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चतुष्ककी विसंयोजना हुए बिना दर्शन मोहको क्षपणा की प्रस्थापना नहीं होती है । इमसे अनंतानुबंधी चतुष्क को दिसंयोजना करने वाला वेदक सम्यक्त्वी , असंयत, देशसंयत, प्रमत्त संयत वा अप्रमत्त संयत सर्वविशुद्ध परिणाम से दर्शनमोहकी क्षपणा में प्रवृत्त होता है यह जानना चाहिए । तम्हा विसंजोइदाणताणुबंधिच उक्को वेदगसम्माइली असंजदो संजदासंजदो पमत्तापमत्ताणमणदरो संजदो वा सवबिसुद्धण परिणामेण दसणमोहकववणाए पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं (१७४०)
दर्शनमोहको क्षपणा के विषय में विशेष परिनानार्थ सत्यरुपणा, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागाभाग तथा अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोग द्वार इस गाथा द्वारा सूचित किए गए हैं-"एदोए खीणदंसणमोहाणं जीवाणं पमाण-पदुप्पायणदुवारेण संतादिअट्ठाणियोगदारेहिं परुवणा सूचिदा" । (१७३९)...
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज