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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री रविक्षिसागर जी महाराज पस्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति बंध होता है। प्रथम स्थिति कांडक विषम होता है । जधन्य से उत्कृष्ट स्थिति कांडक का प्रमाण पल्योपम के संख्यातवें भाग में अधिक होता है । प्रथम स्थितिकांडक के नष्ट होने पर यतिवृषिकरण में समान काल में वर्तमान व जीवों का स्थिति सत्व तथा स्थिति कांडक समान होते हैं । श्रनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए मंत्र जीवों का द्वितीय स्थितिकiss से द्वितीय स्थितिकांडक समान होता है । यही क्रम तृत्तीय आदि स्थिति कांडकों में जानना चाहिये । श्रनिवृत्तिकरण में स्थितिबंध सागरोपम सहस्र पृथक्त्व है । स्थिति सन्वं सागरोपमशत सहस्र पृथक्त्व है । अपूर्वकरण में जो गुप श्रेणी निक्षेप था, उसके शेष शेष में ही यहां वह निक्षेर होता है। यहां सर्वकर्मों के प्रशस्तोपशामनाकरण निधत्तीकरण तथा निकाचनाकरण तीनों ही व्युच्छित्ति को प्राप्त होते हैं। प्रथम समयवर्ती प्रनिवृत्तिकरण के उपरोक्त आवश्यक कहे गए हैं। अनंतकाल में भी वे ही आवश्यक होते हैं। इतना विशेष है कि यहां गुणश्रेणी प्रसंख्यात गुणी है। शेष शेष में निक्षेप होला है । विशुद्ध भी अनंतगुणी होती है । जिस समय नाम और गोत्र का पत्योपम स्थिति प्रमाण बंध होता है, उस समय का उन दोनों का स्थितिबंध] स्तोक है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय का स्थितिबंध विशेषाधिक हैं। मोहनीय का स्थितिबंध विशेषाधिक है। अतिक्रांत स्थितिबंध इसी अल्पबहुत्व से व्यतीत हुए हैं । नाम गोत्र का पल्योपम की स्थिति वाला बंध पूर्ण होने पर जो अन्य स्थितिबंध है, वह संख्यातगुणा हीन होता है। शेष कम का स्थितिबंध विशेष-हीन होता है ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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