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________________ ( १०८ ) : विशेष-प्रत्यंत तीव्र लोभ को कृमिराग सदृश कहा है ? कृमिराग कोट विशेष है। वह जिस रंग का आहार करता है, उसी रंग का अत्यंत चिकना डोरा वह अपने मल द्वार से बाहर निकालता है । उसका जो वस्त्र बनता है, उसका रंग कभी भी नहीं छूटता है । इसी प्रकार तीव्र लोभ का परिणाम होता है। उसकी अपेक्षा न्यूनता युक्त लोभ को गाड़ी के प्रोगन समान कहा है। गाड़ी का आँगन वस्त्रादि पर लगने पर कठिनता से छूटता या। उसोनालोखामांसासाराथलि लेप सदृश होता है। हल्दी का रंग शीघ्र छूटता है तथा धूप आदि से वह शीघ्र दूर हो जाता है, इस प्रकार मंदता युक्त जो लोभ है, उसे हारिद्र सदृश कहा है। एदेसि हाणाणं चदुस कसाएस सोलसरह पि । कं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदेसग्गे ॥७॥ इन अनंतर प्रतिपादित चारों कषायों संबंधी सोलह स्थानों में स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की अपेक्षा कौन स्थान किससे अधिक होता है ( अथवा कौन स्थान किससे हीन होता है ?) माणे लदासमाणे उक्कस्सा वग्गणा जहरणादो। हीणा च पदेसग्गे गुरणेण णियमा अण्णतेण ॥७५।। __ 'लता समान मान में उत्कृष्ट वगंणा ( अंतिम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा ) जघन्य वर्गणा से (प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा) प्रदेशों की अपेक्षा नियम से अनंतगुणीहीन है। १ कृमिरागो नाम कीटविशेषः । स किल यद्वर्णमाहारविशेषमभ्यवहार्यते तद्वर्णमेव सूत्रमति श्लक्ष्णमात्मनो मलोत्सर्गद्वारेणोत्सृजति, तत्स्वाभाव्यात् । लोभपरिणामोपि यस्तीव्रतरो जीवस्य हृदयवर्ती न शक्यते परासयितु स उच्यते कृमि रागरक्तसमक इति ( १६७७)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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