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( २४६ । अंसमुहुतं होते हुए भी प्रायु की अपेक्षा तीन कर्मों की स्थिति संख्यातगृणित होती है । चमिक :- असियमी सुप्राचार्यगर जी महाराज कहते हैं "संखेज्जगुणमाउादो"--नाम, गोत्र और वेदनीय की स्थिति प्रायु की अपेक्षा संख्यात गुणी होती है। । ___पंचम समय में आत्म-प्रदेश संकुचित होकर प्रतूर रुप होते हैं। इस प्रतर का नाम मंथन अर्थ-विशेष युक्त है, "मथ्यतेऽनेनकर्मेति मंथः," ( २२८० ) इसके द्वारा कर्मों को मंथित किया जाता है, इससे इसे मंथ कहा गया है। छठवें समय में कपाट सातवें में दण्ड तथा पाठवें समय में प्रात्मप्रदेश पूर्व शरीर रूप हो जाते हैं। जयधवला में उपरोक्त कथन को खुलासा करने वाले ये पद्य दिए हैं। * दण्ड प्रथमे समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये ।
मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ संहरति पंचमे त्वन्त राणि मंथानमथ पुनः एष्ठे । सप्तमके च कपाट संहरति ततोष्टमे दण्डं ||
कोई कोई प्राचार्य समुदघात संकोच के तीन समय मानते हैं । वे अंतिम समय की परिगणना नहीं करते। कितने ही प्राचार्य अंतिम समय को मिलाकर संकोच के चार समय कहते हैं ।
१ घवलाटीका में लिखा है कि यतिवृषम प्राचार्य के कथनानुमार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सम्पूर्ण अघातिया
१ यतिवृषभोपदेशात् सर्वाषातिकमणां क्षीणकवायचरमसमये स्थितेः साम्याभावात् सर्वपि कृतसमुद्घाताः सन्तो निवृत्तिमुपढौकन्ते। येषामाचार्याणां लोकव्यापी केवलिषु विशतिसंख्या नियमरतेषां मतेन केचित् समुद्भवातयंति । केचिन्नसमुद्रघातयंति ।
के न समुद्यातयंति ? येषां संसृतिव्यक्तिः कर्मस्थित्या समाना ते न समुदघातयन्ति । शेषाः समुदधातयंति । ध०टी०भा० १पृ० ३०२