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________________ ( २२७ ) जं वेदेंतो किहिं खवेदि किं ara तिस्से :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जं चात्रि संनुहंतो तिस्से कि बंधगो होदि ॥ २१६ ॥ कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टि का वेदन करता हुमा क्षय करता है क्या वह उसका बंधक भी होता है ? जिस कृष्टि का संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, क्या वह उसका बंध भी करता है ? जं चावि संकुहंतो खवेदि किहिं प्रबंधगो तिस्से । सुहुमम्हि संपराए अबंधगो बंधगिदशसि ॥ २९७ ॥ कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टि का वेदन करता हुआ क्षय करता है, उसका वह प्रबंधक होता है। सूक्ष्मसांपरायिक कृष्टि के बंदन काल में वह उसका अयक रहता है, किन्तु इतर कृष्टियों के वेदन या पण काल में वह उनका बंधक रहा है । I विशेष- जिस जिस कृष्टि का क्षय करता है नियम से उसका बंध करता है । दो समय कम दो श्रावलिबद्ध कृष्टियों में तथा सूक्ष्मसांपराय कुष्टि के क्षपण काल में उनका बंध नहीं करता है । "ज जंख किट्टि पियमा तिरसे बंधगो, मोत्तण दो दो प्राव लियबंधे दुममयूणे सुमसांपराय किट्टीग्रो च" (२२३५) जं जं खवेदि किहिं द्विदि - अणुभागेसु के सुदीरेदि । संहदि किट्टि से काले तासु गणासु ॥२१८॥ ' जिस जिस कृष्टि को क्षय करता है, उस उस कृष्टि की स्थिति और अनुभागों में किस किस प्रकार से उदीरणा करता है | त्रिव क्षित कृष्टि का अन्य कृष्टि में संक्रमण करता हुआ किम किस प्रकार से स्थिति और अनुभागों से युक्त ऋष्टि में संक्रमण करता है ?
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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