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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यिासागर जी महाराज
इस विषय में टीकाकार कहते हैं, "प्राथमिकापेक्षया सविकल्पावस्थायां विषयकापायवंचनार्थ चित्तस्थिरीकरसार्थ पंचपरमेष्ट्यादि-परद्रव्यमपि ध्येयं भवति, पश्चादभ्यासघशेन स्थिरीभूते चित्ते सति शुद्धबुद्धकस्वभाव-निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयमित्युक्तं भवति ।" (२१६ पृष्ठ) कषायों को दूर करने को तथा चित्त को स्थिर करने के लिये पंचपरमेष्ठी
आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं। इसके पश्चात् अभ्यास हो जाने पर चित्त के स्थिर होने पर शुद्ध तथा बुद्ध रूप पक स्वभाव सहित अपनी शुद्ध आत्मा का स्वरूप ही ध्येय हो जाता है। श्रेष्ठ ध्यान के विषय में आचार्य कहते हैं :
मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि स्त्रो इणमेव परं हवे झाणं ||५६॥
- हे भव्य ! कुछ भी शरीर की चेष्टा मत कर; कुछ भी वचनालाप मत कर, कुछ भी संकल्प विकल्प चितवन मतकर। इससे आत्मा स्थिर दशा को प्राप्त होकर स्वयं अपने रूप में लीनता को प्राप्त होगा। यही उत्कृष्ट ध्यान है।
___"आत्मा योगत्रय-निरोधेन स्थिरी भवति"-आत्मा मन, वचन, काय की क्रियाओं के रुकने पर अर्थात् योग निरोध होने पर जो स्थिर अवस्था को प्राप्त करता है वही शुक्लध्यान का चतुर्थ भेद समुच्छिन्नक्रिया निवृत्ति नाम का श्रेष्ठ ध्यान है। इसमें ही अत्यन्त अल्पकाल में समस्त कर्म भस्म हो जाते हैं। "तदेव निश्चय-मोक्षमार्ग स्वरूपम्" वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। इसी अवस्था को इन पवित्र शब्दों में स्मरण करते हैं, "वदेव परब्रह्मस्वरूप, तदेव परमविष्णुस्वरूपं, तदेव परम-शिवस्वरूपं, तदेव परम बुद्धस्वरूपं, तदेय परम जिनस्वरूपं, तदेव सिद्धस्वरूपं सदेच परमतत्वज्ञानं, तदेव परमात्मनः दर्शनं, तदेव परमतत्वं, सैघ शुद्वात्मानुभूति, तदेव परमज्योतिः, स एव परमसमाधिः स एवं शुद्धोपयोगः स एव परमार्थः स एव समयसार, तदेव परमस्वास्थ्य, उदेव परमसाम्य, सदेव परमैकत्वं तदेव परमाद्वैत' (पृ. २२१-२२२)
इस ध्यान की प्राप्ति के लिए उप, श्रुत तथा व्रत समन्वित जीवन आवश्यक है । “तव-सुद-वदर्घ चेदा मासरह-धरंधरो हवे" (ड्रव्यसंग्रह ५७) जो पुरुष पाप परिपालन में प्रवीण हैं, दुर्व्यसनों के आचार्य है, तथा सदाचार से दूर है, वे ध्यान के पावन-मंदिर में प्रवेश पाने के भी अनधिकारी हैं। मार्जार सदा हिंसन कार्य में ही निमग्न रहती है अतः उसे स्वप्न में भी हिंसा का हो दर्शन होता है, इसी प्रकार दुराचरण वाला व्यक्ति निर्मल ध्यान के स्थान में मलिन मनोवृत्ति को