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________________ ( १७ ) अोवोदि द्विदि पुरख अधिगं हीणं च बंधसमगं वा। उक्कडदि बंधसमं हीणं अधिगंण वड्डोदि ॥ १५ ॥ स्थिति का अपकर्षण करता हुआ कदाचित् अधिक, हीन तथा कदाचित् बंध समान स्थिति का अपकर्षण करता है । स्थिति का उत्कर्षण करता हुश्रा कदाचिद होन तथा वंध समान स्थिति का उत्कषण करता है, किन्तु अधिक स्थिति को नहीं बढ़ाता है। विशेष-जो स्थिति अपकर्षण की जाती है, वह बध्यमान पाक्षिकि से अधिक होगा विशिलानरहोती मौटाक्रिन्तु उत्कषण की जाने वाली स्थिति बध्यमान स्थिति से तुल्य या हीन होती है, अधिक नहीं होती है। "जा द्विदी प्रोक्कड्डिज्जदि या ट्ठिदो बज्झमाणियादो अधिका वा हीणा बा तुल्ला वा । उक्कड्डिजमाणिया द्विदो बज्झमाणियादो दिदीदो तुल्ला होणा वा अहिया णत्यो"। ( २०१५) सव्वे वि य अणुभागे ओकडदि जे हा भावलियपवि। उक्कड्डदि बंधसमें णिस्वक्कम होदि श्रावलिया॥ १५६ ॥ उदयावली से बाहिर स्थित सभी अर्थात् बंध सदृश या उससे अधिक अनुभाग का अपकर्षण करता है, किन्तु श्रावली प्रविष्ट अनुभाग का अपकर्षण नहीं करता है | बंध समान अनुभाग का उत्कर्षण करता है; उससे अधिक का नहीं। पावलो अर्थात् बंधावली निरुपक्रम होती है। विशेष-उदयावली में प्रविष्ट अपुभागों को छोड़कर शेष सत्र अनुभागों का अपकर्षण तथा उत्कर्षण होता है । "उदयावलियपविट्ठ अणुभागे मोत्तण सेसे सब्वे चेव अणुभागे प्रोकडुदि । एवं चेव उकड्डदि" ( २०१६) इस विषय में सद्भाव संज्ञक सूक्ष्म अर्थ इस प्रकार है । प्रथम स्पर्धक से लेकर अनंत स्पर्धक अपकर्षित नहीं किए जाते हैं। वे स्पर्धक जघन्य अति स्थापना स्पर्धक तथा जवन्य निक्षेप स्पर्धक
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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