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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुबिधासागर जी महाराज
सुख रूप अनुभवन करावे, वह साता बेदनीय है। टीकाकार के शब्द ध्यान देने योग्य हैं, "इंद्रियाणां अनुभवनं विषयावबोधनं वेदनीयं । सब सुखस्वरूपं सातं, दुःखस्वरूपमातं वेदयति ज्ञापयति इति बेदनीयम्" । इन फर्मों की निरुक्ति करते हुए इस प्रकार स्पष्टीकरण गोम्मटसार की संस्कृत टीका में किया गया है।
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उदाहरण -- ज्ञानावरण के विषय को स्पष्ट करते हुए चाचार्य कहते है, "ज्ञानमावृणोति ज्ञानावरणीय स्य का प्रकृतिः ? ज्ञानप्रच्छादनता । किं वत् देवतामुखयत् ।" जो शनि का आवरण करे, वह ज्ञानावरण है । उसका क्या स्वभाव है ? ज्ञान को ढांकना स्वभाव है। किसके समान ? देवता के समक्ष ढाले गए वस्त्र की तरह वह ज्ञान का आवरस करता है ।
दर्शनावरण--"दर्शनमावृसोतीति दर्शनावरणीयं प्रेतस्य का प्रकृतिः दर्शनप्रानता किंवत् राजद्वार- प्रदिनियुक्त प्रवीहारवत् ।" जो दर्शन का आवरण करें, वह दर्शनावरसीय है। उसकी क्या प्रकृति है ? दर्शन को ढांकना उसका स्वभाव है। किस प्रकार ? यह राजद्वार पर नियुक्त द्वारपाल के समान है ।
वेदनीयं
वेदनीय - [["वेदयतीति तस्य का प्रकृतिः ! सुख-दुखोत्पादना, कि वत् ? मघुलिप्तासिधारावत्" -- जो अनुभवन करावे, वह वेदनीय है। उसका क्या स्वभाव है ? सुख-दुःख उत्पन कराना उसका स्वभाव है। किस प्रकार ? मधु लिप्त तलवार की धार के समान उसका स्वभाव है । मधु द्वारा सुख प्राप्त होता है, तलवार की धार द्वारा जीभ को क्षति पहुंचने से क भी होता है ।
यह
मोहनीय -- "मोहयतीति मोहनीयं तस्य का प्रकृतिः १ मोहोत्पादना । किंतू ? मद्य धत्तूर मदनको द्रववत् " - जो मोह को उत्पन्न करे, मोहनीय है। उसका क्या स्वभाव है ? मोह को उत्पन्न करना । किस प्रकार ? मदिरा, धतूरा तथा मादक कोदों के समान वह मादकता उत्पन्न करता है। राजवार्तिक में मोहनीय की निरुकि इस "मोहयति, मुझते अनेनेति या मोहः" जो मोहित करता है द्वारा जीव मोहित किया जाता है, वह मोह है ।
प्रकार की है, अथवा जिसके
आयु — "भवधारणाय एति गच्छतीति आयु: 1 तस्य का प्रकृतिः ? भवधारणा किंवत् १ हलिवत्"- -भव अर्थात् मनुष्यादि की पर्याय को धारण करने को उसके उदय से जीव जादा है, इससे उसे वायु कहते हैं । उसकी क्या प्रकृति है ? भव को धारण करना। किस प्रकार ? जिस प्रकार इलि अर्थात् का के यंत्र में पैर को फंसाकर नियव