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________________ ( १३८ ) मिच्छत्तवेदणीयं कम उवसामगस्स बोन्द्वव्वं । उवसंते आसाणे तेण पर होइ भजियव्वो ॥६॥ उपशामक के मिथ्यात्व वेदनीय कर्म का उदय जानना चाहिये । दर्शन मोह के उपशमन की अवस्था के अवसान होने पर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है। विशेष-मिथ्यात्ववेदनीय का अर्थ उदयावस्था को प्राप्त मिथ्यात्व कर्म है। "वेद्यते इति वेदनीयं मिथ्यात्वमेव वेदनीयं मिथ्यात्ववेदनीयं उदयावस्थापरिणतं मिथ्यात्वत्रर्मेति यावत्" (१७३१) दर्शन मोह के उपशामक के जब तक अंतर प्रवेश नहीं होता, तब तक मिथ्यात्व का उदय पार्शजीता हाचापशमै सम्यिवसागर जी म्हा काल में मिथ्याल्व का उदय नहीं होता । उपशम सम्यक्त्व का काल नष्ट होने पर यदि सासादन या मिश्रगुणस्थान को अथवा वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, तो उसके मिथ्यात्य का उदय नहीं होगा । यदि वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है, तो उसके मिथ्यात्व का उदय होगा। इससे मिथ्यात्व का उदय भजनीय कहा है। सव्वेहि द्विदिविसेसेहिं उवसंता होंति तिरिण कम्मंसा। एक्कम्हि व अणुभागे णियमा सव्वे टिदिविसेसा ॥१०॥ ___दर्शनमोह के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व रूप त्रिविध कौश दर्शन मोह के उपशान्त काल में सर्वस्थिति विशेषों के साथ उपशान्त अर्थात् उदय रहित होते हैं । एक ही अनुभाग में उन तीनों कर्माशों के सभी स्थिति विशेष नियम से अवस्थित रहते हैं। विशेष--यहां तिण्णि कम्मंसा' कहने का भाव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व को ग्रहण करना चाहिए।" एत्थ तिषिण
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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