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________________ ( समर्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज संधीदोसंधी पुण अहिया णियमा होइ अणुभागे। हीणा च पदेसग्गे दो वि य णियमा विसेसेण ॥७॥ . विवक्षित संधि से अग्निम संधि अनुभाग की अपेक्षा नियम मे अनंतभागरुप विशेष से अधिक होती है तथा प्रदेशों को अपेक्षा नियम से अनंतभाग से हीन होती है। विशेष-विवक्षित कषाय की विवक्षित स्थान की अंतिम वर्गणा तथा उससे आगे के स्थान की प्रादि वर्गणा को सधि कहते हैं। उदाहरणार्थ "लदासमाणचरिम-वग्गणा दारुप्रसमाण पढमवगणा च दो वि संधि त्ति वुच्चंति" लता समान अंतिम बर्गणा तथा दारु समान प्रथम वर्गणा इन दोनों को संधि समान कहते हैं । "वं सेससंधीणं अत्थो बत्तब्वो" ( १६८०) इसी प्रकार शेष संधियों का अर्थ कहना चाहिये। विवक्षित पूर्व संधि अनुभाग की अपेक्षा नियम से अनंतभाग से अधिक होती है, किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा नियम से अनंतभाग से हीन होती है। जैसे मान कषाय के लता स्थान को अंतिम वर्गणा रुप संधि से दारु स्थान की प्रादि वर्गणा रुप मंधि अनुभाग की अनंत भाग से अधिक है किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा अनंत भाग से हीन है। यही नियम क्रोध, मान, माया तथा लोभ के सोलह स्थान संबंधी प्रत्येक संधि पर लगाना चाहिये। सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होई दारुमसमारणे । हेहा देसावरणं सव्वावरणं च उरिल्लं ॥७॥ दारु समान स्थान में जो उत्कृष्ट अनुभाग के अंश हैं, वे सर्वघाती हैं । उससे अधस्तन भाग देशधाती है तथा उपरितन भाग सर्वघाती है। विशेष-अस्थि और शैलस्थानीय अनुभाग सर्वघाती है तथा लता स्थानीय अनुभाग देशघाती है। दारु स्थानीय अनुभाग में
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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