियिक शरीरादि सभी शरीर नामकर्म और उनसे संबंधित प्रांगोपांगादि तथा
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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