________________
मार्गदर्शक :- आचार्य
जी महाराज
प्रदेश-संक्रमाधिकार जो प्रदेशाग्र जिस प्रकृति से अन्य प्रकृतिको ले जाया जाता है, वह उस प्रकृति का प्रदेशाग्र कहलाता है-"जं पदेसग्गमण्णपर्याड णिज्जदे जत्तो पयडीदो तं पदेसम्गं णिज्जदि तिस्से पयडीए सो पदसमंक्रमो । ११९४ )। जैसे मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृति रुप में संक्रान्त किया जाता है, वह सम्यक्त्वप्रकृति के रुप में परिणत प्रदेशाग्र मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र संक्रमण है-''जहा मिच्छत्तल्स पदेसरगं सम्मत्त संछुददि तं पदेसगं मिच्छत्तस्स पदेससंकमो” ।
इस प्रकार सर्व कर्म प्रकृतियों का प्रदेशसंक्रमण जानना चाहिए "एवं सम्वत्थ"।
यह प्रदेश संक्रमण पांच प्रकार का है। (१) उद्वेलन, (२) विध्यात, (३) अधःप्रवृत्त (४) गुणसंक्रमण (५) सर्वसंक्रमण ये पांच भेद हैं।
यह बात ज्ञातव्य है, कि जिस प्रकृतिका जहां तक बंध होता है, उस प्रकृति रुप अन्य प्रकृति का संक्रमण वहां तक होता है; जैसे असाता वेदनीय का बंध प्रमत्तसंयतमुणस्थान पर्यन्त होता है अतः असाता वेदनीय रुप सातावेदनीय का संक्रमण छटवें गुणस्थानपर्यन्त होगा। सातावेदनीय का बंब मयोगों जिन पर्यन्त होता है। इससे सातावेदनीय रुप असाता बेदनीय का संक्रममा प्रयोदशगुणस्थान पर्यन्त होता है । मून प्रकृति में संक्रमण नहीं है। ज्ञानावरण दर्शनावरणादि रूप में परिवतित नहीं होगा। उत्तरप्रकृतियों में संक्रमण कहा गया है । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय में परस्पर संक्रमण नहीं कहा गया है। प्राय चतुष्क में भी परस्पर संक्रम नहीं होता है। यही बात प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड में कही है :
बंधे संकामिज्जदि जोबंधे पत्थि मूलपयडीणं । . सण-चरितमोहे पाउ-चउक्के ण संकमणं ॥ ४१० ॥