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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( २३ ) को नहीं प्राप्त होता है । उनका आत्मा के साथ साथ संबंध होने के लिए यह आवश्यक है कि वे उपरोक्त पंच प्रकार की वर्गणाओं के रूप में परिणत हो । प्रवचनसार में कहा है :परिणमदि जदा अप्पा सुइम्मि असुहाम्म रागदोसजुदो। तं पक्सिदि कम्मरय गाणावरणादि - भावेहि ॥५॥ ="0 जय राग-द्वेष युक्त पारमा शुभ तथा अशुभ कार्यों में प्रवृत्त होता है, तब कर्म रूपी धूली ज्ञानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करती है। यहाँ कंदकंद स्वामी ने कर्म को धूलि सदृश प्रताया है। तैल लिप्त शरीर पर जिस प्रकार धूलि चिपक जाती है। उसी प्रकार रागादि से मनिन मात्मा के साथ कर्म रूपी रज का बंध होता है। पुद्गल के परमाणु स्निग्धपना तथा रुक्षपना के कारण परस्पर बंध अवस्था को प्राप्त कर इस विश्व में विविध रूपता का प्रदर्शन करते हैं। अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं, कि दो अणु आदि अनंतानंत परमाणु युक्त पुद्गलों का कर्ता जीव नहीं है । वे परमाणु ही स्वयं उन अवस्थाओं के उत्पादक हैं। 'अतोऽवर्धायने दूयणुकाधनन्तानंत-पुद्गलानां न पिण्डकी पुरुषोस्वि" इस विश्व में सर्वत्र सूक्ष्म तथा स्थूल पर्याय परिणत अनन्तान्त पुद्गलों का सझाव पाया जाता है । "ततोऽषोयते न पुद्गल पिण्डानामानेदा पुरुषोस्ति'इससे यह निश्चय किया जाता है कि पुद्गल पिएका को लाने वाला पुरुष नहीं है। ये पुदूगल बिना बाधा उत्पन्न किये ही समस्त लोक में पाय जाते हैं। "जैसे नवीन मंघ के जल का भूमि से संबंध होने पर पुदगलों का स्वयमेव दूर्वा, विविध कीटादि रूप परिसमान होता है, इसी प्रकार जिस समय यह आत्मा राग तथा द्वेषयुक्त हो शुभ तथा अशुभ भावों से परिपत होता है उस समय आत्म प्रदेश परिस्पंदन रूप योग के द्वारा प्रवेश को प्राप्त कम रूप पुद्गल स्वयमेव विचित्रवाओं को प्राप्त झानावरणादि रूप से परिमत होते हैं। इससे अमृतचन्द्र सूरि यह निष्कर्ष निकालते हैं, "स्वभावकृतं कर्म वैचित्र्य न पुनरात्मकृतम्"-कर्मों की विचित्रदा स्वभाव जनित है। बद प्रात्मा के द्वारा उत्पन्न नहीं की गई है। प्रात्मा और पुद्गल के कर्म पर्याय रूप परिणमन करने में निमित्त नैमित्तिकपना पाया जाता है। जीव और पुद्गल द्रव्य पूर्णतया पृथक हैं। उनमें उपादान-उपादेयता का पूर्णतया अभाव है। भाचार्य अकलंकदेव 'मोगाद-गाढ़ णिचिदो पोग्गलकाएहिं सम्वदो लोगो। सुमेदि बादरेहिं यसपारम्गेहिं जोग्गेहिं ॥१६॥ प्रव. सा.
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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