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________________ ( २२० ) किट्टोकदम्मि कम्मे साददमुहणाममुश्चमोदावधिसागर जी महाराज बंधदि च सदसहस्से विदिमणुभागेसु दुक्कस्स ॥२०६॥ 7 मोह के कृष्टिकरण करने पर वह क्षपक साता वेदनीय, यशःकीर्ति रूप शुभनाम और उच्चगोत्र कर्म संख्यात शतसहस्र वर्ष स्थिति प्रमाण बांधता है । इनके योग्य उत्कृष्ट अनुभाग को बांधता है। विशेष-कृष्टियों के प्रथम-वेदक के संज्वलनों का स्थितिबंध चार माह है। नाम, गोत्र, वेदनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का स्थिति बंध संख्यात हजार बर्ष है। नाम, गोत्र और वेदनीय का अनुभाग बंध तत्समय उत्कृष्ट है अर्थात उस काल योग्य उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। १ किट्टीकदम्मिा कम्मे के बंधदि के व वेदयदि असे । संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥२०७॥ ' मोह के कृष्टि रूप होने पर कौन कौन कर्म को बांधता है तथा कौन कौन कर्मार्थों का वेदन करता है ? किन किन का संक्रमण करता है ? किन किन कर्मों में असंक्रामक रहता है ! दससु च वस्नस्संतो बंधदि णियमा दु सेसगे अंसे । देसावरणीयाई जेसि ओबट्टणा अस्थि ॥२०॥ / क्रोध की प्रथम कृष्टिवेदक के चरम सगय में मोहनीय को छोड़कर शेष घातिया त्रय को अंतमुहूर्त कम दश वर्ष प्रमाण स्थिति १ किट्टीण पढमसमय वेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । णामागोदवेदणीयाणं तिण्हं चेव धादिकम्मार्ण ठिदिबन्धो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । गामागोदवेदणीयाणमणुभागबंधो तत्समय उपकस्सगो। ( २१६४ )
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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