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( ३५ ) समाधान-सम्यक्त्व को स्थिरता और निष्कांक्षता का घात होता है । सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभाग सत्कर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धक से लेकर दारु के अनंतभाग तक होता है। यह सम्यग्मिथ्यात्व संपूर्ण सम्यक्त्व का घात करने से सर्वधातो है । इसे जात्यंतर सर्वघाती कहा है।
४ इसके होने पर सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व के अस्तित्व का
चोर्यश्री सविधिसागर जी महाराज
कार * दारु के जिस भाग पर्यन्त सम्यग्मिथ्यात्व के स्पधंक हैं, उससे (साभार अनंतरवर्ती दारु, अस्थि तथा शैलरुप सभी स्पर्धक मिथ्यात्व Ter प्रकृति के हैं।
रवडक.
अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ रुप द्वादश कषायों के सभी स्पर्धक सर्वघाती हैं । दारु के जिस भाग से सर्वधाती स्पर्धक प्रारंभ होते हैं, वहां से शैलभाग पर्यन्त इनके स्पर्धक होते हैं । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्यादि नव नोकपायों के स्पर्धक लता रुष होने के साथ दारु, अस्थि तथा शैल रुप भी हैं । चूणि सूत्रकार ने कहा है, "चदु-संजलण-णव-णोकसायाणमणुभागलंतकम्मं देसघादीणमादिफद्दयमादि काद्ण उबरि सब्दधादित्ति अप्पडिसिद्ध ।" चार संज्वलन और नोकषाय नवक का अनुभाग सत्कर्म देशवातियों के प्रथम स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के सर्वघाती पर्यन्त हैं ।
अनुभाग स्पर्धकों का भेद स्थान संज्ञा रूप कहा गया है, उसके लता दारु प्रादि भेद सार्थक हैं । जिस प्रकार लता कोमल होती है
४ सम्मामिच्छुदयेणजत्तंतर-सव्वघादि-कज्जेण । ण य सम्म मिच्छं पि य सम्मिस्सो होवि परिणामो॥ गो. जी