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________________ ( १११ ) उपरितन अनंतबहभाग सर्वधाती है तथा अधस्तन जो एक अनंतवां भाग है, वह देशघाती है। एसो कमो य माणे मायाए णियमसा दु लोभे वि । सव्वं च कोहकम्मं चदुसु ट्ठाणेसु बोद्धव्यं ॥२०॥ यही क्रम नियम से मान, माया, लोभ और क्रोध कपाय संबंधी चारों स्थानों में पूर्णतया जानना चाहिए। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज एदेसि ट्ठाणाणं कदमं ठाणं गदीए कद मिस्से । बद्धं च बम्झमाणं उवसंतं वा उदिएणं वा॥८॥ इन पूर्वोक्त स्थानों में से कौन स्थान किस गति में बद्ध, वध्यमान, उपशांत अथवा उदीर्ण रुप में पाया जाता है। सगणीसु असणीसु य पज्जत्ने वा तहा अपज्जत्ते । सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेव बोधव्वा ॥८॥ पूर्वोक्त सोलह स्थान यथासंभव संशियों में, असंज्ञियों में, पर्याप्प में, अपर्याप्त में, सम्यक्त्व में, मिथ्यात्व में तथा मिश्र में जानना चाहिये। ५ विशेष- "एत्थ सण्णीसु असणीसु च इन्चेदेण मुनावरण मणिमगणा पयदपस्वणा-विसेसिदा गहिया ।" "पज्जते वा तहा अज्जत एदेणवि सुत्तावयवेण काय-इंदियमग्गाणं संगहो कायब्बो, सम्मत मिच्छत्त एदेण वि गाहापच्छद्धण सम्मत्तमरगणा सूचिदा" ( १६८२) । यहां 'संज्ञी असंज्ञो पदों से' संजी मार्गणा रुप प्रकृत प्ररुपणा को विशेष रुप से लिया है । 'पर्याप्त तथा अपर्याप्त' इस सूत्रांश से काय और इंद्रिय मार्गणा का संग्रह करना चाहिये । 'सम्यक्त्व
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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