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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
विशेष-~दर्शनमोहोपशमना का प्रस्थापक साकार उपयोगी रहता है। इससे यह सूचित किया गया है कि जागृत अवस्था युक्त सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रायोग्य है । १ निद्रा परिणाम परिणत जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य विशुद्ध परिणामों के पाए जाने का विरोध है।
२ दर्शन मोह को उपशामना में उद्यत जीव अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रस्थापक कहा गया है ।
प्रश्न-यहां गाथा में प्रागत 'मझिम' शब्द के विषय में शंकाकार पूछता है "को मज्झिमो णाम ?"
उत्तर--"पट्ठवग-णिटुवग-पज्जायाणमंतरालकाले पयट्टमाणो मझिमो ति भण्णदे-" दर्शनमोह के प्रस्थापक और निष्ठापक पर्यायों के मध्यवर्ती काल में प्रवर्तमान जीव को मज्झिम अथवा मध्यम कहा गया है।
यह मध्यवर्ती जीव ज्ञानोपयोगी तथा दर्शनोपयोगी भी हो सकता है। . लेश्या के विषय में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि तिर्यंचों तथा मनुष्यों में कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्या में सम्यक्त्व को उत्पत्ति का प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि विशुद्धि के काल में अशुभत्रिक लेश्या के परिणामों का सद्भाव असंभव है। नारकियों में प्रशुभत्रिक लेश्याओं का ही अस्तित्व कहा है, इस कारण "ण तत्थेदं सुत्तं पयट्ठदे" उनमें इस सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है। "तदो तिरिक्ख-मणुस बिसयमेवेदं सुत्तमिदि गहेयन्वं"-यह सूत्र तिर्यंच तथा मनुष्य विषयक है, यह बात ग्रहण करनी चाहिये।
१ णिहापरिणामस्स सम्मत्त प्पत्ति-पाप्रोग्गविसोहि परिणामेहिं विरुद्ध-सहावत्तादो ।
२.दसणमोहोपवसामणमाढवतो अधापवत्तकरणपढमसमयप्पटुडि अंतोमुहुत्तमेत्तकालं पट्टबगो णाम भवदि ।। १७३० ॥