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________________ ( २२६ । संक्रमण करता हुआ क्षय करता है ? क्या प्रानुपूर्वी से या अनानुपूर्ती से कृष्टियों को क्षय करता है ? पढ़मं विदियं तदियं वेदेंतो वा वि संछुहंतो वा चरिम वेदयमाणो खवेदि उभएण सेसाओ ॥ २१५ ॥ क्रोध की प्रथम, द्वितीय तथा तीसरी कृष्टि को बेदन करता हुना तथा संक्रमण करता हु प्रा क्षय करता है । चरम : मुश्मसांपरायिक कृष्टि ) को वेदन करता हुआ ही क्षय करता है । शेष को उभय प्रकार से क्षय करता आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज विशेष- क्रोध की प्रथम कृष्टि को प्रादि लेकर एकादशम कृष्टि पर्यन्त वेदन करता हुआ क्षय करता है, अवेदन करता हुआ भी क्षय करता है । कुछ काल पर्यन्त वेदन करते हुए, अवेदन करते हुए भी संक्रमण करते हुए क्षय करता है । इस प्रकार प्रथमादि एकादश कृष्टियों के क्षय की विधि है। बारहवीं कृष्टि में भिन्नता पाई जाती है । उम चरम कृष्टि को वेदन करता हुआ क्षय करता है। वह संक्रमण करता हुआ क्षय नहीं करता है । शेष कृष्टियों के दो समय कम दो प्रावली मात्र नवक बद्ध कृष्टियों को चरम कृष्टि में संक्रमण करता हुअा हो क्षय करता है । वेदन करता हुया नहीं । इस प्रकार अंतिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि को छाड़ कर तथा दो ममय न्यून मावलीबद्ध कृष्टियों को छोड़कर शेष कृष्टियों को उभय प्रकार से क्षय करता है अर्थात् वेदन करता हुआ एव संक्रमण करता हुअा क्षय करता है । "वेतो च मंछुहनो च एदमुभयं" । वेदक भाव से तथा संक्रमणभाव से क्षय करता है, यह उभय शब्द का अर्थ जानना चाहिए, "वेदगभावेण संशोह्यभावेण च खवेदि ति एसो उभयसहस्सत्थो जाणियव्यो ति भणियं होई" { २२३४)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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