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________________ ( १६६ ) ओवट्टणमुव्वट्टण किट्टीवज्जेसु होदि कम्मेसु । ओवट्टणा च णियमा किट्ठीकरणम्हि बोद्धव्वा ॥ १६१ ॥ अपवर्तन (अपकर्षण ) और उद्वर्तन ( उत्कर्षण ) कृष्टिवर्जित कर्मों में होता है । अपवतंना नियम से कृष्टिकरण में जानना मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चाहिए । विशेष-कृष्टिकरण के पूर्व में उत्कर्षण, अपकर्षण दोनों होते हैं। कृष्टिकरण के समय तथा उसके पश्चात् उत्कर्षण करण नहीं होता है, अपकर्षण होता है । यह क्षपक क्षेणी को अपेक्षा कथन किया गया है । उपशम श्रेणी में सूक्ष्मसांपरायिक के प्रथम समय से लेकर अनिवृत्तिकरण के प्रथम तक मोहनीय की अपवर्तना ही होती है । अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयसे नीचे सर्वत्र अपवर्तना तथा उद्वर्तना दोनों होते हैं । ( २०२१ ) केदिया किट्टीओ कम्हि कसायम्हि कदि च किडीओ। किट्टीए कि करण लक्षणमथ किं च किट्टीए ॥ १६२ ॥ __ कृष्टियां कितनी होती हैं ? किस कषाय में कितनी कृष्टि होती है ? कृष्टि में कौन सा करण होला ? कृष्टि का क्या लक्षण है ? विशेष –ष्टि का स्वरूप इस प्रकार कहा है कि जिससे । संज्वलन कषायों का अनुभाग-सत्व कृशता को प्राप्त होता है, वह कृष्ट कही गई है । इसका विशेष कथन अागामी गाथानों में ।। किया गया है। वारस व छ तिरिणय किट्टीओ होंति अधवऽणांताओ। एक्केक्कम्हि कसाए तिग तिगअधवाअणंताओ ॥१६३॥ संज्वलन क्रोधादि कषायों की बारह, नव, छह तथा तीन कृष्टियां होती हैं अथवा अनंतकृष्टियां होती हैं । एक एक कषाय में तीन तीन अथवा अनंतकृष्टियां होती हैं।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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