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________________ शंका--"अंतरं वा कहिं किच्चा के के संक्रामगो कहि नि" कहां पर अन्तर करके किन किन कर्मों का कहां पर संक्रमण करता है ? समाधान—यह अधः प्रवृत्तकरण-संयत यहां पर अन्तर नहीं करता है । यह अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर अन्तर करेगा । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रश्न-"किं ट्ठिदियाणि अणुभागेसु केसु वा प्रोवट्ट यूण सेसाणि कं ठाणं पडिवजदि"-वह किस किस स्थिति और अनुभाग युक्त किन किन कर्मों का अपवर्तन करके किस किस स्थान को प्राप्त करता है और शेष कर्म किस स्थिति तथा अनुभाग को प्राप्त होते हैं ? समाधान-यहाँ स्थिति घात तथा अनुभागघात सूचित किए गए हैं। इससे अधःप्रवृत्तकरण के चरम समय में वर्तमान कर्मक्षपणार्थ तत्पर जीव के स्थितिघात तथा अनुभागघात नहीं होते हैं किन्तु उसके पश्चात् वर्ती समय में दोनों ही घात प्रारंभ होंगे। अपूर्वकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट क्षपक के द्वारा स्थिति कांडक तथा अनुभाग कांडक घात करने के लिए ग्रहण किए गये हैं । यह अनुभाग कांडक अप्रशस्त कर्मों के बहुभाग प्रमाण है। अपूर्वकरण में जघन्य प्रथम स्थितिकांडक स्तोक ( अल्प ) हैं । उत्कृष्ट स्थितिकांडक संख्यात गुणे हैं । यह उत्कृष्ट पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण है । अपूर्वकरण में प्रथम स्थिति कांडक जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों ही पल्योपम के संख्यातवें भाग हैं "जण्हणयं पि उक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेजदिभागो" (पृ. १९४९) अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण अन्य स्थितिकांडक होता है । अन्य अनुभाग कांडक भी होता है । वह घात से शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभाग प्रमाण है ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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