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________________ मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविहिासागर जी म्हाराज प्रदेशबंध चतुविध वृद्धि, चतुर्विध हानि तथा प्रवस्थान में भजनीय है । “जोगवढि-हाणि-प्रबढाणवसेण पदेसबन्धस्य तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो" ( १९९९ ) - योगों में वृद्धि, हानि तथा अवस्थान के वशसे प्रदेशबन्ध में वृद्धि, हानि तथा अवस्थान के होने में कोई बाधा नहीं है । गुणदो अांतगुणाही वेददि रिणयमसा दु अणुभागे। अहिया च पदेसम्गे गुणेण गणणादियतेण ॥ १५०॥ अनुभाग में गुणश्रेणी की अपेक्षा निगमगे अनन्तगुणा हीन वेदन करता है। प्रदेशाग्न में गणनातिकान्त गुणितरुप श्रेणी के द्वारा अधिक है। किं अंतर करेंतो वड्ढदि हायदि द्विदी य अणुभागे। शिरुवक्कमा च वड्ढी हाणी वा केचिरं कालं ॥ १५१ ॥ अन्तर को करता हुआ क्या स्थिति और अनुभाग को बढ़ाता है या घटाता है ? स्थिति तथा अनुभाग की वृद्धि या हानि करते हुए निरुपक्रम अर्थात्, अन्तरहित वृद्धि अथवा हानि कितने काल तक होती है ? ओवट्टणा जहरणा आवलिया ऊणिया तिभागेण । एसा हिदीसु जहगणा तहाणुभागे सणंतेसु ॥ १५२ ॥ जवन्य अपवर्तना विभाग से ऊन प्रावली है । यह जघन्य अपवर्तना स्थितियों के विषयमें ग्रहण करना चाहिए। अनन्ग सम्बन्धी जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकों से प्रतिबद्ध है। विशेष----अपवर्तन किया द्रव्य जिन भिषकों में मिलाते हैं, वे निपेक निक्षेपरुप कहे जाते हैं। अपवर्तन किया द्रष्य जिन निषेकों में नहीं मिलाया जाता है, वे निषेक अति स्थापनारूप कहलाते हैं। निक्षेप और प्रतिस्थापना का कम यह है, कि उदयावनी प्रमाण निषेत्रों में से एक कमकर तोन का भाग दो। इनमें एक
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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