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( ११८ ) पृस्य सुरापीतस्येव मदनं मद;" जाति प्रादि के अहंकागविष्ट हो शराबी की तरह मत्त होना मद है। मद से बढ़े हुए अहंकार प्रकाशन को दर्थ कहा है। गर्व की अधिकता से सन्निपाताबस्था सदृश अमर्यादित बकना जिसमें हो वह स्तंभ है। इसी प्रकार उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष अभिमान के पर्यायवाची हैं । "तथो कर्षप्रकर्ष-समुत्कषा विजेयाः नेपामप्यभिमान-पर्यायित्वेन रूढत्वात्।" दूसरे कातिरस्कार पुचि सुचतीगहोकहासिक कहते हैं ।
स्तंभ - मद - मान - दर्प- समुत्कर्षोत्कर्ष-प्रकर्षाश्च । प्रात्मोत्कर्ष-परिभवा उत्सित्तश्चेति मानपर्यायाः ||
माया य सादिजोगो रिणयदी वि य वंचणा अणुज्जुगद।। गहणं मणुगण मग्गण कक्क कुहक ग्रहणच्छण्णा ॥॥ - माया, सातियोग, निकृति, बचना, अनजता; ग्रहण, मनोज्ञमार्गण,कल्क, कुहक, गृहन और छन्न ये माया कषाय के एकादश नाम हैं। - विशेष- कपट प्रयोग को माया कहते हैं "तत्र माया कपटप्रयोग:" कूट व्यवहार को सातियोग कहते हैं। "सातियोगः कूटव्यवहारित्वं ।" वंचना का भाव निकृति है 'निकृतिर्वचनाभिप्रायः" । विप्रलंभन को वंचना कहा है। योगों की कुटिलता अन्जुता है। दुसरे के मनोज्ञ अर्थ को ग्रहण कर उसे छुपाना ग्रहण है "ग्रहणं मनोज्ञार्थ परकीयमुपादाय नितवन ।" अंतरंग में धोखा देने के भाव को धारणकर अन्य के गुप्त भाव को जानने का प्रयत्न मनोज्ञमार्गण है । अथवा मनोज्ञ पदार्थ को दूसरे के विनयादि मिथ्या उपचारों द्वारा लेने का अभिप्राय करना मनोज्ञ-मागंण है । दंभ करना कल्क है 'कल्को दंभः।' मिथ्या मंत्र-तंत्रादि के द्वारा लोकानुरंजन पूर्वक आजीविका करना कुहक है । "कुहकमसद्ध तमंत्रतंत्रोपदेशादिभिलोकोपजीवनम् ।" अपने मनोगत मलिन भाव को