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काल तक पंडित व्यक्ति पराधीन बनता है, उसी प्रकार पर्याय विशेष में नियत काल पर्यन्य जीव पराधीन रहा भावा है ।
नाम--"नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृत्तिः १ नर-नारकादिनानाविध विधिकरणता किंवत् ? चित्रकवत् । " - नाना प्रकार के कार्य को संपादन करे सो नाम है। इसकी क्या प्रकृति ? जिस प्रकार चित्रकार नाना प्रकार के चित्र निर्माण करता है, eसी प्रकार यह नर नारकावि रूपों को जनसागर जी महाराज मार्गदर्शक :- आचार्य श्री
गोत्र / उच्चनीचं गमयतीति गोत्रं तस्य का प्रकृतिः ? उचनीचत्व प्रापकता । किवत् ? कुंभकारवत्। " जो उच्च नोचपने को प्राप्त करावे वह गोत्र है । उसकी क्या प्रकृति है ? उच्चता. नीचता को प्राप्त कराना । किस प्रकार ? कुंभकार के समान । जैसे कुंभकार छोटे बड़े बर्तन बनाया है, उसी प्रकार यह कर्म नीच, ऊंच भेद का जनक है
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अंतराय दातु पात्रयोरंतर मेतीति अंतरायः ] तस्य प्रकृतिः ? विघ्नकरसता किंवत् ? भांडागारिकवत् । " दाता तथा पत्रि के मध्य जो श्रावे, वह अंतराय है। उसकी क्या प्रकृति है ? विघ्न उत्पन्न करना। किस प्रकार ? जैसे भंडारी देने में विन करता है, इसी प्रकार यह पात्र के द्रव्य लाभ में विघ्न उत्पन्न करता है । दाता ने आज्ञा दे दी, कि पात्र को दान दे दिया जाय, किन्तु भण्डारी देने में विघ्न उत्पन्न करता है ।
इस प्रकार छठ कर्मों का स्वरूप समझना चाहिये ।
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ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ओव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनंतवीर्य रूप मनुजीवी गुणों का घात करने के कारण घातिया कर्म कहे गए हैं। आयु. नाम, गोत्र तथा वेदनीय अघातिया कहे गए हैं, कारण इनके द्वारा अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्यावाघत्व रूप प्रतिजीवी गुणों का घाव होता है। इनके संके चार भेद कहे गए हैं:
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स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंश - विकल्पनम् ।
कर्मों का नामानुसार जो स्वभाव है, वह प्रकृति है । उनका मर्यादित काल पर्यन्त रहना स्थिति है। उनमें रसदान की शक्ति का सद्भाव अनुभाग है तथा कर्म वर्गमाओं के परमाणुओं की परिगयाना