SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री इंद्रप्रभु दिशपर जन माला ( १२६ ) जामगांव जि. गुडाणा विशेष-दर्शनमोह का उपशम करने वाले के असातावेदनीय, स्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति शोक, 'चार प्रायु. नरकगति, चार जाति, पंचसंस्थान, पंचसंहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्राताप, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, अयश:कीति ये प्रकृतियां पूर्व ही बंध-व्युच्छित्ति को प्राप्त होती है । दर्शन मोह के उपशामक के ये प्रकृतियां उदय से व्युच्छिन्न होती हैं :--पंच दर्शनावरण, एकेन्द्रियादि चार जाति नामकमं, मार्गदर्शकर ग्रामी, प्राविशारजासूदाअपर्याप्त, साधारण शरीर नाम कर्म की उदय व्युच्छित्ति होती है। 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहि' इस गाथा के अंश की विभाषा करते हैं। इस समय अधःप्रवृत्तकरण के अन्त रकरण अथवा दर्शन मोह का उपशामक नहीं होता है । प्रागे अनिवृत्तिकरण काल में अन्तरकरण तथा दर्शन मोह का उपशमन होता है । "उवसामगो वा पुरदो होहदि त्ति ण ताव इदानीमंतरकरणमुपशमकत्वं वा दर्शनमोहस्य विद्यते किन्तुं तदुभयं पुरस्तादनिवृत्तिकरणं प्रविष्टम्य भविष्यतीति” (१७०६) किं हिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केस वा । अोवदूण सेसाणि कं ठाणे पडिवजदि ॥६४॥ दर्शन मोहनीय का उपशामक किस स्थिति तथा अनुभाग सहित कौन-कौन कर्मों का अपवर्तन करके किस स्थान को प्राप्त करता है तथा शेष कर्म किस स्थिति तथा अनुभाग को प्राप्त करते हैं ? विशेष—इस गाथा को विभाषा करते हैं। स्थितिघात संख्यात बहुभागों का घात करके संख्यातवें भाग को प्राप्त होता
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy