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सत्तय छक्कं परागं च एक्कयं चेव आणुपवीए । विदिय - कसायोवजुत्तेसु ॥५४॥
एदे सुसाट ठाणा मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज द्वितीय अर्थात् मान कषायोपयुक्तों के सात, छह, पांच, एक प्रकृतिक शून्य स्थान हैं। इस प्रकार आनुपूर्वी से शून्य स्थान कहे गए हैं।
विशेष :- यहां मात्रा और लोभकषाय के शून्य स्थानों का कथन नहीं किया गया, क्योंकि दो कषायों में सभी संक्रम स्थान पाये जाते हैं । इस कारण उनमें शून्य स्थानों का सद्भाव है - सेदोका एस पत्थि एसो विचारो सवेसिमेव संकमद्वाणाण तत्थासुणावणादो" ( १००९ )
दिट्ठ सुखासु वेदकसाए सु देव द्वासु । मग्गा - गवेसणाए दु संकमो श्राणपुच्चीए ॥ ५५ ॥
इस प्रकार वेद तथा कषाय मार्गणाओं में शून्य तथा शून्य संक्रम स्थानों के दृष्टिगोचर होने पर शेष मार्गणाओं में भी आनुपूर्वी से मार्गणाओं की गवेषणा करना चाहिए ।
कम्मं सियट्ठाणेसु य बंधट्टासु संकमद्वाणे । एक्केकेण समाय बंधेण य संकमहारणे ॥ ५६ ॥
कर्माशिक स्थानों में ( मोहनीय के सत्व स्थानों में ) तथा बंध स्थानों में संक्रम स्थानों की प्रन्वेषणा करनी चाहिये । एक एक बंध स्थान और सत्वस्थान के साथ संयुक्त संक्रम स्थानों के एक संयोगी तथा द्विसंयोगी भंगों को निकालना चाहिये ।
विशेष :- "कम्मंसियट्ठाणाणि नाम संतकम्मट्टाणाणि " (१०१०) कर्माशिक स्थानों को सत्कर्म स्थान कहते हैं । मोहनीय के सत्व स्थान अट्ठाईस सत्ताईस, छव्वीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस,
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