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संकल्पधशगो मूढो वस्त्विष्टानिष्टतां नयेत् । रागढ़ पो ततस्ताभ्यां बंधं दुर्मीचमश्नुते ॥२१-२५॥म. पु.
संकल्प-विकल्प के वशीभृत हुश्रा अज्ञानी जीव वस्तुओं में प्रिय और अप्रिय की कल्पना करता है । उससे राग-द्वेष अर्थात 'पेज्ज-दोष' पैदा होत है। राग-द्वेष से कठिनता से छूटने वाले कमों का बध होता है।
इसलिए यह आवश्यक है कि यह जीव सदाचार और संयम का शरगा प्रहा कर राग और देष को न्यून करने में सफल - प्रयत्न हो। इस मलिनता के दूर होने पर आत्मदर्शन होने के साथ श्रात्मा की उपलब्धि भी हो जाएगी।
कषाय क्षय का उपायु-कषाय रूप, शत्रुओं का क्षय करने के लिए मा, मार्दव, सत्य, संयम, तप, त्यागादि प्रारमगुणाकामावलिमागर जी महाराज
आवश्यक है। मूलाचार में लिखा है कि मूल से उखड़े हुए वृक्ष की जिस प्रकार पुनः उत्पत्ति नहीं होतो असी प्रकार कर्मों के मूल क्रोधादि कषायों का । क्षय होने पर पुनः कर्म की परंपरा नहीं चलती। श्राचार्य कुन्दकुन्द ने मूलाचार में लिखा है :
दंतेंदिया महरिसी गगं दोसं च ते स्ववेदणं । झाणोरजोगजुत्ता खनि कम्मं खविदमोहा ॥११६-॥
इन्द्रिय-विजता महामुनि ध्यान तथा शुद्धोपयोग के द्वारा राम और द्वेष का क्षय दर क्षीरा-मोह होते हुए कर्मों का क्षय करते हैं।
अभिवंदना-अन्त में हम महाश्रमा भगवान महावीर, गौतम म्वामी, सुधर्माचार्य तथा सम्बृ स्वामी का सत्या श्रुतकेवली आदि महाज्ञानी भागमवेत्ता मुनीन्द्रों को सविनय प्रणाम करते हुए जयधवलाकार जिनसेन स्वामी के शब्दों में परमपूज्य गुणधराचार्य को प्रणाम करते है :
जे सिह कसाय-पाहु-मणेय-णय मुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि विवारियं तं गुणहर-भडारयं चंदै ।।
मैं उन गुणधर भट्टारक को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने अनेक नयों के द्वारा उज्ज्वल तथा अनन्त अर्थपूर्ण कमायपाहुड की गाधामों में निबद्ध किया ।