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________________ (FE) मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मोघ की अपेक्षा लोभ, माया, क्रोत्र और मान कषाय में इस अवस्थितरुप परिपाटी से असंख्यात अपकर्षो श्रर्थात् परिवर्तनवारों के बीत जाने पर एक बार लोभकषाय के उपयोग का परिवर्तनवार ( भागरिसा) अतिरिक्त होता है । 'एत्थागरसा ति वृत्त परिट्टणवारी ति गय" -- मनुष्यों और तियंचों के पहिले एक अंतर्मुहूतं पर्यन्त नोभ का उपयोग पाया जायगा । पुनः एक अंतर्मुहूर्त पर्यन्त माया कपायरुप उपयोग होगा । इसके पश्चात् अंतर्मुहूतं पर्यन्त क्रोध कषायरूप उपयोग होगा । इसके अन्तर अंतमुहूर्त पर्यन्त मान कषायरूप उपयोग होगा । इस क्रम से प्रसंख्यातवार परिवर्तन होने पर पीछे लोभ, माया, क्रोध और मानरुप होकर पुनः लोभ कषाय से उपयुक्त होकर माया कषाय में उपयुक्त जीव पूर्वोक्त परिपाटी क्रम से क्रोध रूप से उपयुक्त नहीं होगा, किन्तु लोभ कपायरुप उपयोग के साथ अंतर्मुहूर्त रहकर पुनः माया कषाय का उल्लंघन कर क्रोध कषायरुप उपयोग को प्राप्त होगा । तदनंतर मान रूप होगा। इस प्रकार क्रोध, मान, मांया तथा लोभ इन चारों कषायों का उपयोग परिवर्तन असंख्यात वार व्यतीत हो जाने पर पुनः एक बार लोभकषाय संबंधी परिवर्तनवार अधिक होता है। "असंखेज्जेसु लोभाग रिसेसु प्रदिरेगेसु गदेसु कोवारिसेहि मायागरसा श्रादिरेगा होइ" (१६२३) - उक्त प्रकार से प्रसंख्यात लोभकषाय संबंधी अपकर्षो (परिवर्तनवारों) के प्रतिरिक्त हो जाने पर क्रोध कषाय सम्बन्धी अपकर्ष ( परिवर्तनवार) अधिक होता है। असंख्यात माया अपकर्षो के अतिरिक्त हो जाने पर मान अपकर्ष की अपेक्षा क्रोध प्रपकर्ष अधिक होता है । "असंखेज्जेहि मायागरिसेहिं प्रदिरेगेहि गदेहिं माणागरिसेहि कोधारिसा आदिरेगा होदि (१६२४ ) " ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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