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यवमध्य के उपरितन गुणहानि स्थानानंतरों का जघन्य से संख्यातवां भाग जीवों से अविरहित ( परिपूर्ण है और उत्कर्ष से सर्वगुण-हानि-स्थानान्तर जीवों से परिपूर्ण है। जवन्य से यधके मध्य के उपरिम उपयोग काल स्थानों का संख्यातवां भाग जीवों से आपूर्ण है और उत्कर्ष से प्रद्धा स्थानों का प्रख्यात बहुभाग प्रापूर्ण है । ( १६५८-६०) । यह कथन प्रबाह्यमान उपदेश की अपेक्षा है, 'एसो उवएसो पवाइज्जई' ( १६६१)
अप्रवाह्यमान उपदेश की अपेक्षा सभी यबमध्य के नीचे तथा ऊपर के सर्वगुणहानि स्थानान्तर सर्वकाल जीवों से अविरहित अर्थात् परिपूर्ण पाए जाते हैं। उपयोगकालों का असंख्यात बहभाग जीवों को दर्शकपूर्ण आवास में सुविधासारख्याहाराबाग जीवों से शून्य पाया जाता है ।
इन दोनों ही उपदेशों की उपेक्षा त्रस जीवों के कषायोदय स्थान जानना चाहिये । 'एदेहिं दोहिं उवदेसेहिं कसायुदयट्टाणाणि णेदव्वाणि तसाणं । (१६६२)
(१) कषायोदप स्थान असंख्यातलोक प्रमाण हैं । असंख्यात लोकों के जितने प्राकाशों के प्रदेश होते हैं, उतने कषायोदय स्थान होंगे । असंख्यातलोक प्रमाण कषायोदय स्थान अस जीवों से परिपूर्ण हैं। (२)
प्रतीत काल की अपेक्षा कषायोदय स्थानों पर त्रस जीव यवमध्य के प्रकार से रहते हैं । जचन्य कपायोदयस्थान पर त्रम जीव स्तोक हैं। द्वितीय कषायोदयस्थान पर उतने ही जीव हैं : इस प्रकार असंख्यात लोकस्थानों में उतने ही जीव हैं । तद
(१) असंखेज्जाणं लोगाणं जत्तिया अागास पदेसा अत्थि तत्तियमेत्ताणि चैव कसायुदयद्वाणाणि होति ति भणिदं होइ (१६६२)
( २ ) तेसु जत्तिगा तसा तत्तियमेत्ताणि अावुण्णाणि ।