SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( १६८ ) प्रमाण हैं । इस कारण उतने प्रतिस्थापना रूप स्पर्थकों को छोड़कर तदुपरिम स्पर्धक अपकर्षित किया जाता है। इस प्रकार क्रम से बढ़ते हुए अंतिम स्पर्धक पर्यन्त अनंत स्पर्धकों का अपकर्षण किया जाता है । चरिम तथा उपचरिम स्पर्धक उत्कर्षित नहीं किये जाते । I इस प्रकार अंतिम स्पर्धक से नोचे अनंत स्पर्धक उतरकर अर्थात् चरम स्पर्धक से जघन्य प्रतिस्थापना निक्षेप प्रमाण स्पर्धक छोड़कर जो स्पर्धक प्राप्त होता है, वह स्पर्धक उत्कर्षित किया जाता है और उसे श्रादि लेकर उससे नीचे के शेष सर्व स्पर्वक उत्कर्षित किए जाते हैं । वहीदु होइ हाणी अधिगा हाणी दु तह अवहाणं । गुणसेढिप्रसंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्या ॥ १६० ॥ वृद्धि ( उत्कर्षण ) से हानि ( श्रपकर्षण) अधिक होती है। हानि से अवस्थान अधिक है। अधिक का प्रमाण प्रदेशारकी प्रपेक्षा असंख्यात गुणश्र ेणी रुप जानना चाहिये । विशेष – "जं पदसग्गमुक्कडिज्जदि सा यहि त्ति सणा जमोकडिज्जदि सा हाणि ति सण्णा । जं ण श्रोकडिज्जदि, ण उक्कडिज्जदि पदेसग्गं तमवद्वाणं ति सण्णा" जो प्रदेशाच उत्कर्षित किए जाते हैं, उनकी 'वृद्धि' संज्ञा है । जो किए जाते हैं, उन प्रदेशाग्रों को हानि कहते हैं तथा जो प्रदेशाय न अपकर्षित तथा न उत्कषित किए जाते हैं, उन्हें प्रवस्थित कहते हैं । पति वृद्धि स्तोक है । हानि असंख्यात गुणी है । उससे अवस्थान श्रसंख्यात गुणित है । यह कथन क्षपक तथा उपशामक को अपेक्षा कहा है। अक्षपक तथा अनुपशामक के "वड्ढीदो हाणी तुल्ला बा, विसेसाहिया वा विसेसहीणा वा अवद्वाणमसंखेज्जगुण" - वृद्धि से हानि तुल्य भी है, विशेषाधिक भी है अथवा विशेषहीन भी है, किन्तु श्रवस्थान असंख्यात गुणित हैं । उपरोक्त कथन एक स्थिति की अपेक्षा तथा सर्व स्थितियों की अपेक्षा किया गया है ( २०२० )
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy