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________________ चंद्रमा दिगबर न पाठशाला ( २३३ ) सामगांव जि. बुलडामा समयूणा च पविटा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥ २३१॥ । एक समाआवलीचादयावीशीराविरद्धोती है और जिस संग्रह कृष्टि का अपकर्षण कर इस समय वेदन करता है उस समय कृष्टि की संपूर्ण पावली प्रविष्ट होती है। इस प्रकार संक्रमणमें दो प्रावली होती हैं। ) विशेष-अन्य कृष्टि के संक्रामण क्षपक के पूर्व वेदित कृष्टि की एक समय कम उदयावली और वेद्यमान कृष्टि की परिपूर्ण उदयावलों इस प्रकार कृष्टिवेदक के उत्कर्ष से दो श्रावलियां पाई जाती हैं। वे दोनों प्रावलियां भी एक कृष्टि से दूसरी कृष्टि को संक्रमण करने वाले क्षपक के तदनंतर समय में एक उदयावली रुप रह जाती हैं। खोणेसु कसाएसु य सेसाणं के व होति वीचारा। खवणा व अखवगा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥ २३२ ॥ । कषायों के क्षीण होने पर शेष ज्ञानावरणादि कर्मों के कौन कौन क्रिया-विशेषरूप वीचार होते हैं ? क्षपणा, अक्षपणा, बन्ध, उदय तथा निर्जरा किन किन कर्मों को कैसी होती है ? संकामणमोवण-ट्टिीखवणाए खीणमोहंते।। खबगा य आणुपुवी बोद्धच्या मोहणीयस्स ॥ २३३ ॥ / मोहनीय के क्षीण होने पर्यन्त मोहनीय की संक्रमणा, अपवर्तना तथा कृष्टि क्षपणा रूप क्षपणाएं प्रानुपूर्वी से जानना चाहिये । विशेष - इस गाथा के द्वारा चरित्रमोहको क्षपणा का विधान आनुपूर्वी से किया है। इससे इसे संग्रहणी गाथा कहा है ! "संखेवेण परुवणा संगहोणाम"- संक्षेप से प्ररूपणा को संग्रह कहते " हैं। ( २२६८)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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