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षाला महाबंध शास्त्र चालीस हजार श्लोक प्रमाण है, जो प्राकृत भाषा में रचा गया है । बंध के मूल कारण क्रोधादि कषायों का वर्णन करने वाली रचना जयधवला साठ हजार श्लोक प्रमाण है । इत्यादि इस प्रकार के विपुल साहित्य के परिशीलन द्वारा यह अवगत हो जाता है. कि सर्वज्ञ होने के कारण जैन तीर्थ करों की कर्म सम्बन्धी देशना मौलिक, सारपूर्ण तथा वैज्ञानिक है। इस कर्म को सुस्पष्ट विवेचना से इस बात का हृदयग्राही समाधान प्राप्त होता है, कि परमात्मा को शुद्ध, बुद्ध, सवज्ञ, अनंत शक्ति सम्पन्न स्वीकार करते हुए भी उसका विश्व निर्माण तथा कर्म फल प्रदान कार्य में हस्तक्षेप न होते हुए किस प्रकार लोक व्यवस्था में बाधा नहीं आती।
- जैन दर्शन में कर्म-कर्म का स्वरूप समझने के पूर्व यदि हम इस विश्व का विश्लेषण करे, तो हमें सचेतन तथा अचेतन ये दो तत्त्व प्राप्त होते है । चैतन्य (Consciousness) अर्थात् ज्ञान-दर्शन गुणयुक्त धात्म नत्व है। आकाश, काल, गमन तथा स्थिति रूप परिवर्तन के माध्यम रूप धमें तथा अधर्म नाम के तत्व और पुद्गल (Matter) ये पाँच घचेतन द्रव्य हैं। इन छह द्रव्यों के समुद्रायरूप यह विश्व है। इनमें
आकाश, काल, धर्म और धर्म तो निष्क्रिय द्रव्य है। इनमें प्रदेशमार्गदर्शवंचल मेमवार्यपी सुनिष्किामाच ही रुलघु नाम के गुण के कारण घड़
गुणीहानि वृद्धि रूप परिणमनमात्र पाया जाता है। ऐसा न मान, तो द्रव्य फूटस्थ हो जायगी ।
जीव तथा पुद्गल में परिस्पंदात्मक किया प्रत्येक के अनुभव गोचर है । पंचाध्यायी में कहा है :
भाववन्तो क्रियावन्ती द्वावेतौ जीवपुद्गलौ । तो च शेषचतुष्कं च षडेते भावसंस्कृताः ॥ तत्र क्रिया प्रदेशानां परिस्पंदश्चलात्मकः । भावस्तत्परिणामास्ति धारावाह्य क-वस्तुनि ॥२।२५, २६॥
जोय तथा पुद्गल में भाववती और क्रियावती शक्ति पायी जाती है। धर्म, अधर्म, काश, काल, जीव और पुद्गल में भाववठी शक्ति उपलब्ध होती है। प्रदेशों के संचजनरूप परिस्पंदन फो क्रिया कहते हैं। धारावाही एक वस्तु में जो परिणमन पाया जाता है, उसे भाव कहा जाता है।
भाववन्तौ क्रियावन्ती च पुद्गलजीवी परिणाममात्रजमो भावः। परिस्पंदननक्षमा क्रिया । (प्रवचनसार टीका गाथा १२६)