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( ५८ ) २ यहां मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान का त्रिविधज्ञान रूप में ग्रहण हुआ है। यहां तेईस संक्रम स्थान कहे गए हैं।
शंका-यहां तेईस संक्रम स्थान असंभव हैं। यहां पच्चीस प्रकृतिक संक्रमादिशक कैसे धीच ओगसुविद्यासागर जी महाराज
ममाधान --सम्पग्मिथ्या ष्टि में पच्चीस प्रकृतिक स्थान संभव है। भव्य तथा प्राहार मार्गणा
आहारय-भविएसु य तेवीसं होति संकमट्ठाणा । अणाहारपसु पंच य एक्कं ठाणं अभवियेस्तु ॥४८॥
प्राहारकों तथा भव्यजीवों में तेईम संक्रमस्थान होते हैं। अनाहारकों में सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक पंच संक्रम स्थान होते हैं । __ अभव्यों में एक पच्चीस प्रकृतिक ही स्थान होता है। अपगत वेदीछव्वीस सत्तावीसा तेवीसा पंचवीस वावीसा। एदे सुण्णट्ठाणा अवगवेदस्स जीवस्स ॥४६॥
अपगतबेदी जीव के छब्बीस, सत्ताईस, तेईस, पच्चीस, बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान शून्य स्थान हैं । ३
२ एत्थ तिविहणाणग्गहेण मदिसुदरोहिणाणाणं संगहो कायन्यो। तेबोससंकमट्ठाणाहाराणमसंभवादो । कथमेत्थ पणुवीससंकमट्ठाणसंभवो त्ति णा संकियव्वं ? सम्मामिच्छाइट्ठिम्मि तदुवलंभसंभवादो ___३ पंचसंमट्ठाणाणि अवगववेदविसए ण संभवति तदो एदाणि तत्थ सुग्णट्ठाणाणि त्ति घेत्तव्वाणि (१००९)