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ज्ञानमार्गणा वाणम्हि य तेवीसातिविहे ऐक्कम्हिी एकवीसा य महाराज अण्णाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा ॥४७॥
मति, श्रुत तथा अवधिज्ञानों में तेईस संक्रमस्थान होते हैं । एक अर्थात् मनःपर्ययज्ञान में पच्चीस और छब्ब'स प्रकृतिक स्थानों को छोड़कर शेष इक्कीस संक्रम स्थान होते हैं । कुमति, कुश्रुत और विभंग इन तीनों अज्ञानों में सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक पांच स्थान हैं।
विशेष--यहां 'णाणम्हि' पद में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अबधिज्ञान के साथ मिश्रज्ञान का भी ग्रहण हुआ है।
शंका—सम्यग्ज्ञानों में मिश्रज्ञान का अंतर्भाव किस प्रकार संभव है ?
समाधान – ऐमा नहीं है । शुद्धनय की अपेक्षा सम्य ज्ञानों में मिथ ज्ञान के अंतर्भाव में विरोध का अभाव है । "कधमिस्सणाणस्स सगणापतब्भावो ? णो सुद्धणयाभिप्पारण तस्स तदंतम्भावविरोहाभाबादो" ( १००८ ।
'एक्काम्हि पद द्वारा मनःपर्ययज्ञान का ग्रहण किया गया है
मनःपर्ययज्ञान में पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान असंभव है। "एक्काम्म एक्कवीमाय"-"एक्कम्मि मणपज्जवणाणे एक्कबोरा-संखावच्छिण्णाणि संकमट्ठाणाणि होति, तत्थ पणुवीस छन्बोसाणममंभवादो”
१ इस गाथा के द्वारा चक्षु, अबक्षु तथा अवधिदर्शन वाले जोबों की प्ररूपणा की गई है। उनका पृथक प्रतिपादन नहीं किया गया है। उनमें प्रोध प्ररूपणा से भिन्नता का अभाव है।
१ एत्थ चक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणीसु पुधपरुवणा ण कया तेसिमोधपरुवणादो भेदाभावादो (१००८)