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( १७३ ) चारित्र-मोहलपणा अनुयोगद्वार
कषायोपशामना प्ररुपणा के पश्चात् चारित्र मोह की क्षपणा पर प्रकाश डाला गया है। यह चारित्र मोह की क्षपणा दर्शनमोह की क्षपणा से अविनाभाव संबंध रखती है। दर्शनमोह की क्षपणा अनंतानुबंधी की विसंयोजना पूर्वक होती है, कारण अनंतानुबंधी की विसंयोजना के अभाव में दर्शन मोह की क्षपणा की प्रवृत्ति को उपलब्धि नहीं पाई जाती है ।
चारित्र मोहनीय की क्षपणा में प्रधः प्रवृत्तकरण काल, अपूर्वकरण काल तथा अनिचिकरणाचाच ओ सीतों सागस्त महाराज सम्बद्ध तथा एकावलि रुप से विरचित करना चाहिये। इसके पश्चात् जो कर्म सत्ता में विद्यमान हैं, उनकी स्थितियों की पृथक रचना करना चाहिए। उन्हीं कर्मों के जघन्य अनुभाग संबंधी स्पर्धकों को जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक एक स्पर्धकावली रचना करना चाहिये।
प्रश्न--संक्रमण प्रस्थापक अर्थात् कषायों के क्षपण आरंभक के परिणाम किस प्रकार के होते हैं ?
समाधान- उसके परिणाम विशुद्ध होते हैं। कषायों का क्षपण प्रारंभ करने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व से अनंतगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होते हुए पा रहे हैं। कषायों का क्षपक अन्यतर मनोयोग, अन्यतर वचन योग तथा काययोग में औदारिक काययोग युक्त होता है।
उस क्षपक के चारों कषायों में से किसी एक कषाय का उदय पाया जाता है।
प्रश्न-उसके क्या वर्धमान कषाय होती है या होयमान होती है?