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________________ संग्रह करना चाहिए। इसके द्वारा पद-निक्षेप तथा वृद्धि की प्ररुपणा की गई है। " मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जो जं संकामेदि य जं बंधदि जं च जो उदीरेदि । के केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पंदेसग्गे ॥ ६२॥ । जो जीव स्थिति अनुभाग और प्रदेशाग्न में जिसे संक्रमण करता है, जिसे बांधता है, जिसकी उदो रणा करता है, वह द्रव्य किससे अधिक होता है ? . विशेष---१ यहां 'प्रकृति' पद अनुक्तसिद्ध है, क्योंकि प्रकृति के बिना स्थिति, अनुभागादि का होना असंभव है। बंत्र पद में बंध तथा सत्व का अंतर्भाव है। उदीरणा में उदीरणा तथा उदय का ग्रहण करना चाहिए। - प्रकृति उदीरणा के (१) मूल प्रकृति उदीरणा (२) उत्तर प्रकृति उदीरणा ये दो भेद कहे गये हैं। उत्तर प्रकृति उदीरणा के दो भेनन् । एक भेद एकैकोतरप्रकृति-उदीरणा तथा दूसरा भेद प्रकृतिमनि-उदीरणा है। यह सूत्र प्रकृतिस्थान उदीरणा से सम्बद्ध है, किन्तु चूणिकार उसके निरुपण को स्थगित करते हैं, कारण एकैक प्रकृति उदीरणा की प्ररूपणा के बिना उसका प्रतिपादन असंभव है ! : . एकैकप्रकृति उदीरणा के (१) एकैकमूलप्रकृति-उदी रणा (२) एकैकोत्तर प्रकृति-उदीरणा ये दो भेद हैं। इनका पृथक् पृथक चतुर्विशति अनुयोगद्वारों से अनुमार्गण करने के पाश्चात् 'कदि प्रावलियं पवेसेदि' इस सूत्रावयव की अर्थविभाषा करना चाहिये । १ पयडिवदिरित्ताणं दिदि-अणुभास-पदेसाणमभावेण पयडीए प्रगुत्तसिद्धत्तादो। जो जं बंधदि ति एदण बंधो पयडि-टिदिमणुभाग-पदेस भयभिण्णो घेत्तव्यो। एत्थेव संतकम्मस्स वि अंतभावो वृक्खायलो । उदीरणाए उदयसहादाए गणं कायक्वं (.१३४८)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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