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________________ __ - - . - - - - - ( २२ ) दर्शनावरण और अंतराय रूप तीन छातिया कर्म एक साथ क्षय को प्राप्त होते हैं, अतः केवलज्ञान और केवल दर्शन की उत्पत्ति एक साथ होती है । वीरसेन प्राचार्य कहते हैं" अक्कमेण विणासे संते केवलणापोण सह केवलदं सणेण वि उपज्जेयब्वं, अक्कमेण, अविकलकारणे संते तेसि कमुष्पत्तिविरोहादो"- केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरपा का प्रक्रमपूर्वक क्षय होने पर केवलज्ञान के साथ केवल दर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए । संपूर्ण कारण कलाप मिलने पर क्रमसे उत्पत्ति मानने में विरोध प्राता है। शंका-केवलज्ञान और केवलदर्शन की एक साथ प्रवृत्ति कैसे संभव है ? - मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज समाधान--"अंतरंगुनोवो केवलदसणं, बहिरंगत्थविसो पयासो केवलणाणमिदि इच्छियव्व- अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है और बहिरंगपदार्थों को विषय करने वाला प्रकाश केवलज्ञान है; ऐसा स्वीकार कर लेना उचित होगा। ऐसी स्थिति में दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृति मनाने में विरोध नहीं रहता है, क्योंकि उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी प्रभाव होता है। शंका-- केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट काल अंतमुहूर्त कैसे बन सकता है ? समाधान--सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा खाए जाने वाले जीथों में उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केबलदर्शन के उत्कृष्ट काल का ग्रहण किया गया है। इससे इनका अन्तर्मुहुर्त प्रमाण काल बन जाता है। शंका - व्यान आदि के द्वारा भक्षण किए जाने वाले जीवों के केवलज्ञान के उपयोग का काल अन्तर्मुहुर्त से अधिक क्यों नहीं होता है ?
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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