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________________ ( १६८ ) ति बि" यहां प्रकरणोपशामना तथा देशकरणोपशामना से प्रयोजन नहीं है-"प्रकरणोवसामणाए देसकरणोवसामणाए च एत्थ पोजणाभावादो त्ति” (१८७४) यहां कसायोपशामना की प्ररुपणा के अवसर पर सर्वकरणोपशामना प्रकृत है । प्रश्न- "उपनिवेकिस्त महामिरविधिकस किसकमका उपशमन होता है ? समाधान-“मोहणीयवजाणं कम्माणं पत्थि उवसामो" -मोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों में उपशामना नहीं होती है। प्रश्न- इसका क्या कारण है ? ___समाधान—“सहावदो चैव"-ऐसा स्वभाव है। ज्ञानावरणादि कर्मों में उपशामना परिणाम संभव नहीं है । उन कमों में अकरणोपशामना तथा देशकरणोपशामना पाई जाती हैं, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि यहां प्रशस्तकरणोपशामना का प्रसंग है ॥ इससे शेष कर्मों का परिहार करके मोहनीय की प्रशस्तोपशामना में उपशामक होता है, यह जानना चाहिए। मोहनीय में भी दर्शनमोह को छोड़कर चारित्रमोहका ही उपशामक होता है, यह बात यहां प्रकृत है । (१२८) चूणिसूत्रकार कहते हैं "दंसणमोहणीयस्स वि त्थि उवसामो" दर्शनमोह का उपशम नहीं होता है। इस विषय में यह स्पष्टीकरण ज्ञातव्य है, कि इस प्रकार दर्शनमोह के उपशम की विवक्षा नहीं की गई हैं 1 "तदो संते वि दंसणमोहणीयस्स उपसमसंभवे सो एल्थ ण विवविखनो ति एसो एदस्स भावत्यो" ( १८७५ ) ___ "अगंताणुबंधीणं पि गथि उवसामो"-अनंतानुबंधी में भी उपशम नहीं है। इसका कारण यह है, कि पहिले अनंतानुरंधी का
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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