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भी महावीर ग्रंथ प्रकावमी-सम पुष्प
बाई अजीतमति
एवं उसके समकालीन कवि
[ १६ बी-१७ वो शताधि के अचिस, अज्ञात एवं मानिस पांच कवियों-बाई प्रीतमति, परिमल्स, धनपाल, भ० महेन्द्रकीति एवं देवेश के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ उनको सम्पूर्ण कृतियों के मूल पाठों
का प्रथम बार संकलन प्रकाशित ]
लेखक एवं सम्पादक डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
एच. ए., पीएच. डी., शास्त्री
प्रकाशक श्री महावीर ग्रंथ अकादमी जयपुर प्रथम संस्करण : प्रनस, १९८४
मूल्य ५०.००
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सम्पादक
-सा हीरालाल माहेश्वरी एम.ए., डी फिन, डी.लिट जयपुर
और डा० राजाराम जैन, एम.ए, पी-एच.डी साहित्याचार्य श्रारा
सा० गंगाराम गर्ग, एम.ए.पी-एच.डी. भरतपुर निदेशक मण्डल - परम संरक्षक-श्री भट्टारक चायकोतिजी महाराज, मुहबित्री संरक्षक- श्री साहू अशोक कुमार जैन, वेहली
श्री पूनमचन्द जैन, झरिया (बिहार) श्री रमेशचाव जैन (पी. एस जैन) देहली श्री डी. बीरेन्द्र हेगडे, धर्मस्पल श्री निर्मलकुमार केसी, ललना श्री महावीर प्रसाद सेठी, सरिया (बिहार) श्री कमलचम्म कासलीवाल, जयपुर दा० (श्रीमती) सरयू. वो दोशो, बम्बई श्री पन्नालाल सेठी, सीमापुर श्री रूपचन्द कटारिया, वेहली
श्रो हालचाद जैन, सागर अध्यक्ष - श्री शांतिलाल जैन, कलकत्ता कार्याध्यक्ष- श्री रतनलाल गंगवाल कलकत्ता भी पूरणचन्द गोडीफा, जयपुर उपाध्यक्ष. - सर्वश्री गुलाबचन्द गंगवाल, रेनवाल, भजितप्रसाव जैन ठेकेदार, देहली
कन्हैयालाल सेठी जपपुर. पदमनन्द तोतका अपपुर रतनलाल विनायल्या जीमापुर, त्रिलोकचन्द कोठारी, कोटा महावीरप्रसाद नपत्या जपपुर, विरंजीलाल वज, जयपुर रामचना रारा गया, लेखचन्द बाकलीवास, अपयुर रतनलाल विमायक्या भागलपुर, सम्मतकुमार सैन, कटक परमकुमार जैन नेपालगंज, ताराचन्द बशी, जयपुर रतनचन्द पंसारी जपपुर, भरसकुमारसिंह पाटोदों, अयपुर श्रीमती चमेसी बेबी कोठिया वाराणसी, शांतिप्रसाप जैम, बेहली घूपचन्द पाश्या जपपुर, ललितकुमार जैन, उरमन
मोहनलाल प्रग्रवाल जयपुर निदेशक एवं प्रधान सम्पादक- सस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर
श्री महावीर पंथ प्रकावमी ८६७ प्रमृत कलश
प्रतियां ११०० बरकत नगर, किसान माग टोंक फाटक, जयपुर-१५
मूस्य ५० रुपये मुद्रक-मनोज प्रिन्टर्स, जयपुर-३ फोन-६७६६७
प्रकाशक
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श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी
प्रगति परिचय
श्री महाबीर ग्रंथ अकादमी के प्रगति परिचय में मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि जिस उद्देश्य को लेकर अकादमी की स्थापना की गयी थी उसकी भोर वह निरन्तर आगे बढ़ रही है। प्रस्तुल पुष्प सहित अब तक उसके सात पुष्प निकल चुके हैं। इन सात पुष्पों में जिन कवियों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व के रूप में मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है उनमें से अधिकांश कवि प्रम तक प्रति अज्ञात अथवा अल्प चर्चित रहे हैं। कुछ कवि तो ऐसे हैं जिनके व्यक्तित्व को प्रकाश में लाने का एक मात्र श्र ेय श्री महावीर ग्रंथ अकादमी को दिया जा सकता है ।
अकादमी के छुट्टे पुष्प कविवर दुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज का विमोचन तिजारा ( राजस्थान ) में पञ्च कल्गारक प्रतिष्ठा महोत्सव के विशाल समारोह में परमादरणीय महामहिम राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैलसिंह जो सा० ने अपने कर कमलों से किया था। मह संभवत: प्रथम भवसर है जब महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने किसी जैन विद्वान की पुस्तक का ऐसे विशालतम समारोह में विमोचन किया हो। इसलिये ऐसा गौरव प्राप्तकर लेखक एवं अकादमी दोनों माही गौरवान्वित हैं ।
प्रस्तुत सप्तम पुष्प में हमने पांच कवियों का परिचय एवं उनकी कृतियों का संकलन किया है उनमें चार तो अब तक पूर्णत प्रचर्चित एवं अज्ञात माने जाते रहे हैं। हिन्दी साहित्य में कवयित्रियों के नाम अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं इसलिये बाई प्रीतमति की उपलब्धि एक उल्लेखनीय खोज है। बाई अजीतमत्रि के अतिरिक्त धनपाल भ० महेन्द्रकीति एवं देवेन्द्र सभी प्रचचित कवि है ।
राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में हिन्दी रचनाओं का विशाल भण्डार दिया हुआ है । इन शास्त्र भण्डारों को जितनी अधिक छानबीन की जाती है उतनी ही
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नयी एवं प्रचर्चित कृतियों को उपलब्धि होती रहती है प्रस्तुत पुष्प में जिन पार ऋषियों का परिचय दिया गया है उनमें तीन कवियों की उपलब्धि प्रभी गत वर्ष १९८३ में की गयी खोज का सुखद परिणाम है।
भब तक प्रकाशित सात भागों में ८० से भी अधिक कवियों पर विस्तृत प्रकाश डाला जा चुका है। उनमें महर 4 पूर्ण कवि, १ भट्टारक त्रिभुवनकोति, २ बूचराज, ३ छीहल, ४ ठक्कुरसी, ५ गारवदास, ६ चतुरूमल, ७ बजिनदास, ८ भट्टारक रस्नकीर्ति, ६ कुमुदचन्द्र, १० प्रभय चन्द्र, ११ शुभमन्द्र, १२ श्रीपाल, १३ संयमसागर, १४ बर्मसागर, १५, गणेश, १६ प्राचार्य नोमकोति, १७ ब्रह्म यशोधर, १८ सांगु. १६ गुणकीति, २० यश:कीति, २१ बुलासीचन्द, २२ बुलाकीदाम, २३ हेमराज गोदीका, २४ हेमराज पांडे, २५ गाई अजीतमति २६ धनपाल, २७ परिमल्ल, २८ भ० महेन्द्रकीति,२६ देवेन्द्र, एवं ३० ब्रह्म रायमल्ल के नाम उल्लेखनीय है । प्रस्तुत भाग को मिलाकर अब तक २८५० पृष्ठों का विशाल मेटर उपलब्ध कराया जा चुका है जो अपने पाप में एक रिकार्ड हैं ! मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी के जन कवियों का जैसे-जैसे परिचय, मुल्यांकन एवं उनकी कृतियों का संकलन हिन्दी के विद्यानों के पास पह'चेगा, जैन कवियों के प्रति उनकी उपेक्षा की भावना उतनी ही तेजी से दूर हो सकेगी पोर जैन कवियों को भी हिन्दी की मुख्य धारा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो सकेगा। सहयोग
अकादमी को समाज का जितमा सहयोग प्रपेक्षित है उतना सहयोग मभी तक प्राप्त नहीं हो सका है । हम चाहते है कि अकादमी के प्रत्येक ग्राम एवं नगर में सदस्य हो जिससे इसके द्वारा प्रकाशित सभी महत्वपूर्ण पुस्तक साहित्य प्रमियों के हाथों में पहुंच सके । फिर भी जितना सहयोग हमें अब तक मिला है उसके लिये हम उन सभी महानुभावों के प्राभारी हैं जिन्होंने अकादमी का सदस्य बन कर साहित्य प्रकाशन की योजना को मूर्त रूप देने में सहयोग दिया है। हमारी हार्दिक भावना तो यही है कि अकादमी द्वारा प्रति वर्ष तीन प्रकाशन हों, एक सेमिनार का प्रायोजन एवं प्राचीन साहित्य की खोज के विभिन्न कार्यक्रम तीव्र गति से होते रहे । अकादमी के संरक्षक माननीय श्री निर्मलकमार जी सा० सेठी लखनक की भी यही भावना है कि भकादमी की साहित्य प्रकाशन की योजनामों पर मच्छी राशि खर्च हो । हम सटी जी की भावनामों के प्रति आभारी हैं। मापका अकादमी के प्रति सहज सहयोग प्रशंसनीय है। उसी तरह प्रकादमी के परम संरक्षक स्वामी श्री पंडिताचार्य भट्टाएक चारूकीति जी महाराज मू सबिद्री एवं ० दरबारी लाल
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जी सा• कोठिया वाराणसी के सहयोग के लिये भी हम माभारी है मा० कोठिया साल से स्वयं का तो सहयोग मिलता ही रहता है, वे दूसरों को भी प्रकारमी का सदस्य बनाने को भी प्रेरणा देते रहते हैं ।
अकादमी के अध्यक्ष श्री कन्हैयालाल जी सा. पहाड़िया मद्रास के प्राकस्मिक निधन से संस्था को गहरी क्षति पहुंची है। पहाड़िया सा० मच्छे समाज सेवी थे तथा दक्षिण भारत में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करते थे। वे मकादमी के प्रति पूर्ण सहयोग की भावना रखते थे। इस अवसर पर हम अकादमी की मोर से उनके प्रति हार्दिक श्रसाञ्जलि भपित करते हैं।
नये संरक्षक सबस्यों का स्वागत
षष्ठ पुरुष प्रकाशन के पश्चात् माननीय श्री रूपचन्द जी सा० कटारिया एवं श्री डालचन्द जी सा जैन सागर ने अकादमी के संरक्षक सदस्य बनने की स्वीकृति ती। कटना : समाज र वं मालिकाशन दोनों में पूर्ण वषि लेते हैं सषा बिना किसी प्रदर्शन के अपनी सेवापों से समाज को लाभान्वित करते रहते हैं। इसी तरह माननीय श्री दासबन्द जी सा० जैन मध्यप्रदेश में ही नहीं किन्तु पूरे देश में अपने सेवा भाषी जीवन के लिये प्रसित है। माप देश के जाने माने उद्योरपति है तथा अपनी उदारता एवं सरल स्वभाव के लिये सभी पोर लोकप्रिय हैं। हम दोनों ही महानुभावों का हार्दिक स्वागत करते हैं । नये अध्यक्ष का का स्वागत
कलकत्ता निवासी श्री शोतिलाल जी साबन ने प्रकादमी के अध्यक्ष पद की स्वीकृति देकर अपने सहयोगी भावना का परिषय दिया है। पाप एक युवा ध्यक्सामी हैं तथा धार्मिक लगन वाले व्यक्ति हैं। मापने अभी इसी वर्ष श्री महावीर जी में सम्पन्न पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में सौधर्म इन्द्र का यशस्वी स्थान लेकर अपनी धार्मिक रुचि का परिचय दिया था । अकादमी की पोर से हम मापका हार्षिक स्वागत करते हैं।
वर्ष १९८३ में जिन महानुभावों ने प्रकादमी का उपाध्यक्ष बन कर संस्था को सहयोग दिया है उसके लिये हम सभी के हार्दिक माभारी हैं। ये महानुमाय है जयपुर के सर्व श्री धूपचन्दजी पांड्या, भरतकुमारसिंह जी पाटोदी, एवं श्री मोहन लाल जी मग्रवाल, वाराणसी की श्रीमती चमेलीदेवीजी कोठिया, देहली के श्रीशांति प्रसाद जी जैन एवं उज्जैन के श्री ललितकुमार जी जैन । श्री धूपबन्द जी पाझा युवा व्यवसामी हैं तथा सभी के प्रति सहयोग की भावना रखते हैं । धार्मिक
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कायों में अपना अच्छा योगदान देते रहते हैं। श्री भरतकुमार सिंह जी पूर्णत: धार्मिक जीवन जीने वाले व्यक्ति है । व्रत उपवास पूजा पाठ जिनका प्रति दिन का नियम है । संस्थानों को प्रार्थिक सहयोग देने की भावना रखते हैं। श्री मोहन लाल जी सा काला अग्रवाल जयपुर के जाने माने चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट हैं । धार्मिक लग्न एवं समाज सेवा की भावना रखते हैं। साहित्य प्रकाशन में अत्यधिक रुचि लेते हैं। श्रीमती चमेलीदेवीजी कोठिया समाज के यशस्वी मनीषी डा० दरबारीलालजी कोठिया को धर्भपत्नी हैं। हमारे उपाध्यक्षों में पाप एक मात्र महिला सदस्या है । प्रकादमी के कार्यों से आप विशेष रुचि रखती हैं। हम प्रापकी भावनामों का हार्दिक स्वागत करते हैं। देहली के श्री शांतिप्रसाद जी सा• जैन स्वयं बड़े भारी पुस्तक व्ययसायी हैं। मापकी धार्मिक एवं साहित्यिक लगन देखते ही बनती है। बिना किमी प्रदर्शन एवं यश लिप्सा के पाप सभी को अपना प्रार्थिक सहयोग देते रहते हैं। इसी तरह श्री ललितकुमार जी जैन उज्जन के प्रतिष्ठित युवा समाज सेवी एवं कर्मठ कार्यकर्ता है तथा मालवा में अत्यधिक लोककिक है। हम : IRE: हायिक स्वागत करते हैं।
इसी तरह पालकत्ता के श्री दुलीचन्द जी सरावगी. बम्बई के श्री राज मल जी जवेरी, सागर के श्री महेन्द्र कुमार जी मलंग्या, जयपुर के श्री गणपतराय जी सरावगी एवं भावनगर के श्री भंवरलाल जी सा• अजमेरा ने अकादमी का सम्माननीय सदस्य बन कर जो सहयोग दिया है इसके लिये हम सभी महानुभावों के प्रभारी हैं।
सम्पादन में सहयोग
प्रस्तुत पुष्प के सम्पादन में राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ हीरा लाल जी माहेश्वरी, प्राराकालेज के प्रोफेसर डॉ. राजाराम जी जैन एवं भरतपुर राज्यकीय महाविद्यालय के व्याख्याता वा गंगारामजी गर्ग ने जो सहयोग एवं मार्ग दर्शन दिया है इसके लिये हम तीनों ही विद्वानों के प्राभारी है। डॉ० माहेश्वरी सा० ने तो विद्वत्तापूर्ण सम्पादकीय भी लिखा है जिसके लिये हम उनके विशेष आभारी हैं।
विद्वानों का स्वागत
श्रमृत कलश स्थित अकादमी कार्यालय में देषा विवेश के विद्वानों का स्वागत करने का प्रवसर मिलता रहता है। इस वर्ष जिन विद्वानों के विशेष रूप से अमृत कलश में पधार कार अकादमी के कार्यो को देखा, परस्था एवं अपना पाशीर्वाद
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प्रदान किया उनमें डॉ० भागधन्द भागेन्दु दमोह, श्रीमती राजकुमारी रीघेलीय, कटनी, डॉ. विनान्त क्लेवार्ट प्राच्य विद्या विभाग, लुनेन विश्वविद्यालय बेल्जियम, डॉस महेन्द्र सागर प्रचंडिया एवं डॉ प्रादित्य प्रचंडिया अलीगढ, डॉ० भागचन्द भास्कर नागपुर एवं श्रीमली हॉल पुष्पा जैन नागपुर, डॉ प्रेमचन्द राबका मनोहरपुर के विशेष रूप से प्राभारी हैं । हम समाज के सभी विद्वानों का स्वागत करते है 1 मागामी पुष्प
मकादमी का मष्टम पुष्प ‘मुनि समाचन्द एवं उनका पापुराण" का प्रकाशन कार्य भी मई ८४ तक पूर्ण हो जावेगा। इस भाग में हिन्दी मैं रचित प्रथम पञ्चपुरण का पूरा पाठ एवं कवि के काब्य का मूल्यांकन किया गया है। जिसमें ५६० से भी अधिक पृष्ट रहेंगे ।
प्राभार
अन्त में मैं इन सभी महानुभावों का प्राभारी हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अकादमी को अपना सहयोग प्राशीद तया प्राथि क संबल प्रदान किया है।
डा कस्तूरचन्द कासलीवाल निदेशक एवं प्रधान सम्पादक
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संरक्षक की ओर से
श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी के सप्तम पुष्प "बाई प्रनीलमति एवं उसके समफानीन कवि" को पाठकों को हाथों में देते हुए मुझे प्रत्यधिक प्रसपता है । प्रस्तुत पुष्प में बाई अजीतमति, परिमल चौधरी, भ० महेन्द्रकीति, धनपाल एवं देवेन्द्र कवि-इन पांच कवियों का जीवन परिचय एवं उनके कामों के विस्तृत प्रध्ययन के साथ उनकी मुल कृतियों को भी प्रकाशित किया गया है। यह प्रथम अवसर है अब योजनाबद्ध प्राचीन जैन कवियों की रचनामों को सुसम्पादित करके साहित्यिक जगत के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है । सप्सम पुष्प के पास कवियों में से परिमल चौधरी को छोड़ कर शेष सभी चार कवि पब सम पशाप्त एवं मचित रहे हैं। यही नहीं हिन्दी जगत के समक्ष एक महिला कवि बाई मत्रीतमति को खोज निकालने में भी डा० कासलीवाल जी को सफलता मिली है। गाई मजीतमति की कृतियों के प्रध्ययन के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है वहकि प्राध्यात्मिक कवयित्री पी तथा भक्ति परक पद रचना में पूर्ण रुचि लेती थी।
भ० महेन्द्रकीति के सभी१५ पद उच्चस्तर के है जो अध्यात्म एवं भक्ति रस में प्रोत प्रोत हैं। धनपाल कवि ऐतिहासिक पदों के लिखने में कचि लेते थे। वे पहले कवि हैं जिन्होंने केशोराय पाटन में स्थित भगवान मुनिसुव्रतनाथ, प्रामेर (जयपुर) में स्थित भगवान नेमिनाथ, टोडारायसिंह में स्थित भगवान प्राधिनाथ एवं सांगानेर में स्थित भगवान महावीर की प्रतिशययुक्त प्रतिमानों के स्तवन के रूप में पद लिखे हैं। इसी तरह देवेन्द्र कवि हैं जिन्होंने संवत १६३८ में यशोधर रास को महमा नगर (गुजरात) में निबद्ध किया था। यशोधर रास १६वीं शताब्दी की महत्वपूर्ण कृति है जिसका भी प्रथम बार प्रकाशन किया गया है । इसी पुष्प में १७वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण कवि परिभल चौधरी का गहन अध्ययन किया गया है । कवि परिमल अपने युग में ही नहीं किन्तु उसके पश्चात् दो शताब्दियों सक
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अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं इसीलिए उनकी "श्रीपाल परित" कृति की पचासों पाण्डुलिपियां जैन प्रत्यागारों में उपलब्ध होती है । डा. कासलीवाल ने ऐसी महरवपूर्ण कवियों एवं उनकी कृतियों को खोज निकालने में जो अथक परिश्रम किया है
और उसमें सफलता प्राप्त की है उसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। साहित्यिक जगत उनकी इस महान् सेवा के लिए घिरऋणी रहेगा।
श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी साहित्य सेयी संस्था है जिसकी स्थापना समस्त हिन्दी जैन साहित्य को योजनाबद्ध बीस भागों में प्रकाशित करने के लिए की गई है । यह उसका सप्तम पुष्प है इसके पूर्व छह पुरुपों में, ब्रह्मा रायमल्ल, बूधराज. छीहल, गारवदास, ठक्कुरसी, ब्रह्मजिनदास, भ. रत्नकीर्ति, भ० कुमुवचन्द्र, प्राचार्य सोमकीति, सांगा, ब्रह्मा यशोधर, बुलाकीचन्द, खुलाखीदास, पांडे हेमराज हेमराज गोदीका जैसे कवियों पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के रूप में बहुत सुन्दर प्रकाश डाला जा चुका है।
अकादमी के षष्टम पुष्प का विमोचन गत वर्ष मार्च में महामहिम राष्ट्रपति थी ज्ञानी जैलसिंह जी ने तिजारा (राजस्थान) में प्रायोजित पंचकल्याणक महोत्सव में अपने कर कमलों से किया था। यह प्रथम प्रवसर था जबकि देश के महामहिम राष्ट्रपति जी ने किसी जैन विद्वान की कृति का विमोचन किया हो। इसके पूर्व के पुष्प भी स्व० डॉ० सत्येन्द्र, क्षुल्लकरम सिखसागर जी महाराज लाग्नू वाले, भट्टारक चारूकीति जी महाराज मूडबिद्री जैसे मनीषियों एवं सन्तों द्वारा विमोचित हो चुके हैं।
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र की तरह साहित्यिक क्षेत्र में भी कार्य करते रहने की ओर निरंतर जागरूक है । यह यह भी चाहती है कि श्री महावीर अन्ध अकादमी जैसी साहित्यिक संस्था द्वारा जैन साहित्य के प्रकाशन का कार्य निरन्तर आगे बढ़ता रहे । मैं समाज के सभी महानुभावों से प्रार्थना करता हूं कि वे अकादमी के अधिक से पधिक से संख्या में सदस्य बन कर जैन साहित्य के प्रकाशन में अपना पूर्ण योगदान देखें।
निमल कुमार जैन
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दो शब्द
( डॉ. होरालाल माहेश्वरी, एम.ए, एल-एल. बी., डी. फिल्,, डी. लिट् )
माधुनिक भारतीय आर्यभाषामों-विशेषत: हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी के साहित्येतिहासों में जैन काव्य धारा का महत्वपूर्ण स्थान हैं। वह धारा बड़ी ध्यापक है । जैन काथ्य की गणना पामिक काव्य के अन्तर्गत है । जिन जन कवियों ने लौकिक प्रेम कहानियों और इतिहास को आधार बनाया है. उन्होंने भी धार्मिक रचनाएँ तो लिस्त्री ही हैं।
मध्य युग में मुख्यतः तीन तत्व जनभावना को प्रेरित करते थे-राजा, धर्म और परम्परा । धार्मिक प्रेरणा से ही हमारी अधिकांश सांस्कृतिक पोर साहित्यिक पाती सुरक्षित रह गई है। जैन काग्य का निर्माण, संरक्षण और प्रचार-प्रसार इस प्रेरणा के फलस्वरूप हुमा है। पात्मिक उत्थान उसका लक्ष्य है। माध्यम हैतत्-तत् कालीन क्षेत्र-विशेष में प्रचलित सरल भाषा और कथ्य है-(1) परम्परागत और पौराणिक कथाएं तथा (2) स्वानुभव भोर भावपूर्ण उद्गार 1 साहित्यिक दृष्टि से सर्वाधिक आकर्षक है-जैन कथा और चरित कान्य । ऐसे काच्यों में स्थान-स्थान पर मनोवृत्तियों और दशाओं, विभिन्न वस्तुओं, त्योहारों, अवसरों, प्रकृति प्रादि के भाव-भीने चित्रण मिलते हैं। कथा में वणित समाज की सुग-युगीन झांकी के भी दर्शन होते हैं। इन काव्यों की विशिष्ट शब्दावली का सांस्कृतिक महत्व है। इस महत्व को भलीभांति दर्शाना अध्ययन का एक पृथक पहलू है । इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए ।
यद्यपि भारतीय साहित्य भिन्न-भिन्न भाषामों में लिखा गया है तथापि वह मूलतः एक है । देश, काल, युगीन मान्यतामों, विचारों और परम्परानों के कारण उसमें अलग-अलग रंगत दिखाई देती है। भारतीय साहित्य वाटिका में भिन्न-भिन्न भाषा-साहित्यों के फूलों की यह रंगत भी उसका विशिष्ट सौन्दर्य है ।
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लेखक की ओर से
देश में हिन्दी भाषा का विशाल साहित्य विद्यमान है। विगत सात शता. ब्दियों से कवियों एवं लेखकों ने हिन्दी साहित्य के भण्डार को इतना अधिक आप्लाविन किया है कि उसकी थाह पाना किसी नये द्वीप की खोज करने के समान हैं। हम किसी भी गाय/शहर में स्थित शास्त्र भण्डारों प्रश्वा व्यक्तिगत संग्रहों की खोज में निकल जावे तो कभी २ कुछ ऐमी कृतियां उपलब्ध हो जाती है जिनके बारे में हमने अब तक सुना भी नहीं होगा ! इसलिये हिन्दी साहित्य के विशाल भण्डार को इतिहास के रूप में बांधना किसी एक विद्वान के लिये संभव नहीं है । पब तक हिन्दी साहित्य के जो इतिहास निकले है वे सब किसी न किसी प्रकार अपूर्ण है क्योंकि उनमें ममग्र हिन्दी साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया है। उदाहरण के लिये हम जैन कवियों द्वारा स्थित हिन्दी साहित्य को ही लें। इस साहित्य को किसी भी विद्वान ने चित स्थान प्रदान नहीं किया । अब तो प्राचीन कवियों को इतिहास में स्थान मिलना ही बन्द सा हो गया है। जैन कवियों एवं उनकी काब्य कृतियों के बारे में अभी तक जो कुछ भी सामग्री सामने आई है उसे केवल सेम्पिस सर्वे (Sample Survey) कह सकते है। यही कारण है कि जैसे-जैसे अकादमी के प्रकाशनों की संख्या बढ़ रही है वैसे ही मशाप्त एवं प्रचित कवियों की संख्या में प्राशानीत वृद्धि हो रही है । भच तक हम ऐसे ३० हिन्दी जैन कवियों को प्रकाश में लाने में सफलता प्राप्त कर चुके हैं जिनके बारे में हम अब तक पूर्णतः मन्धकार में थे । प्रस्तुन सप्तम पुष्प में चार कघि पूर्णतः भशात एवं प्रचित है तथा एक कवि अल्प चश्चित है।
में इन पांच कवियों में एक कवयित्री प्रत्रीतमति है जो १७ वी शताबि में अपनी कविताओं से योसानों को प्रानन्दित किया करती थी । मजीतमति प्रथम जन कवयित्री के रूप में हिन्दी जगत् के सामने मामी है। इसकी उपलब्धि की कहानी भी अत्यधिक सेवक है । मिस पोथो में कर्वायत्री की कृतियों का संकलन
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है उसको दशा जीणं शौर्ण होने से वह उपेक्षित बनी रही पोर उसके एक एक पाठ नहीं देने आ सके । करीब ६-७ महिने पूर्व वह पोयी पुनः देखने में पायी और जब उसका एक २ पृष्ठ देखते २ प्रागे बढ़ने लगा तो एक पत्र पर बाईपजीतमति का नाम पढ़ने में माया । एक महिला कवि बाई अजीतमति का नाम पढ़कर उसकी कृति को पूरा पढ़ने की ओर भी उत्सुकता पड़ी तपा धीरे २ पूरी पोपी के एक २ पृष्ठ को ध्यान से देखने पर अजीतमति की प्रच्छी सामयी हाय लग गयी। साथ में उसके स्वयं के द्वारा लिखा हुपा वह पत्र जिसमें संवत् १६५० अंकित है। इतनी प्राचीन कवायत्री की उपलब्धि अत्यधिक प्रसन्नता की बात है। अजीतमति मीराबाई की समकालीन थी । मीरा का जन्म सं० १५५५-१५७३ के मध्य माना जाता है तथा उसकी मृत्यु १६०३-१६०४ के मध्य मानी जाती है इसी तरह बाई मजीतमति का जन्म हमने सन् १५५० के प्रासपास एवं मृत्यु सन् १६१० के पाम पास मानी है। जैसे मीरा ने भक्ति परक पद लिखे उसी प्रकार अजीतमति में भी माध्यात्मिक पद लिखे हैं। यही नहीं संवत् १६५० (सन् १५६३) में प्रयुक्त हिन्दी गद्य के प्रयोग का भी एक गद्यांश मिला है भाषा साहित्य की दृष्टि में प्रत्याधिक महत्वपूर्ण है।
प्रस्तुत पुष्प के दूसरे कवि परिमल चौधरी है जिनके बारे में ग. प्रेम सागर, म० नेमिचन्द शास्त्री एवं पं० परमानन्द शास्त्री ने संक्षिप्त प्रकाश सला है। कवि की एक मात्र रचना श्रीपाल चरित्र ४०-४५ वर्ष पहिले प्रकाशित हुई थी जो अनुपलब्ध मानी जाती है। परिमल्ल' कषि उच्च स्तरीय कवि थे। उनके कवि श्रीपाल चरित्र में श्रीपाल की घटनामों का बहुत विशद रूप से वर्णन मिलता है। कवि की भाषा में लालित्य एवं शब्दों में मधुरता है । कवि ने श्रीपाल के चरित्र का इतना सुन्दर एवं प्राकर्षक वर्णन किया है कि पूरा काब्य रोचक बन हो गया है। उसके वर्णनों में सजीवता एवं हृदय पुलकित करने को भरपूर क्षमता है। इसलिये कोई भी पाठक श्रीपाल चरित्र को एक बार प्रारम्भ करने के बाद उसे पूरा करने के बाद ही छोड़ता है। प्रस्तुत भाग में काव्य का प्रारम्भिक एवं मन्तिम अंस दिया गया है वह काव्य का प्रमुख प्रण है ।
__ तीसरे कवि घनपाल है। जिनकी चर्चा भी साहित्यिक जगत् के समक्ष प्रथम वार की जा रही है। धनपाल देल्ह कवि के द्वितीय पुष थे । पिता का कवि होना और उसके दोनों पुत्रों का भी कवि होना प्रत्यधिक उल्लेखनीय है संयोग है । घनपाल को अभी तक हम कोई बड़ी कृति नहीं खोज सके हैं लेकिन उनके जो बार पद मिले हैं वे बारों हो इतिहास परक है। केशोरायपाटन, प्रामेर, सांगानेर एवं टोडारायसिंह के मुनिसुरतनाय, नेमिनाय, महावीर एवं प्रादिनाथ स्वामी की
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प्रतिमानों का इन पदों में उल्लेख किया गया है। जैन कवियों ने इस प्रकार के बहुत कम पद लिखे हैं ।
प्रस्तुप्त भाग के चतुर्थ कवि भट्टारक महेन्द्रकीति है जो प्रजमेर की भट्टारक गादी के सन्त थे । महेन्द्रकीर्ति के पदों का प्रकासन भी प्रथम बार हो रहा है। डिग्गी प्राम के दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत एक गुटके में इनके पदों का संग्रह मिला है। भ. महेन्द्रकीति पूर्णतः प्राध्यात्मिक सन्त थे। उनके पदों के अध्ययन से पता चलता है कि जैसे प्रध्यात्म उनके जीवन का प्रमून मंग था। कवि के सभी पद एक से बढ़ कर है। सरल एवं ललित भाषा में निबद्ध है। चेतन काहे भरम लुभाना एवं चेतन घेतत क्यूं नहि मन में जैसे पद कवियर मूघर दास, बनारसी दास, रूपचन्द द्वारा लिखे हुए पयों के समान है ।
देवेन्द्रकास इस पुष के अन्तिम कवि, जिन्हें महाकवि की उपाधि से भी सम्बोधित किया जा सकता है। देवेन्द्रकीर्ति १६वों एवं १७वीं शताब्दि के एक सशक्त कवि थे जिनका एक मात्र रास फाव्य यशोधर रास अपने युग का महाकाव्य है । यद्यपि काव्य की भाषा जटिल एवं दुरुह अवश्य है लेकिन जब रास का गहराई से प्राध्ययन किया जाता है तो कन्त्रि के काध्य कौमाल को देख कर मन झूमने लगता है । एक महाकाव्य के लिये जो प्रावश्यक तथ्य स्वीकृत किये गये है वे सब इस रास काव्य में है। पमोधर रास की कथा में पूर्व कवियों द्वारा प्रतिपादित कथा ग्रहण करने के पश्चात् भी कवि ने प्रत्येक घटना का वर्णन जितना गहन, रोमाञ्चक एवं अलंकारिक किया है वह अपने ढंग का अनूठा है । कवि ने राजगृह नगर, राजपोर नगर एवं प्रमन्ती एवं उज्जयिनी नगर चारों का बहुत विस्तृत वर्णन किया है। पवन्ती की शोभा का तो पूरे ४० गयों में वर्णन हुमा है नगर के वैभव एवं समृद्धि फा वर्णन करते हुए उसे इन्द्रपुरी से भी उत्तम नगर सिञ्च किया है।
घनद तिहां एक प्रहां अनेक, इन्द्र घणा नर प्राहां मुविवेक चनुर घणा नर सुर गुरु समा, वणी घणी मोम तिलोतमा ॥४॥ मवे नार भर्ता उर्वसी, घिर घिर नार सुकेसी जी ।
रंभा जणी ऊर घणी माननी, रंभा वन मंडित भवनी ।।४।। इसी तरह कवि उज्जयिनी के बर्णन में इतना इब गया कि उसका वर्णन ५१ छन्दों में भी कठिनता से पूर्ण हो पाया है। काय ने घीन देश की साड़ियों का उल्लेख किया है । एक वर्शन में कवि ने लिखा है कि वहां स्फटिक के उतृग भवन थे इसलिये जब जाली में से चन्द्रकिरण माती थी ती भोली युवतियां उसे चन्द्रहार समझ कर दूलने लगती थी। जब कभी चन्द्रमुखी चे प्रकाश पर रात्रि को बैठ
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जाया करती थी तो लोग उसे पूर्णिमा का चन्द्र समझ कर भाकाश में देखने लगते थे। कवि के वैसे तो सभी वर्णन एक से एक बढ़ कर है लेकिन इनमें यशोधर की सनी अमृतमती के सौन्दयं एवं उसके विवाह का वर्णन बहुत अच्छा प्रा है । प्रत्येक रीतिरिवाज सीधनता है न किला ; वादात नी नहुरावणी होना एक महत्वपूर्ण रिवाज माना जाता है कवि ने लिखा है कि पहरावणी के लिये परिवार के सभी सदस्य एकत्रित हो गये हैं । राजा यशोधर अपनी रानी अमृतमती के रूप सौन्दर्य पर मुख था। रात्रि को जब वह प्रमृतमती के महल में गया तो उसका एक २ मंजिल पर जितना स्वागत हुप्रा कवि ने उसका बहुत सूक्ष्म वर्णन किया है उसने अपने जीवन में उसे अमृत के समान समझा। यशोमती रानी का बसन्त कीड़ा का वर्णन भी नया हमा है। इन सबके अतिरिक्त मुनि मुदत्ताचार्य दाग धर्मोपदेश का भी कवि ने १३६ पद्यों में वर्णन किया है। पूरा रास काम्य अधिकारों में विभक्त है जो किसी काव्य के लिये पर्याप्त कहे जा सकते हैं।
इस भाग में परिमल्ल चौधरी के श्रीपाल चरित्र का एक भाग ही दिया जा सका है शेष सभी कवियों की सभी रचनामों के पूरे भाग इस में दिये गये हैं। यशोधर रास स्वयं ही एक काव्य है, इसके अतिरिक्त बाई अजीतमति की ह कृतियो, महेन्द्र कीर्ति के पूरे १५ पद एवं धनपाल के ४ गीत इस प्रकार ३० मूस कृतियों के पाठ भी दिये गमे हैं।
सम्पादक मंडल :
प्रस्तुत पुष्प के संपादक मंडल में माननीम डॉ० हीरालाल जी माहेश्वरी, • राजाराम जी जैन एवं डॉ० गंगाराम जी गर्ग हैं। डॉ० माहेश्वरी राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में रोजर हैं। पाप राजस्थानी भाषा के जाने माने इतिहासज विद्वान एवं लेखक हैं । अकादमी पर प्रापकी विशेष कृपा रहती है प्रापने विद्वतापूर्व "दो शब्द" व्यक्तभ्या लिखने की जो कृपा की है उसके लिये हम उनके .. पत्यन्त माभारी है। डॉ० राजाराम जैन मगध विश्वविद्यालय के प्राकृत एवं
अपभ्रश के प्रोफेसर है समाज प्रापकी बिंदता से चिरपरिचित है। इसी तरह डॉ. गंगाराम जी गर्ग युवा पीढ़ी के विद्वान् है । जैन साहित्य पर शोध कार्य प्रापकी बचि में शामिल है । पार्वदास निगोत्या पर प्रापने अच्छी खोज की है। तीनों ही विद्वानों के हम हृदय से आभारी हैं।
अकादमी के संरक्षक श्री निर्मल कुमार जी सेठी ने "संरक्षक की प्रोर से को सन्द" लिखने की महती कृपा की है। सेठी साहब उदार व्यक्तित्व के धनी
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है तथा साहित्य प्रकाशन में बहुत रुचि लेते हैं। अकादमी को प्रापका पूर्ण सहयोग प्राप्त है।
प्रस्तुत भाग के उपयोग के लिये श्रीपाल चरित्र को पाण्डुलिपि के लिये श्री पं. अनूपचन्द जी न्यायतीर्थ एवं श्री राजमलजी संधी, अजीतमति की पाण्डुलिपि के लिये कलाशचन्द जी सोगानी, धनपाल एवं महेन्द्र फीति की पाण्डुलिपियों के लिये श्री माणक बन्द जी सेठी डिग्गी एवं यशोधर रास की पाण्डुलिपि के लिये श्री लक्ष्मीचन्दजी गांधी, प्रतापगढ़ का प्राभारी हूं जिन्होंने उदारता पूर्वक पाण्डुलिपियां देकर इस भाग के प्रकाशन में योगदान एवं सहयोग प्रदान किया है।
80 5 राम कासगोताल
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विषय-सूची
पृष्ठ संख्या
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८-१०
१. श्री महावीर ग्रंथ अकादमी-प्रगति परिचय २. संरक्षक की भोर से ३. दो शब्द ४. लेखक की कलम से ५. पूर्व पीठिका ६. बाई अजीतमति कृतियां-(१) अध्यात्मिक छन्द
(२) षट् पद (३) पद-रागकेदारो (२) (४) पद-राम बसन्त (५) पद-राग बसन्त (६) पद-राम साभरी
(७) इतिहास परक घटनापों का वर्णन ७. कविवर परिमल्ल चौधरी
. MMM.
.
.
१५-२४ २४२४ २५-६३ ६४-६६
SE
कृति-श्रीपाल चरित्र अ. कवि धनपाल कृतियां-I मुनिसुबत जिन वन्दना
II नेमोजिन बन्दना III वर्षमान्नगीत
IV प्रादि जिन गीत ६. भट्टारक महेन्द्रकीति पर - पन्द्रह विभिन्न
राग रागनियों में १०. देवेन्द्र कवि
कृति -यशोधर रास ११. अनुक्रमणिकाए
१२४-३०४
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पूर्व पीठिका
१७वीं शताब्दी में जितने व्यापक रूप से हिन्दी कृतियां लिखी गयी उत्तनी कृतियों इसके पूर्व किसी शताम्बी में भी नहीं लिखी जा सकी । इस शताब्दी में देश के सभी प्रदेशों में हिन्दी रचनायें लोकप्रिय बन रही थी । प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों के हिन्दीकरण का यह युग था । बन कवियों का इस मोर विशेष ध्यान जा रहा था । पाण्डे रुपचन्द इसी शताब्दी के कवि थे जिन्होंने समयसार कलश पर हिन्दी ख्वा टीका लिखी थी । बैन कवि स्वतन्त्र रूप से भी काव्य रचना करते तथा गीत, रालो एवं काश्य की अन्य विधानों के माध्यम से छोटी बड़ी रचनाएं लिखते रहते थे । इस शताब्दी में होने वाले ब्रह्म रायमल्ल, भ. प्रसापकीति का अकादमी के प्रथम पूष्प में भद्रारक रत्नकीति, कुमचन्द एवं उनके समकालीन ६८ अन्य कवियों का। चतुर्थ पुष्प में घुलाखीचन्द, बुल गोदावं इमान से प्रति दिनों का हुने भाग में परिचय दिया जा चुका है। इनके अतिरिक्त अभी और भी पचासों कवियों का परिचय अवशिष्ट है जिन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
__ इस शताब्दी में होने वाले कवियों में कवयित्री "अजीतमति' का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । किसी जैन कवयित्री की यह उपलब्धि विगत ५०-६० वषों में की गयी सतत खोज के बाद हो सकी है ! जंन हिन्दी कवयित्रियों में दिगम्बर समाज में चम्पाबाई का नाम प्राता है जो करीब १०० वर्ष पूर्व टोंग्या परिवार में देहली में हुई थी और जिनकी एक मात्र कृति 'चम्पा शतक' का मैंने सम्पादन करके प्रकाशित करवाया था। प्रवेताम्बर समाज की कवयत्रियों में हरकूबाई, (सं. १८२०) इन साजी (सं. १७) सरुपा बाई, जडावजी एवं भूर सुन्दरी जैसे नाम और प्राप्त हैं लेकिन ये सब कवयित्रियां हर बाई एवं हुलसाजी के अतिरिक्त एक शताब्दी पूर्व ही हुई हैं। इसके अतिरिक्त जहां हिन्दी जन कवियों की संख्या ४०० से कम नहीं होगी वहां महिला कवियों की यह संख्या एक दम नगण्य है इससे पता चलता है कि महिला समाज में कभी साहित्यिक चेतना नहीं रही या फिर उनके द्वारा निबद्ध साहित्य की उपेक्षा की गयी और उसको संग्रहणीय नहीं समझा गया। इसलिये १६वीं-१७वीं शताब्दी में होने वाली कवयित्री अजीतमति से हिन्दी साहित्य नि:संदेह गौरवान्वित हुआ है।
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बाई प्रजीतमति
अजीतमति ने अपने आपको बाई अजीतमति लिखा है । वह भट्टारक वादिचन्द्र (१६वी-१७वीं शताब्दी) की प्रमुख शिष्या थी। उन्हीं के संघ में बहचारिणी साध्वी के रूप में रहती थी । वादिचन्द्र स्वयं अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् भट्टारक थे। जो मूलसंघ के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य एवं प्रभाचश्व के शिष्य
। स्वयं वादिचन्द्र एक समर्थ साहित्यकार थे जिन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी में कितनी ही रचनायें निषा करने का श्रेय प्राप्त किया था । साध्वी प्रजीतमति ने इन्हीं के संघ में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी।
कवयित्री मजीतमति हंबह जाति के श्रापक कान्ह जी की पुत्री पी कालजी अपने समय के प्रभावशाली व्यक्ति थे । वे हंबच जाति के शिरोमणि थे। उनका निवास स्थान सम्भवतः सागवाड़ा था जिसका उन्होंने एक गीत में निम्न प्रकार उल्लेख किया है--
"सागवाडा नयरे छि बहु प्रवास, श्रीय संपनी पुरषो स्वामी प्रास"
इसके अतिरिक्त कवमिंत्री का जन्म कब हुआ, कहाँ हुमा इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन उसके स्वयं का हाथ लिखा हुमा जो गुटका मिला है उसमें कवयित्री द्वारा रचित सभी पाठों का संग्रह है । गुटका का लेखनकाल संवत् १६५० (सन् १५६३) है इससे उसके जन्म काल का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । इसके अतिरिक्त उसने गुटके में जो पाठ लिखा है वह ऐतिहासिक तथ्यों से युक्त है इसलिये यदि उसकी प्रायु उस समय ४० वर्ष की भी होगी तो उसका जन्म संवत् १६१० (सन् १५५३) के पास पास हुआ होगा ।
अजीतमति की शिक्षा दीक्षा के बारे में भी कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन क्योंकि उसके शुरु भ, वादिचन्द्र स्वयं प्रच्छे विद्वान थे, ग्रन्थों के निर्माता थे। संस्कुत, हिन्दी एवं गुजराती में प्रत्य रचना करने में प्रवीण थे । इसलिये मजीतमति की शिक्षा दीक्षा भी अच्छी होनी चाहिये । इसके अतिरिक्त जिस तरह की उसकी रचनायें मिली हैं उनसे भी पता चलता है कि उसने सभी रचनायें स्वान्तः सुखाय लिखी थीं।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
कवयित्री के जिस गुटके में उनकी रचनायें मिली हैं उसमें बीच-बीच में ऐसे पाठ भी हैं जो अधिकांश गुटकों में नहीं मिलते हैं । उस रिपि भी न सुपर नहीं है जितनी एक महिला कवि की होनी चाहिये । फिर भी जैन समाज का यह सौभाग्य है कि उसमें ऐसी विदुषी कवयित्री ने जन्म लिया और अपनी रचनाओं से एक रिक्त स्थान की पूर्ति की । राजस्थान के प्रवशिष्ट शास्त्र भण्डारों की यदि सघन खोज की जाये तो सम्भवतः और भी कुछ कवयित्रियों के नाम एवं उनका साहित्य मिल सकता है।
कवयित्री अजीतमति द्वारा निर्मित तथा एक ही गुटके में संग्रहीत रचनामों के नाम निम्न प्रकार है--
१. अध्यात्मिक छन्द २. षट पर ३. भक्तिपरक पद--- ४. इतिहास परक घटनामों का वर्णन
उक्त सभी रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
प्रयास्मिक छन्द
आध्यात्मिक विषय पर प्रायः सभी जैन कवियों ने थोड़ा बहुत अवश्य लिखा है। यदि किसी कवि मे स्वतन्त्र रचना नहीं लिखी हो तो उसने अपनी प्रन्य कृतियों में ही अध्यात्म विषय का वर्णन किया है। कवयित्री भजीतमति ने भी "अध्यात्मिक छन्द" निबद्ध करके अपनी आध्यात्मिकता का परिचय दिया है। इसमें केवल ३० पछ है लेकिन सभी पद्यों में प्रात्म रस भरा हुमा है जो मानव को अपनी प्रात्मा का ज्ञान कराते हैं। अपनी मास्मशक्ति की पास्तविकता को बतलाते हैं और उसे सचेत करते हैं। क्योंकि यदि शुद्ध दृष्टि से अपने आप को देखा जाये तो अपने भीतर ही हमें मात्म प्रकाश मिल सकता है।
जो खरी हुष्टि करी लिलावि, शान जोत घट भीतर पावि ॥२॥
कवयित्री प्रजीतमति ने प्रागे चलकर कहा है कि यदि "तुझे देखना ही है। तो अपनी प्रात्मा को देख । दूसरे को देखने से प्रारम ज्ञान की प्राप्ति अथवा प्रात्म दर्शन कभी नहीं हो सकता | क्योंकि दूसरों के कपड़ों को सोने से अपये कपड़े कभी नहीं घुल सकते अर्थात् अपने कपड़ों का मैल कभी साफ नहीं हो सकता
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बाई अजीतमति
जो जूयि तो प्रप्पा जूयि, पर कि जूपि जान न होवि । पर का उजवस या त धोबि, अपणा मैल कार नहीं सोहोवि ॥७॥
बाई अजीतमती ने इसी अध्यात्म छंद में आगे कहा है कि यदि तेरा मन झगडालू है तो दूसरों के झगड़ों में जाकर क्यों पड़ता है । दूसरों के झगड़ों में तुझे किञ्चित् भी स्थान अर्थात् सद्गति प्राप्त होने वाली नहीं है, क्योंकि तू अपना झगड़ा निपटाने अथवा शांत करने के स्थान पर दूसरों का झगड़ा शांत करने में लगा हुआ है।
यह बत्ती बाला दीपक सभी को देखता है किन्तु यदि उसमें बती न हो उसे कोई नहीं देख सकता लेकिन यह प्रात्मा तो बिना बसी का ही दीपक है जो स्वयं सो सबको देख लेता है और दूसरा इसे कोई नहीं देख पाता । वह स्वयं ही अपने जान के द्वारा अपने को देख सकता है। अपनी इसी बात को कवयित्री ने आगे के पश्च में फिर दुहराया है और जो अधिक स्पष्ट है
माती बीपक सबको जाणि, विण बातो कोई म पिछागि। सो पप्पा सो अप्पसु ध्यावि, विण बातों का बीपर याच ॥२१॥
मानव का यह मन बहुत ही भटकता है स्थिर रहना तो मानो जानता ही नहीं । अधिक डोलने से वह अपना मागं ही मूल गया है। मनेक जातियों में वह फिर चुका है जन्म ले चुका है. लेकिन अभी तक उसे सद्बुद्धि नहीं आयी है क्योंकि वह आत्मा से परे रहता है और प्रात्म आम के बिना उसे सुख नहीं मिल सकता ।
एह मन मेरो बोहोत डोलायो, फरी फरी जो बिखरो भूतारणहे। मह प्रकल व्योहो गति फरीमाधि, प्रप्या पिरा कही सुन न पाधि ।।२२।।
प्रात्म ज्ञान मानव के लिये पावश्यक है। जैसे सिदालय में प्रात्मा निवास करती है उसी प्रकार शरीर में भी प्रात्मा का निवास रहता है इस प्रकार जो
१. जो झगडु मन होयि तेरा, पर कि झगडि जापि घणेरा।
पर कि झगरि ठोडम पाथि, चमार योगी उर ध्यावि ॥ ॥ २. मातम दीपक सबको बेले, विल बातो कोई नहीं देते।
प्रप्पा अप्प न्यान भरि ध्वाया, विरण बासी का बीपक पाया ॥१७॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
मात्मा को जानता है । वही आत्म सुख का अनुभव कर सकता है और जन्म मृत्यु के बन्धनों से मुक्त हो सकता है ।
इस प्रकार अध्यात्मिक छंद के सभी पद्य भात्म रस से प्रोत प्रोत है। इससे मालूम पड़ता है कि अजीतमसि का जीवन पूर्ण वैराग्यमय था तथा आत्म चिन्तन में उमकी अधिक रूचि थी।
___इसमें ३० पद्य हैं । अन्तिम पद्य में कवयित्री ने अपने गुरु वादिचन्द्र को नमस्कार किया है । भाषा यद्यपि अधिक परिष्कृत नही है किन्तु कवयित्री के भावों को समझने के लिये पर्याप्त है। भाषा पर गुजराती का प्रभाव है ।
२. षट पर. -यह लघु कृति है जिसमें केवल पांच छंद है और प्रत्येक छन्द में पांच छह पंक्तियां हैं। विषय की दृष्टि से इसमें किसी एक विषय का वर्णन न होकर एक से अधिक पर चर्चा के रूप में है। प्रथम छन्द में आत्म का वर्णन है तो दूसरे छन्द में भगवान आदिनाथ के माता-पिता, शरीर प्रमाण एवं बंश का उल्लेख हुआ है। यह छन्द नमस्कार के रूप में है।।
तीसरे पद्य में भट्टारक वादिचन्द्र का परिचय दिया गया है । वादिचन्द्र ने बडिल वंश में जन्म लिया। उनके पिता का नाम थिरा एवं माता का नाम उदया था जो रत्नाकर के समान थी। वे जब प्रवचन देते थे तब उनकी वाणी मेष के समान गर्जना करती थी । वादिचन्द्र साधुओं के शिरोमणि थे ।
चतुर्थ पद्म में भी अपने गुरु वादिचन्द्र का ही और अधिक परिचय दिया गया है । वादिचन्द्र मूलगुरखों एवं उत्तरगुरणों सभी का पालन करते थे । अपने समय के वे प्रसिद्ध साधु थे जिन्होंने मोह एवं काम दोनों पर विजय प्राप्त की थी। उनमें विसा भी खूब थी इसलिये कुवादियों के लिये वे सिंह के समान थे । वे मट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्ट पर विराजमान थे ।
बसं घडिल विल्यात, त्यात पिरा सुत सुन्दर रूप कला चातुर्य, चतुर बारोत्रह मन्दिर उदयो उदरि तास, तास जननी रत्नाकर वारणी गाजि मेष, मेघ सह जन रत्नाकर मुखाकर पतीवर अयो, श्री बाविबन्द्र पाविद्रपर भाइ मजीसमती एवं वपती सकलसंघ मानन्वकर
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बाई अजीतमति
अन्तिम पद्य में पंच परमेष्ठी की शरण ही एक मात्र उत्तम शरण है इसी। भाव को उसमें बतलाया गया है।
३. बाई मजीतमति ने कुछ पद श्री लिसे थे जिनकी संख्या अभी तक सात
प्रथम पद में चोवीस तीर्थकों को नमस्कार किया गया है लेकिन पद शैली में लिखा होने से "नेमजी तू मुझ महलामो" स्थामी अन्तरा है। यद्यपि इसमें पद का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसमें १३ अन्तर हैं। भाषा एवं मौली दोनों ही सामान्य हैं। इस पद को सम्भवत: उजीलगढ़ में जो पर्वत शिखर पर स्थित था, लिखा गया था । कवयित्री ने इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है--
उनीलगढ गिरिवर सगो मेमी मिनरामः । कर जोड़ प्रबीसमली कहि, नित सेवरे पाय ॥१॥
दूसरे पद में ऋषभदेव की स्तुति की गयी है। तीसरा पद मानव को चेतावनी के रूप में हैं । चौथा पद नेमिनाथ स्तवन है जिसे कवयित्री ने सागवाडा नगर में निर्मित किया था । ५ ६ असार । काम पर में धन यौवन पर हमने बहुत अभिमान किया इसका वर्णन किया गया है । छठा पद उपदेशी है तथा सातवां पद पायर्वनाथ स्तवन के रूप में है। भाषा एवं भावों की दृष्टि से सभी पद मामान्यतः मन्छे हैं।
४. ऐतिहासिक लेख
यह एक ऐतिहासिक लेख है जिसमें वृषभनाथ के पौत्र मारिधि द्वारा दूसरे मतों की स्थापना से प्रारम्भ होता है । भरत चक्रवर्ती के द्वारा ब्राह्मण मत की स्थापना की गयी। तीर्थकर शीतलनाथ के पीछे यज्ञशालाभों की स्थापना हुई थी । भगवान पार्श्वनाथ के युग में पिहितानव के शिष्य बुधिोति धारा बुद्ध मत की स्थापना की गमी। जो मांस मध सेवन में दोष नहीं मानते थे। विक्रमादित्य के पीछे सम्बत १३० में सत्याचार्य भद्रबाहु के शिष्य जिनम्रन्द्र ने स्वेतानर सम्प्रदाय की स्थापना की थी। जो स्त्री की मुक्ति, केवली कथलाहार, आहार और नीहार, गर्भापहरण, केवली उपसर्ग प्रादि मान्यताप्नों को मानने वाला है। ५३६ वर्ष पश्चात् पूज्यपाद के शिष्य वजनन्दि द्वारा द्वाविरु संघ की स्थापना, संवत् ७४३ में कुमारसेन द्वारा काष्ठा संघ की स्थापना, चमरों की पीछी का ग्रहण, इसी तरह विक्रम संवत् २००
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
के पीछे माथुर गच्छ की स्थापना। संवत् १८०० के पश्चात् लोग विपरीत क्रिया करने लगेंगे ऐसा भी लिखा है . .. .
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उक्त लेख स्वयं अजीतमति द्वारा सवत् १६५० में लिपिबद्ध किया गया था।
इस तरह साध्वी अजीतमती ने पद्यपि लघु रचनाएं निबद्ध की है लेकिन के उसकी काव्य शक्ति की परिचायक है । ये सभी रचनाएं एक ही गुटके में लिपि बद्ध हैं जो स्वयं अजीतमति का था । हो सकता है अभी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में कवयित्री की और भी रचनायें संग्रहीत हों। एक महिला कवि द्वारा इतनी सारी काव्य रचना करना प्रशंसनीय है।
कृतियों की भाषा गुजराती प्रभावित है। मलकार शैली एवं भावों की दृष्टि से सभी रचनायें सामान्य है।
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प्रध्यात्मिक छन्द
प्रा परमाणदं नरवा अनिभारति देवी गुणं परीया । छंदो परमाणेदो भाणंदो एहि गुणकंदो ।
हवि छंव प्रातम प्रापज दृष्टि जोवि, परम जोत घर भीतर होवि । जो खरी दृष्टि करी लिलावि, भान जोत पर भीतर पावि ॥ १॥ गीत कवीति क्या लिसाया, गुणी छोडि निर्गुणी कुं ध्याया । गंध वररण रस उसका नाही, परम जोन सोहे घट माहि ॥२॥ घट छोडी उर क्या तुं चाहि, घट मांहि न्यान पट सोहि । घट भूला तु' फरे सायणा, घट मा सुता धतुर सुजारणा ॥३॥ नीर विकल्प तु काहे नहीं ध्यावि, विकल्प सेथि क्या लिलाधि । एह विकल्प छि जीव का जाणा, परम जोत कुनहीं समाण। ।।४।। रे प्रातम चित किहा फिरावि, जे न्या हालि सो घट मां पावि । एक समी जब रूदि पेस्वे, ज्ञान जोत घर भीतर देख ॥१॥ न्यान छोडी जीष उर कु च्यावि, वीषया सेथि चिन्ह घसावि । इसि मन कुतु अंतर ल्यावि, परम समाधी समिमा पाधि ॥६|| जो जूयि तो अप्पा जूयि, परकि जूयि ज्ञान न होयि । परका उजवल क्या तु धोवि, अपणा मैल कदि नही खोहोवि ।।७।। जो झगडु मन होपि तेरा, पर कि झगडि जायि घरोरा । परकि झगडि छोडन पावि, अंतर छोडी उर कु ध्याधि ॥८॥ रे जीव ज्ञान काहा तु जोवि, जे जूयि सो घटा होवि , सूता जे मन जाइ जगाया, मन मारी अपणे घरे प्राया |६|| मन रूची करी का नहिं राखि, बौखया फल या फरी फरी चाखि । जाग्या जब अपणे धरि भावि, तब होनी लगता नहीं प्रावि |१०||
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बाई अजीतमसि एवं उसके समकालीन कवि
जो रे जीव मन ठोडन पावि, ज्यांहा जायि त्यांहा भागा प्रावि । एक समो घेतन लिलावि, जाहां जापि त्याहा बोन्ही न प्रावि ॥११॥ रे जीव मन कु काहि न होडडि, इहु मन हम सुफी फरी मंडि । एक समो अपरिग घरि जाग्या, मन का विकलप सघला भाग्या ॥१२।। रे जीव उबका काहि मारि, जे बढि सो घट मांथा हारि । ढूक तांड च्योहो दीसि आया, बिण दुदि घर भीतर पाया ॥१६॥ रे जीव ज्ञान काहांति जाण्या, पर घर जूयि खरा भूलाण्या । म्यान नयरण लेइरू दिपेसे, बिग बाती घर भीतर देखे ॥१४॥ रे तता परम सृपिस्खे, जायि काल बहुतो न देखे । एक समो अपणि घरि माया, अनंतकाल जे बाद जमाया ॥१५॥ अनाद का विर विक्रअप भाई, थार विकल्प कु रहा समाइ । शीर वीकलाप कु जो मन लादि, निरविक्कलप सामि मा पावि ॥१६||
प्रातम दीपक राबको पेखे, बिग बाती को नहीं देखे। अप्पा अप्प ग्यान करी ध्याथा, विरा बाती का दीपक पाया ।। १७
रे जीव ध्यान धरे सब वोइ, ज्ञान विणा नयि जागा सको। जो पंछी तजि करि वीचारा, घर की जोत लावेते सारा ॥१11 घर की जोत न जारिग कोइ, अंग पट्यो पग न्यान न होइ । रे जीव फरी फरी बिकलप घ्यावि, विकलए ध्यानि न्यान न पावि ॥१६॥ एह विकला जे जीव का नाहि, निर पिकलप कु का न जाहि। जेह जोगी जोगीश्वर जाण्या, उसका गुण मही मांहि विखाण्या ।।२०।। बाती दीपक सबको जागि, विरण बानी कोइ न पिछाणि । सो अप्पा सो अपमु ध्यावि, बिण बाती का दीपक पावि ॥२१॥ मूली रह्मा जग मां सहु कोइ, पर की दृष्टि जानन होइ। स्वकीय ज्ञान दृष्टि वारी गन्ने, पर की दृष्टि कु सेहेचे देख्ने ।।२२।! एह मन मेरो बोहोत डोलाणो, फरी फरी जो विलगे भूलागो । बहु अकल च्योहो गति फरी आबि, अप्पा विरण कही सुख न पावि ॥२३॥ ₹ जीव मनति प्रती ललचायो, फरी फरी भमति वह दुःख पायो । फरी फरी भमी पोहो जुगमि प्रायो, अपगा पः किरा ोड़ न पायो ।।२।।
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बाई भजीतमति
उपसम कुतु काहेनी जुयि, उपसम तेरे घट मां सुयि । अपणा सुता जोति न जाण्या, पर का सूना सेहज बजाण्या ॥२५।। मांची दृष्टि करी कान नीहालि, जे चाहि सो नही देवालि । सांची दृष्टि करी अंतर न्याहाल्मां, करम कीरजणि तत क्षिरण जाल्या ॥२६॥ रांक दुष्टि करी काहे देखें, घर की अंतर काहे न पेखे । घर घर जोत रहि घर भीतर, घर छोडी उर नहीं अंतर ॥२७॥ शब्द ज्ञान सब कोइ जागि, पंडित ने नि:शब्द पिछाणी । तिस की बुधि वया सह्नायु, अंतर छोडीउ रक्या घ्यार ॥२८॥
सो सीधालि तिसो हालि, प्रेसो करी जे नर नीहालि । अप्पा पातम सुख बहु पावि, जनम जरा उठा कु नही प्रावि ॥२६।।
इलि फलस सोहि जगमा तेह जेह अंतर लिलावि सोहि जगमा तेह,जेह सुन्य ध्यानि घ्यावि । सोहि जगमो सेह, जेह अप्पा गुण गाचि । सोहि जगमां तेह बेह घरी सिव पद पावि ॥ सोहि जगमा जंतु काह्नि सुभ बिना असुभवहि। यादीचंद्र नमी कहि अजितमती लब्ध विना ते मषि लहि ॥३०॥ इति अध्यास्मि छंद समाप्तः ।
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षट पद सुह नीरंजन एकानेक प्रातम व्यवहारि :: नांद सोदि स. प्रोकमा निहारि ध्यान बरे सुभ एक, भनेक न्यानह विस्तारी। न्यान जोत जंतु कालि, न जाशिए क्या हम रहि । वाइ अजितमति एवं वदति धर्म बिना लि नबि लाहि ।।1।। अजोध्या नयरी नरेंद्र, नाभिनंदन हेम प्रभ । मरुदेवी सुत वृषभ, वषभसेन वंदति जिन कृषभ । उन्नत धनुष सत पंच, पंच कल्याएक सुखाकर । इस्चाक चंस विक्षात, क्षात उदये दीवाकर । थी आदीदेव आदि जमो श्री वादीचंद्र सेवे सदा । बाइ अजीतमति एबं वदती, जनम जरा नावि कदा ।।2।। वंस' वडिल विशात, क्षात घिरा सुत सुन्दर । रुप कला चातुर्य, चतुर चारीत्रह मंदिर । उदयो उदरि बास, ताम' जनुनी रत्नाकर । वाणी गाजि मेघ, मेघ महु जन सुखाकर ॥ सुखाकर जतीवर जयो, श्री दादीचंद्र बादिंद्र वर । बाइ अजीतमती एवं वदती मवालसंघ प्रारद कर ।।३।। मूल उत्तरगुणसार सार क्रीया सुभ मंडित । जग मां जतीवर एह, मयए। मोहमद खंडित । विद्वजन मो एह, एह मोहि सुभ पंडित ॥ कुवादी गज सिंघ सिंघ च उवीह करी वंदति । श्री वादीचंद्र वादि निपूग्ण श्री श्री प्रभाचन्द्र पट्टाभरण बाइ अजीतमती एवं वदती सकल संघ मंगल करण ।।4।। पंच परम गुरु तेह, जेन्ह पंचमी पइ पामीय । पंच परम गुरु तेह, जेह जन सहु जयकारीय । पंच परम गुरु तेह, जेह मुगाती वर गामीय । पंच परम गुरु एहवा जे भवीण नीतरू देह धपि । बाइ अजितमती एवं पदती भव सासर ते नर तरे ।।5।।
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राग केदारो
तू तो वृषभ जिनेस्बर वृषम जन सहु कृत वृषभ लांछन सोवनमि' काया करी मोहि राया वृष मगट को राजसह परहगी मुगति ग्यरिग सुति चित्त लाया ॥१॥ कुमार पदवी सलाग्य पूरबगयो. त्रिसिट लाख पूरब काल सुखमि हुयो । एक लास पूरब काल जब रह्यो, तब जिनवर वैराग भयो ||२|| लोकालिक देव जय जय करतु हि, जीव जीवतु नंद नंद । तप कुठार करी कर्म कानन वन, तेह नी कीधो स्वामीतिनी कंद ।।३।। नृत्य नीलंजसा देखी नी मीत करी, संजम श्री सृतिचित्त घरी ।। कर जोडी बाद प्रजोतमती कहि, मुगति रमणि जिन वेग वरी ॥४॥
राग कैवारी तु घेते चेतन चतुर नरा. मेग ब्रह्म भलो नही चिन्त थीरा । कर्म नो कर्म भावणि पाछादीयो, ते सुर सुभट तू जीत घिरा ॥१॥ रुदय कमल सेज्यामि सुत्रत हि, जागत ऐनस पास नावि । जनम जरा मरण दूरी करी, ते नर सिव पुरी वेगे जावि ॥२॥ दुष दमि जिम कांचन विराजतु हि, तेम देह मां देही तु परम देवा । त्रिकाल जोग बीरी कर्म सहु नजिरी प्रगति रमणि तुझ करइ सेवा ॥३॥ अतुल बल वीर्य पराक्रम पुरतु, तुझ सम नही कोइ परम जीया । कर जोडी बाद अजीतमती कहि. तुझ समरे मुनी मुगाप्ति गया ।।४।।
राग बसन्त
श्री सरसति देवी नमीय पाय, गाएसु गुण श्री नेमि जिनराय । जेह नामि सौक्ष अनंत थाय, भूरी पातिग भर दुरे पलायि ।।१।। सीव नारी मु नेम रमि वसंत, अतिसि सजनि वीघो मुणबंत । न्यान सरोवर सात रसि भरयू माहंत, मुनी हंसी की सरोवर सोहंत ॥२॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
समुद्र विजय मिवादेवी यंद. तीन मुवन माहि रे हवो आणंद । तु जनमि बाध्यो धर्म कंद, तुझ चररिंग नमि देवता वद । ३ । हरिवसं नभसी तु उग्यो सूर, नेमीनाथ तुरे बलवंत भूर । जेणे जोबन पगिण तजि नारी दूर, मोह मयण रायतितो कीधा चूर ||४|| वारिध सुर सुभट सुराय, सुः मा जन माहिर जाप । क्रम लावा तीतर चरणे चंपायि, ध्यान मोर दहुका रंग उपायि ॥५॥ सागवाडा नयरे चि बहु अास, श्रीम संधनी पुरचो स्वामी प्रास । सुभ असुभ कर्मनो करो बीनास, बाइ अजीतमसी ए बोली भास ॥६॥
धन जोबन ठकरी बहत परी । तेह प्रतीत हये । तीन भुवनि के राय उलि बल सबहि अतीत भये ।। १।। ।धन।। चेतो चेतो रे तह्मि बापु रे, लक्ष चौरासि बहु तफ पाये । काबहि न छाडे भये । धन जोवन ॥२॥ दरसन ज्ञान चरण तप बहुत बार लहे। मोह मयण रायि जब कोप्पो तब मुझ कु न रहे | 'धन।।३।। हैं किसको नहि को नहि मेरो जब सुन्य ध्यान घरे। कर चंडौ बाइ अजितमति कहे तेस के काज सरे ।।धन॥४॥
राग बसन्त
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हुँ दलिहा। चेतन की, जो चेतन सुचित लाये रे । वसुकवाद लि पायाघे तो ते सहु विकटी जाये रे ।।१।। मोह फांद गति फांदीयो, तोह जु भनचेते काय रे । प्रकन अरुषी ज्ञान सरुपी, ते तुझ क्यों न सुहाय रे ॥२॥हु।। जे विनासि पवारण दिसी ते उपरि बह रंग रे । मोहनि कर मिहु लपटापो, तो फीफी पम्यो भंग रे ।। ।।३।।
जासु पयास भवदु तर तरी शुभ सुदर सीपु जाय रे। कर जोडी बाइ अजितमति कहि, सुद्ध भाव धरो मन लाइ रे ।।हु ।।४।।
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१४
शग सामरी नमो नमो पास जिणंदह पाय नील बरण शुभ सुदर काय, पूजतां पातिग जाय ।।१।। अश्वसेन वम्मादेवी नंदन वेदन, जन जन प्राधार । सुर नर फणीपती खगपती वमली करे जिन जय जयकार ॥२|| नमो।। नयर वणारसि जनम्यो एह प्रभु, सतगुरु सतमु प्राय । हस्ता नव सोहि उन्नत काय, इक्ष्वाकवंस को राय ॥३॥ घाति अधाति कर्म सबनर्जी, पोहोती मुगतीवास । करि जोडी बाइ अजितमति कहि, पूरबो हमारी प्रास ||४ानमो।।
४. इतिहास परक घटनाओं का वर्णन
श्री वृषभनाथ निधारी मरीचि अनेक दर्शन अनेक मतनी स्थापना कीधी। भरत चक्रवत्ति हमनी स्थापना कीधी । श्री सीतलनाथ पछि पनि यागनी स्थापना कीधी। पहिलि मुशालाएगिम दश कु दाननी स्थापना कीत्री। श्री पाश्नायनिवारि पहिताश्रवस्य शिष्य अत्रीको ति ते रो बुद्धनी स्थापना कीधी । मास मद्यना दोष न मानि । श्रीमहावीर निवारि ममक पूर्ण मुनीस्वरि तकनी स्थापना कीवी । राजा वीक्रम 'पलि वर्ष १३६ गते भद्रवाहु शिष्य प्रत्याचार्य तास शिष्य जिनचंद्रेण स्वेताम्बरमी स्थापना वीधी। स्त्रीनि मोक्ष गृहीनि मोक्ष । तीर्थकर ने आहार न्याहार रोग वस्त्र फेन लीनि उपसर्ग गर्भ संचार कहि । तीर्थकरी करी कहि महावीर ब्राह्मणी गर्भ संचार कहि । मांस भक्ष गहे प्राहारनी लोतिनमानि । वर्ष २०५ जासे श्री कलसेन प्राचार्य प्रापुनी गच्छनी स्थापना की थी। पछि वर्ष ५३६ गते श्री ज्यवाद शिव दज्रनंदी द्रावर संघनी स्थापना कीधी । बीज मन्न पासी सचीत्त न मानि ।क्षेत्रा दौसावद्ध न मानि । वीक्रम पछि ७५३ बिनयसन शिष्य कुमारसेन सन्यारा मंग करीनि काष्ट संपनी स्थापना कीधी। पीछि काठण चमरनी लीधो । स्त्रीनि पुनरपी दीक्षा । अलकनि वीरचरी । दृहु अगावत काहि । वीऋय पछि २०० जाते मधुरत्या नाममेने माग गच्छन्नी स्थापना कोधी । नपीछीया । दक्षण देसे पिझ देसे पुत्वालावती नगरे श्रीरचंद्र मुनिना तेन करीप्यति भोलिसंघ । वीक्रम फ्छी वर्ष १८०० जाते कीया वीपरीत करीस्यती। संवत् १६५० वर्ष पंचमी दिने लखीतं बाई अजीतमनी निज कर्मक्षयार्थ ।।
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कविवर परिमल्ल परिमल्ल १६वीं-१७वीं शताब्दी के कवि थे । उनका जन्म ग्वालियर में हुआ लेकिन उनकी जवानी एनं बुद्धापा आगरा में व्यतीत हा 1 कवि का परिवार एवं पूर्वज अत्यधिक प्रतिष्ठित एवं राज्य द्वारा सम्मानित थे। उसने अपने पूर्वजों का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
चन्ता गौरी
रामदास चौधरी
पासवारन चौधरी परिमल्ल चौधरी
चन्दन चौधरी ग्वालियर के महाराजा मानसिंह द्वारा सम्मानित व्यक्ति थे । सम्भवतः वे मानसिंह के विश्वस्त उच्चाधिकारी प्रयवा नगर सेठ थे । उनका यश एवं ख्याति सारे देश में व्याप्त थी। उनके पुत्र रामदास जो कवि के बाद ये अपार सम्पत्ति के स्वामी थे। जीवन में उन्होंने अपार सुख प्राप्त किया। उनके पुत्र एवं परिमल्ल कवि के पिता मासकरन अपने कुल के दीपक थे और अपने परिवार की ख्याति एवं प्रतिष्ठा को पूर्ण रूप से बनाये रखा था। ऐसे परिवार में जब परिमल्ल का जन्म हुया तो चारों ओर प्रसन्नता छा गयी। परिवार एवं माता-पिता का उन्हें पूरा लाड प्यार मिला | ग्वालियर में ही उनकी शिक्षा दीक्षा हुई और यहीं अपने पिता की छत्रछाया में उनका बाल्यकाल समाप्त हुआ।
कवि दिगम्बर जैन बरहिया आति के थावक थे। उस समय ग्वालियर में बरहिया जाति के अच्छी संख्या में घर थे । सभी वैभव सम्पन्न मर्यादा पूर्ण एवं मशस्थी थे। लेकिन कवि के पूर्ण होने वाले महाकवि रबधू ने बरहिया जाति का
गोवरि गिरि गढ़ उत्तिम थांम, सूरवीर तहां राजा मान । ता प्रागं चोदन चौधरी, कोरति सब जग में बिस्तरो ॥३५॥ जाति बरहिया गुनं गंभीर, प्रति प्रसाप कुल राजे धीर । ता सुत रामबास परवीन, मंरन प्रासकरम सुभ दीन ॥१६॥ ता सुत कुल मंडन परिमल्ल, बसै प्रागरे में तजिसरुल ।
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कविवर परिमल्ल चौधरी
कोई उल्लेख नहीं किया । १८वीं शताब्दी में होने वाले पंडित वख्तराम साह ने चौरासी जातियों के नामों में बरहिया जाति का कोई उल्लेख नहीं किया लेकिन यदि बारहसनी जाति ही बरहिया जाति का दूसरा नाम है तो इसका उल्लेख तो यत्र तत्र मिलता है । फिर : १५४:: में एक निमोस्त में बरहिया कल का उल्लेख अश्यय मिलता है इससे यह तो स्पष्ट है कि बरहिया जाति दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थी और उसका ग्वालियर एवं मागरा क्षेत्र में अच्छा प्रभाव था ।
परिमल्ल को अपने पिता एवं बाबा का कब तक प्यार मिला तथा तब तक उनकी छत्रछाया में ग्वालियर में रहे इसका कोई उल्लेग्न नहीं मिलता लेकिन वे ग्वालियर छोड़कर अपने परिवार के साथ आगरा प्राकर रहने लगे थे इस घटना का कदिने अवश्य उल्लेख किया है। आगरा में वे शल्प रहित होकर रहने लगे थे इसका कवि ने निम्न पंक्ति में उल्लेख किया है।
"ता सुत कुल मंडन परिमल्ल, वसं प्रागरे में तजि सल्ल"
आगरा में उनका जीवन शान्तिपूर्ण था । जब उन्होंने श्रीपाल चरित्र की रचना प्रारम्भ की थी उस समय देश में अकबर बादशाह का शासन था । कवि ने अकबर के शासन काल का उल्लेख ही नहीं किया किन्तु उसके तेज एवं प्रताप की भी प्रशंसा की है। उसने समस पृथ्वीतल वो अपने वश में कर लिया था तथा उसकी चारों ओर दुहाई फिरती थी। इसी के साथ परिमल्ल कवि ने बाबर एवं हुमायु का भी उल्लेख किया है.
बाबर रातिसाहि होई गयो, तासु साति हमाऊ भयो। ता सुत अकबर साहि प्रधान, सो तप तप्यौं दूसरी भान ॥३२॥ ताक राज न कहूं अनोति, बसुधा सकल करी वसि जीति । जसदीप तास की प्राम, दूी अवरन ताहि समान ॥३३॥
रखमा काल
अधिकांश प्रशास्तियों में रचना समाप्ति के समय का उल्लेख होना है लेकिन श्रीराल' चरित्र में ऋषि ने रचना के प्रारम्भ करने का उल्लेख किया है जो मम्वत्
१. बुद्धिविलास--वस्तराम साह पृष्ठ संख्या--८६ २. संवत् १५४५ वर्षे वैशाख सुदि १. चंद्र दिने थीमूलमंघे .....भ.
जिनचंद्रदेवाः बरहिया कुलोद्भव साहु लेखे भार्या कुसुमां-तेन अर्जुनेनेदं प्रादीश्वर विम्यं स्त्रपूजनार्थ करापितं । भट्टारक मम्प्रदाय-पृष्ठ संख्या १०४
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बाई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
१६५१ प्राषाढ सुदी पष्टमी शुक्रवार है। रचना समाप्त कब हई प्रोर उसमें कवि को कितना समय लगा इसका कवि ने कहीं भी उल्लेख नहीं किया ।
संवत् सोलहस ऊपर, सावन इक्यावन माग। मास पषाढ पहतो माई, वर्धारित को कह बढाइ ॥३०॥ पक्ष उजाली माठ जानि, सुकरवार पार परवानि । कवि परिमल्ल शुष हरि चित, प्रारंभ्यो श्रीपाल परित ॥३१॥
श्रीपाल चरित्र के मतिरिक्त कवि ने मौर कितनी रचनायें निबर की इमका भी कहीं नामोल्लेख नहीं मिलता पौर न शास्त्र भण्डारों में परिमल्ल की श्रीपाल चरित की मतिरिक्त कोई रचना प्राप्त हो सकी है। जिसका अर्थ यही है कि प्रस्तुव कृति ही कवि की एक मात्र कृति है जिसको उसने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में लिली थी। श्रीपाल परित को पूर्व कृतियां
जन प्रम में श्रीपान का जीवन अत्यधिक लोकप्रिय है । सिक चक्र पूजा के महात्म्य के कारण श्रीपाल का कुष्ट रोग दूर हुभा पा इसलिये पूरा समाज श्रीपाल और मैना सुन्दरी के पावन जीवन से प्रभावित है और यही कारण है कि प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी सभी भाषामों के कवियों ने श्रीपाल चरित को कविता बय करने में अपना गौरव समझा । अपभ्रंग भाषा में निबद्ध जयमित्रहल, पंडित न रसेन एवं पंडित रइधू के सिरिवाल परिउ' पर्याप्त लोकप्रिय रहे है । संस्कृत भाषा में मट्टारक सकलकीति एवं पंबित नेमिदत्त के श्रीपाल परिव समाज में चर्चित पन्य रहे हैं। हिन्दी भाषा में परिमल कवि के पूर्व ब्रह्म जिनदास एवं पा रायमल्ल (संवत् १६१५) के नाम उल्लेखनीय है। यही नहीं परिमन के साथ माथ भ. बादिचन्द्र ने भी जगी वर्ष (संवत् १६५१) में श्रीपाल प्राध्यान लिखकर समाज में श्रीपाल के जीवन में प्रेरणा लेने का प्राह्वान किया।
लेकिन जिवनी लोकप्रियता परिमल के श्रीपाल चरित को प्राप्त हुई उत्तनी अन्य कवियों के काथ्यों को नहीं मिल सकी। यही कारण है कि राजस्थान के मास्त्र भावारी में कवि के धीपाप परित की पाण्डुलिपिया सर्वाधिक संख्या में मिलती है । अभी तकनपलब्ध पाण्डुलिपियों में साहित्य गोष विभाग (वर्तमान जैन विद्यासस्थान
१. देखिये - राजस्थाम के गम शास्त्र भण्डारों की प्रप भी भाग चतुर्ष
पृष्ठ संख्या ७७३.
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कषिकर परिमल गोभरी
श्री महावीरजी) के एक मुटके में संग्रहीत पाण्डुलिपि मिलता लेखन काल संबद १६६० द्वितीय वंशाण शुक्ला दोज है। उक्त प्रति के अतिरिक्त १७ १८वीं राती मैं लिपि की गयी निम्न पाण्डुलिपिया भी उल्लेखनीय है। १. शास्त्र भण्डार दि. जैन नेरह मेथी मन्दिर, दौसा पत्र सं. १८० लिपि फाल
सं. १६६१ फागुण सुदी१३ २.
दि. जैन मन्दिर चेतनवास दीवान पुरानी डीग
गुटके में है सं. १७५७ वि. जैन मीस पंथी मन्दिर पौसा १७ १७७४ ४.
दि. जैन तेरहपंथी बस मंदिर जयपुर. १५६ १७७६ ५. दि. जैन मंदिर गोषों का, जयपुर ५
१ ७६. ६.
दि. जैन मंदिर वर (भरतपुर) १५८ १५९ लेकिन संवत् १८४० के पश्चात् लिपि की हुई पचामों पाण्डुलिपियां राजस्थान के कितने ही शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत है। किसी २ शास्त्र भण्डार में तो ५-६ अथवा इससे भी अधिक पाण्टुलिपियों का संग्रह मिकता है। रामस्थान के अतिरिक्त पागरा, बेहली, मैनपुरी भादिनपरों स्त्र भण्डारों में भी श्रीपाल चरित्र काव्य की मच्छी संख्या में पाण्डुलिपियां मिलनी चाहिये ।
पद्य संस्था
श्रीपाल चरित की विभिन्न पाण्डुलिपियों का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकल सकता है कि उनमें पक्षों की संख्या समान नहीं है। श्री दि. जैन मन्दिर चौधरियों को पाण्डुलिपि में २२२२ पत्रों की संख्या दी गयी है जबकि राजमहल [टोक] की पाण्डुलिपि २२०० पथ, बयाना की पाण्डुलिपि में २२६० तथा गोधा मन्दिर जयपुर वाली पाण्डुलिपि में पद्यों की संख्या २३४१ दी हुई है। यह संवत् १७६० की पाण्डुलिपि है। इस तरह अन्य पाण्डुलिपियों में पद्यों की संख्या में अन्तर हो सकता है।
भाषा-श्रीपाल चरित ब्रज भाषा का कान्य है । प्रागरा व्रज भाषा का प्रमुख केन्द्र रहा है इसलिये परिमल कषि ने भी अपने काव्य में व्रज भाषा का प्रयोग किया है।
मापस में सब मती कराह पायो बोरगान जाहि । जो पाईस है हम लोग, सोई मानि लेह सब लोग.॥१४॥
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बाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
मोती रतम पार भरि लाए, सब मिलि बोरवपन पै गए । बाई भैरता माने परी, नाह सीस विनती है करी ॥१४॥
याकी, कौहू, गरो, जा देख १५०/१५) वाको (७३/१६) जैसे शब्दों को अधिकता है। काप्य की विशेषताएं
श्रीपाल एवं ममासुन्दरी पर हिन्दी में अब तक जितने भी काय लिले गये
प्रस्तुः कामी निको हतर है। मापा एवं वर्णन भोली दोनों ही आकर्षक है। कवि ने नायक, नायिका एवं उपमायिकानों के जीवन में घटने वाली घटनामों का रस वर्णन किया है। कवि की बर्णन शैली से काव्य के सभी पात्रों का परिष विकसित हुमा है सपा पाठकों में उनके प्रति सहानुभूति, करुणा अथवा रोष के भाव जाग्रत होते हैं।
काव्य का नायक श्रीपाश है जो कोटिभट है। मसंम्प योवानों की शक्ति का प्रतीक है। विपत्तियों एवं संकटों के सामने यह कभी हार नहीं मानता है किन्तु अपनी शक्ति, साहस एवं सूझबूत से उन सभी पर विजय प्राप्त करता है । वह युवावस्था में ही राण शासन चलाता है लेकिन कुछ ही समय के पश्चात् वह भयंकर कुष्ट रोग से पीड़ित हो जाता है । यह कुष्ट रोग उसके सात मी प्रेग रक्षकों के भी हो जाता है । खाना, पीना, उठना, बैठना, नहाना, घोना, वस्त्र पहिनना आदि सभी सभी क्रियायें दूसरों द्वारा की जाती है। संघ एवं पीप की दुर्गन्ध से साग वाताबरग वर्गन्धमम रम जाता है। नाक एवं मंगुलियां गिरने लग जाती है। कवि ने कुष्ट रोग योहा का बहुत प्रथा वर्णन किया है
बई राध पीडियो पसेर, होई गया पात समीर । कोत उबमर बदमो प्रति राई, नामि अंगुरी गरि गए पाई ।।१२१॥ रक्तपीत जात बोत, हार चोर राई में सीस। मर सेव या सौ गई, देह बाब मण्डारी ॥१२२॥ स्थाम दाप जाकै असमान, सो गणो हि सवा पान । मरबन करें नाहि गही काम, खवासारवार्य माना ॥१२॥
श्रीपाल राजा ये गिकिन प्रजानरमल थे। अपमे पुण्ट रोग के कारण जब प्रजा को दुख होने लगा, नगर दुर्गन्ध से भर गया, तथा उनका खाना पीना हराम हो गया तब मस्त्रियों ने राजा में विस्तार पूर्वक प्रजा की व्यथा बतलायी। तत्काल श्रीपाल ने कृष्ट रोग से मुक्ति पाने तक राज्य का समस्त भार पपने चाचा वीर
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कविवर परिमल्ल चौधरी
दान का मोगों का निश्चय किया। इस अवसर पर छवि ने प्रजा के महत्व पर बहन गुन्दर प्रकाण डाला है
राति बिन सोभा नहीं रहै, रायति बिम को राजा कहै । बिन खनि है मंत्री जिसी हूं राति बिन बोसो तसो ॥१२॥ x x x
x रैयक्ति को हम उपर छांह, रपति बस हमारी बह ॥१५९।। प्रेस को समाने लोय, राजा प्रजा परावरि बोय ॥१६॥
मैनासुम्दरी जब सोलह वर्ष की हुई तब रूप एवं सौन्दर्य की गाणि बन गयी। जिसने उसके रूप को देखा उमी ने दांतों तले अंगुली दबा ली। मैना सुन्दरी का कवि के शब्दों में सौन्दर्य देखिये
बोगस परव चाही परवान, कोष रूपन ताहि समाम । ताको पसो हेम करतु, मानौ तरप पूम्यो को चंदु । लोचन प्रचन मुबनत पति बने, यो बचत मृग सापक तने ॥२६॥
कष्टा दृष्टि मानु यह मान, मृकुटी कुटिल मनमप कमान । मार्च माग बिराज बार, मानौ मागमि के उनिहार ॥२७॥
कषि ने मैनासुन्दरी के प्रत्येक मंग के सौन्दर्य का वर्णन किया है जब मैना सुन्दरी को कोढी के साथ विवाह करने के समाचार सुने तो चारों ओर राणा को घिन्वारने तथा मति भ्रष्ट होने, विनाश होने के ताने सुनने को मिले । इसी प्रसंग में अपने २ कर्तव्य का पालन नहीं करने के कारण फिन २ का विनाश होता है इसका काव्य में बहुत ही सुन्दर वर्णन मिलता है।
विनसे मंत्री संकापर, विनस राव मन्त्र तो टरे। विनसै भामिनी प्राइसुतजपिनसे पूक देशि रण म ।।४०४॥
विनस सु कोह परहर, पिनस लावु पादु जा करें। विनसंराता तथं विवेक, बिनस वाइम बल दिन एक ॥४०५।।
श्रीपाल का कुष्ट रोग मिचक्रन्नत पूजा के प्रभाव से गया था। मैना सुन्दरी ने पूर्ण पास्था एवं विधि के साथ इस व्रत का विधान किया था । मन्तिम तीन दिन तक गन्धोदक से स्नान करने पर श्रीपाल का कुण्ट रोग दूर हुमा था।
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बाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
कवि ने इस व्रत के मण्डल मांडने, फिर उस पर पूजा करने प्रादि क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया है। इससे पता चलता है कि परिमल कांद पर भी थे।
सोन विस गंगोषक हाय, कोढ़ विध्ठ पर्यो पहराम । कंचन वरण भयो तनु सिौ, सोहतु हाम देवको जिसी ।।
श्रीगाल जब विदेश गमन करने लगे लो मैना मुन्धी अतीव धर्मात्मा होने पर भी पति विरह के दुग्व को सहन नहीं कर सकी और पति को अपनी विरह व्यथा निवेदन करने लगी
यह कहि गवनु कीयो परवीर, कामिनि व्याकुल भी सरीर । लोधन भरे चिस उमगो, मनु गाडी करि प्रचसु गही
श्रीपाल की बलि देने के लिये उसे घपल सेब के पास ले गये । श्रीरास मुदरता की प्रतिमूर्ति होने पर भी धवल सेठ के हृदय में किम्बित् भी दया नहीं मापी। पौर उसने उसकी बलि देने की स्वीकृति दे दी । लोभ मनुष्य का गला काटता है। इस प्रसंग में कवि ने लोभ रूपी गाप का विस्तृत वर्णन किया है
लोभ अंध जो मान होई, पाप पुन्य जामे महि सोई। लोम पंप वाक है प्राण, मलिन भाष महि तर्ष निवाल ||६.१॥ लोभ ग्रंथ जो प्राणी चित, सो पर जो न म नित्त । लोभ प्रग्ध आरको मन रहै, सो न भलो कार को कहै ।।१०२॥
श्रीपाल का जीवन विदेश में भी पूर्णतः धार्मिक था। जहां भी उसे जिन चत्यालय मिलता, वह वर्णन करके ही भोजन करता । यदि मुनिराज होते तो फिर उनके भी वर्भाम करता।
मिन पस्पाली बंधी जाय, तब ही भोजन करि ही प्राप। पर मुनिवर के बंदे पाय, भोजन करो सवारी जाय ॥
धवल सेठ ने जब रनमंजूषा के रूप को देखा वह, फामान्ध बन गया और पिता पुत्र के सम्बन्ध को भुला बंटर । वास्तव में मनुष्य जब काम का शिवार बन जाता है तो वह भाई बहिन, माता पिता, पुत्री के सम्बन्ध को मुला बटला हे इसी को कदि के शब्दों में देखिये
काम सुरा लामा परहरं, पर्थहीन कछु क्रिया न करे ।
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कविवर परिमल चौधरी
मुरा पालते सुधि सनु जाप, मा होनई पानिपुलाम ॥१२५०॥
कामी जन पंच परमार, कामी जन मन भाये गारि। कामो मन छार गुरु रोध, पान माना गपूर वेर ॥१३ कामी जन जन उत्तटो रोति, उसम तवं मध्यम सौ प्रोति । कामी जाम मितुनबंधु, मेनानि देख सवा निरंधु ।।१३४८।।
श्रीपास फिर संकट में फंस जाता है। धवल मेठ द्वारा वह समुद्र में गिरा दिया जाने के पश्चात् वह सागर तैरकर दूसरे वीप में प्रा जाता है । वहां सागर तटभर गजा के सिपाही उसका स्वागत करते हैं । और सागर वर कर मात्र के उपलक्ष में गजा माग अपनी लडकी गुणमाला से उसका विवाह कर दिया जाता है। ये दोनों कुछ समय तक मुम्ब से रहते है लेकिन जब धवल मेठ का जहाज उसी जीप में प्रा जाता है। श्रीपाल को देखकर घबरा जाता है और एक नयी चाल वेसता है। वह भांडों को बुलाकर राज दरबार में श्रीपास की भांड पुत्र सिद्ध कर घेता है । जिस व्यकि के पुरे दिन भाने लगते हैं नो अपनी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है तथा वह धर्म का मार्ग छोड़ देता है । कवि ने इसका अच्छा वर्णन किया है...
यह मुनि सेठ विसरतवं, जिनस हाल होतु मर जये। पहले मति ताकी कि जाय, बबस छुहमाय ।।१५३७॥ तोब सतुवते पुमि सीम, पाँच्नु छोनि लेप नगरीनु । महिमा ताके पास न रहे, मानु साह तणि मारगु है ।।१५३८१ संचम सोलु तजे अमिताहि, रमा बिकु बल चित शाहि । पहले गुरमति बैस चाय, मेरं सुभमंट लगाय। बहोरि होय पाया सौ प्रोति, बहोरि असरय कर बसि नीति ॥१५४०।।
भांडों ने राज्य सभा में श्रीपाल को अपनी जाति का तथा अपना लहका सिद्ध कर दिया । भांडों द्वाग किये हुग प्रदर्शन को देखिये
को लागि पोषय, कोर मुख पौधे विसाय । कोड ताक पर पाय, कोड वाह गर्दै भतार । कोल ताक पौर्य मंगु, ताहि देहियो समु संगु । कोर को धनि भूपराल, पाको भयो जहाँ प्रतिपाषु ।। भाहों ने विविध प्रकार से राजा को समझा दिया कि श्रीपाल उन्हीं का पुत्र
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
है। श्रीपाल को फिर अशुभ कर्मों ने गैर लिया। राजा ने क्रोधित होकर पंडालों को श्रीपाल को मारने का आदेश दे दिया 1
वह मुनि राव कोण प्रति भयो, डलन की प्रांसु रयो । मारो वह जीव मैं मत करो, या पापो से सूरो घरी ।। १५८२ ।।
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इसके पश्चात् नमंजूया से श्रीपाल का पूरा परिचय सुनने के पात्रा ने श्रीपाल से क्षमा मांग की और फिर से नगर में उसका जोरदार स्वागत किया पया। इसके पश्चान् तो विभिन्न द्वीपों से श्रीपाल के सामने विवाह के प्रस्ताव प्राने लगे और श्रीपाल ने भी सभी प्रस्तावों को स्वीकार कर अपनी उदारता का परिचय
दिया |
श्रीपाल को राजकुमारियों से विवाह करने से पूर्व उनकी समस्या पूर्ति भी बरनी पड़ी। कोरून पट की माठ राजकुमारियों द्वारा रवी गयी समस्या का श्रीपाल द्वारा निम्न प्रकार से पूर्ति की गयी ।
समस्या — जहां सामु वहां सिधि (श्रृंगार गांरी द्वा
पूर्ति सत्त सरीरह प्रापती, प्रगटें ओर सुबुधि ।
-
सीन सुभावन परहरं, जहां मासु तहां सिधि ॥१७१८ समस्या — गोपेत सबु (पउलोमी द्वारा)
P
पूर्ति नवि पूजा नवि दान हित अभियानो यो तव्य । वृथा जनम गवाइयो, गयो पेता सब्व ।।१७१६ समस्या- ते पंचामर सिंह (पलोमी द्वारा ) पूर्ति सील बिना जोबि तह, तिम की देह ममीन जे चारित्र निर्मला ते पंचायत सिंह ।। १७२० । समस्या का विवाज लीन
रावन विधा सोझियो, दशमुख एक सरोष | तास माय धधे परी, कासु विवाच खी ।।१७२२॥
इसके पश्चात् और भी देश की राजकन्याओं के साथ श्रीपाल ने विवाह कर लिया । एक दिन प्रधानक उसे नैनासुन्दरी की याद आ गयी धौर किया हुआ वायवा । वह तत्काल गुणमामा और रंनमंजूषा के पास भा गया और वहां से चलने की तैयारी कर ली. दलपट्टन के राजा ने उसे निम्न प्रकार सैन्य बल दिया—
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कविपर परिमल बोपरी
बलत राव तूष्यो बिहसंतु, एक हजार बए गजबंश ।। ज्यारि सहस पर ए तुरंग, दीने फुत्र बघर पर ।।
प्रनेक देशों में होताहमा श्रीपाल उज्जनी पहन गया जहां मैना सुन्दरी उस की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके दीक्षा लेने के समय में केवल एक रात्रि बाकी थी। मैनासुन्दरी के लिये एक रात्रि की प्रतीक्षा भी कोयन हो रही थी। मैनासुन्दरी एवं उसकी सास के मध्य होने वाले वार्तालाप को सुनकर श्रीपाल ने घर में प्रवेश किया। वोनों को बह रात्रि को ही अपने कटक में ले गया और अपनी माता एवं रानी को अपनी विशाल सेना एवं अपनी पत्नियों बतलाई। उसने सबके मामने मैनासुन्दरी को पट्टरानी-महागनी घोषित किया तथा न मन्जूग, गुरगमाला, चित्ररेखा को गनियां घोषित की। मैनासुन्दरी का हदय प्रसन्नता से भर गया और उगने श्रीपाल से निम्न प्रकार निवेदन किया
मेरे पिता करम नहि गन्यौ, मानभंग कोगे तासनौं । कंबर पहरि कुहारी कंध, कर पौना को मरी सबंध । अंसी विधि वा मिलि है सोहि तब ही मुम्न उपजंगों मोहि ।।
दूत ने तत्काल कर राजा से इसी प्रकार के वेश में श्रीपाल से भेंट करने का प्राग्रह किया । गाजा ने क्रोध में प्राफर दूत को पकड़ लिया। लेकिन मन्त्री के कहने से उसे छोड़ दिया। गजा पहपाल ने उसी तरह श्रीगाल में मिलने की बात मान ली लेकिन मैनासुन्दरी ने जब राजा का मान भंग होता सुना तो श्रीपान से पुनः अपने पिता को रामा के तरीके से बुलाने के लिये कह दिया। दोनों में अब परस्पर मिलन हुमा तो रागें और भानन्द छा गया ।
राजा पहपाल ने जब मैना सुन्दरी एवं श्रीपाल के वैभव को देखा तो उसके मांखों में प्रांसू बह चलें भोर निम्न शब्दों में मैना सुन्दरी की प्रशंमा करने लगा
भी पुत्री सबही गुण मान, सील धुरंधर मुख निधान । तुं प्रति स्थावतं जीय ओम, तो सम भूमी और न कोय । मै तेरो रेल्पो प्रब करम, पर माराध्यो निनवर धरमु ।
प्रभी श्रीपाल को अपना स्वयं का राज्य पौर लेना था जिसे वह अपने चाचा को दे पाया या इसलिये जब उसने अपना राज्य दूत भेकर मांगा सो उसे निम्न प्रकार उत्तर मिला
विशु भुजबल बिनु लगप्रहार, मिनु रए सुरै १ कर प्रसार । जौलों एह करम नहि होइ, तो लौ राज न पाये कोय ।।१९४६/t
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बाई जीतमती एवं नफाली कवि
श्रीपाल ने एक बार दूत भेजकर अपने चाचा को समझाने का प्रयास किया सो वह और भी कोश्चित हो गया और दूत को ही मारने का आदेश दे जादादुख दे या निग्रह करो, बेगे खालि काटि भुस भरी ॥
लड़ाई की तैयारियां होने लगी और उसने तत्काल आक्रमण करने का आदेश दे दिया।
भाषे मार मार सिंह बार हम गय साजो ले हथियार । यो संग्राम मिटं हम धाइ, जैसे जीवस एक न घाइ ।। १३८८।।
यह कहत करी उपरो चढ्यो, कार ले खडग चल्यो रिस बढ्यो, तादेखत ही सर्व जुझार, धाए काल रूप तिहि बार ।।१६७६ ।।
मैनिकों की गलियां जब अपने अपने पति को युद्ध के लिए विदा किया तो उन्होंने निम्न प्रकार अपने विचार प्रगट किये
कोज प्रिया मांगे रतिदान, हम तुम कंत जनम है श्रान ।
कोउ कहै दुहुं भुज तनौ, दरसाको पिप बल प्रापनों ।। १६६६॥
कोइ सीख देई कुल भॉम, शु हारि मति श्रावो धाम ।
बहुत
घोस जो खायो माल, स्वामी काज अब कसे हलाल ||२०००
कोड कहे संखिनौ नारि, भजियो पोय जो लागि हारि
I
एक कहै मुतन के हार, अरु पाटंबर वीर प्रभार ।।२००१ ||
दोनों में युद्ध होने लगा | गज से गज, श्रश्व से अश्व एवं पायक से गायक भिड़ गये । शाम हो गयी लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला । मन्त्रियों के परामर्श मे अन्त में यह निश्चय किया गया कि श्रीपाल एवं बीरदमन में परस्पर युद्ध होने गर जो जीत जायेगा वही राजा पद प्राप्त करेगा। दोनों में भीषण युद्ध होने
लगा 1
तब ए कोप चढं दो राइ, भिरे मल्ल ज्यों दोऊ धाय । ater art कर दोज वीर, लौट गिरं परं घर धीर ॥२०२८ । १
२४
से बहुत देर जब गई, श्रीपाल को प्रति रिस भई । ताके बीड पकरं पाथ, प्रति श्रातुर
लयो उठाई || २०२६||
धरती पटकन लाग्यो जगं जं ञं जं सबद कोयौ सुर सबै । कुसुम माल नाई ता गरें, इन्द्र प्रर्गव सब यो उच्चरं ॥। २०३१ ।।
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२४ख
कविवर परिमल्स चौधरी
वीरदमा ने अपनी हार मान ली और प्रीपाल को राज्य भार सम्हला कर स्वयं ने जिन दीक्षा धारण कर ली। श्रीपाल ने सब राज्य सुख भोगा और धर्म नीति के अनुसार राज्य किया। कवि ने धर्म की बड़ी महिमा गायी है। धर्म का प्रभाव एवं तेज अपूर्व होता है जिसके हृदय में धर्म उतरता है उसे चारों योर से गुग्ध शांति एवं अपूर्व प्रानन्द प्राप्त होता है
धर्म एक त्रिभवन में सार, घरमै सुति विनासम हार । धर्म एक सब सुख को कंदु, घरम एक भजे दुख दंदु ।।२०२५।। धर्म पसाय गज गुर्जर, धरम पसाय हौस होय घर । धरम पसाय चंवर सिर दरै, घरम पसाय छन्त्र सिर धरै ।।२०२६॥
अन्त में श्रीपान एवं मैनासुन्दरी दूसरे सहस्रों राजानों एवं रानियों के साथ जिन दीक्षा धारण कर ली। मैनासुन्दरी की घोर तपस्या का बहुत ही अच्छा वर्णन किया है---
अब वन मारग सो पगु पर, ग्रीषम रितु सिकता पर जरै । सरद सौम सम वदनी बिकासु, पोमनि करती पोष पियास । ग्रीषम हल माह परभात, हो तो मलिन सोत को घात ।।७]
इस प्रकार श्रीपाल चरित हिन्दी का उत्तम काव्य है । इस काव्य से हिन्दी काव्य जगत् को गतिशीलता मिलती है । महाकवि सुलसीदास की रामायमा के पूर्व दोहा, चौगई में रचित श्रीपाल चरित से तत्कालीन समाज में हिन्दी का अध्ययन प्रध्यापन, काव्य निर्माण में कवियों एवं विद्वानों की रूचि बढी श्री। पग्मिल्ल कवि का आगरा केन्द्र था और अज भूमि में हिन्दी का प्रचार प्रसार करने में जैन कवियों में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
श्रीपाल चरित में काय के नश्यक द्वारा जिन जिन देणों एवं द्वीपों का भ्रमण किया था उनके नाम निम्न प्रकार है--
१. राजगह-राजा श्रेणिक की राजधानी, मकान महावीर के बिहार का प्रमुख केन्द्र ।
२, चम्पापुर-अंग देश की राजधानी, श्रीपाल के राज्य की राजधानी, भग वान वासुपूज्य की निर्वाण स्थल ।
३. उज्जन-मालवा प्रदेश की राजधानी, मैना सुन्दरी को जन्म स्थली
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बाई अजीतमी एवं उसके ममकालीन कवि
२४ग
श्रीपाल द्वारा कुष्टी जीवन यापन, वन में सिद्ध चक्रवत की पूजा से कुष्ट निवारए । कवि के शब्दों में
देस मालबो सब सुख घामु, मध्यलोक मैं प्रगट्यो नाम 1
दुख नयि जिहि है वासर रैन, सुबस मस तहां नगर उन्जनि ।।६।।
४, कौशांबीपुर–श्रीपाल उज्जैन से कोपाबीपुर पहुंचा जहां उसकी धवल मेट से भेंट हुई । यहीं से बह सेट के मात्र आगे व्यागार के लिये गया ।
५.हंस द्वीप यात्रा का प्रथम पढाव । श्रीपाल ने इसी द्वीप में स्थित जिन मन्दिर के वनकपाट खोले थे तथा उसका रनमंजूषा से विवाह हुआ था।
६. कुकूम द्वीप-दलपट नगर—समुद्र को तैरता हुआ श्रीपाल इसी दीप के किनारे पहचा तथा दलपट नगर के राजा द्वारा अपनी लडकी मुरणमाला से उसका विवाह कर दिया । घवल सेठ के सारे द्वार प्रतिवाःर को नका बतलाने पर राजा द्वारा श्रीपान को सूली लगाने का आदेश दिया। लेकिन रैन मंजुषा का पहिचान के कारगा श्रीपान सुनी से बचा तथा पून: सम्मान प्राप्त किया । घवन सेठ को वहीं मृत्यु हुई ।
७. कुण्डलपुर द्वीप-म द्वीप में कुण्डलपुर द्वीप पहुंच कर चित्रग्या के साथ विवाह हुघर ।
८. कंधमपुर-बिनासक्ती का जन्म स्थान |
६. कोकण पट्टन-यहां श्रीपाल ने पहुंचकर पाठ राजकुमारियों की समस्या पूर्ति करके उनके साथ विवाह किया।
१०. पंडीय देश-कोकण पट्टन से श्रीपाल पंडीय देश में पहुचा । ११. मेवार देश-पंडीय देश से मेवाड देश में पहुंचा। १२. तिलिग देश-चोपान की यात्रा का अन्तिम देण |
१३. सोरठ देश (सौराष्ट्र )---ति लिंग देश से श्रीपान वापिस कुकुम द्वीप के दनपट नगर में पहुंचा तथा वहां कुछ ममम विश्राम के पश्चान् रैन मंजूषा, गणमाला प्रादि रानियों के माथ उज्जैन के लिये प्रस्थान किमा। तथा सौराष्ट्र में पहुंचा।
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२४च
कविकर परिमल्ल चौधरी
१४. सौराष्ट्र से श्रीपाल बहां के राजामों से कर वसूल करता हुआ मरहट (महाराष्ट्र) देश में पहुंचा।
१५. उज्जयिनी-महाराष्ट्र से श्रीपाल उज्जयिनी नगरी में पहुंचा जहां । मैनासन्दरी उसकी १२ वर्ष से प्रतीक्षा कर रही थी।
१६. चम्पापुरी-उज्जयिनी में बुछ समय अपने श्वसुर के यहां ठहर कर अन्त में वह चम्पापुरी पहुचा। यहां उसका अपने चाचा दीरदमन से युद्ध हुना और अन्त में विजय प्राप्त करके अपना राज्य प्राप्त किया । काव्य को विशेषता
श्रीपाल चरित्र अत्यधिक रोचक काव्य है। कवि ने घटनामों के बर्णन के साथ और भी ऐसे वर्णन प्रस्तुत किए है जिनके कारण काव्य और भी सुन्दर बन गया है। श्रीपाल का पूरा जीवन ही कर्म प्रधान है वह भाग्य' के सहारे भागे बढता है इसलिए निम्न मान्यता में वह अपना पूर्ण विश्वास रखता है :
विधना जो कछु लिख्यो लिलार, शुभ अरु अशुभ अंक शुभ सार ।
जैसो निमित्त जास क होई, ताहि मिटाइ सके नहिं कोई ॥३०३।। इसमे आगे कवि और भी अपने भाव निम्न शब्दों में प्रस्तुत करता है :--
पूरव ते पछिम रवि उव, नर फुनि मेरु चूलिका मुवै ।
सायर हू पं धूरि उडाइ , भाबी तक न मेरो जाइ ।।३०५।। भवितव्यता में इस प्रकार अटल विश्वास के साथ श्रीपाल प्रागे बहना है । मैनासुन्दरी का भवितव्यता में सबसे अधिक विश्वास है अपने पिता के बार बार पाग्रह करने पर भी वह अपने विचारों में दृढ रहती है और कुष्ट रोगी के माथ विवाह के अपने पिता के निर्णय को सहर्ष स्वीकार करती है। विवाह मंडप में बैठने के पश्चात् जब उसका सारा परिवार रुदन करने लगता है, मौन हो जाता है सब बह साहम पूर्वक कह उठती है कि जिस प्रकार उसकी बड़ी बहिन के विवाह में मंगलाचार गाये गये थे उसी प्रकार उसके विवाह में भी पाये जाने चाहिये :
लब सुन्दरी उठि ठाडी भई, निज परियन माता 4 गई। सुरसुन्दरी को गायो जिसो, भोको क्यों नहिं गावौ तिसो ।।१२०६१
पुनी के विवाह में जो कुछ पिता द्वारा कन्या को दिया जाता है उसे हम दहेज संज्ञा देते हैं। मैंनासुन्दरो के विवाह में भी श्रीपाल को ढेर सारा दहेज मिलता है
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श्रीपाल चरित्र
२४न
लेकिन माज के युग की तरह उस युग में मांग ठहराब प्रथवा जोर जबरदस्ती कुछ भी नहीं होता था जो कुछ भी दिया जाता उसे सहर्ष स्वीकार करने की परम्परा थी। और इसी परम्परा से समाज जीवित भी रह सका । श्रीपाल को भी दहेज में अपार चल एवं अचल सम्पत्ति मिलती हे कवि ने उसका अच्छा वर्णन किया है।
छन चमर पौ? भंडार, बीने मैगल वरीय से सार । पाटघर दीए बहु धोर, जिन सग निर्मोसिंक होर ॥१३४॥ सहस दास सुन्दर पुन बेह, बीए सिरोपाल को तेह । सेवग भले भसे जो भए, बहुत मौर सेवा को पए ॥१३६॥
पत्नी के लिए पति चाहे कैसा ही क्यों न हो वही उसका देवता कहलाता है । श्रीपान ने विवाह के पश्चात मैनासुन्दरी से दूर रहने के लिए कहा क्योंकि वह उस समय कुष्ट रोग से पीड़ित था। कहा रूप लावण्य की खान मैनासुन्दरी और कहां कुष्ट रोग से पीड़ित श्रीपाल ।लेकिन मैनासुन्दरी ने श्रीपाल को जो उत्तर दिया वह बहुत मार्मिक एवं पड़ने योग्य है :
विधिना मोहि यह लिखि वियो, सोहि मोको नि भयो । तुम मेरे प्रीतम भरतार, तुम मेरे मामा नि माधार ॥१५३।।
तुम प्रति रूपवंत गुमवंत, तुम हो मुख सागर बलिवंत । लोचन मुखी जो लोए चार, तो लों बेख मैं निहार ।।१५४।।
श्रीपाल जब विदेश यात्रा के लिए रवाना हमा। उसके पूर्व उसकी माता ने सुखद यात्रा के लिए कुछ बीज मंत्र दिये। ऐसी शिक्षा श्रीपाल के लिए ही नहीं सभी के लिए हितकारी सिद्ध हो सकती है कवि ने इन सबका बड़ा अच्छा वर्णन किया है -
अन दीनो मनि लीजहु वित्त, परदारा भति लावहि चित्तु । नौं ते बड़ी नारि जो होग, मात बराबर जारिणय सोय १७७०॥ होय त्रिया जो ताहि समान. ताहि जानि जो बहिन समान । जो कामिनि तौते लघु आहि. पुषी सम जो जारिणो ताहि १७७१।। गुणिजन मन को धरियो मानु, दुखी दीन जन दीजो दान । बहुत बात का कहै सुजान, बलियो व्रत संजम परवान ॥७७२।।
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२४छ
श्रीपाल चरित्र
श्रीपाल पुण्यशाली था। इसलिये जब विदेश प्रस्थान के पश्चान वह पुरपट्टन नगर में पहुंचा तो उसे सहज में ही तीन विद्यायें सिद्ध हो गयी जिससे उसको विदेश यात्रा में बहुत सहायता मिली। इन विद्यानौं के नाम थे शय निवारिणी, जल तारिणी । प्राचीन काल में मंत्र विद्याओं पर गन मामान्य को पूर्ण ग्रास्था श्री और वह उनके चमत्कारों से पूर्ण प्रभावित थी।
श्रवल सेठ का जब सम्न उहाज नहीं ना तो में मनुष्य की बलि देने के लिए कहा गया इससे पता चलता है कि उस समय उपसर्ग निवारण के लिये __ मनुष्य' तक की बलि देने का प्रचलन था। बलि के विमा श्रीपाल से युवक को
पकड लिया रया ।
तात मन में उपज्यो मदेहु, मंत्री मंत्र विनारयो गहु । एक गुरूस बलि वीज धान नब यह चल परोहन धाप ||७७३॥
प्राचीन काल में समुदी लूटेरे यात्रियों को लट निया करते थे। वे जहाज नक डूबी दिया करते थे । धवल सेठ को जहाज के ऊपर भी नटेरोन हमला कर दिया था जिसके कारण पूरा व्यापारिक संघ ही संकट में पड़ गया था । यदि श्रीवाल नहीं होता तो पत्ता नहीं धवल सेठ की क्या हालत होती।
श्रीपाल कोटिभद्र था । पुण्यशाली । इसलिये उसके हाथ लगते ही वन के किवाड़ खुल गये । जिनके खुलने का अर्थ था यहां के राजा की कुमाी रैमजूमा के साथ विवाह । श्रीपाल का भाग्य चमक उठा पीर विदेश में उसे सफलता पर सफलता मिलने लगी । इसके पूर्व वह जहाज बारे अपने बाहुबल से चलान लुटेरों को पत्रड़ ने में सफलता प्राप्त कर चुका था। यह तीसरी मफलता उसके अश्वल भविष्य के लिए वरदान सिद्ध हुई । श्रीपाल में रभ मंजूमा जैसी मुन्दर राजकुमारी ही नहीं किन्तु विवाह में अपार सम्पत्ति भी प्राप्त की इसका एक वर्णन पढ़ने योग्य है :
नमंजुसा मुरगह बिसाल, भोपाल व्या ही मुकुमान ।। सोयो दीगो तूठि के राय, चौर छन हृय गय प्रधिकाय ।।६।। दोनो मणि रत्नान भण्डार, दासी दास ग सुभसार ।।
और बहु को य हे बट्टा, दीनो नोतन महल कराय १८६३।। श्रीपान को जीवन में फिर संकट मा जाता है और वह समुद्र में गिम दिया जाता है ! उस समय रंन मंजुमा के दुल का कोई वाह नहीं रहता। वह भी
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बाई अजीतमानि गवं मके मालीन कवि
२४ज
पपने पूर्व कृन कर्मों को रोती है और निम्न प्रकार पश्चाताप करती है :-..
के मैं पर पुरूषह मन घरयो, के मैं नायस् जीयने टर्यो। के मैं काहे को वित्तु हरयो, के मैं विजन भात्रन करो ।। ११८१।। के मैं निधी जिन पर धम, के मैं अशुभ कमायो कम । क मै जीव दया परहरी, कं हूं कई प्रग्नि में जरी ।।१२८२।। के मैं ! गुरु सेइको, के. मैं सीनियो के मैं कहूँ उघारी अंगु, के मैं किया दरतु कौं मंगु 11१२८३।। के गुरू काही न लीनो मानि, के मैं भी बोल्यो जानि ।
के मैं परगुण मेयी पाय, के हूं बूडी नदी मैं जाय ।।१२८४।। श्रीपाल का व्यक्तित्व पूरा क्षमाशील था । ण को जीतने पर भी वह उसे दामा कर दिया करता था। उसने सर्व प्रथम समुद्री डाकुओं को धवल सेठ के जहाज पर हमला करते समय पकड़ कर लाने पर भी उन्हें क्षमा कर दिया । तथा स्वयं घवल सेट को उसे समुद्र में गिरा देना न भांडों द्वारा पुत्र मतलाने के षड्यंत्र का पसा लगने पर भी प्रवल सेठ को अमादान दे दिया । श्रीपाल ने अपने जीवन में कभी ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे उसके जीवन में कलंक लगता हो। इस प्रकार श्रीमान चरित्र शिक्षाप्रद काध है जिसमें एक प्रोर कर्मवाद (भाग्यवादा की प्रधानता है तो दूसरी पोर पुरषार्थ को भी गौरा नहीं किया गया है। स्वयं श्रीपाल राजा होने पर भी वैभव, धन संपत्ति प्रर्जन के लिए देशाटन करता है । यह अपने सिद्धान्तों पर चलता हैं और उनका कभी उल्लंघन नहीं करता ।
योगान का अन्तिम जीका माधु जीवन के रूप में व्यतीत होता है। अपने अपार राज्य एवं वैभव, प्राट हजार रानियों के भोगों को हेय समझ कर मुनि दीक्षा धारण करता है अर्थात अन्तिम जीवन में त्याग को प्रधानता देता हैं। जो वर्तमान भौंतिक जीवन व्यतीत करने वालों के लिए अच्छा उदाहरणं है । मानव को अपनी वृद्धावस्था में त्यागमय जीवन अपनाना चाहिये इसी में उनका कल्याण और प्रागामी जीयन के लिए शुभ लक्षण है । विद्याध्यन
श्रीपाल को आठ वर्ष का होते ही विद्याध्यन के लिए मुनि के पास भेजा गया जहां उसने मोकारमंत्र. अक्षर विद्या, मंक विद्या (गणित), न्यायशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, वैदिक प्रादि विद्यायें सीखी। यही नहीं जल में तिरना. घुड़सवारी, हाथी की सवारी, रथ की सबारी एवं संगीत प्रादि की विद्यायों भी अध्ययन किया। इसी तरह मैनासुन्दरी एवं सुरसुन्दरी ने भी विद्यायें सीखी इतना अवश्य है कि मैनासुन्दरी ने जिन मन्दिर में शापिका के पास जाकर जैन धर्म
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
की शिक्षा प्राप्त की जिससे उसके मन में कर्मवाद की प्रधानता स्वीकार करने का प्रभाव पड़ा और सुरसुन्दरी ने 'शिवगुर" से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसके दूसरे ही संस्कार बने। इस प्रकार जैसा शिक्षक मिलता है बालक के उसी प्रकार के संस्कार पड़ जाते हैं। मैनासुन्दरी ने जिस प्रकार की शिक्षा प्राप्त की उसका एक वर्णन देखिए :
जोतिष पढनो सौ परवानि, पागम अरु अध्यातम बानि । सीख्यो तिन संगीत पुरान, नाटिक साटिक कर बखानि ।। तर्क छंद पुत्री पति लियो, छह गसन तिन उत्तर दियो ।
भाषा सोजु अठारह पढी विद्या करि दिन ही नित बढी ॥२२७॥ इस प्रकार परिमल्ल कवि का श्रीपाल चरित्र उत्तम प्रबन्ध काव्य है जिसका जितना गहरा अध्ययन किया जावे, उतना ही श्रेष्ठ एवं सुखद है।
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श्रीपालचरित्र (परिमल्ल कृत)
चौपई
मंगलाचरण
थीसिखचक्र चिधि केवल रिद्धि | गुण अनंत फल जाकर सिद्धि ।। प्रणामों परमसिद्धगुरू सोइ । भविक संग ज्यों मंगल होई ॥१॥ सिमपुरी सिद्धनि को थान । सिद्धपुरी पानंद निधान ।। प्रगट जोति त्रिभुवन मैं पाहि । अलख देव को लखै न ताहि ।। २ ॥ अंजन रहित निरंजन जानि 1 हीन बुद्धि क्यों सकं बषानि ॥ जय जिनंद प्रादीसुर देव । मुर नर कित पद पंकज सेद ।। ३ ।। जय अजितेसुर गुनह निधान । मान रहित मिथ्यातम भान ।। जय जिन संभव हर धिकार 1 सुभिरत अति प्रानंद दातार ।। ४ ।। जय मभिनंदन नंदन वीर । गुन गरिष्ट भव भंजन भोर ।। जय सुमतीसुर परम उदास । सुमय प्रकाशन कुमय विनास ।। ५ ।। जय जय पपप्रम पद् जाहि । श्री संजुत्त कवलासन माहि ।। जय सुपास उपहास निकंद । प्रणवत दूरि होइ भ्रम फंद ।। ६ ।। जय चंद्रप्रभ केवल नाम । होहु कृपाल सबै सुम्न धाम ।। जय पुष्पदंत जीत्यो जिहि मार । दुर्घर धर्यो चारित्रह भार ।। ७ ।। जय जय सीतलनाथ मुनिंद । असुर जक्ष सेवै सुर वृद ।। जय श्रीयांस रहित विघनेस । उदिन मुक्ति वधू परमेम ।। ८ ।। जय श्री बासपूज्य व्रत लीन । जैन धर्म उपदेस प्रवीन !" जय श्री विमलदेव मति चंग । विमल घर्ण गुरग विमल अभंग ।। ६ ।। जय अनंत जिनवर सुभ थान । मन वन ऋम जानियो प्रमान ।। जय श्री धर्मनाय सुखगेह । कंचन वणं विराजित देह ॥ १० ॥ जय श्री शांति पयासिय शांति । दुःख हरन मूरति सोभांति ।। जय श्री कुंथ कुपंथ चिनास । केवल उदित ज्ञान परकास ।। ११ ।।
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श्रीपाल चरित्र
जय श्री प्ररह्नाथ जगनाह । अति बलिष्ट जिह मोह नसाह || जय श्री मल्लि मल्यो जिह मांन । पुन तीरय महि जो परधान ।। १२ ।।
जय श्री मुनिसुव्रत मुनिराई | इन्द्र अमर सेवहि तिस पाइ || जय जय नमि रतनत्रय धार मन के सकल विकार ।। १३ ।।
जय श्री नेमिनाथ गुणांन । तजि राजमती गए निर्वाण || जय श्रीपारस नाथ जिनंद | फनि मनि मंडित त्रिभुवन चंद ।। १४ । जय श्री बद्ध मान जिनरा | केरि लेखिन मासन थाइ ॥ चतुविंश जिन जे गुनमाल । प्रनवत दूरि होइ भ्रम जाल ।। १५ ।। अरु जे मुकतिपंथ मुनिगए । निरभय अलख अगोचर थए ।। कोनों नमस्कार परिमहल | जिनते दूरि होइ भव सल्ल ।। १६ ।।
जिनमुख अंबुज तैं उछरी । त्रिभुवन मांहि कला विस्तारी - द्वादशांग भासन भगवती । जास प्रसन्न होड बहुमती ॥ १७ ॥
विमल व वेदनि में कही । निज निपेठ अभंग भारही || निरगुण ताहि कहें बहु चंग । गुणता मैं राजे सरबंग || १८ ||
स्वामिनि जिन पर होहु दयाल । बढ़ें कथा ज्यों होइ रसाल ॥ मूरिष में पंडित पद नहीं । सारद गुन गाडी करि गहाँ ।। १६॥
षट वंसन मुख मंडन सार । मिथ्या कुमति विनासन हार ॥ २०
दोहा
मसुम हरन जग बंदनी, बंदी केवल संग ॥
देहु बुद्धि ब्रह्मादनी, ज्यों होइ उक्ति नवरंग ॥ २१ ॥
चीपई
तोहि सुमरि कर लेषनि गहौं । सिघ चक्र विधि वरनन कहीं || ज्यों सारद पसाउ मति लहीं। नवरस कथा प्रगट कर कहाँ ।। २२ ।।
गुरू गौतम मोहि देह पसाउ । वाढं कथा होइ मन चाउ ।।
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कुंनि परमेठि पंच गुरजांनि मन क्रम करि कही वषांनि ॥ २३५
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बाई अजीतमल एवं उनके समकालीन कवि
पंच परमेष्ठी एलबम
जय जय नमों देव प्ररिहंत । है प्रसिद्ध गुण जाहि अनंत || जय जय नमों सिध वर देव | अलख रूप त्रिभुवन करि सेव ॥ २४ ॥
जय जय पाचारि मुनिराह । श्रमर खबर जन बंदहि पाइ ॥
जय जय नमों परम उरका
जय जय साथ लोय बर बीर तिमको नमसकार कर जोरि
| उदीयत गुंभ जा भगनाह ॥ २५॥
अमृत सुधि बयान घरि ।। छातं जनमन होइ बहोरि ||२६||
पढत सुनत मन उपज चाउ । कहि परमल हीऐं घरि भाउ || कैसे श्रीपाल औतरयो । कैसे कुष्ट व्याधि करि भयौ ॥ २७ ॥
भोपाल के जीवन को जानने की उत्सुकता
रचना काल.
कैसे बन उद्यानह गयौ । कैसे सिद्धचक व्रत लयो । कैसे सायर बूड्यो जाय । कैसे कोढ़ गयो निकुताय ॥ २८ ॥ कैसे दल तिन अगदी घनीं । कैसे प्रगटयों वलु अपनी || कैसे राजकीयौ परत्रांन | कैसे वाकी चल्यो पुरान ।।२६।।
संत सोलह उपरं । सांवन इक्यावन श्रागरे ॥ मांस साठ यहूती या
वर्षारित को कई बढाइ ||३०|
पक्ष उजाली झायें जांनि । सुकरबार वार परकांनि ॥
कवि परमहल शुभ करि चित् । प्रारंभी श्रीपाल चरितु ॥ ३१ ॥ ।
बाबर पातिसाहि होइ गर्यो । तासु साहि हमाउ भयो । ता सुख अकबर साहि प्रवांन ॥ सौ तप तो दूसरी मान ॥३॥ा
सार्क राज में कहूँ अनीति । वसुधा सकल करी व सि जीती ॥ अबुदीप सास की अति दूजी, अब म तांहि समन ||३३||
सार्क राज कया यह करी | कवि परमल प्रगट विससरी ॥ जंबूप प्रगट सुभान । जोजन लक्ष नासु
॥१४॥
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श्रीपाल चरित्र
जा चहु फेरि सिंघ जल बह । कोऊ जाको पार न लहं ।।
तामै भरहषेत परवान। सब ही क्षेत्रनि में परघांन ॥३५॥ मगध के राजा श्रेणिक का वर्णन
मगधह नाम राज तिह देस । भूमंडल में सुजस असेस ।। नयर राजिगर सुजस बसाइ । बाकी स ही मजा । ३५६. अमरपुरी अमरनि की जिसी । है प्रसिद्ध महिमंडल तिसी ।। सुन्दर गृह सतपने प्रबास । बाडी बाग कुया चहू पास ॥३७॥ श्रेणिक राव तिहां अरिमल्ल | करै राज प्रगट्यो मुब मल्ल ॥ एक छत्र निवर्स इह रीति । बसुधा सकल करी वसि जीति ।।३८।। कथा नाय है लाको नाम पुन्यवंत सबको सुषधांम !! ताकै सत्तुसील जानिये । घरमातमा बसे गांनि ।।३९॥ कोऊ ताके दुषी न लोइ । दया दोन पाले सब कोच ।। ताकै बहुत महासुत जान । तामै बारिषेन परधान ॥४॥ तसु राणी चेलणा परषांन । सत्तसील अरु मुणह निघांन ।। कछु सुन्दरता कहीपन परै। दरस होत पापनि को हरै॥४१।। मिथ्या दरसन रीति सुजांनि । समकित की परतीति वानि ॥ अरु प्रति जनधर्म की लीन । दया दान पालन परवीन ॥४२॥ कर राज श्रेणिक नर पार । बहुत राइ सेथे दर वारि ।। एक दिवस सिंघासनि भाइ बैठमो सिर परि छत्र धरा ।।४३॥ सेषग लाप सेव ता करें । हय गय गाह घौर वंढरै ।। तिह अवसरि प्रायो बनपार । हर्षवंत मनमाहि अपार ॥४४॥
श्रेणिक के दरबार में बमपाल का प्रागमन
यह रित के जू फूल भए । भति मनोग राजा कौं दए । विपुलागिर परवत परवान । प्रायों समोसरग तिह थान ।।४।। चतुर्विशतमौं वीर जिनंद । दरस होत दुख दुरति निकंद ॥ कोतूहल कछ कहो न जाइ । सुर्ग लोक लिह कां रझो माइ ११४६।।
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शाई अजीतमति एव उसके समकालीन कवि
इंद्र चन्द्र धरनिद फनेस 1 तिनको वहत प्राहि मलबेस ।। प्रस्तुति करत जोरि दो हाथ 1 ठाढे रहत सुनी हो नाथ ।।४७॥
श्रेणिक द्वारा महावीर बन्दना
अमर खचर गन ग्रंथप जिते । सेव करन पावत है तिते ॥ प्रसों सुनि मानंधौ राउ । सीध तामह तह फियो पसाउ ॥४८।। कर कंकन प्राभरन अपार । दीनों ताहि न लाई बार 11 प्रासन ते उठि ठाढी भयो , मनको भरम सबै भजि गयो ।।४।। तिह ठा उपज्यो सुख असेसु । तीन प्रदक्षणा दई नरेसु ॥ वाषिरण ज्यों मनमैं सुष पाइ । फलि गयो सो अंगिन माइ ।।५।। मानंद भेरि घाइ सुख लह्यो । परजन सहित राइ उमगह्यो । पाटवर्द्धना गुणनि मांग । नारि चेलमा ताकै संग ॥५१ । गुण बरनत सो पहूं तो तहाँ । समोरारण श्रीजिन को जहाँ ।। द्वादस कोठा देखन लए । धनपति प्राइ माप निरमए ॥५२।। तिनकी सोभा बरनि जो कहों । कहत कथा कछु अंत न लहौं । मांनखयंभ देषियौ राइ । अति प्रानंद्यौ चित्तन समाइ ।।५।। तन जिनवर युति लाग्यौकरण । जय जय जरा जनम मौहरण ।। जय जय उदति नभ जीति जिनेस । जय जय मुक्ति वधू परमेस ।१४।। जय जय छियालीस गुणमंड । जय प्रतिसै चौतीस प्रचंड ॥ तीन लोक को सोमा जाहि । वोऊ और न उपमा पाहि ।।५।। जय जय केवलज्ञान पयास । जय जय निर्वासन भव श्वास । जय जय मान रहित जिनदेव । नर सुर असुर करें जा सेव ||२६|| जय जय प्रस्तुति राव करेइ । वारंवार प्रदक्षणा देश ।। नयों प्रतक्ष दु:ष भजि गयो । मन त्रच काय सप अति भयौ ।।५।।
गौतम स्वामी गरणहर पाहि । नमस्कार कीयो नूप ताहि ।। जिह ठा अजिकानि को साथ 1 वंदन करे तहां नर नाथ ।।५८।। अरु षुल्लक तहां जुरै आहि । समाधान तिन पूछ राई । शाके ह्रदै कछु न कुभाव । नर कोठा तहाँ बैठ्यो राय ।।५।।
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श्रीपाल चरित्र
श्रेणिक द्वारा सिधावस का जानने की इच्छा प्रकट करना
श्रेणिक पूछ वीर जिनम् । गिद्धचक्र फल कहि परमेसु ।। गुरग अनंत राजे मग । वाणी तब उच्छरी अमंग ॥६॥ गोतम स्वामी गुगह निधान । लागौ परिछन केवलनान ।। सुनि सुनि श्रेणिक गइ प्रवानि । सिद्धक् अत काही वषांनि ॥६१।।
कथा का शाका
जवदीप मनोगि उदार । जोजन लछि तास विसतार ।। छार सिंधु ता चहुं धां बहे । अलि प्रवाह को पारन लहै ।।६।। ता मै भरह क्षेत्र भो गार । मन्त्र ही क्षेत्रनि में अधिकार ।। सामहि अंगदेश परवान । अवर देनता गम नहि अनि ॥६॥
चम्पापुरी का वैभव
तहां नगर चंपापुरी वमं । देखत जाहि चिन उल्हस ।। सोहं गृह सनषने अवाम् । द्वार कंचन बलस निवास ॥६॥ घर घर प्रति चौतरा सुटान । अति उज्जन ते पाटिक समान !! विचि मिचि हींगुर बन्यों सुरंग । ते चमका देपियौ सुचंग ।। ६५ घर घर सर्व लोग पर धान । नक्षमीन ग व गुन जान ।। घर घर सुर. वेद घुनि बरं । गगफत भाषा उच्चर ॥६६।। सामोद्रक घ्यावारन पुरान । घर घर ही अरथ बषांन । जोतिग अरु वैदक गुन लीन । सब न' कोक कना परबीन ॥६७॥ सब को दया धर्म व्यापर । परसंगा नहि कोऊ करें। अति रमनीक हाट बाजार । बस तहाँ नर माह सा धार ।।६।। विराज नग निरमोलिक चुनी । तिनको अस वोन सब दुनी ।। कह' होइ बालक पेखनौं । मो बन नाहि कहत महि पनौं || कह कहु नाचक नाच ठाट 1 पाहु हु जाच भन भाट ।। कुली छतीस बस सहा लोइ । कुल की रीति न छोडे कोइ ।।७०।।
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बाई प्रीतमति एवं उनके समकालीन कवि
अपने अपने पित सब सुखी । तिह पुर कोऊ नाही दुखी ।। भास पास खातिका सुवांन । बहुत बावरी कुवा निवान ।।७१।। मरु तिहां वागर बामे सरे । सघन दाष दारों द्रुम फरे । बहुत मांतिः अमृत फल रूख । देषत जिने न लागै भूख ।।७२।। फरे नारियर अंब अभंग । वहुत करि नारिंगि सुरंग ॥ मगिनत फेला प्रौर पिजूर । रहे विजोरे जहां तहां पूर ।।७३॥
कुसुम कदम रहे बहु फूलि । रहे भ्रमर तिनके रसभूलि ।। तिहनी सोभा कहियन जाइ । जोजन बास रही महकाइ ॥७४।।
वस्तु वन्ध
केवरो केतकी मरो मोगरी अब जाइ,
गुलाव कुजो अवर करणी रह्यौ तहां महकाइ । मंजरी अफ जुही चंपों राइ बेलि सुबास,
पावर निवारी राइ चपी देखत बढ़ उल्हास फूली चमेली सरषडी मचकुद सोभित भूल, प्रवर एक सुगंध जित कित बहुत फूले फूल ।.७५।।
चौपई
महा फूल फूले बह भाइ। सोभा कछु कही नहि जाइ ।। कोकिल बोलत मघुरी भाष । सारो सूवा प्रगति सलाष १७६।। पांडुक षुमरी अवर चकोर । कहूक बोले विचि विच मोर ।। जो सय पंषी वरनन कहाँ । कहत कछु इक अंत न लहाँ ॥७७।।
मरु तहां सुभर सरोवर भले । मानों उमगि प्राप ही चले। तिन में प्रवुजु बहुत विसाल | लेत वास लुबथे अलिमाल ||७|| चकवी धकवा केलि करांहिं । जल कुकरी तहां फहरांहि ।। जिनकी सोभति मधुरी चाल । रहं निकट बहु जूय मराल ||७|| जलचर जीव रहे जहाँ जिते । वत कथा जो वरनौं तिते ।। है मनोमि सवही विधि परी। मानौं इंद्रपुरीषि सिपरी ॥५०॥
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अरिदमन राजा
करे राज परिवव नरेस ताकी बहुत आहि अलबेस || वीरदमन लहुरीता बीर । कोटी भट यह साहस धीर ॥८१॥ हयगय पाइक अगन प्रपार । परिगह बहुत लहं को सार ॥ सूर असंषि रहूँ दरबार । जे ढाबे छत्तीस हप्यार || २ ||
श्रीपाल चरित्र
भाग्या बेस दिसांतर दूरि । सुजस रह्यौ मही मैं भरि पूरि ॥ पट्टण गढ नगर भूपाल । तिनको श्राव बहुत रसाल ॥५३॥
कुन्दप्रभा रानी
एक छत्र सो आहि नरेंदु | मानों सोहं दुजी इन्दु ॥ कुदप्रभा ताकेँ अरथंग | पाठप्रत्रांनि गुणनि अभंग || ४ ||
सीलवंति सुदरि प्रति सोह। ता सम और त्रिया नहीं कोई || जैसे रामचंद्र के सीय । प्रगट पुरांन जनक की श्री ॥२६५॥
जैसे सति के रोहरिए नेह 1 जैसे कंबलर हरि के गेह ॥ समय समये के यह सुष जिसी । दिलसति पियके संगति विसौ ॥१८६॥
एकै दिन सौरनि प्रवास | सोद गई करि भोग विलास ॥ सीनि जाम निसि वीती तवें । चौथौ जाम आइयौ जब ॥८७॥
भयौ परफूलत ताको हियौ । प्रति उत्तिम सुपनों पेषियों । धवल महागिर कंचन बर्न । कलपवृछ देषियो वन ॥८६॥
तबै तहां अंधकार मिटिगयो । पहु फाटी जब पगडी भयो । बहु बुधिवंत सयांनी घरी । नाह पासि भाषं सुन्दरी ॥८६॥
सत्रदवन भरी सुनि सुन्दरी नारि । सुपने को फल कहो विचारी ॥ भूधर सुरतरु घवल जु दिठ । सो फल मन को इष्ट ॥१०॥
बहु जपै राइ सुजांन महा कुसल अरु विन प्रवान || सकल परिगह को सुषकार हैं सुन्दर तोहि कुवार ।।६१ ॥
1
कंचन गिर सम है और कल्पवृक्ष सम होइ उदार । दुषी
सोभत नृभम हो सरीर ।। बनहि की करें प्रतिपार ॥१२॥
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३३
बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
घरमधुरंधर लीनहु जानि । वहुत कहा हौं कहाँ चखानि " यह सुनि दंपति बहु सुख भए । निवसत धर्म करत दिन गए ॥३३॥ स्वर्ग यकी सुर चय करि गिर्यो । राणी गर्भ प्राय संचर्यो ।। मुद्द पाडर देषापोरवन । पुत्र डोहरा भयो उपः ६४i
श्रीपाल का जन्म
शूल पयोद स्तन पण मरे । अझता नैन बेषिए हरे । दसमास भयो गर्भ परवान । प्रति उदित्त रचि किरण समान ॥६५॥
जनम्यौ नंदन कुलह पयास । दुर्जन जनकों प्रगट्यो त्रास । सज्जन जन मन भयो प्रानंद । लक्षनवंत पायो कुलचंद ।।६।।
ताको मष देखियो नरेस । मनवंछित सुस्त भयो प्रसेस ।। कंसाल ताल बाजे अनिवार । भन वेद पढे झनकार ।।६७|| भयो उदार प्रति फल्यो गात । धन बिलसत को कह कछ बान ।। हीन दीन जे दुःष निधान । जिनने सुष व्यापं दिनमान ॥१८॥ हर हाटक मुक्ता मरिथार । बहु धन दीयो मंगन हार ॥ तब तिन जनम सुफल के घयो । बालक तीस दिवस को भयो । रानी राजा भयो सुप चंग । बालक सयौ उठाइ उछग ।।
जिन भवन पहीतौ जाइ । परस महा मुनीसर पाइ ॥१०।। जाको निविकार हो हियो । भव सुष सयल छाडि तिन दियो । ताक घरननि पार्यो वाल । रुपवंत सो महा गुनास ।।१०।। मुनिवर आ। वोलियो सौइ। धर्मवृद्धि दीनी मुख जोइ ।। नीकं करि मुनिवर सो दीठ । ह ह यह सव ही को ईठ ।।१०।। भाष्यो मुनिवर सुषदातार । याहि नाम श्रीपाल कुमार ।। अरु याम गुन है अधिकार । बरनत मोहि होइगी बार ॥१०॥
यह सुनि निमसकार तब कर्यो । पडते घरि मन को दुःष हो ।। जननी जनन लाडियो जानु । वरस माठ को भयो प्रदानु ॥१०४।।
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श्रीपाल चरित्र
श्रीपाल की शिक्षा
मुनिवर पास पटन सो गयो। ऊत्रकार प्रथम ही लयो ।। गण अक्षर मत्तह भयो लौंन । तर्फ वितर्क भयो कोक प्रबीन ।।१०५ । सामोदिक सीष्यो सुभ सार । पढ्यौ ग्रंथ व्याकरन कुमार ।। सबही विधि मो कला विज्ञान शीष्यो वहु सो प्रर्थ पुरान ।।१०६।। काना बहतरि प्रगट विनांन । चाद करे गंधर्व समान ॥ हय गय वाहन रथ' विधि पाहि । गुन छतीस प्रसिद्ध ताहि ।।१०७।। जल तिरिधी सीष्यौ तिह बार । सर्क वितर्क पढयौ अनिवार ।। जोतिग बंदक गुन सीषियो । पागम अध्यातम पछि नियौ ।।१०।। हैं प्रसिद्ध विद्या पद जिती : पयो कुचर भूनियर व तितौ ।। जोचन करि मारुदयो अब । राजा चित उल्हया तत्रै ।।१०८।। महाबली श्रीपाल सुजान । रुपवंत अरु गुनह निधान ।। अति प्रचंड कोटीभदु सोइ । जाकै दरस अघ क्षय होड ।।१०६।। वावहू' मलि न मा कूर 1 साहस धीर धरम को मुर ।। अंसी जुगश काल' कछु भयो । राजतिलक श्रीपालह दयौ 1॥११०॥ भयौ निगल्ल को कह बढाइ । माप काल वसि हूयौ राइ ।। है इंकार कियो संसार । बीरदमन दुख कियो अपार ।।१११।। श्रीपाल राजा दुप ब्रह्मौ । हुदै विचारि सोच करि कलौं । तीन नोक देष्यों प्रथगाहि, इहै मारग' सबही फौं पाहि ।।११२॥ यह विचारि अपनं जिय धर्यो । मन को सोक दूरि सव कर्यो ।। कूदग्रमा रानी समभाइ । देषि विचारि रीति यह माइ ॥११३॥ जो प्रथ माता कीजे सोग । तो सब हंस देस में लोग ।। छत्री कुल जाको अवतार । श्रीपाल यों कहे कुवार ॥११४॥ ताहि सोक पूछिएन जानि। बहोत कहा हाँ कहौं वधानि ।। मोते का होइगी जिसी । मांजी सेवा करिही तिती ॥११५।। • वात सुनत सुप ताका भयो । हृदै सोका माता को गयो ।। करे राज श्रीपाल प्रचंड । लीयो सब राधनि पैदर 1११६॥
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बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कयि
३५
ताकी सेव सातस बीर । ते बहु सह जूझ की भोट ।। ताको कीरति भई अमेस । कीन बसि और सब देस ॥१७॥ धर्मरूप राजा व्यौहर । परधन परत्रीय लोभ न करे ॥ दर्जन सकल जीति बसि कीए । महा दंड तिन पंत लिए ।।११।।
श्रीपाल के कुष्ट रोग होना
कोउ अबर न ता अंगव ।एक छत्र प्रगट्यो चक्का ।। ऐसी भांति काल कछु जाइ । पूरब पाप उद भयो प्राइ ॥११६।। कुष्ट व्याधि राजा कौं भई, हरे हर सो बरषत गई ।। झंग सातस है अति नेह सिनहू कोड बियापी देह ।।१२०१ वह राधि पीडियो सरीर । होइ दुगंधा बहुत समीर ॥ कोठ उमारे वेडयो राइ । नासि अंगुरी गरि गए पाई ।।१२१।। रक्त पीत जाक तन दीस । द्वार चौर राई के सीम ।। झर प्रसेदु छ। सो गहै । देह दाध भंडारी रहे ।।१२२।। स्यांम दाध मार्क असमान । सो राणं हि खवावं पान ।। मरदन कर जाहि नही कान । पजुत्रा करवाब असनांन ।।१२।। वरण 'फबारी घरे मंजेज । भूपति वी सु विछावै सेज ।। कंठ गुम सोहै कुतवार । मूरज वा सूर अवसार ॥१२४।। जाको कई कहु गर्यो सरीर । सो नर व माहि उजीर ।।
और दुरगंधि मुप याय जन । सो निरंद को है परनि ।।१२५५॥ काछ दाध जाके तन प्राहि सोदल ये सब देखे चाहि ।। बहे नांक अरुमनी मनि करें । ते राजा के पानी भर ।।१२।। जिनके गात गर बसि वार । पाइक देषिए अपार ॥ से सिरतेरु पाइते गले । ते निसांन बजां भले ।।१२७।। जाकै रकत बेव तिस वास । सो नर बैंक प्राहि खवास ।। बाके हरष गिरा बढ़ कर । बहुतक जन ते नृतहि करै ॥१२८।। महा वाउ बादर अनकार । जरदौनिया बजावे तार ।। जाऊ मापी लागै दौरि । बीन बजाद तार मरोरि ॥१२६॥
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श्रीपाल चरित्र
गरे षांपरै गावे गीत । पातरि नाच पुर विपरीति ॥ असौ तिहां अषारी होइ । सबनि कोढ़ जाने सष कोइ ।।१३०॥ जो सब कोढ वरनि के कहौं । कहत कहत कछु अंत न लहाँ ।। इह सामिग्री राज कराइ । सगरी सभा जुहारै प्राय ।।१३१॥ कबहूँ न निफर संस बजार। गैर महल के सभा मझार ।। सेवग साह् जुहार जिते । राजे देषि बिसूरं तितं ॥१३२॥ जनमन कह सर्व सति भाउ । एह श्रीपाल महाबल राव । अरु यह दया धर्म परवान । राजनीति पाल गुन जान ।। १३३।। ताको कहा कर्म यह भयो । कुष्ट रोग जाकै तन तयो ।। कछु कर्म गति कहियन जाइ , महानींच नीचनि को राई ॥१३४॥ उत्तिम की मध्यम गति करें । मध्यम को उत्तिम पद धरै । नृपस्यों ते नहि कथून हाइ : घर र गास, पिकाह ।।१३।। महा कोढ राजा के अंग । कोढी अंग सात से संग ।। बह दुर्ग घता बढ़ी अपार । फैलिंगई सब नगर मझार ।।१३६।। जब बयारि बढे नहि घट । तब नांक सवही की फट ।। बहुत बात को कई बढाइ । कोऊ नगर न भोजन खाइ ॥१३७।। कोऊ विनती सके न मोडि , बहुत लोग गए घर छोडि । घर घर एक बुलावो फिरयो । रयति लोग नगर को घिरयो ।।१३०॥ जो पात्र सो काही विचारि । महा दुष क्यों सके सहारि॥ कोऊ कहै भजी हरिवार । जैसे राजा लह न सार ।। १३९॥ कोक कह श्री न करेहु । आइस मांगि राइ मैं लेहु ।। बनिये भाजै छाडि धनाम । मरिह दुष देषि बेनाम ॥१४॥ प्रापस मैं सब मती फरांहि · प्रावो वीरदमम पंजाहि ।। जों प्राइस है हम जोग । सोई मांनि लेहु सब लोग ।।१४।। मोती रतन थार भरि लए । सब मिलि बीरदमन ५ गए । जाइ भेट ता प्राग धरी । नाइ सीस सब विनती करी १५१४२।। महादुःष सबको संदेह । स्वामी हमकों आइस देहु ।। तेरै देश अंत कहूं रहैं । राजा सौं त्यो निकसन फहूँ ॥१४३।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
३७
जाक राज सुख हम लयो । दुस्ख दरिद्र सब ही को गयो ।। जाकं राज धर्म का बास । सर्व करतु है भाग विवास ॥१४५।) जाकं राज पाप की हानि । जा हिरदै दया की षांनि ।। जाके राज सूल सब गये । हम धन परियन परे भए ११४६।। जाके राज सुबस ह्र बसे । कबहूँ दुर्जन दुषन केसे ।। जाक राज सबै जन सुखी । जीव रूप कोऊ नहि दुषी ।।१४७।। कुष्ट रोग अब ताकौं भयो । नासा पाइ पंगु गरि गयो ।। प्रस जे ग्रंग सातसै बीर । तिनहू को गरि गयो सरीर ॥१४८।। तिनकी महा दुगंधा होइ । सब ही पुर में फैली सोई ।। दिन हूँ मारि प्रन बिनि भए । कछूक मूए कछू भजि गए ।।१४६॥ जो जैसी कई सुनिए कान । तो भोजन नहि जाई खांन ।। फैली वास नांक रुधि रही । अब D हम तुमस्यौ नहि कही ।।१५।। महा कष्ट भूले सब चाउ । सब ही नगर भयो कह राउ । क्यों हूं कोक पीर न घरं । स्वामी हम पं रहो नहि परं ॥१५१।।
प्रजा का महत्व
सनि मनमॉनि चितौ राउ । अब यह कीजै कहा उपाउ । जो घर में श्रीपाल रहाइ । तो मोते राब रइयति जाइ ।।१५२।। रस्थति विनि सोभा नहिं रहै . रइयति विनि को राजा कहै ।। बिन पनि है पंषी जिसौ। ई रहयति विनि दीस तिसो ।। १५३।। विन पाननि तरवर जो चाहि । रइयति विन जो राजा पाहि ।, विन पानी है जिसौ तलाव । रइयति विन है तैसो राय ।।१५४।। जैसी है उडगन बिनु चंद । रइयति विन है तिसो नरिन् । बिन रुखनि जैसो वनु जांनि । बिन रइयति भूपति त्यौं मानि ।।१५।। जं सौं सघन घटा विनु मेह । रइयक्ति विनि त्यौं राजा एह ।। बिन हथ्यार ज्यों सु भट अनूप । तैसो रइयति दिनि है भूप ।।१५६।। बार बार बिचार राउ । अब तसौ कीजिय उपाउ । बस सव रक्ष्यति जो बहै । श्रीपाल सब मारगु गहै ।।१५७।। रक्ष्यति की हम उपरि छोह । रइयति बस हमारी बांह ॥ मैस कहै सयाने सोइ । राजा नजा बरावरि दोइ ॥१५८।।
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श्रीपाल बरित्र
बीरदमन यह चित्त घरी राष रइयति राज उपगर ।। बीरदमन भैसी मनि लाइ । मंत्री लीने पास बुलाई ॥१५॥ तुम कहाँ श्रीपाल सौं जाइ । जैसी बाक हिए समाइ ।। रइयति के मनको दुस्ख जिसौ । कहियो भांति भांति करि तिसौ ॥१५८। सब मंत्री नुपको सिर नाइ । बिनयो श्रीपाल सौं जाइ । कछु बस्न लो मनमैं रही । मंत्री जाइ राइसौं कही ।।१५।। सुनन बात प्रानंचो राज्ञ । मनमै फछु म कियो कुभाइ ।। समो देषि मंत्री उटि गयी । देम बटी को कारण थयो ।।१६०॥ तीज पान को बीरा लबो । पापुन श्रीपाल को दयौं । वन उद्याननि साहस धीर । जाह प्रसभ मजो बरबीर ||१६२।। जौली कुष्ट व्याधि तुम अंग । जौली अंग सातसै संग ।। इह असुभ मुजौ वर वीर बनमें बाइ मठ देवल तीर ।। १६२।। जौली उदं कुवर तो पाप ! तौलों नहि कीजिए संताप ।। जौलो शुभ न प्रसिद्धं पाई । तौलों पर मति प्राव राइ॥१६३।। होइ पून्य प्रगदै तुम तौ। आइ गज कीज्यौ पापनों ।। जाको राज भार तुम देह । सौई कर धरै जिय नेह ।।१६।। यह सुनि श्रीपाल उचर्यो । कछु कुभावन जिय मैं घर यो ।। कर्म तनों जान्यौं सुभ भाव । मनमें विचार कियौ सब यह ।। सुनह तात भाष्यो न्यौहार । मेरो ऊहो इह विचार ।।१६ मेरी बढी दुर्गधा धनी । होत दूी नगरी मो तनी ।। बिनती करि न सके को आई । मेरै चित बाती इह भाइ ।।१६६॥ मेरो दुःष वियाप्यो हियो । मैं हू बन ही को मनु कीयो ।। भली भई तुम निकसन वाह्यो । या को सुप बहुत में लघी ।।१६७।। तुम सब लट्ठ राज को भार । परजा कीज्यौ सकल प्रतिपार ।। न्याव नीति करि कीज्यों सुषी । सुपिन कोई होइ न पी ॥१६॥
सोरठा
जो उबरंगे प्रांन, कुष्ट रोग जो नासि है। तौहूं इंद्र समान, राज करौंगो पार्क ॥१६६।। जौं लग पूरब पाप मौ, उदै फिरंगी साथ ।। तौं लग अपनों भुजि हो, राज तुम्हारे हाथ ।।१७०।।
दोहा
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन सादि
चौपई
सबै राज में दीजो सोहि 1 मन मैं तात राखिज्यों मोहि ।। कुदप्रभा को देकर भार । निकस्यौ तन श्रीवाल कुवार ।।१७१॥ ताकै बली सात में अग । कोही सबै लागि संग ।।
बुरे भेस दीये सब जनां । मोई कमर को वोदना ।।१७२।। श्रीपाल का नगर स्याग
राज विभति जिसी वरन ई । सामग्री सब गोहन भई ।। जब ये गांव बाहिरे भए । लोधन वीरदमन भरि लए ।।१७३।। शेवं सब नग्री को लोग । विधना ने कित किया वियोग ।। घर वर सोग सबै जन धरै । अति बिलषाइर करुनां करें ।। घर घर फरै अमंगलबार । मूल्यौ सपनि सुख अधिकार ।। घर घर सुननांन होइ गई। पर मैं राति द्यौस ते भई ।।१७४।। वे चलि दूरि पहु ते जब । कुदप्रभा सुदि पाई तब ।। तिन मनमैं दुख कर्यो असेस । प्राजि मूयो अरिदमन नरेस ॥१७४।। गैह भरि नैननि मूकी धाह । अन्न हूँ निश्न भई अनाह ॥ विधनां इह बूझिा न तोहि । पूत बिछोह दियो बात मोहि ॥१७६।। वीरदमन राषि समझाइ । कछ, फर्मगति कहीं न जान ।। सुभ अरु अशुभ ज लिम्की लिलार । को है ताहि मिटांवन हार ।।१७७।। अब यह होनहार सो भई । सब सामग्री देषन गई ।। कर्मयोग क्यों मेट्यौ जा । लामों कहै बात समझाई ।।१७८।। जो लो प्रशुभ जोग तनु दहै । तो ही श्रीपाल बन रहै ।। बहुर्यो सुष देखेंगौ धनी । पाइ रान करि है अागनी ।।१७६।। माता मूलि करौ मति मोग । दांना देवनि प» वियोग ।। मानस कौन वान, जांनि । सुपिनी शो तू म मैं आनि ।।१८०।। कुद प्रभामन गाडी कि। धरम ध्यान परिचित राषियौ ।। ले जाप जिनवर संभौं । मुनियर दान मान पाचर्यो ॥१८॥ श्रीपाल पहुनी उमान । रह गब मठ देवल थान ।। राज विभूति सबै ता संग । कोडारूढ राबनि को अंग ।।११।।
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४
इति श्रीपालचरित्रे महापुराणे भव्यसंग मंगलकरणं ॥ बुधजन मन रंजन पातिन गंजन सिधचक्र विष दुषहरणं ।।१८३ ।।
भुवन सुषकारण, भवजल वारण, चौपई बंध परिमलकृतं ॥ सातसँ अंग ताकै संग, श्रीपाल उद्यान भ्रमै ।। १६४ ।।
द्वितीय सर्ग
चौपई
श्रीपाल उद्यान मैं रहे। कुष्ट व्याधि व्यापं दुख सह ॥ इतनी कथा रही इह ठौर । अंतरकथा सुनौ श्रम और ।। १८५ ।।
नोकं करि हौ करो बर्षाांन देस भालबो सो सुषधांम ।
उज्जयिनी वर्णन
श्रीपान चरि
दुःपनि जिह ठो बासुर रैनि । सुबस बसे तहां नगर उजैनि ।। नौ कोसकी वर्क्स चकराड़। बारह कोसो बसे लम्बाई ॥ १८७॥
पुहपाल राजा
I
। पंडिस भव्य सुनौ दे कान ॥ मध्य लोक में प्रगट्यो नाम ।। १८६ ।।
श्रीनिवास महाजन जहां । चौथौ काल प्रवसे तहां ॥ बनय यरण मरिण मंडप जरी प्रतिरवनीक मनोहर खरी ।। १६
I
राजकरै पुहपाल नरेस । तार्क परिगह बहुत असेस | जोधा बहुत सेवता रहूँ । रा संग्राम जुषं निरव ।। १८६ ।। एक छत्र सो राज कराह । ताकी की रति कहीय न जाइ ॥
ज्यो माता सुत उपरि भाउ । त्यो गरिजा प्रतिपाल राउ || १६० ।।
पट्टराभी सुन्दरी
सार्क कामिनि बहुतक गेह । श्रति गुनवंत रूपकी रेह ॥ जो सब नाम ननि के कही । कहत कथा कछु अंत न लही ।११६१ ।।
पाट परधान नांम सुन्दरी । भनौ भाऊ रम्भा श्रीतरी ॥
प्रति सरूप देवंगनां कही। कांमदेव ज्यो रतिपति मही ||१६२ ||
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बाई अजीतमप्ति एव उसके समकालीन कवि
संकर के ज्यो पारवती रती । प्रति सरूप सीता सम सती ।
तार्क गरभ सुप्ता हूँ रही। रूमवंत में पंडित सही ॥१३॥ वो कायात्रों का जन्म -
दोऊ प्रति गुनग्य भौतरी । प्रति लावनि विराज परी ॥ प्रथम कुवरि सुरसुन्दरि प्राहि । बहुत रूप सोभित है जाहि ॥१९॥ परि सिंवधर्म बस ता चित्त । कुगुर कुदेव सुघ्यावं नित ।।
कछु बिबेक ताहि नहीं होइ । छ ससारह सुष सो littal मंनासुन्दरी
लघु कन्या मैना सुन्दरी । रूपवंत अस सब गुन भरी ।। अंग अंग की सोभा जिसी । बलं कथा जो बरनौ तिसी ॥१६६।। अरु प्रति जैनधर्म परकीन । सीलवंत रस्नत्रय लीन । निर्मल जाको हिरदो ओइ । कपट बघन पौल नहिं सोइ ।।१६७।। बहुत विवेक चित्त ता रहै । मिथ्या बचन भूलि नही कहै । सब सखियन मैं सोम खरी। ज्यों सरिता मोहै सुरसरी ॥१८॥ मधुर बचन बोल बिसाइ । सब कुटंब राज सुषपाइ । पाए पाए घिय अंकौं भरै । रहसि खिलाद लगावै गर ।।१६६।। और बहुत को कहै वषांन । तिहकों उपज्यो बहुत सयानु ॥ मापन मंत्री विचार राइ । अरु तिन लीनी प्रिया बुलाय ॥२०॥ जुगस रवानी दौस एहु । देषत नैननि उपजे नेहु ।। मेरै जिय इह कही विचारि । इन पढावे सुनि वरनारि ॥२०१॥ सुनी राइ इन भांबतो जहाँ । दोऊ कुवरि पढावी तहां ॥ तिनै विसि करि पूछ राउ । पुत्री की प्रापर्नी भाउ ॥२०२।। जो गुर भावहि तुमहि सुजांन । तापं विद्या पढौ पुरांन ।।
सुरसुन्दरी कहै सुनि तात । सांची कहीं आपनी बात ।।२०३।। सुरसुवरी का विद्याध्ययन
दिन दिन बुधि होड गुन बढौं । अब हू निज सिंपगुर पै पढौ । राजा भली भली वरनई । कुवरि उठाइ उछगह लई ॥२०४।।
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अंपास चरित्र
शिवगुर तब धा लियों बुलाय । नाउ कर्ण सु को कहै बढाउ॥ बोल्यौ निकाट कहै सब राज । विद्या सुरसुन्दरी पढाउ ।।२०५।। जितनी होइ कला अरु ग्यांन । सब सिपाइ ज्यो प्ररथ पुरांन ।। भली भली पांडे उच्चरी । मौ परि पा गुसाई करी ।।२०६।। जो मौप गुण हो है राइ । याहि पढाउ सनिकु ताई। सुनी बात सब दुस्यो राइ । कछुक साको कियो पसाय ।।२०७।।
तब तिह भूपहि दइ असीस । जुग जुग जीवो कोडि बरीस ।। महिमंडल में प्रगटी प्रान । राज तेज बढो दिनमांन । २०८।।
सोरठा
जो लौ ससि मरु भान, जल गिर मेरु महि उचरं ।। तो लग इन्द्र समान, मंगल होहि नरेस घर ॥२०६।।
चौपई
विप्र गयौ घरि कुवरि लियाई । लाग्यो ताहि पढावन जाई ।।
मैंनासुन्दरि स्यौ नूप कहे । पुत्री कहा तोहि मनु रहै ।।२१०॥ मंनासम्बरी की शिक्षा
मुतौ तान हो कही सुभाइ । पहिलो जिन चैत्यालय जाइ । दंपति सुख तब भयौ अभंग । पुत्री लई उठाइ उछंग ॥२१॥ रानी राउ और जनभए । पुत्री लं देवाल' गए । पूजा प्रष्ट प्रकारी ठई ! अँसी परम गुरनि बरनई ॥२१२।। जल गंधाक्षत पुष्प अनूप । नईवेद दीपक अरु धूप ।। नाना विध फरल घरे बनाइ । दियो अरघ मन बच पर काय ॥२१३।। पुनि तिह ठां पेषियो मुनिद । जय जय तन उपर नरिंद ।। बस्यौ सुधभाव जिरणराज । भवसमुदह तिरन जहाज ।।२१४।। ध्यायें चेयण गुण जु, अपंछ । तीन गुपति पालन गुणमंड। भव्य कुमुद परफूलए चंद । घरसत ताहि वढे प्रानन्द ॥२१॥ मिथ्या तिमर विनरसन भान । जिन नियुकं खाइयो भय थांन । सत्रु मित्र जाफै इक्रसार । मन के निह सब तजे विकार ॥२.१६॥
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धाई अजीतमति उसके समकालीन कवि
बाईस परीसा सहन समष । केहरि दलन पंप मृग मय ।। तीन प्रदचिना दई समीप । नमसकार सब कियौ महीप ॥२१७॥ हरषवंत मनमाठि अपार । संदे चरन कबल नरपार।। दंपति पुत्री मैनासुन्दरी । बैठी तहां शुद्ध मन खरी ॥२१॥ जप राउ हरष प्रति गात । स्वामी सुनौं कही इक बात ।। लाडू पुत्री मैनासुन्दरी । मपर्ने जिय एह इच्छा करी ॥२१६।। पुी कहै जोरि हूँ हाथ । विद्यादान देहु अगनाथ ।। नरपति कलौ सुनौ मुनि जाम । दया करी ता उपरि ताम ॥२२०।। अजिया एक साल का पत्र । दया धर्भ बहकीयो जांनि ।। मन बच काय सुधता चित्त । जान एक सत्र अर मित्त ।।२२।। रतनत्रय प्रत पालन प्राहि । मुनिवर पुत्ति समी ताहि ।। रानी राम हरष अति भए । नमस्कार करि थर तब गए ॥२२२॥ मैनासन्दरि के मन चाउ । अजिया को ता उपरि भाउ ।। प्रथम पढायौ बोवकार । दुःख हरन विभुवन में सार ।।२२३।। पहिया बारह मस बिसेस । जात उप. बुधि असेस ॥ पहि लीनों नी करि चाहि । लघु दीरघजे अक्षर पाहि।।२२४॥ जांनी लोयह थिसि बिचित्त । पढिया घरिस पुरान पबित्त । गन अरु अगन मिलेई जांनि । काम अनेक मुकई बानि ।।२२५।। जोतिष पढ्यो इसौ परवांनि । मागम अरु अध्यातम बानि ।। सीष्यो तिन संगीत पुरान । नाटिक साटिक कर बानि ॥२२६।। तर्क छंद पुत्री पढि लियो । छह दरसन तिन उत्सर दियो । भाषा सोजु अठारह पढी। विद्या करि दिन ही दिन बढी ॥२२।। कला दिनान बिचछन भई । पुनि मुनिवरह पढ़ांवन लई ।। चारि ध्यान अणुयत जु पंच । सोलह कारन भावना संच ॥२२८॥ रत्नत्रय विधि गुनह निधान । दह लछिन जो परम प्रवान ।। जो कछु दादांग मैं कही । सो विद्या सब सुन्दर लही ॥२२६।।
दोहा मुनिवर पै सद गुन पढ्यो, किंयौ कुवरि मानन्द ॥ मन वध काय त्रिशुद्ध , बान्यौ पाप निकन्द ॥२३०॥
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श्रीपाल चरित्र
मन में पुत्री कियो प्रानन्द । जान्यो निहचे पाप निकन्द ।।
श्रीजिन पूजा करि मनु लाइ । मुनिवर के बंदे तिन पाइ ॥२३१। दोनों का अध्ययन समाप्त कर पाना
निज जननी हू बैठी जहां । सुरसुन्दर पडती तहाँ । प्रथम पुत्री बहु पद पुरांन । सामुद्रिक व्याकरणं सूजान २३२।। कोक कला नाटक गुन जिते । पढे कुवरि सुरसून्दर तिते ॥ पढि गुनि, महा विचछन भई । तब पांडेस्यों गोलि लई ।।२३३॥ राजा पासि पडतो जाइ । पुत्री देषि राज बिहसाइ ।। तबहि चिन बोल्यो करि सेब । मेरी बात सुनौ हो देव ।।२३४।। पुत्री के मन को तम गयो । विद्या दान याहि मैं दयो। और कहा हूँ कहू बघानि । करी परीक्षा आपुन जानि ॥२३५।। तब राउ प्रति हर्षित भयो । बहुत दान पांडे को दयो ।। दै असीस सिंकगुरु घरि गयो । पुत्री सभा देषि सूस्खभयो ॥२३६।। जो जो बात प्रयास कोई । सो सो निरभास कहि सोइ ।। चपल चित्त जोशन श्रीलही । राजा पासि वात तिन कही ॥२३॥ प्ररथ सिधासन जाइ बईट्ट ! दह दिशि जौवं चंचल दी? ।। राजा कही समस्या तेन । लॉि कहा कुवरि पुन एन ।।२३८।।
दोहा
पुन्यह लहिए एह, विद्या जोबन रूप धन ।। धरि परियन के नेह, मनबंछित सुष पाइये ।।२३।।
औपई
तब नृप रहो मुहां मुह चाहि । नीक करि मन चरथ्यो ताहि ।।
मांगि पुत्री वरु जो मन बसे । देषत ताहि चित्त उल्लस ।।२४०।। सुरसुन्दरी का विवाह
सुनौ सात हौं भाषौ तिसी । मेरे मन में बर्तत जिसी। कौसम्धीपुर को नृप जान' । बहुत सैन है तुम समान ।।२४१।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कनि
ता नन्दन हरिवाहन बरी । ताही रूप मोही सन्दरी ।। नीको वरु मो भायो तात । सांची कही मापनी बात ।।२४।। सुनि करि राउ बिचारै हियं । दाही जोग बने वा दिय ।। वोल्यो विन राइ यौं भनी । शुभ दिन जोग महरत गनी ॥२४३।। ताको बिधि सौं कियो विवाह । सवही जन मन भयो उछाह ।।
उनहू सुष मन भयो अनन्त । कौशम्बोपर गए तुरन्त ।।२४४।। मैनासन्वरी का वापिस पाना
मैंना सृदरि पहुंती तहां । नंदीमा की प्रतिमा जहां ॥
का करी सुभगा दिदी : देला होदा लियौ ।। २४५।। कछु न चित्त विचारी और । गई तहां राजा जिह दौर ।। प्राव प्राव राजा उसबरयो । गंधौदिक लं प्रागै धरयो ।।२४६॥ हाथ हि हाय अठोत्तर भरे । प्राय जिनेसुर के सिर दरै ।। इसौ गंघोदिक है, अनूप । सुर नर नाग लियौ करि चूप ।।२४।। कहै राज कहि पुत्रि बिचारि । यह कहि पाहिसु कहहि कुवारि ।। मैंना सदरि उचर बात । गंधोदिक जिनवर को तात ॥२४॥ हो। दुर्गध देह जाद, । सुदर दिव्य होइ जा लग ।। नैन निरंघह नर अौतार । नैक लग देखे संसार ॥२५६।। नक लग परि कम निकंद । जाकी इच्छ करत है इंद ॥ जनम भयो तीरशंकर जबै । साइर ले सुर लाए तबै ।।२५०।। हाय हि हाथ अटोत्तर भरे । प्राइ जिनेसुर के सिर ढरै ।। सुर अरु असुर इंदु हरसियौ । बारंबार अंग परसियौ ॥२५१।। सात सुनहि गंधोदिक सोइ । करै बंदना परमगति होइ ।। तब भूपति लै बंदना करी । धरमलीन पुत्री है खरी ।।२५२।। राजा हर्षित हूवो जांम । अर्घ सिंघासन बैठि साम ।। मां सिर जि पूछि भरि नेह । पूत्री कहो परीछण एह ।।२५३।। कीजै पून्य चित्त धाइये । तातं कहां लवधि पाइये ।। सुनि सुनि तात पयासी तोहि । जो नी के करि पूछौ मोहि ।।२५४।।
दोहा जिन सासन निरगंथ गुरु, व्रतह निर्मल देहु ।। मुक्ति धाम सब सुख करन, पुनह लमै एड ।। २१५।।
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૪૬
चौपई
सुनि निरंद भए लोचन भीन । कही साधु पुत्री फुंनि तिन भाष्यो मन अविवेक । मलिन वचन
बोहा
अति सुन्दर गुनवंत रु, जो को भाव तोहि । आज सु उत्तर समभिक दीजे पुत्री मोहि ।। २५६ ।।
चौपई
मैना सुन्दरी की बशर
इन नरनाह मांहि जो कोइ । मन भाय वरु मांगहि सोइ ||
ताहि समप्पु जोगु ज श्राहि । सूबो संन तात वचन जब सुनियों कान सब चित मनमैं भयो बहुत अनुराउ । मानौ ऐसौ घोल सत्रु नहीं कहै। यह दिशो जोवे ग्रुप करि रहे । बार बार सो लेइ उसास । बोलि न सके राइ के त्रास ।। २५६ ।। राइ बचन मन पर्यो दिठाइ । ना कछु को नहीं जाइ ॥
मनमैं दुष्ट दुष्ट उच्चारय । कहा पाप इन जिय मैं वरयी ॥ २६०॥ अति प्रविले लीन सो जांनि । कुल मारग तिहू तज्यों प्रवानि | प्रलिषो वोल व मतिहीन । मूरिख कछू लाज नहिं कीन ।। २६१ ।। बहुत बात को करें बढाइ । याकी है सब नींव सुमाउ
जाके नहीं फुल मारग देव | जाने नहीं दह लक्षिन भेव ॥२६२॥
मपाल चरित्र
परवीन ॥
तिन बोल्यो एक ॥२५५॥
भावे नकन बात विचारि धरती पौर्द दुचित भई
देऊ बहू ताहि || २५७११ मांहि गए श्रसान ।
भयौ बच को घाउ ।। २५६८ ।।
जाकं गुर निरगंध न कोइ । ताहि विवेक कहां ते होइ ॥
यह पुत्री मन में चितई । नीची दिष्टी न ऊंची भई ॥ २६३ ॥
रही मुरभि मनावरी । प्रति विचित्र सबही गुन भरी ॥ पिसुन बात ते कोपी हियौ ।। २६४||
तातहि उत्तर कुछ नहीं दियो
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संसं दह मैं परि कुवारि ॥ फुंनि नर
वंसो पूछन लई ॥२६५॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
सुनि पुत्रि पर उत्तर भासि । कहां मिस चितई प्रकासि || जैसे सुरसुंदरि बदियौ । माग्यो नाह ब्याह करि दियो ।। २६६५
तू काह राजहिं जांनि । परनि कुंवरि मनके सुषमांनि ॥ बार बार ताल यौं भने । पुत्री धिरकारे अवगत २६७॥ चितं सुध सजायी राज । अलि निष्टष्टु मूरिय अधिकार || जिसो निरंकुस मत्तगयंदु | करं श्राप श्रायौ मतिमंदु || २६८ ।।
जैसे बालक होय यांत । जो सो बोले कछ न ज्ञान ।। जैमैं अंशु बहुत दुख है । चहूँ दिसि जोवे पंथ न लड़ें ॥ २६६॥
त्यों नृप लाज दई टिकाइ । जोय रचत सो कहत बनाइ ॥
निज गुर वचन निपोषण श्रबं । संतोषी परिजन सब तब ॥२७०॥
जुरिच सुमान सील धुरंधर नुनह
वरी
जतात सुनी करि ने अजुगत बात कही तुम एहु ।। २७१ || जिनसूचि मुनिवर नहि भी सुनहु तात सबही वर सुदरि जो हो कुलीन । लोक लाज नहि तर्ज प्रवीन ॥२२७२ || अपजस धाम श्राहि जो बात सोई तुम भाषत होतात ।। लोक व याहि यह कर्म्मा । मन वांछित बर रहेन घम् || २७३ ।। मन भायौ जो करें विवाह । लोक सुहांती हास्य उछाह || कछु रहेनहि कुल की रीति । सब को भावे महा धनीति || २७४ ॥ अमितही तित होइ बिचार कोउ न घर सील को भार !! यह फेर सब कोऊ न करें । आपुन वंछि बरहिं जो वरै ।। २७५||
●
और कहां नौ सुनि हो रा । तो सौं कहीं कथा समझाइ ॥ श्री श्रीश्वर प्रथम जिनंदु | तार्क बारे पाप निकन्दु || २७६ ।। प्रगट पुराननि मैं बरनम् । कछ सुकछ द्वौ राजा भए । तिनके मई सुभद्रा दोइ । नंद सुनंदा जांन सोइ ।। २७७ ।।
रीति जु लिये ॥ २७८ ॥ |
जोवन वंत भई ते बाल । रूपवंत अरू गुनह विसाल || तिनहू बंधि वरकिय । रही सक्ष कुल तात बुधि ताकौं जो दई । थाइ सुरन ताकौ ते भई लीन जिनेस्वर पाइ । बहुत बात को सो मारग सो सुनि बात । मोषं खांड्यो जाइ न तात ॥ पुंनि ब्रह्मी सुंदरि पुत्ति । नंदिहि भई सर्व गून जुत्ति || २६०||
परनई ॥
कहै बढाइ || २७६॥
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४८
मीपाल चरित्र
माता पिता नहि दोनी कासु 1 तिन सब छोड्यौ भोग विलासु । मन मैं लाज भई प्रतिगाह । दुहूंनि छाड्यौ छिन मैं व्याह ॥२८॥ भई मजिका ते सुभ चित्त । जाने एक सत्रु अरु मित्र । भेदाभेद कछ नहि जांनि । जान सब जिन धर्म बानि ॥२८२।। लोक बिरूद्ध व्याह की लाज । भव सुष छडि दियो सुभ काज ।। अरु सुनि उत्तर कही विचारि । जीबी निज नैन निहारि ॥२३॥ तुमही वेषी सुरसुदरी । हीन बुधि तिन मनमैं धरी ।। ताहि दोष नहिं दीजै राइ । यह कारन सब गुरू पसाई ॥२८४।। जैसे जीव विचक्षन जांनि । है प्रैलोक माहि परधान ।।
षोर्ट संग करमकै रहे । निस वासुर महादुष सहै ।।२८५।। कमों की विचित्रता
छिन मैं नीच कहा सोइ । छिन ही मैं उत्तिम पद होइ ।। छिन ही मैं दुष पावै घनौं । छिन हो मैं सुष हुँ तुम सुनौं ।। २८६।। छिन ही मैं सु कहावै राइ । छिन ही मैं महारंक ह जाइ ।। छिन ही मूड महा भय भरै । छिन ही मैं संका पर हरे ॥२७॥ छिन ही में सौ दुर्गति जाह । छिन मैं स्वर्ग पहुंचे धाइ । जितने दुष पाब जड एहु । तितनी कहा कहाँ परि नेहु ॥२८८।। पै कछु जीवं खौरिन जानि । कर्म कुसंगति को फलु मानि ।। सुरसुदरी कुमति त्यो लही । कुगरू पढ़ाई तंसी कही ।।२८९॥ अरु सुनि गई वचन द कान । जातें सुअस होइ परवान ।। माइ बाप जाइ गुन साए । कुल उत्तिम जाको प्रोतार ॥२६॥ जोवनवंति देखें राउ । छिन लिन मन चितब सुभाउ ॥ मन वंछ मी वर मांग सोइ । सौलवंत नहि गनिका होइ १२६१।। बाप विचार जाको चित्त । पुत्री को जब देष नित्त । निर्भ होउ यह दी कास । कोबरु जोग सुकलह पयास ॥२६२६॥ यह चिस परिजन जु महत । सकल वोल कीजे सुभवंत ॥ उत्तिम कुल सोधिजे प्रवानु । विद्यापतरु पापु समान ॥२६३।। सुज्जन अन सब मंगल कर । होइ व्याह दो कुल उधरं ॥ कन्यां दान भाम तव लेइ । सौबौ तूठि वहुत करि देइ ।।२६४।।
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४६
बाई अजीतमप्ति एवं उसके समकालीन कवि
विनती करै जोरि दो हाथ । सब कुटंब सौंपे जो साथ ।। भावै अंध होइ मतिहीन । भाव होहु कला परबीन ।।२६५।। भाय कुबज होहु तनु वुरी । भाव गूगु होहु पांगरी ॥ भावं रोगी च्यापत पीर । भावं कुष्टी होइ सरीर ॥२६८|| भावं बालक होहु अयांन । भाव होहु सर्व मुन जान 11 भावं वृद्ध होहु विकराव । भावं जोगी होहु गवारु ॥२६७।। सब परियन सौंप जा बांह । चलै कुलीनु तास की छह ॥
यह कुल कर्म सुनौ चित लाइ । अरु विभ्रम दै सब मिटकाइ ।।२६८।। कर्म की महिमा
चलि हौं कुल मारग सुनि तात । हहै कर्म लिषी जो बात ॥ कर्म हो त होइ है राइ । कर्महि त जु रंक होइ जाइ ||२६६।। कर्महि तैं जस होइ अभक । कर्महि त नर बहै कलंक ।। होइ कर्म से पाछी भाम । कर्म हि त पावं सुभ धाम ।।३००॥ कर्महि त त्रिय होइ मुहाग । कम रूप होइ प्रगट भाग ।। अरु अति सुख कर्म तै लोइ । दुषी दुहागनि करम ते होई ।।३०१॥ कर्म हि ते जु होइ तन भंग । कर्मत होइ सोभित अंग ।। यह परपंच कर्म को सर्व । कोक और करी मति गर्व ।।३०२॥ विधना जो कछु लिथ्यौ लिलार । मुभ अरु अशुभ अंक शुभ सार ।। जसो निमित्त जासको होइ । ताहि मिटाइ सकं नहि कोइ ।।३०३।। अमर खचर पर गण गंधर्व । मासुर सुर गुर रवि ससि सर्व ।। जो ए सब मिली कर सहाव । कर्मरेष नहि मिटि है काव ।।३०४१॥ पुरच ते पछिम रचि उर्व । नर फुनि भेरु चूलिका छुदै ।। सायर हू पं धरि उडाइ । भावी तक न मेटी माइ ॥३०॥ पवनी जु महि मंडल परिहर । प्रानी काल हमें ऊबरं ॥
घासुर ते निशा फुनि होइ । भावी लिपी न मेटै कोइ ।।३०।। पिता का उत्तर
से बचन सुने जब राइ । मन कोपंत भनी अनुराई ॥ सुनि सुनि पुत्री तजौ अनि । कहा कर्म तेरौ दिनमान ||३०||
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श्रीपाल चरित्र
पंचामृन माल्यो दिन होई । छहरस भोजन हम वै सोई ।। ते सुष पुषी भुगतन लेई । तू तो कई कर्म मो देई ।।३०८।। मौ कौ प्रादि बहुत संदेह । तेरे गुरनि पढायो येड़ ॥
मैना का प्रत्युत्तर
जय नृप निन्दा गुरु की करी । तब बोली मनासुदरी ।।३०६।। सुनि अविवेकी तात बिचारि । सो सौ कहीं कथा विसताये। मैं सुभ कर्म कमायो सार । सेरै घरि पायौ अवतार ||३१०॥ तातै भोजन भुगतो सुख । पावती नहीं कहू दुःख ॥ कीयो हौ तौ अशुभ मैं कर्म । नीच घरां तो लेती जनम ।।३११५ तहां दुःस्ल लहती अधिकाइ । सुष तू तहां न देतो माह ।। कहां पयांन होइ नर नाथ । शुभ अरु अशुभ कर्म के हाथ ।। ३१२।। तुमतौ रूपन्नत को देहु । अर श्री तात सर्व गुनगेहु ।। अरु जो होइ महा जई मूर । काहि कोड़ि कातर कर ॥३१३।। यह तुम सुनी बात सब ठौर 1 विध्वानि कर और की और ।। माता पिता बहुत हित करें । भावी लिषी न टारी टरै ।।३१४।।
पिता द्वारा रोष प्रकट करना
पुत्री बचन सुने सब सार । राजहि रिसि उपजी अधिकार ॥ मन मैं घरस दुष्ट मति गयो। मुह करि करि कछु न उत्तर दयौ ।३१५॥ कवि परमल्ल कहै सत भाउ । मन में है चितयों राउ ।। मब हूं निज के परषो तितो । देषों याहि कर्म फल किसौ ॥३१६॥ जाको कियो बहुत दिठाउ । देवी सास करम को सहाउ ।।
जीयमैं इसो पिसुनता धरी । मुहं कहि पनि मैना सुंदरी ।।३१७।। मंना को सन्दरता
पुत्री उठि चाली निजगह 1 करौ पारनी पीनी देह ।। तात वचन सुनि उठी तुरंत । परफुल्लित मनड़े विहसंत ॥३१८।। पंथ मांहि सो निकसी जाइ । पुरजन रहे देषिनि कुताइ ।। घोषं रहै मुहांमुह चाहि । यह घों कुंवरि कौन की प्राहि ।।३१६॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
काहूतो मैंसी बरनई । सुरकन्यां सुरगत चई ।। कौऊ कह नहीं इह सौह । यह तो नाग सुता पनि होइ ।।३२०।। काहू कहू इम अंसी भनी । यह पुत्री विधना पर तनी॥ काहू तो यह उपमा दीय । काहू पाहि जक्ष की धीय ।।३२१॥ कोक कहै को देवी पाहि । पटनर दई न सके हम ताहि ।। षोडस बरस घड़ी परवांन । कोक रूप न ताहि समान ।।३२२।। मैना को जस वरन इंच ताको मुष सोहै मकरंद ।। लोचन भरुन श्रवन अति बनें । ज्यौ चक्रित भृग स्वादल तने ।।३२३।। कर कटाक्ष दृष्टि धनु' बान । अकुटि कुटिल मनमथ कमांन ।। मार्थ मंग विराज बार | अति कोमल अति स्याम सुटार ||३२४।।
वन नि कइल राजत कंद । मानों बात कहे दैनंद ।। भीक सौमित अधर अभंग । विट म उपम बिराजहि अंग 11 ३२५।। ऊंची नांक इसी जनहारि । जानों कंचन घरी सवारि ॥ दसन पंति बीसै चमकति । कृपली दाहिम कीसी मति ॥३२६।। छोटी ग्रीव मुक्ति की मार । ताकी जोति जग अधिकार ।। उर उपरि द्वे सुबनित गुभ । मानौ मैंन के कंचन कुंभ ।।३२७।। मृगपति लंक मध्य प्रक्षीन । त्रिबलि नरंग सोभ करि लीन ।। कोमल पान कमलता वाल । बाहु जुगल सोमै सुबिसाल ॥३२८॥ जंष जुगल कदली के तूल । कोमल पत्रा गौर बनफल ।। धंगक बर्न पुष्प तन जानि । अति कोमल को काहे वषांनि ॥३२६|| अति मुगंध तासु को सरीर । बाब लपटें बहुत समीर ।। अति कुल संभ्रम दिन रनि । चितवत चितचोर गमनगैनि ।।३३०॥ महि पर मंद मंद पग धरं । देषत मनमथ को मन हरे ॥ हस चाल सी पहली तहां । निज घर जननी जोन्नति जहां ।।३३१।। दिव्य वस्त्र पहरे सति सची । तब जिनबर की सूजा रची ।। अष्ट प्रकारी जिय धरि नेह । मद बच का छांडि संदेह ॥३३२।। द्वारापेषन भाव लिन किया। मुनि कोऊ न तहाँ देखियो । भावना भाई पूजी नाम । फुनि भोजन श्री मइ प्राबास ।।३३३॥ स्मल्योयन छह रस शुभचित्त । पारनं रस लग्यौ पवित्त ।। अति सुदर मुख सोधि जो लई । तवरुचि सी टि ठाठी भई ॥३३४।। प्रेस मुष मुजे बहु बाल । सीलवंत अरु गुनह घिसाल ।। गाहा दोहा छंद बवेक 1 परस पास भाष सु अनेक ।। ३३५।।
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श्रीपाल चरित्र
मनवांछित सुप लहे प्रबोन । रहै भक्ति मुनिवर पद लींन ॥ कबहू न बात पाप की कहै । निस दिन दया धर्म में रहे कबह वात रूसि नषि कहे । सोधी होई सुहिर दे चहै ।। ।३३६।।
दोहा सुष जननी परियन सयल, श्री जिनवर सुमरंत ।। प्रस बोते बहुत दीन, निजगृह में निवसंत ॥३३७।। इति श्रीपाल चरिते महापुराणे भव्य संग मंगल करण। बुध जन मन रंजन पतित गन गंजन सिद्ध चक्क विधि दुषहरहा। त्रिभुवन सुख कारण भव जल तारण । चौपई बंध परिमल्ल कृतं ।।३३८॥
पौष
राजाकी भोपाल से भेंट
मैंना सुदरी प्रति उत्तर दियो । तातै तात निौटयो गयो ।। राजा के मन उपज्यो फोह । मैं होनहार सो होह ॥ १॥ एक दिन सब सैन पलानि । ह्य गय रथ को कहै वषांनि ।। नगर निकास मेल्यो जाइ । मंत्री लीने संग लगाइ ।। २।। बहुर् यो कथा गई तिह थान । श्रीपाल जहां बन उद्यान ।। नासा पाइ गए गरि हाथ । भैसे अंग सातस लौ साथ ॥ ३॥ भ्रमत श्रमत सौ पहुँतौ तहां । राजा वर चितत हो जहाँ ।। देखि राज उठि ठाडो भयौं । मैत्रिन के मन घोसो गयौ ।। ४॥ देषत मंत्री सबनि मई लाज । यह कोहि भेट्यौ किह कांज ।। सगरे रहे मुह मुह चाइ । कोऊ पूछि सके नहिं राइ ॥ ५|| तब तिह ठा बोल्यो यो राउ । मत्री सुनी कहो सत भाउ ।। या परि मेरी हैं अति चित्त । यह मेरी प्रीतम है मित्त ॥ ६॥ याको ढिग त नेक न टरौ । या परि नेह निरंतर परयौ ॥ मंत्री कर्हे सुनौं हो राई । गर्यो सरीर हाथ अरु पाई॥ ७॥ रही दुरगंधा जित तित पूरि । याहि देषिए भजिए दूरि । तास्यो मिले कहा धार नेहु । याको प्राहे बडौं संदेहु ॥ ८॥ यह सुनिक भूपति यौ भने । मंत्री मैं तुम मूरषि गर्ने । मुष की कही न समझत वात । क्यों जानौं को है उस तात ।। ६॥
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बाई अजीतमति उसके समका तीन कवि
या भेदै जान नहिं कोई । हीन बरको चितं सोइ ।। असी कथा कहत ते रही । कवि परमल्ल प्रगटि करि कहीं ॥१०॥ मुख की काही न समझत बात । यो जानंगे मन की बात ।। यह कहि तहां पहुँतौ राउ । पुनि पुनि अवलोक परि भाउ ॥११॥ प्रछ तापह मपाल नरेस । को तु ग्राहि बहुत अलबेस ॥ हंडत महि डोले तन मंग | बहूत रिंगह तेरै संग ॥१२॥ क्यों इह नगर कियौ परनाम । सांचौ कहो आप व्योहार ।। तब श्रीपाल कियो परनाम । हम सुनि पाए तेरो नाम ।।१३।। दयावंत सब कोउ कहै । प्रति उदादता तो जिय रहै ।। तात सुनि प्राये हम राह । बहुत कहा हम कहूँ बनाय ।।१४।। पुर गिरवर सरवर नाषत । अब हम पडते आइ तुरंत ।। चिता रोग सोग सब गयो । सुम्हरौ नए जब दरसन भयो १५।। यह सुनि नप फल्पो सब गात । सुनि कुष्टी न प मेरी बान ।। मंगि मंगि अघि तूठो अवै । बहुर्यो ल्याग लेइ मी कबै ।। १६ । विलम न की प्रोसर एह । मनको छांडि देहु संदेह ।। बोई भू मांगगो दान । सोई देउ रात्रिही मान ॥१७॥ तब तिन जप्यो पुत्रि देह । राजा प्रगट पहमि जस लेह ॥ यह सुनि राउ कोप अति भयो । फुनि अपने मन मैं चिंतयो ।।१।। यह तो निमत्त पहंतों आइ । वहत कहा है कही बढाइ । देषों सूरि को हो करें । याहि देह भजे सत्र भर्म ।।१६।।
नि कछु मेरी कानन निकारी । मलिन बात मुख लें उवरी ॥ यह मनमांहि विचार राउ । तब तिन जंप्यो जिन सती भाउ ।।२०।।
श्रीपाल को मैनासुन्दरी देने का प्रस्ताव
कुष्टी राइ बात सुनि मोहि । मैनासुन्दरी दीनी तोहि ॥ तेरे मन को भायो भो । तौ को मुह माग्यो थर दयौ ।।२१।। चलो सीहि पर नहि कंनि । मन वंचित सुघ देषिवि बंनि ।। जब मह बधन राइ को सुष्यो । तब सब मंत्रिन माथी धुन्यौ ।।२२।। ए नरनाह कियो कहा करें। कियौ गुपत न कहियो ममुं ।। यह कुष्टि तन भंग बिकार । पुत्री दे जो कहा विचार ।।२३।।
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श्रीपाल चरित्र
जनम जनम को चढ कलंक । हसि है सबै राउ पर रंक !! राउ सुनित्रि जप अब तास । मंत्री क्यों निंदत सुपयांस ॥२४॥ या सन्न सामग्री सिसी। होति मौर भूपनि पं जिसी। सिर पर छत्र चंवर छ तरै । प्रार्य सूर खडग कर धरै ॥२५।। मंडारी राखे मंडार । वेसर वाहन मगन प्रपार ॥ दुखी लोग सेबत, पास । मार्ग नितुं होत है रास ॥२६॥ गाहा गीत वाद वह भेद । सौंधी बहुत भरगजामेद ।। अरु सन्न भांति देषिये सूर । भूलि न कबहू भाष कूर ॥२७॥ अरु देषिये दया अधिकार । दान देत है चित्त उदार ।। पाप बोप उद कछु कोयो । सुष अरु दु:ष अचानक दियौ ॥२८।। यह सब हि विधी पूरी प्राहि । असौ बर तजि दीजे काहि ।। वारंवार गर्यप रांउ । याहि ऊपरि मेरी भाउ ॥२६॥ यह सुनि मंत्री उठ रिमाइ । अजुगत कहा कहत ही राड ।। मन मैं संक दात तुम कहै, । वारंवार चरन से गहैं ॥३०॥ राजा सुनौ करो मत कौह । कोज कछ सुता को मोह ।। सुमतौ करत कहाणी इसी । काहू मूढ कीयो हैं जिमः ।।३१॥ पायौ नग निर्मोलिक एक । ताको कछ न किमो विबेक ॥ काग जिहाँ जहि बैठ्यौ भाइ । सो वि डारियो ताहि चलाय ।।१२।। काहू प्राय भेद जब दयौं । ताकी पिछतावा रहि गयौ ।। होत कहानी तसो एड्छ । कन्या मति कोंदी कौं देहु ॥३३॥ अपजस फैलि देस मैं जाद। अंतपि ती पिछत हो राइ ।। आग्यो सोंच काम जो करें । नात चक कबहन परे ॥३४॥ अपजस ताकौ देश न कोइ। नीक कर देषां जिग सोइ ।।
और सुनों जपे भूपाल । पाथर ले मनि नापी लाल ॥३॥ कहा कर्म पुत्री को कर । सोई होइ वातु जिय धरै ।। भीक करि तुम देषो चाहि । का मैं कछ न धोखो पाहि ।। ३६।। यह सूनि बोल्यो राइ प्रचंड 1 एण बच्चन मो लागत इंड़ ।। तुम मंत्री जानौ उनमांन । यह कारिशु ही इहै परमांन ॥३७॥ मति जपो तुम बारंबार । को समर्थ जु फेरन हार ।। बहु भोजन श्रीपालह दयो । पुर वाहरि सु गोपि पियौ ॥३८॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि मैमासुन्दरी से धोपाल के साथ विवाह करने का प्रस्ताब
मनमें हरषवंत विकसाइ । राजा गेह पहुंती जाइ । जिह ठाझी मैना सुन्दरी । तासौं प्रथम वात उच्चरी ।। ३६।। पुत्री उत्तर देहु बिचारुि । अजहूं अपनी करम निवारि ।। पानि गृहन करौ तजि लाज । सुन्दरी जपं सुनि महाराज ||Yo|| कहा कहत है होती बांत । मुस्थ चित्त होइ सुनि ही तांत ।। जो मुनि क्रियावंत अति होइ । दरसण भिष्ट कहा की सोइ ॥४१।। की कहा धर्म जो गहै । जाकं चित्त दमा नहि रहै ।।
हः ध्यान ए। हिन्द नहीं कि । ४२॥ कीजै कहा त्याग मह दीये । जार्क क्रोध प्रगट है हिये ।। कीजं कहा युक्ति गुन रात । मेटे मातपिता की बात ।।३।। बार वार को कर बषांन । तात बचन मेरै परवान ।। निहुर चित्तं रानौं गह गयो । दुष्ट कहांनी तासौं कलौं ।। ४४।। मैं दीनी पुत्री पिय जानि । कुष्टी राउ परनि सुषमानि ।। सुन्दरि सुनं तात के बौंल । तेई मनमैं धरे अडोल ।।४५|| मनमैं कीया हरिष अपार । मिहनत जप बारंबार ।। विधी निर्मवों हीन गुनन्नत । सुनहुं तान वह मेरी कत ।।४६।। सुदर नर नरेन्द्र जे पान । ते सब देषी तुमहि समान । यह तो मिों करम निरजोस । काहू स्यौं घ राग न रोस ।। ४७|| शुभ अरु अशुभ प्रजौ हैं संग । कोऊ मति मूलौ भ्रम रंग ।। हरत परत परतीच्यौं मुझे । राजा क दोस नहिं तुझ ।।८।। पुत्री सुनियो जप राव । तेरे पोले दुष्ट सुभाय ॥ अजहुं न तजहि कर्म अति गाह । में नौ लाग होन विवाह ।।४।। विग्न एका विद्या करि लीन । सामोनिक जोतिबा परवीन । लीयो बुनाय पाप नर नाह । हररावंत पुरी के व्याह ॥५०॥ दिन सुभ परि महूरत सावि लगन धौ जोयमि प्रारघि ।। भाष्यो विग्रह तकें निरत्त । शुभ करि बासर पा जि पवित्त ।।५१|| सूर्य ससि हर सुर गुरू चाहि । बर कन्या को उत्तिम प्राहि । बरस बीस जो सोधो राइ । अलौ छौस न पहुची प्राई ।। ५२।।
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श्रीपाल परित्र
त्याग लेत ता हाथ न बहै । बारंबार विषयों कहै ।। बात कहै सो कर न संक। सुनि हो राइ करम के अंक ।।५३॥ ताको कछु न दीजे पौरि । प्रानी बाँध्यो विधी को मोरि ।। जित अंचतित ही ले जाइ । या मैं कछु न घोषी राई ।'५६॥ जा परि ताको दुष निरमयो । कोहू प सुष जाइ न दयौ ।। जौं पुत्री सिरजी सुषकाज । को दुष देवे सुनि हो राज ॥ अपनी कियो कछ जो होइ । तं काहू को बधे होइ ।। बिधनां अंक जु लिष्यो लिलार । ते निरबहै डोर इकसार ।।५।। भूलि गर्व कोऊ मति करौ । करता बली तहा मनि डरी ।। तिणस्यों बच पलक से घरै । पलमैं वन ताहि विष कर ॥५८|| करते पहल काम चितवै । यहै और की और ऋछु ठवै ॥ सोधे पंडित सुने पुरांन । ताको अपजस होड निदान ।।५६॥ यह अजुगति कछु कही न पर। राजसुता क्यों कोढी बरं ॥ जाक रूप जगत माहिए । सो क्यों कुष्टी को मोहिए ।।६०।। रम्ना हीन बात जीय धरी । तेरी बुधि विधाता हरी ।। अंसो से प्रारंभ्यो काज । जान्यो बुझ्यो बाहत राज ॥६॥
विनासके कारण
विप्र गयो धरि लयीन वित्त । लागी प्रगटन एह चरित्त ।। मंत्री बरजे फुनि फुनि तास । स्वामी एतौं धर्म विनास ।।६२॥ विनस मंत्री संका मन धरै। विनस भामिन प्राइस टरं ।। विनस राव मंत्र जो तजे । बिनस सुभट देखि रन भजे ॥६॥ विनस ईसुक्रोध परिहर । घिनसं साध क्रोध जो कर ।। विनस दाता जो न विवेक । विनसं वाढ चल दिन एक ।।६४॥ बिनस अति पंकज की बास । विनसं रागी रहे उदास ।। विनमै चोर पयासं भेव । विनर्स त्रिवटे मैं को देव ।।६।। विनसे साह उधारी देह । पिनस पनिका जो प्रत लेइ॥ विनसं अति कामातुर देह । विनर्स रावर नारी मेह ।।५।। विनस पात्र क्रिया जो हीन । विनर्स तपा लोभ करि लोन ।। विनस रांड राग चित धरं । विनर्स गेगी पात न करे ।।६।।
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बाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
बिनस जोगी घर घर फिर | विनस पंरा पावस तिरं ॥ forसे बैद न नारी गहै । विनसै षेवट थाह न लहै ।।६।। विनस मसानी हारिज हः । विनस शाह चोर विंग रहै ॥ विनस रूप नदी के तीर । विनस राजा बिना उजीक ।। ६६AL विनसै माप लड़ाव पूत । विनसे जो संके मन दूस ।। विनस काजी लालच करै । विनसे कुल कपूत प्रोतरं ॥७॥ विनस कोरु पीजर पढ़ । विनस नादु जो ऊंचें च- ।। विनस ठग कुछोहर वसै । विनस पान हल पालसे ।।७।। बिनस करियर काइर हाथ । विनस कायथ दुजै साथ । बिनस चोरी दिन मनगवे । विनस घर जो जेठ न छध ५७२।। थि से चोर भाह विन घस । विनसें माह न मारी सर्स ।। दिनसै दिन को गीधी जार । विनस कान हीन कुसवाल ॥७३॥ दिनस चन्दन पुनि पुनि घसै । विनर्स बहू जो हाह्ड हं ।। विनसै काजु करण जो कहै । विनस राज कुमंत्री वहै ।।७४। बार बार मंत्री गन कहै । काहू को बरज्यो नहीं रहे ।। जिम माती मैगल वलि परी । प्रांकुस रहे न एको घरी ।।७।। अवज्यों चलते मंत्र प्रत्रांन । अब कछु तुम होइ गए प्रयांन ।। नंदि निरूपगनियर परधान । सौंपति कुष्टी कौन संयान ।।७।। मां बात कोहु छिटकाइ । मंतह दुख पाबोगे राइ । तब रानौं बोलें मति मंग । मंत्री मति मूलो भ्रम रंग ।।७७॥ मूरिष हिए विधारी सुद्धि । केहो गई तिहारी धुद्धि ॥ मैं तो तिलक किमी धरि मौन । भेटन झर ताहि पौ कौन ॥७८|| तब मंत्रीगण च निसंक । कुल निर्मल मति देह कलंफ ॥ मनिष जनम गवा पद पाइ । सो तुम अब मति हारो राइ । ७६ हम में कोह दवानल दहै । मति तुम कोह दबानल लहौ ।। बात बढाये माहै क्यों और । मति गावह सिर बांषी मोर ।।।। अनि करि कोपु भयी प्रति राउ । दुष्ट भाइ बोलियो कुभान ।। राजरीति को धर्म न होछ । मंत्री तुम देखो पिय जोड ।।११ प्रभजों तो राप्यो सनमान । मब मरवाऊ करो निदान ।। मो मन और कहो तुम मौर । महक बोलें मारौं ठौर ॥३२॥
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तब मंत्री बोल कर जोरि । स्वामी हमैं न दीजं पोरि || हम मंत्री बोले नृप जीति गर्दै हमारे कुल की भौति ॥ ०३॥ स्वामि धर्म इह बाहर होइ । रााची बात पयासं ॥ जो हम लाज करें सुनि रातो कुल रीति हमारी जाइ ॥८४॥
श्रीपाल चरिव
अरु राजनि क इह सुभाउ । अब जानत है दसक दाउ || तत्र मंत्री लीजिये बुलाइ । बुके ताहि भेद निकुसाई ||२५|| सोई कर सबै छिटकाइ 11
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जोह बात कहै समझाइ । और न मन त्या अधिकार ऐसे नृप कुल के प्राचार । ८६ ।। तालें बार बार उच्च :. जय की लालच करें || चूक हमारी कन माहि । नीकं करि देखो चित चाहि ||७||
मनमें रामस्य क हक राइ । मुङ करि तिनसों उठची रिसाइ || और बात मति ल्यायो चिल । सामग्री तुम करो पवित्त ॥६८॥ सुन्दरि बर को सीमा घरी । बेगे होह बार मति करो ।। सुनत दुःष मंत्री जन भयो । हरे बांस मंडर पर ठयौ |
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लगन मंत्र का वन
I
चारि पंभ कंचन के बनें । चमके नम निर्मोलिक घनें ॥ च्यारि कलस इस सोवन जरे ते सोहे हूं घूंटह घरे ||६०|| श्ररु सोभा तिह विध प्रकार 1 मुक्काहल की बंदरबार ॥ ath सवासिन देहि सुचंग अति उज्जल देषियों श्रभंग ॥ ६१ ॥ अरु तहां निए सुरंग उछार सिनकी सोमा जगे अपार ॥ नन्ही चूनी दई फैलाई । ते चमक कछु कहियन जाइ ॥९२ । सबै सिवासनि रुदन करांहि । सोभा चौक संवारति जहि ॥ सज्जन लोग जुरें सब आइ । मलिन चित्त को नहि विकसाइ ॥ ६३॥ ठाठा घेर कर सब को अजुगति वात न ऐसी हो ।। विषना एह निरम । राजा की मति बिधु हरि लइ ।। ६४ ।। राजा राइ जुरे सब जिते । अथुपात करें तहां तित्ते ॥ अरु बाजैं वाजिन अपार । मेरि मृदंग र सहनार ६५
गहर सबद बाजें नीसांन । मलिन सबद अति सुनिएं कान ॥ विप्र वेद बुद्धि पढ़ें अपार । नरनारि रोवें अधिकार ॥ २६ ॥
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बाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
राजा कई व्याह के चार । वेगे करौ बहौइ प्रवार || मेरी मन को इष्ट सु थाहि । बेगि जवांई ल्यावी नाहि ॥७॥ करों से जो मोते होइ। बार बार यौ भाव सोइ ॥
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मंत्री गये सीस धूनि जहां। नगर निकासह बरही जहां ॥ ९८ ।। coat महत प्रति विपरीति । तन मन जाकी है गल पीति ।। ले आए प्रति कुष्टी देह व राषि प्ररु लागी षेह ॥१६॥ कोसी हंसी करें क
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टेषत राजा प्रति सुष कियो । कंचन कलस न्हावन दियो ।। १०० ॥ सौधों मर द्यौ बहुत प्रवीर । तौभी बास न वजे सरीर ॥ कंकन कर बांध्य सहरी मूरिष राउ भयो बाउरी ॥ १०१ ॥ कामनि घोरी गाव' जवे । दूल्हा व्याहृन चलियो त ॥ चंचल तुरी चढावन लियो । मंत्री चाहे हांती कियो ।। डिठ बाग मही कर चाउ । राजवंस क्यों मिट सुभाउ ।। १०२ ।।
श्रीपाल को बारात
चलो बरात उडी तहां बूरि । रही तहां घर घंवर पूरि ।। रतनजति सिर उपरि छ । हरें छत्र सोभले महत्तु ।। १०३ ।। श्रीपाल मन हर्षित भयौ । मंडफ द्वारे ठाकरे भयौ ॥
पनि सयल देखियो श्राइ मांनी अंबुज हुए तुसार सो भयो चित्त नराउ | मांनी भयौ बच को घाउ ।। १०५॥
तिनके बदन गये कुमिलाई || १०४ || मानों तबर हुए कुठार ॥
से बहु रुदन करें गह भरें। राजा की ते निंदा करें ॥
नारी नर अंतेवर जिते । प्रति विलयांहि बिसूर तिले ॥ १०६ ॥ तिनके बिल कहा सिराह । राजा मनमें परो लजाइ ॥ मूंड राम्रो नीची करि नारि । काहू तन नहि सकै निहारि ।। १०७ ।।
माता बहन बरी गह भरें। हैहेकार लोग सब करें ।
माता महा दुःष तन दगी हा पुत्री दुःख सागर परी । वयीं है तिर मैना सुन्दरी ॥ पूरक कियो पाप
भौमासुन्दरी द्वारा समझाना
पुत्री के एह कंठह लागी ॥ १०८ ॥
जाते भयौ नाह संताप ॥ १०६॥
सुन्दरी बोली जिन मत लीन । समभावं परियन परवीन ॥ कोउ दुःष करों मति । शुभ अरु अशुभ कर्म को जोग ।। ११० ।।
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श्रीपाल चरित्र
ओ प्राणी प्रायो संसार । सार्क गरे दुख को मार ॥ जित ही देखें नैन पसारि । मितही बांधी दुख की पारि ॥१११।। यह सा हर संसार प्रसार । बिरलो कोऊ पावं पार ।। मात पिता सुत बंधव मित्त । हय गय वाहन रथ जु पवित ॥११२।। माया और पाहि अधिकार । मिथ्या सबै रची करतार ।। काको पिता कौन को माछ । जीब अकेली पावं जाइ ।।११३।। बैठे रहे हितू पचास । वार वार जोर्व चोपास ॥ काहू पासि न होइ उपाइ । जब कर केस गहै जम भाइ ।।११४॥ सोई बडो हितू सुनि माई । भरखराइ मरघट ले जाइ ।। भज खौरि देहु मति कोइ । होनहार सोई परिहोइ ।।११५॥ प्रतिवोध्यो सगरौ परिवार । गांवन कह्यो व्याह को घार ।। प्रापुन हरषि उठाइ सुलियो। ससि वदनी सेहर वापियो ११। मरिणमय उल पहरे कन । करकंकन सोहिये रवन्न ।। नेवर पहरे प्रति झनकार । पहरी गलि मोसिन की मार ॥११७|| सूरति बास मरदियो सरीर । पहरपी अंग कसूमिल चीर ॥ करि शुगार पहुंती जोम । सिरीपाल मंडफ गयो ताम ॥११८।।
मना का विवाह मंडप में बैठना
मनां सुदरी बैठी आइ । परियन रहसि दियो छिटकाइ ।। तिहठा रुदन कर सब कोइ । टकटक रहैं मुहां मुह जोइ ॥११६।। तब सुदरि उठि ठाडी भई । निज परियन माता 4 गई ।। सुरसुदरी को गायो बिसौ । मोकौं क्यों नहि गावी तिसौ ।।१२।। पुत्री जंप बारंबार । करौ उछाह रु मंगलचार ॥ यह कहि के पुत्री वैसियो । माता बहन हियो भरि लियो ।।१२।। उरै चौंर दूलह के सीस । जै जै सबद कर नर ईस ।। बाज जहां गहर वाजने । जाचिग जन विरदाबलि भनें ।।१२२।। वंदन मरयटि दई लिलार । पहरे पार्टवर सुभसार । नांचं गांवहि मंगलचार । घंभन वेद पद फुकार ।।१२३।। भावरि सात फिरी सुभ जद । राजा गंधवौ लिनौ तबै ।। मैंनासुदरि पकरी हाथ । सौंपी श्रीपाल नर नाथ ॥१२४।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
कन्यादान लियो नरनाङ् । तब भरि हीयौ मूकी बांह ।। मंत्री जन सब लए बुलाइ + मरौं मुह मति देपो प्राइ ॥१२५।।
राजा द्वारा पश्चाताप करमा
है है हूँ पापी वरवांन । है है हूं मतिहीन अयान ।। महादः परयन की दम । अजस सकल लोक म भयो ।।१२६।। बार वार अंसो उच्चरं । असे काम नीच नहीं करें ।। सय गुवाई कुल की रीति । नर भी षोयौ करी प्रनीति ।।१२।। अब कहां वदन दिषांक लोइ । चही कालिमा मेटै कोइ ।। है है पुत्री सत्र गुन लीन । जन धर्म पाला परवीन ।।१२८।। मो निर्मल मति पोटी भई । तू कन्यां कोढी को दई । पुत्री कहैं सुनी ही तात | मिटै केम जिन भाषी बात ।।१२६।। कछु षोंरि नहीं दीजे तोहि । उ कर्म पायौ सनि मोहि । जो कुछ निमित्त होइ जिह काल । तेई अंक लिषे मम भाल ।।१३।। पहल विधनां यह जीय धरी । पीछ हौ मरभ संचरी ।। जो कछु पाप कर करतार | ताको कोज कहां बिचार ॥१३१। काह पास न भाषी जाइ । प्रजह कहा होयगी राइ ।। घंसौ बचन भूप जब मुन्यौ । मन पिछतानी मांयौ धुन्मौ ॥१३२।। नीकं कार देषों चित चाहि । अपनी चूक मुनावों काहि ।। यह चितप्त दीनी ज्योनार । सोवो दोन्ही प्रगन अपार ।।१३३३॥ शुत्र चमर दीन्हे भंडार । दीन मेगल तुरीय ते सार । पाटंबर दी। वह पीर । जिने लगे निर्मोलिक हीर ।।१४।। पोइस वर्षनि झीने अंग | पहिरै पंचू सबै सुरंग ।। अति सुदरि दासी गनि लई । एक सहस्र सुधरि कौं दई ।।१३५ ।
सहस दास सुंदर गुन रेहं । दीए सिरीपाल कौ तेह ।। मेवग भले भले जे भए । बहूत और सेवा कौं दए ।।१३६।। पुश्री देषि विसूरै राइ ॥ बार बार मनमैं पिछताइ ।। कंचू दीन्हे काही न जाइ । बहुत दीए प्राभन गाय ।।१३।।
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बाई सात रची चहूं पास पुर वाहरि राखियो नरेस
प्रजा द्वारा दुःख प्रकट करना
नौतन दीए कराइ प्रावास 11 दिए बहुत पुर पट्टन देस ॥ १३८ ॥ ॥
बहुत दीए वाजने निसांन । दियो सुखी बिना उनमान ॥
राजा दियौ प्रति घन जितौ । कवि परमल न बन्यो ति ।। १३६ ।।
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सई कुबरि चौठोर चढाह । सिरीपाल धरि गयो लिवाइ ॥
यह सुनि नगर भयो कहाउ | सभी कहैं धृग घृग यह राउ || १४०
रो परियन के उनमांन । रौवं मंत्री ग्ररु परधांन ॥
रोवं रयति कुली छत्तीस
श्रीपाल चरित्र
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रोबत पशु पंछी सब दीस ।। १४१ ।।
तू विनां प्रति षोटो आहि । बुरे भने नहि दे चाहि ॥ घर घर घेर कर विलषांहि । राजइ गारि देहि पिछलाहि ।। १४२ ।।
बहुत बात को करें विचार । सुष निवसे श्रीपान कुंबार ॥ मैंनासुदरि मन की ईा । एकै दिन एकासन विखा ।। १४३ ।।
संगति का महारथ्य
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तब श्रीपाल कहै ए नारि प्रांन पियारी देषि विचारि ॥ तू त्रिसुद्ध गुन सील अभंग । रूपवंत कंचन मैं अंग ।। १४४ ।। चन्द्रभुषी सुनि अभी निवास । मति आग तू मेरे पास जौली असुभ मो कर्म । तौ तौ राषि श्राफ्नो धर्म ।। १४५ ।। बार बार हूं जिनक तोहि । सुदरि मति आलं मोहि ।। ए बलभा तुम सुषदातार संगति बाढ दोष पार ।। १४६ ।।
संगति गुनी निरगुनी होइ संगति होत कुबुधी लोइ ॥ संगति तपा भ्रष्ट व्रत तजं । संगति पाइ सुरभी भजे ।। १४७ ।।
संगति साधु सुरा प्राचरं । संगति हो चोरी न करें ॥
संगति सींह स्यार होइ जाइ । संगति श्रावक श्रामिष षा ।। १४८ ।।
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संगति चित्र तर्फ पट कर्म्म संगति से ह्न धर्म धर्म ॥ संगति सील तजें बरनारि । भामनि मनमै देषि विचारी ।। १४६॥
संगति कोड च दुप लहै । सिरीपाल सुंदरियों कहै || मेरो संग बुरी मनि भानि । सुंदरि बात हमारी मांनि ।। १५० ।।
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बाई अमीनमति एवं उसके समकालीन कवि
बोली नारि बन सुनि एह । मन में उपयौ प्रति संदेह ।।
श्रीपाल से मेमासुन्दरी का निवेदन
बालम सुनौं कहीं अब तोहि । कर्कस बचन कहाँ मति मोहि ।।१५१। नौ करि सोचौ मन माह । औं लो उदै कर्म की छांह ॥ तौंलो भुगती दुष सुष संत । मूलि न काइ रहूजे कंत ॥३२॥ विधिना मोहि पट्ट लिषि दियो । सोई मोकी निश्च भयो । तुम मेरे प्रीतम भरतार । तुम मेरे प्रनिनि प्राधार ।। १५३।। तुम प्रति रूपवंत गुनवंत । तुम ही सुष सागर वलिवंत ।। लोचन सुखी जो गौं मा नौला देगे तुः नि:सार ३४ी. तौलौ पवित्त रहे शुभ ठाम । जो लौं जपो तुम्हारौ नाम ।। तो लौं हाथ धन्य सुनि राय । जो लो प्रछालों तुम पाइ ।।१५५।। घाह धन्य कल कही न प्राइ । जो बालंनी कंठ लगाह ।। हो त्रिय धन्य तो लो जिय धरौ । जो लौं सेव तुहारी करीं ॥१५६५ सील विहुनी नारि जु होइ । पिय की निदा करि है सोइ ।।
पतिव्रता सब हो गुन भरी । हो तो सीलवंप्ति सुदरी ।।१५।। शील की महिमा
सीलहील्यो मेरो प्रति चित्त । सील पिता बंधु अरु मित्त ।। सीन परिग्रह मेरी संग । सील रूप मेरी सरबंग ॥१५८ ।। सील द्वादस भाभरन बिचार | सोल है नब सत शृगार ।। झीलं जीवन सीतं मरन । सीले सर्व सु सौलं सरन ।।१३९11 सील मेरै नग उनमांन । तौलौं तजौ न जौं लौ प्रांन । सर्वस जाइ सील जी रहे । त्रिभुवन मैं सोभा सो लहै ।।१६।
श्रीपाल का प्रसन्न होना
यह सुन सिरीपाल हरषियो । घनि मैंनासुदरि सेरौ हियो । अनि भामनि तेरो प्रोतार । जिह लिंग धर्यो सील को भार ।। १६१॥
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श्रीपाल चरित्र
प्रेसी विपति मांहि विहसंत । बहुत दिवस बीते निबसंत ॥ कोठा रूख रहे चहुं पास । सुदरि देर लेह उसास ।।१६२॥ ए बिधना दोघन के राइ । नेर म - दरनी जाह । तेरी सरन अाइ जिह लयौ । ताको दुःष बहुत दियो ।।१६३॥ अरु जे फिर्यो दुष्ट तो साथ । ताकौं भले लगाए हाथ ।। तेरी पास रह्यौ जिय सोइ । अंतकाल ताकी दुष होइ ॥१६४॥ जिह का तो को सुप दियौ । ताकौं बुरी सर्वथा कियो ।। जिह तेगै सेयो पर संग । ताको मदा भयो सुष भंग ।।१६५।।
बोहा
जिह मार्यो तू त्रु:षदे, रे विधि अष्ट प्रकार ।। सो पहुँचै वकुठ की, तेरे मुष द छार ॥ १६६।। जिह तेरी पासा तजी, कीनों मूल चिनास । तिह भब दुषसागर तज्यो, लौ मुकति बर बास ।।१६७॥
चौपई
नंद्या बहुत करम की करी । और न काहू ऊपरि धरी । मैंना सुदार उटी सुरंत । दिव्य अंबर पहरे बिहसंत ॥१६८।। सोलवत अब गुनह निधान । निज बालम संजुत्त समान । मगमें उपज्यो सुष असेस । श्री अिन भुवन कियौ परवेस ॥१६६। तीन प्रदक्षण उत्तम वृधि । कीनी मन वच काय त्रिसुनि ॥ दंपति लागे अस्तुति कर्न । जै जै मुनिवर भव भम हर्न ।।१७।।
मैनासुवरी एवं श्रीपाल द्वारा मनि के पास जाना
बै मिथ्यातम हरन पतंग । सेवत सुर नर षेचर अंग ।। निरदद निरामय नोहन कोष । छय कीने अष्टादश दोष ॥१७॥ अनंत चतुष्टय गुनह निवास । इन्दी घेदन सदा उदास ।। गदित सप्त तत्त्वारथ भास 1 बजदंड मोहारि निनास ।।१७२।।
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बाई प्रजीतमति उसके समकालीन कवि
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रत्नत्रय भूषण सुभ चित । एकरूप देषण परि मित्त ॥ प्रानंदकरण ज ज जगदीस । जै जै कसनासर सिब ईस ।।१७३॥ सुभ चित्त दोऊ सिरनाइ । बैठे चरन कमल तट जाइ ।। तब सुदरि बोली करि भाउ । हौं वापिनी मोहि समझोउ ||१७४।। भी स्वामी का ज्ञान पयासि । संस मेरै चित को नासि ॥ जै जै मुनि श्रीपाल निहार । नाह भीष दे चित्त उदार ||१७५॥
कछू धरम स्वामी कहि सोइ । कुष्ट व्याधि जाते क्षय होइ ।। मुनि द्वारा संबोधन
मुनिवर कह पुत्ति सुनि एह । अणुवत गुण समकित तू लेह ।।१७६।। पुनि सिष्यात सुनहु विधारी । पभने मुनिवर पक्षाहारि ।। गुरुवो धरम प्रगट्यो जो प्राहि । नीकै करि सुनि भाषों ताहि ॥१७७।।
मुनीश्वरोवाच हे पुत्री भूपता ।। धर्मे मतिर्भवति कि बहुना अतेन । जोवे दया भवति, कि बहुभिः प्रदानः ।। शांतिमंनो भवतु किं कुजनश्चसुष्ट : । पारोग्यमस्तु विभवेन बलेन किंवा ॥१७॥ बुद्ध फलं तस्यविचारणं च । देहस्य सारं प्रसधारणं च ॥
प्रर्थस्य सारं किल पात्रदांन ।
बाच; फलं प्रीतिकरं मरारण ॥१७६।। सिद्धचक्रवत लेने के लिये कहना
चौपई निर्मल सिद्धचक्रवत हु । अष्टान्हिका बहो व्रत एहु ।। तब ताप मुनियो बिघि साधि । वसु दिन सिद्धचक्र प्राराधि ।।१८।। प्रथमह मंडल का बांनि ! ॐकार प्रथम हि जांनि ।। चहूं कूर्ण लिषि सोलह घट्ट । मझि पंच परमेट्ठि गगरराष्ट्र ॥१८१॥ दल दरन ते लिषिए बसु वर्ग । अ क च ट त प य स ये वसु एर्ग ॥ दल अंतर अंतर सुवनाय । दरसन ज्ञान चरित्र सुभाय ।।१८२।।
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श्रीपाल चरित्र
पुनि चक्कीय ज्वालामालिनी । अंबा परमेस्वरी पौमिनी ।। च्यार्यो लिषिजे गुनाह विसाल । सिपिए तहां दसौं दिगपाल ॥१८३|| गोमुख जरसुर लेषिए । बारि मानभद्र थापिए । दषमुष को यापिए सारंग । दसौ द्वार उद्योत अभंग ॥१८४॥ वसु दिन पालही सील सुभाउ । इंदिनी को उपसरगु मिटाउ ।। मूल मंत्र बमु दिन भाषिए । होज नवीत भाउ राषिए ।।१२।। संक्षेपह विधि यह मैं कही । पुत्री सुनस भई गह गही ।। दृष्ट कुष्ट तन नीको होइ । रोग सोग सद डार षोइ ।।१६।। बितर प्रेत मै न कछु कर । वसीकरन मोहन सब हर !! होई जसु पन बढे अपार । पुत्र कलित्र बाढ परियार ।।१८७।। नर अरु नारि सबै सुष लहै । दुःष दारिद्र तहां नहीं रहें ।। सुनि पुत्री पूजा विधि जिसी । तो सौ बरन कहाँ हौ तिसी ॥१८॥ कातिग फागुन प्रसाद यानि । स्धेत पक्ष निर्मल प्रति जान ।। मष्टमि दिन कीजे उपवास । कीजे इंद्रिन को सुष नास ।।१६।। वसु दिन ब्रह्मचर्य मंदिए । घर की चिता सब पांडिये ।। सिद्धचक्र घसु दिन तजि मानु । की पूजा मिट मबसांनु ॥१६०।। नीक करि थिरु मनु राषियै । मूल मंत्र पुनि मुनि भाषिये ।। मनबांछित फल पार्य जब । उद्यापन विधि कीजे तवं ।।१६१।।
मतका उद्यापन
कीजे आठ भुवन जिन तनं । घरिए माठ बिंब अति वन ।। कीजे सिंघ जंत्र सुभ भट्ट । या मुनिवर गुनह गरिष्ट ।।१६।। झलरि मुकट चमर सुम थान 1 की पाठ पाठ परवान ।। कौ पाठ प्रतिठणसार । बहु धन पर चित उदार ।।१६।। पूजा पाठ करी परि भाउ ! अथवा एक मन करि घाउ ।। उद्यापन का होइ न चाहि । सो दुनौं व्रत कीजिए निवाहि 11१६४॥
१ माठ
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माई अनीलमति एवं उसके समकालीन सावि
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बित्त जोग बहु दीर्ज दान । चौसंघह धरिए प्रति मान ।। प्रशिका ने सारी पहराइ । पाठ गप बोलिए लिया ।।१६५॥ दुषी दीन दालिद्री जिते । करि सममान पोषिये तिते ।। सुदरि पर श्रीपाल कुवार । सुनि मनमें मुल्ल क्रियो अपार ११६६|| गुरु को निमसकार करि धनें । गए निज मंदिर दोऊ जने ।। रहै सुषसु बहु बढे उल्हास । प्राय पहुँतौ कातिग मास ॥१६७।।
कातिक को प्रष्टाहिका
ससि पक्षह अष्टमी दिन भयो । अति निर्मल फासू अल लयो ।। न्हाए अंग पहरियौं वस्य । अति उज्जल देषिये समस्य ।।१९८।। सर्व दर्व लिए धरि भाउ 1 मति हर्षित मन उपम्मी पाउ ।। इंछिमुक्ति गए जिन गेह । बीत राग बंद्या सुभ देह ।।१६।। तिहूं गुप्ति मम नस अरु काय । पणविधि श्री जिन सासरा पाय || थिरमन होय किमी प्रति गाह् । विधियों पूज्यौ श्री जिननाह २००।। बसु दिन प्रति विधिस्पों मांखियो । राग रोस दोऊ शडियो । जानै सम सो सत्रु पर मित्र । ब्रह्मचर्य पाल्यौ इक चित्त ॥२०१।। मुनि पं लीन्ही कियों उपास । उपज्यो दुष्ट कर्म को यास ।। नीकै सिद्धचक्र पूजियो । सुषभाब गंधोदिक नियो ।।२०२।।
गन्धोदक लगाना
अति सुगंध को करें विचार । वंछिल गई जहां भरतार ।। सिरसे तवं म्हवायो सोइ । प्रथहि विन कछु नीको होइ ।।२०३११ श्रीपाल अरु सातसं जु अंग । देषियो पुन्यह फल त्रु अभंग । वसु विधि पूजा राउ करेई । मांनी सुरग निसनी देइ ॥२०॥ ढरै चोर बाजे कसाल । जलधारा दीन्ही मुकुमाल ।। मलियागिरि सों कुंकम गारि | चरच्यो जिनवर विष निहारि ।।२०५।। ससि सम पवल प्रछत लिह सयौं ! सुबर पुंज मनोहर दिए ।। पहुप मनोहर मान्दा रूप । प्रति सुगंध देषिये अनूप ॥२०६।।
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श्रीपाल चरित्र
कडक कीन्ही सुन्दर माल । स्वेत मरुन देधिए विसाल ।। कम कुसुम भति झूटे सए । भरि भरि अंजुरि जिन को दए ॥२०॥ नइवेदक पकवान प्रपार | श्री जिन मार्ग रचे प्रबार । बारि परे तहां दीप भनूप । पेयौ बर कृष्णागर धूप ॥२०॥ नाना विधि फल घरे सवारि । मनबंछित को कहे विषारी !! श्रीपाल पूजा की जहां । माठौं तथ्य चलाए तहां ॥२०६।1 कुसमांजुलि दे सिर नाइयो । दुष्य जनांजलि पानी दयौ ।। प्रथम ज पूषा इक गुनि करी । न न दह गुन वितरी ॥२१०।। नीज सौ गुनि पूजा सची । सहस गुनी चौथे दिन रची ।। पंचम दससहन गुन भनी । समगुणी षष्ठं दिन तनी ।।२१।। सातै दिन दसलक्षण गुणी जानि । प्रष्टम कोटि गुणी परवानि ॥ ठासे सब सुर कौतिग हार । मनमें कीयो हरिप अपार ।।२१।। प्रति सुकंठ लीनी माल । उपज्यो कौतूहल तिह काल ।। सुंदरि महा पारती रचे । इंद्र इन्द्राइनि दोऊ नये ॥२१३।। सुर बाजे बाजे मनिवार । मधुरी पुनि सोभा अधिकार ॥ जिनके नाम न बरने जाहिं । ना किरि प्रति मुसकाहि ।।२१४।। ममरेसुर सम चढं विमान । पहुंचे भाप आपने धान । पूजा करी भरम सब भग्यो । कोटीमट माठौं मिलि बग्यो ।।२१५
कुष्टरोग नष्ट होना
तीन दिवस गंधोदक न्हाइ । कोढ़ मिट्यो पर्योषह राजा कंचन वनं भयो तनु इसो । सोहत कामदेव को जिसी ॥२१६।। पौर जुबली सास मित्त । तिनहू के तन भये पवित ।। पौर जु कुष्ट देह हे जिते । गंधोदिक नीके भये तिते ॥२१॥ मृत पिसाच निसाचर मंत । नासै गंधोदिक परसंत ।। मोहन बसीकरन वे पाहि । विसहर संशनि साइनि चाहि ।।२१।। नैननि रंध अपन विनि जिते । नीके भए सबै नर तिसे ॥ भर जे दुष्ट कर्म दुष दगे । सुष पार्व गंघौदिक लो ।।२१।। नर नारी भन सच करि कोह । सिट पक्र मारा ओइ ॥ सो प्रगटै तिहुं लोक मझार । सो मुबह सुख अधिकार ॥२०॥
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बाई प्रीतमति उसके समकालीन कवि
बार बिभी बिना उनमान । करे राज सो इम्ड समान ।। नाना फल बिलसे मुषपाइ । मरिफ बहर्या मुफति जाइ ||२२१॥ जाके जन्न न्हायें कवि कहै । कुष्ट व्याधि नहिं तन में रहे । याको इचरन कट्स न प्राहि । जा करि है सो पार्न ताहि ॥२२२॥ मैंनांमुदरि पिय की देह । देषत गह भरि पाई नह ।। सब तासों मुनिवर यो कधी ! यह फल ते पर तुरत ही सही ॥२२३।।
मुनि की बन्दना करना
स्वामी सुम प्रसाद सव एह । बहुत बिनति कोयो धरि नेह ।। चरन कमल मुनियर के दि । दोऊ घरि मार मानदि ।। २२४।। गयो अशुभ सब वर्म सहाय । बाड्यो सुख को कह खाउ ।। धर्म एक त्रिभुवन मैं सार । धर्म दुःय विनासन हार 11२५॥
धर्म की महिमा
धर्म हि ते पर भी प्राइए । घमं हि कूल उत्तिम पाइए॥ धर्म हि से कीरति विस्तरं । धर्म हि ते कोऊ वर न करें ।।२२६।। धर्म हि ते बाद परिवार | पुत्त कालिस बिभौ अपार ॥ धर्म हि ग्रह व्यापै नहि कोर । धर्म हि ते सब काग्जि होइ ।।२२७॥
धर्म हि से नहि च कलंक । धर्म हि ते नवं सुर रंक ।। शम हि से नर बैर न बहे । धर्म हि ते कोई बुरी नवि कहै ।। २२८॥ धर्म तिहठी लेह छिडाउ। अब जमु नाम दिया था। गहें केस वपयो, जई। घरम राषि स है तब 1॥२२६।। धर्म हि त सब मिट किलेस । धर्म हि ते मरि होड़ मुरेस ॥ बहुत बात को कहै बदाइ । धर्म हि के ना मुक्तिह बाइ ॥२३ ० ।। कषि परमल्ल कहैं चित पाहि । घमं विनों को हिमू न प्राहि ।। प्रानी तजि परपंच विकार । करहु . धर्म ज्यों उतरं पार ॥२३१॥ पौर कछु सब दुख को पाम 1 धर्म एक जु सुख को नाम । धर्म हि ते श्रीपालह रूप । मकरध्वज सम भनौ अनूप ।।२३२।।
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श्रीपाल परित्र
फुष्ट व्याधि त लषी उधार मानहानी नाति दूहूं परसपर मुष अपार । भोग भोगये विविध प्रकार ॥२३३।।
जिन मंदिर दिन दिन पग धरै । निज गुर की ते प्रस्तुति करें। बिल से बिभौ देहि बगुदान | गुनी जन गर्व लहै तिहा मांन ||२३४।।
अहि निसि सिध जंत्र गुण माहि । मूल मंत्र जप पूर्जे ताहि ।। महासुख उपनौ नौरंग । सेवा क. सात से अंग ॥२३॥
इति श्रीपाल परित्र महापुराणे भव्य संग भंगल करणं । बुधजन मन रंगम, पातिग गंजन, सिघचक विधि दुव हरणं ॥ त्रिभुवन सुष कारण, भषजल तारण, सौपई परिमल कृतं ॥ बरु सुवरि पाई, विषा गुमाई, श्रीपाल सुख राज करे ।।
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इसके पश्चात् श्रीपाल का जीवन ही बदल जाता है। यह विदेश यात्रा करता है । चारह वर्ष सक विभिन्न द्वीपों में भ्रमण करता है । उसे यात्रा के मध्य में अनेकों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है । लेकिन अन्त में वह पूर्ण सफलता प्राप्त करता है। अन्त में पूर्ण बंभष एवं सेना के साथ वह वापिस मैंनासुन्दरी के पास लौटता है । कुछ समय तक अपने ससुर के यहां रहने के पश्चात् यह बापिस अपने देश को लौट जाता है ।
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गाई भजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
भोपाल परित्र का अन्तिम पाठ
चौपई भोपाल की सेना
वीरदमन सो मुकतिह गयो । परमसिष सिधारी भयो ।। श्रीपाल मुंज सुषराज । सिद्धचक फल की शुभ साज ।।१।। सरव जीव की रक्षा करें । पुन्य भाव सब जीय मैं धरै । मनमैं परिगह संष्या करी । और बिभूति सबै परहरि ।।२।। पाठ सहस अतैवर संत । दोस सहस हाथी मैमंत । बौस लाष राषिया तुरंग । सोलह लाख रथ' बर चंग ।।३।। पंदल संख्या कहीयन जाइ । बहुत रिधि को कहै बढाइ ।। संध्या सकलवमि जो कहीं । कहत कथा कछु भंत न लहों ॥४॥
दोहा
प्रशुभ कर्म भयौ दूर सब, शुभ प्रगट्यो जु अपंख ।। ' राज कर बिलस विभौ, श्रीपाल बलि बंड ।।५।। कीयो सुजस मुव लोक मैं, दुर्जन के उर सल्ल ।। सकल जीव रक्षा करन, श्रीपाल भुव मल्ल ।।६।। एक छत्र सो भयौ नरेस, जाको परिजन बहुत प्रसेस ।। दीपानी ते नृप पाए साथ, बह सुख दै सम दे नरनाय ||७||
चौपई
सत्त ज पारं घर धीर । दुष्ट जननि मर्दै बरकीर ॥ दयावंत नहीं ताहि समान । कोऊ मिटि म सकई प्रोन ।।८।। तिनसों नेह कियो असमांन । बोली श्रीपाल की मांन । सेकम ह अपने घरि गए । ते निरम सबही ते भए ।।६।। भरथ चक्रधरि पाली जिसी । राजनीति वह पार तिसी ।। जिनको नाम पई चित्त । अतुल मुष सो भुज नित्त ॥१०॥ इह विधि राज कार नरनाह । सब ही जनमक्ष भमौ उछाह ।। दीन दुषित जग पोर्ष प्राम । कोटि टका दिन बीज बोन ।।११।।
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७२
भीपाल परित
দুম মানি
बहुत दिवस यौं बीते जांय । रह्यौ परभ सुदरि को ताम ॥ मनासुर के एन सार । भयो दोहरो निर्मल भाउ ।।१२।। यांन पुन्य परि रार्ष चित्त । माराधं जिन नाम पबित्तु।। पुन दोहरी उपज्यो जिसौ । सिरीपाल सब पुरयों तिसौ ॥१३॥ पूरे भए जब दस मास । जिन गुन गायत सुष विलास ।। भयौ पुत्र सब लक्षन सार । कुल ससिहर उगयो कुंवार ।।१४।। सब कुटंब आनंदित भयो । अतुल द्रव्य जाचिग जन दयौ ।। कह्यो जोयसी सव सुषषांम । पनपाल है याको नाम ॥१५॥ महीपाल ता पोर्छ भयो । तीजी पुत्र देवरथ व्यौं । चौथो भयो महारथ बरी । च्यारि भये मैंनासुदरी ॥१६॥ मंजुला जाए सुत सात । दुजन मंजन जिनके गात ॥ पांच पुत्र जाए गुनमाल । अति दलिष्ट अरु गुनह विशाल ॥१७॥ सव सुंदरी नि सुत उर घरे । एक हि एक रूप मागरे ।। कोटी भट सब सुत बरनए । भारसाहस पाठस भए ।।१८।। वा दिन दिन सबै कुवार । और ही रूप और व्यौहार ॥ मंडलेश्वर श्रीपाल नरिद । दीर्स मनी दूसरी इंद ॥१९॥
वोहा
जान ऐसो फल भयो, मिट्यो अशुभ सब कर्म ।।
यह जांनि मरलोक हो, पालौ जिनवर धर्म ॥२०॥ धर्म का महारभ्य
चौपई धम्म एक त्रिभुवन मैं सार । धम्मै कुगय विनासन हार ।। धम्म एक सब सुष की कंदु । धम्म एक मंजै दुह इंदु ॥२१॥ धर्म पसाइ गज गुजरं । धर्म पसाइ होस हय कर । धर्म पसाइ चवर सिर ढरे । धर्म पसाइ छत्र सिर पर ।।२२।। धर्म पसाय सुष अधिकार । धर्म पसाइ सबै नरपार ।। धर्म पसाई मुजस बिस्तरै । धर्म पसाइ सकल दुष हरै ।।२।। धर्म पसाइ रूप अधिकार । धम्म पसाइ सेवं नर पार ।। धम्म पसाइ सुजस बिस्तरै । धम्म पसाइ सकल में हर ॥२४॥
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बाई अजितमति एवं उसके समकालीन कवि
धर्म पसाइ सुरभि तनु होइ । धर्म पसाह जाइ गद गोइ ।। धर्म पसाइ मिल वरनारि । ससि यदनी रंभा उनिहारि ।।२५।। अमृत वैन सुष को धाम । सील धुरंधर से काम ।। धर्म पसाइ हो हि सुत घने । जिनकी सोभा कहत न बने ।।२६॥ धर्म साइ सेज सुप बसे । धर्म पसाइ काल नहि उसे ।। धर्म पसाइ न बैरी लरं । धर्म पसाइ छिद्र नहि छरें ।।२।। धर्म पसाइ सिंघ बसि होइ । धर्म पसाइ जाय गज गोइ ।। धर्म पसाह ज्वाला नहिं जरं । सो प्रांनी अतुर है परं ।।२।। धर्म पसाइ शेर मरि जाइ। धर्म पसाइ परं सब पाई ।। धर्म पसाइन मूस चोर । धर्म गसाइन व्यापं घोर ॥२६॥
धर्म साइ होह जल पार । नदी सरोवर सागर पार ।। धर्म पसान दोहै घाउ । धर्म पसाई मिटै पल भाउ ॥३०॥ धर्म पसाइ देव बांस रहै । बम पसाइ मली सब करें। धर्म पसार उचाटन लगे । धर्म पसाई देषि रिपु भंग ॥३१॥ धर्म पसाइ अघ मुंबन लहै । धर्म पमाइ सोक सब बहै ।। धर्म पसाइ धरम मति होइ । माया मोह निवारै सोइ ॥३२॥ धर्म पसाइ देह वह दान । धर्म पसाई मिटै अवसान ।। धर्म पसार पंषत घरं । भव में दुःष सर्व परिहरे ॥३३॥ धर्म पसाश डिग नहि चित्त । माराचै जिन नाम पवित्त ।। धर्म पसाइ कर्म को नास | धर्म पसाई ज्ञान परकास ।।३४।। धर्म पसाह वहस को कहै । प्रानी मुक्ति जाय बर लहै ।। इंद्र आदि सब से पाई । बहुरि न भव में पाये जाइ ।।३।। धर्म पसाइ मी गति होइ । धर्म पसाद मुक्ति पर सोइ ।। धर्म पसाइ पंच पद होइ । ताते धर्म करो सव कोच ।।३६।।
बोहा
धानी सुनौं चरिस सब. अरु देषी जिय जोछ ।। धर्म हितु संसार मैं, जात सित्र पद होइ ।।३।।
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७
पीपाल भरिक
एवाह दिन श्रीपाल नरेस । बैठ्यो संधासन अलबेस ॥ वाम अंग मैनासुदरी। रूपवंत सब ही गुन भरी ॥३॥
र चमर सोहै सिर छत्र । हर्षित चित्त महा सुभ झत्त ।। प्राग नाटिक नच अपार । गीत विनोद हो हि अधिकार ॥३६।। मुघजन भाष महापुरनि । सुनिये ताको प्ररथ वर्षान ।। कस्तूरी चीवा अरु मेद । कपूर जवादि बासको भेद ॥४०॥ कुकुम सों मर्दै वसु अंग । चहुँघां फैली वास अभंग ।। इह सुष प्रासन बैठ्यौ जांम । मा बनमाली प्रणम्यो ताम ||४१।।
मुनि दर्शन
अंस भाष्यों पणई सेव । धो पति पूजाममि देवं ।। ले फल फूल छहों रितु तनै । जिनकी सोभा कहत न बनें ।।१२।। उपवन सब परिफूलित भयो । वेषत ही मेरो दुब गयो । मावागमन भयो मुनि तनौं । वा सोभा कसे कर भनौ ॥४॥ यह सुनि श्रीपाल तुठियो । सिंघासम ते उठि हरषियौ ।। सात पैड उसर्यो तव सोह। प्रोष्यनयो मनमें सुष होइ ।।४।। वस्त्राभरन उतारे सबै । वनमानी कौं दीए त ।। पुनि बैठ्या राइनि की राउ । सैन समान सु उपन्यो भाउ ||४|| मति उदार ताको चित भयो । वहुत दर्न वनपालदयो । मानदमेरि दिवाई तय । नगर लोग चलि पाए सबै ।।४६।। घउरंग दल बल्यो प्रमंग । प्रतेवर सब लीयो संग ।। ते परफूलित चली बिसाल । जिन गुन गावत माछी बाल ॥४७॥ कर संग सब मंगलाचार । बहुत परिगह चल्यो अपार । पंथ न सूझ छिपियो भान । सिरीपाल मनमैं रंबान । ४७॥ असे दलसों पहतो तहाँ । उपवन महा मनोहर जहाँ ।। कुसमित कुसुम कक्ष अधिकार । जह तह वासु लेत प्रलिमार ॥४६॥ मंद पवन अति सीतल बहै । प्रति सुवास मन को दुष दह ।। कछु कदम मोर कछु हरे । कछु रुष फूलै कछु फरें ।।५।।
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गाई जीतमति एवं उसके समकालीन कवि
रुति वसंत सोहत वन जिसी । मुनिवर पुन्य भयो वन तिसौ ।। हम प्रसोक सुदरता माहि । ताको प्रति सुदर शुभ छोहि ॥५१।। सब सुष करि श्रीपाल हि वीठ । ताकी लाग्यो मन को ईठ ॥ ता करि सुख चित्त दुषहत । मुनिवर बैठ्यो महा महंत ॥५२॥ देष्यो श्रीपाल परमेस । मनमें उपज्यो सुष मसेस ।। एक परम पद जान जोइ । बेतन गुन पाराध सोइ ।।५३।।
मुनि वर्णन
राग रेस नहि जाके विस । संयम केवल पाल मित्त ।। तीन गुपति पाले परमस्य । रत्नत्रय मुषन समरत्य ॥५४॥ तीन सल्लि फेशन सिवकत । पाल परन जगुवल्लम संस । भव जलनिधि तारन जिहाज । पंच महावस पर मुनिराज ।।५।।
मकरध्वज पंड्यो धरि भाउ । छहौं दरबगुम भासम राड़ ।। अट्ठ कर्म माया मद हरण । अट्ट सिद्ध गुन धारण सररण ॥५६॥ नवविधि ब्रह्मचर्य प्रतिपास । दसलमा गुगा धरण दयाल ।। एकादस प्रतिमां जिय माहि। द्वादशांग भासन जो प्राहि ॥५॥
यारा विधि सप कर प्रमान । द्वादस मनोवृत घरन सुजान ।। वाइस परीसह सहन जझार | पंच महारत पालन हार ।।५।।
देषत उपज हषि विसाल । प्रेसी मुनि बंद्यो श्रीपाल | सीन प्रदक्षणा दीनी ताहि । निमसकार कीपो ता काहि ॥५॥
मापन अंतेवर परखांन । नगर लोग संजून समान ।। बैठ्यो ता मुनीस के पास । प्रति मामदित भयो उल्हास ।। सब मिलि प्रस्तुति कीनी जब । धर्मवृद्धि मुनि दीनी तबै ।।६।।
बहुर्यो निमस्कार करि राउ । पूछन लागो मनि धरि भाउ ।। भों मुनि करुना सरवर बीर । कही धर्म बुद्धि गुनगंमोर ॥६१|| जाते जीवन मरन न होइ । मात भौन सरीरह होछ । दुरगति पंथ निवारन हार । सौ मर्म कही सुभ सार ॥६२।।
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श्रीपाल चरित्र
मुनि द्वारा धर्मोपदेश
यह सुनि मुनि जप सुभ कंद । सुनौं राइ निज कुलके चंद ।। धर्म वृद्धि ही भाषर्षों पिसी । श्रीजिन प्रापुन भाषी जिसी ॥६३।। बडो धर्म दस लक्षन जानि | गुन अनंत को कई बषांनि ।। अरु सम्मिक दरसन सुभ जोइ । धर्ममूल है प्रथमह सोइ ॥६४॥ अतुल लछि समिकत ते सर्व । समकित ते लहिए सिव दर्य ।। समिकत तीर्थ कर पद कर । समिकत गुन अनंत संघरै ॥६५।। सम्यकु सर्व होष दुष नास । सम्मकु सबही सुषको बास ॥ समिकत बिन दुष वा तर्फ । सम्यक विन नर भव, भर्म ।। ६६।। सम्पक गुन जाकै मन पाहि । सबै मुन मालवं ताहि ।। तपु जपु संजमवृत मरु पुन्न । सम्यक एफ विना सब सुन्न ।। ६७॥ अरु सुनि श्रावक व्रत हो राइ । संषेपों कहीं समझाइ ॥ मन वच काइ त्रिसुध्यो चित्त । जी भइ न कीजिए नित्त ।।६।। थावर बिनु कारन ठारिए । प्रथम अनोवृत यह पारिए । सचं मुष सचें जी रहैं । मिथ्या पचन मूलि नहि कहै ।।६।। अलियो बोल बोलिए जब । जीव विराधत उबर तब ।। पुरपट्टन मारग मैं जाइ । परधन दिष्टि पर जो आइ ।।७।। लेइ भवत्तन उत्तिम लोइ । त्रिन समान देवं जिय जोय ।। कबहुं न चोर संग जाइए । लाको हर्यों न धनु खाइए ।१७१।। परदारा न देषिए नैन । माता बहन सम वोलहु बैन 11 हय गय रथ अरु दासी दास । वस्त्राभरन पीर घरबास ।।७२।। गाह मैसि अरु षेत वर्षान । इन संख्या कीजिए प्रवान । अनोवरत एकावस सार । प्रोरु दया गुन पंच प्रकार ॥७३||
दोहा
जो को पार भाव घरि, सुष भुज मन सोह। भव दुष सकल निर्कदिको, मुक्ति श्रीफल होइ ।।७४।।
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बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि
पुभि अनोवृत सुनि हो राइ । दिसि अरु विदिसि नाम कौं जाइ ।। इनकी संख्या ल है जोइ । एक प्रधमगुन जानौं सोइ ।।७४।। हीन मलेछ यसत हैं जहां । कबहूँ भलिन जयं तहां ।। पुल प्रभावना जहां न सोइ । तहां विबेकी लोग न कोइ ।।७५|| नषी मजार स्वांन जिय जिते । भोजन इन्छ गहन हो तिते ।। तिनपं ते लीजिए छिडाइ । बडो एक गुण है यह राज ||७६|| मैंन लोह लाष अरु राल । महु बासिरा मूत हरिताल || अरु तिन मै बसिए परवान । धर्मवंत सर्व गुन जान ॥७॥ यह उद्यम सबही ते हीन । पर इन दंडिन लेड प्रवीन । प्रथमहि जिन चैत्याल जाइ । तब उदिम आरंभ प्राइ ।।७।। के प्रतिमा पूजं निज गेह । तव भोजन सौं पोष देह ।। उत्तर दिसि सनमुष सुभथान । पालिक संन कगै नर जान !|७६।। कीजे सामाइक भिन्न काल । मूलमंत्र जपिय सुबिसाल ।। राग दोस दीजै छिटकाय | पंच परमगुर चित्त गुगाय ॥८०|| संजम सरवर बसो छांह । सुभ भावना घरो मनमाह ।। विहता प्रासन मांडौ सार । पान न जहां बहे पसार । ८१।। एक मांस मै पंचह वार । कीज बुत मन सुघ विचार || बक्षा भरण रैन अरुघांम । पान सुगंध भोग अभिराम ।।८।। इंद्री पोषन कीजे भाव । इनकी संख्या की राव ।। अंसी बिधि ते बाढे धर्मं । नार्म सकल पाप भरि कर्म ।।३।। मुनि जिया श्रावक बहबास । अम जे रोग लीन जन पास ।। च्यारि प्रकार दान जो देइ । मनवांछित फल सोज लहेइ ।।४।। द्वारापेषन कर निहारि । जो लो बजे पहर परि धारि ।। कारै सोधि घर भीतर जोई । सोई जानी श्रावक लोइ ।।८।। सर्च जोब करतां रापियं । अमिल बोल सबसौं भाषियो ।। जौलौं अपनौं कछु बसाइ । जीउ बिराषत लेहु छिराइ ।।८।। तो करना मनमांहि अनाइ । समकित धरिफ नीकै भाइ ।। हाइ हाइ मुषते उचरी। दया भाव उर. अंवर घरी ||७|| निसल्ल मरन करि भ्रमी विवेत् । काल पाइ पावै सिब रेह ।। ए बारह व्रत विविध प्रकार । या संसार माहि जो सार ।।८।।
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७८
कहै मुनिदं सुनों श्रीपाल । इनते धर्म म धनिवार ॥ हरथ्यौ नृप इह सुनियों जब । पविच मुनिवर पूबै ॥ ६६ ॥
श्रीपाल द्वारा प्रश्न
भो ज्ञान दिवाकर परमगुरु, गुंन रत्नाकरि जांसि । हमें भवातर हैं जिसे तेसे कहो बषांनि ॥ ६मा
1
चौप
श्रीपाल परित्र
कौन कर्म करि कोठि भयौं। क्यों में सिद्ध चक्र घृत लयो । क्यों हूं पर्यो समद में जाइ क्यौं भुजबल तिरयों निकुताइ ॥११॥ कहो कम्मं स्वामी मो तनौं । भांड विगोवों कीनों घनौं । बावन कर्म तेमिटियो सोहि । यह संसौ मेरै मन होहि ॥ ६२ ॥ मुनि द्वारा प्रश्न का उतर
यह सुनि मुनिवर जंप सबै सुनि श्रीपाल कम् निज सबै || भरत क्षेत्र सब सुबह निधन | जामै कोटिगम परधांन ||१३||
तामै रत्न कंपापुर जांनि । वन उपवन करि सोभित मांनि ॥ जह श्रीकेतराज बलि बंड । विद्याधर सोहि प्रचंड ॥६४॥ विद्या जानें प्रति चतुरंग । कुल जल ल्ह सारंग प्रसंग || अंतेवर मैं परमान ॥६५॥ अह निसि पिय मन रंजन करन रूपवंति सोभति मति हरन ।। जैन धरम पालन परबीन । पात्रहि दान भक्ति प्रति लीन ॥१६॥
तसु भामा श्रीमती सुजांन सब
वह दिन नृप ताहि समान गर्यो जिन मन्दिर मन कल्याण || महामुनिस्वर बंधी जाइ । फिर ताढिग बैठ्यो सुष पाइ ॥६७॥
मुनि सु प्रसंन भयो तिहार । लाग्यो भाषन धर्म विचार ॥ पुन्य पाप जैसी फलु चाहि । को प्रगट राजा सौ चाहि ॥ ६८ ॥
सुनि नृप मन हरष्यो जोनि । जैमी सुनिवर कही वषांनि ॥ प्रानंची राजा घर गयी। जैन धरम पारं सुष भयो ॥६२॥
बहु अशुभ उदे भयो भाइ | श्रावक व्रत दीए छिटकार ।। जोवन मद श्रीमद भयौ राज भयो बिकल को कहे बहाइ ॥ १०० ॥
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बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि
मिथ्या कर्म उदै भया तास , सेवं मुरभिस्या को स. कपहूं जन पंथि नहि जाइ । मिथ्या ग्यांन सुने चित लाइ ॥११॥ एक योस सातसं अंग । वन क्रीडा पहुतो ले संग ॥ मुनिवर एक वेषियी इसी । जाने चेतन गुन है जिसी ॥१०॥ सह परीसा माईस सार । मलिन देह पीती अधिकार ॥ हेम पटल सौ रहियो डाह । रवि प्राकार न बरनि जाई ।।१०३।। ध्यानांहढ सुद्ध मनधीर 1 देह जोग ठाडो गंभीर ।। ताहि षि सिम प्रसुगुन कियो । कोही कोडी जैपन लियौ ॥१४॥ सागर मै हरवायो सोइ । ताको मन घलु नैक न होइ ।। पुनि करुना वसजी मन आइ । जलमैं सैनिकसायौ घाइ।।१०।। कन्नु पाप को बंध वं गयो । निज मन्दिर मो पावन गयो ।। अंनह दिन बन मयो तुरन्त । वेष्यो तिन मुनिवर पावंत ।।१०६॥ पर मत नु जाने मुनिराउ । राग रोस छाइयो बरि भाउ ।। घोर धीर तइ पीनों मंगु । भरयो घूरिसो धीमै मंगु ||१७|| रत्नत्रय व्रत ध्यावं चित्त । मांस एक विन पाहार निमित ॥ पाषत हो सो नगर मझार । देगि राइ दुष कियो अपार ।।१०।। पोल्यो मुनियर सौं तिहबार । तै कत षोई लाग गंवार । नांगो भयो फिरत बेकाज । काया मैलो अति वेसाज ||१०|| मार मार करि उठियो चाहि । असिवर लै सिर काटी याहि । बहु उपसर्ग तास को करयों । बारंबार भृष्ट उपरयो ॥११॥ प्रति हास्य कियो सा सनौं । कवियन कदै कहालौं भनी ।। बहुर्यो कृपागंत पति मयो । ताहि वंचि प्रागै चलि गयो ॥११॥ महा पाप बंध त गयो । काहू नै श्रीमती सौं करो ॥ प्रजुगत बात करत तो कंत । मुनि निदित डौलत विहांत ।। ११२॥ कबह जलम देत हराइ । भांड भांड उपसर्ग कराई। यह सुनि रानी विकरत भई । यह बात सौचन नई ॥११३।। कौन पाप यो करत गवार 1 जानत नहिं धर्म व्योहार ।। महा कुसंगति सो क्यों भई । हा मिपि करम कहा ते ठई ।' ११४।।
दोहा
यह चितति रानी हिय, मलिन भई जिसषाइ ।। निदा अपनी करत सो, पौडि रही मुरजाह ।।११५।।
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८०
श्रीपाल चरित्र
चौपाई
राजा श्राय गयी ति बार । पहुत्यो सो रांनी पंधार ॥
जो दे
तो बिलसी भाइ | लागी पूछन सकुचत ताहि ।। ११६ ।। ग्राम पियारी ए बरनारि । कारन कहा सु कहहिं बिचारि ॥ ह्सइ न बोलें जी मुरझाइ । रांनी कहि विरतंत सुनाइ ॥। ११७ || बोली एक चेटिका तबै । राजा बात सुनों यह श्र ॥ तुम श्रावक व्रत दीयो सुनेर नि ननमहि ।।११७॥
अरजन मैं दीने डरवाइ । करि उपर्म तब लिए कढाइ ॥ बाहू गोसों कट्टियो ६ तरतें । पक रही मुरझाई १,११६॥ यह सुनि राउस लज्जित भयो । अपनी चुक जोनि परनयो । बार बार जप है त्रिया मी पापी कर्मु सब किया ।। १२० ।। मो तैं अशुभ उदय भयो भाइ | सेए मिथ्या गुर के पाइ ॥ ताकी सीष नीकै सुनि लई | नांदी सुमति कुमति अति भई ।। १२१ ।।
पापी पातिक की मूर हों गुम हीन महा जड़ कर ॥
हों अभिमान महा मद भरी । देषत संघ कूप में परो || १२२ ॥
तुम सौं कहा कहीं हो साखि । नर्क पंथ तें ले मो राषि ॥ राणी वचन सुणे ए जये । दयावंत हूँ बोली तर्ज || १२३ ।।
स्वामी तुमी सन जुगती करी । धर्मकथा मन तँ बीसरी मुनिवर निदे प्रति दुषदयो । सुनि के मोहि महा दुष भयो || १२४ ।। अब तुम सुनहु धर्म की रीति । बहुत न्याई मति राख्यो प्रीति ॥ जिन सासन वृत निवे जोड़ | भवमैं चनुंगति भ्रमि है सोइ ।। १२५ ।। जो पापी निर्दे बहु भाइ । सो निचे करि नकह जाय ॥ पंच प्रकार सुदेषहि दुःष किंचित कहून पावे सुख ।। १२६||
सोप्रांनी पीडिये दुषा । कंपित सूली दीजें जाइ ॥ पुनि उषल मैं छरिये सोइ । मूर मेट जब ताकी होइ १२७।।
बहु
उपजे ताहि सरीर । बहु दुःष पावै प्रानी कीर ।। संडासनी तन तोरे मारि। नीर्द ताहि देइ बहु गरि ।। १२६ ।। गाली रांग ताकी मुष भरं । कुसघाइनि मुहं ल चौकरं || ददाति श्रवि पुतरी लाइ भेटावे गर कंठ लगाई ।। ११६ ।।
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बाई श्रजीतमती एवं उनके समकालीन कवि
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परत्रिय रावन लेहु सुप एह । भोग कर यासों करि नेह ॥
कछु जीम मति करहु संताप । सो कहि यौन कियो तं पाप ॥१३०॥
ते जिन व्रत मेमन उ तें परधन हर्षित है हरयी ॥ मुनिवर निदे अनिवार दिन कारन दुष दये अधिकार ।। १३१|| तं पर हर्यो सीलव्रत जांनि । तू केवल पापिन की पांनि ।।
यह दुष भुजि जाह संसार । करहि धरम रुष अंछि गवार ।। १३२ । ।
सुन स्वामी नरकह दुष इसी । तो सौं मैं जु प्रकास्यो तिखौ || या भवमें कछु पुन्य उपजा । मुनि पैं जिनवर व्रत ले जाइ ॥ १३३॥ यह सुनि राजा त्रिया समन । पहुच्यौ जाइ जिनेसुरथांन ॥ कहां मुनीसर देयों बीर । सुष की निधि ग्रह गुन गंभीर ।। १३४||
ग्यान घर त्रिसुध उदास । बंदे चरण कवल सुभ जाल ।। जप राउ जोरि ही हाथ ही पापी प्रति सुनि हीं नाय ||१३५|| बहुत पाप में कियो विचारि नरक पद्धते लेहु उबारि ॥ धर्म पयासि पंद्रह धरन श्रबहू मायो तेरी खरन ॥ १३६ ॥ श्रीपाल द्वारा पूर्वभव में सिद्धचक्र व्रत ग्रहा
यह सुनि मुनिवर भयौ दयाल | सिद्ध चक्र व्रत ले भूपाल ।। तास होइ पापक छेद । ताकी जुगति सुनौं यह भेद || १३७||
कातिक फागन मास घसाढ | स्वेत पक्ष सब सुष की बाद || अष्टमी दिन उपवास कीजिए। वसु दिन सिद्ध चक्र पूजिये ||१३८ || संत निसिजागरन करेइ । दान सुपात्रहि सो पुन देह || वसु दिन फील बरत पारिए । भेदाभेद चित्त धारिए ।। १३९ ॥ पुनि जोवन करं धरि भाउ । करं प्रतिष्ठा प्राय बनाउ ॥ अथवा सांतिक विधिकों करें। श्री जिन पूज करें भी हरे ।। १४०॥
अजिया सारी दी जानि । पुस्तक दीजे मुनिवर मांनि ॥ भृंगार तारक दीजे इते । या प्रवान कहे हैं जिते ।। १४१ ।। श्रीगरणहर भाष्वौ व्रत एह करें जो यह सुनि राज जिनेस्वर वदि । त्रिय
सुख भूजे सिव गेह ॥
संयुक्त गृह गर्यो अदि || १४२ ।।
गह्य वृत मन बच अरु काय । पूर्जे सिद्ध चक्र सुष पाय ॥ तीन धार सो देइ प्रवानि । जनम जरा नासन सुष पानि ॥ १४३॥
८१
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थीपाल चरित्र
कुकुम अरु कपूर बर गारि । चंदन लेइ पवित्त निहारि ।। अरु प्रखंड अक्षत बहु लेह । उज्जल पुज मनोहर देइ ।।१४४।। दर केनरी केतुकी माल । चंचेली अरु बेली गुलाल 11 चंपक जुही मालती मार। अवित्त सुगंध अंबुज मन्दार ॥१४५॥ नाना विधि के पहुप अपार । पूर्ज भरी अंजुरि सुभ सार ।। षटरस समेट गुभ जोड़ । बह पकवान चहावं सोइ ॥१४६।। कपूर दियौ तहां धरै प्रजारि । बहु क्रिस्नागर खेचे वारि ॥ नानाबिधि पाल पूजे भाउ । जल गंधाक्षत पहुप वनाउ ॥१४७।। नईवेद दीपक अरु धूप । सुदर फल तहां धर अनूप ।। देव अत्रं पूजे सुभ चित्त । सिच जंत्र पाराध नित्त ॥१४८।। पनि उजबन कर धरि भाउं । करी प्रतीच्या धर्म सहाउ । पूज्यो निमत्त प्राइक जब । संन्यासह तनु छाड्द्यो त ।।१४।।
दोहा दिव्य देउ सुरगह भयो । मुज्यौ सुष अधिकार ॥ पाच मुक्ति च पाइयो, सो तू है श्रीपार ।।१५।।
चोपई सुनि श्रीमती अनोवत पारि ! पहुती सुर्ग देह तजि नारि ॥ तहा ते च प्राइ गुन भरी। सोई है मैंनासुन्दरी ।।१५।। अरु ए देषि सात से अंग । पूरव मित्र जु रहते संग !! मुनिवर सौं त कुष्टी करो । तातै कुष्टी म्हं दुष सयौ ॥१५२।। ते मुनि जलवोरन उचरौ । ताल तू सागर मैं परयो ।। दयावन्तह्न काढयो सार । ताही ते तं पायौ पार ॥१५॥ जो त भिष्ट मिष्ट करि भयो । तातै भाड विगोवो भयो ।। असिवर सौ मुनि मारन कह्यो । तात त्रास महा ते सयौ ॥१५॥ पुन्य भवांतर सुनि हो दाई । दु:ष सुष यहै भ्रम छिट काय' 11
यह सुनि मुनि बंद्यौ श्रीपार । अत प्राचरयो सुष अधिकार 1१५५॥ उपवेश के बाद गृहागमन
आदि अंत पूरव भव सरन । दुःष बिनासन सुभगति करन ।। बारंबार नबायो सीस । घर प्रापर्न गयो नर ईस ।।१५६!!
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
सिंघ चक्र पाराधे चित्त 1 जैन धरम प्रतिपाल वित्त । पुत्र कलि मित्र सुभ ठान | करै राज चक्रव समान ||१५७।। इच्छित काम भोगरस लेइ । मैनासुदरि मान घरेह ।। नाटिक नर्च बेद घुनि हो । सत्र राज पार नृग सोइ ।।१५८।। दुरजन वसि कीए बलि बंड । हय गय नग ली बहु हँड ।। इन्द्र तुल्प सुप जाइ न गिन्यौं । महाराज सब ही विधि बन्यौं ॥१५६।। बहुत काल गयो इह रीति । वसुधा सकल करी व सि जीति । गज गुजरै महामदमंत । हय हीस देषिये अनन्त ।।१६०॥ से पाइ बहुंत नर पाल | निति प्रति मा सरस रसाल ॥ प्रष्ट सहस सुदरि भोग । जा प्रताप महि मंडल सबै ।।१६१५॥ बांचे वृधजन काब्य पुरांन । गुनियन जन को राप मान ॥
गुनियन जन राय दरवार । पाचै ह्य गय विभी अपार ॥१६२॥ मैराग्य भाव उत्पन्न होमा
एकह दिन प्रासन विहसत । चोहूंघा चौकियो जोवंत ॥ . उनकापात भयौ अति आम | देषत ही चित चित्यो ताम ॥१६॥ ज्यों चिंतत यह गयो दिलाय । त्याही मो विभूति सब जाय ।
राज भौग धन जोवन गवं । प्रसे ही मौ जैहैं सर्व ॥१६४॥ पुत्र को राज्य देना
यह मनमैं चितवै नरेस । सो उदास मन भयो असेस ! धनपाल सुप्त लमो बुलाय । कही राजभारु सुष पाइ ।।१६।। स्त्त राज पाली धरधीर । हम निज काज सबार बीर ।। यह सुनि बिलथ्यौ भवन कुवार । एतु अमन ते कमी असार ११६६।। बालापन सुप लह्यो न जांनि । हय सुत्र पय सुष ललौ न मानि ।। है निहचित न कोयौ भोग । राज भार ह्रौं नाहीं जोग ॥१६७।। तुम बिन सजन मोप होय । महा दुष को देखें जो ॥ तासौं राव कहै सुनि धीर । कुल मारग प्रगटी बर बीर ।।१६८।। पून न बहै गिता को राज । कहा सरची तिन जाऐ काज ।। जे सुत पिता सुख नहि देहि । अरु कुटंब को भारु न लेहि ।।१६६।। अरू जे कुल कलंक नहि हरे। ते सूत मही भार न पोतरं ।। ता सुत जाये हो इक सूत । तातै वपरौ भलो अपूत ॥१७॥
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४
লাল অঙ্গি
जननी भार धरं दस' मांस । दुर्जन डर न ताक त्रास ।। जाविंग जाकी पास न करै । ते मुत गर्भ माहि किन गरे ॥१७॥ तुमतो सब लायक गुन सार । सीघ लेहु राज को भार ।। लभिजत हे जु' नवाबो सीस | अनि रूपो देख्यो नर ईस ।।१७।। यह सुनि कुबर कियो थिर चित्त । राज भार तब लयो पबित्त ।। राम हरष सुत क्रौं मुष चाहि । राज पट्ट बांध्यो सिर ताहि ।। १७३।। कहै राक सुनि कुवर सुजान । नीक फरि मिख' ले परवान ।। सील भार जे अंचहि बंध। पररव नी की देषत अंध ।।१७४।। मिथ्या दरमन देषन जांहि । लोचन सफल सदा सरमांहि ॥ विष राग कबहु नहि सुन । मिथ्या कथा ने मनमें गुन १७५॥ अर कबहुं न सुनै परपीर । तेइ सफल श्रवनसुनि बोर ।। नाना विधि के पहा अपार । जिन की प्रति सुबास अधिकार १७६।। तिन ने प्रमुदित रोई गुचित । नापा सफल जानियौ नित्त ।। कबहूं होन बात नहि चर्व । वाब हूँ'गुन पासाप न तबै ।।१७७|| स्वाद प्रमाद न मांने सोइ । रसना सफल मानिय जोड ।। सुरत संग नहि बंछ चित्त । मंद्री सफल महा सुनि निस ॥१७८।। दया भाउ मनमै राषियौ । मधुर बैन सबसौं भाषियो । न्याय पंथ पर लिए न जानि । तजिए नहीं धर्म की बानी !।१७६।। सुष रहियं माया के पास । पुयन सौ रहै उदास ।। पिसुन बात सुनिय न हि काम । जीव में न दीजिय जान ।।१०।। पर उपगार कीजिए प्रीति । वौल सांच राज की रीति ॥ कबहूँ लोभ न कीजे चित्त । परधन परदारा परमित्त ।।११।। बहुत देस पुर पटन जिते । मुजयल जीति कीए बसि तिते ।। सुत संतोष चित्त मति करौ। बरी विभो त्रषा मति धरी ।।१८।। बहुत सीप दीन्ही अधिकार । प्रापन बन पग धारं सार ॥ बन मछत जानियौ नरेभ । यो पुरजन सकल असेस ।।१३।। कोऊ रुदन कर दिलषाइ । कोऊ बिलसं प्रति सुषपाद ।। कोऊ कहै बुरी अति भई चंपापुर की सोभा गई ।। दयावंत सब सुष को धाम । रूपवंत माने सुर काम ।।१८४।। महाबली भुजवलि उदारि । दल सुडोल पछ कवं विचारि ।। राजरीति धिसी राम । महि मंडल में जाको नाम ।।१८५।।
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बाई अजीतमत्ति एवं उसके समकालीन कवि
८
जाक राज सबै सुष लहै । कबहूं दुःप दाग्दि न गहै ।। आक राज दान सब दए । कहूं मान हीन नहीं भा ॥१८६।। जाक राज पाठ मद मते । जाके राज भोग रस रते ।। मा मिबह्यो कुल आ गर । भमिनि त्यो सीन हो भ.] जाकै राज न मै चोर । जा गज न ब्याप चोर ॥ जाक राज यहथौ परिवार | दुषी दीन जनको आधार ।।१८८।। जाकी कहै कथा सब कोइ ! असो दूजो भयौ न होइ ।।
ये गुन सुमिरै अरु लालिचाहि । नरनारी घर घर पिछताहि ।। १५६।। मैनासुदरी द्वारा दीक्षा ग्रहण करना
मैनासुन्दरी दिख्मा काज । चजियो धरी जिनेश्वर लाज ।। पाठ सह्स भामिन जे प्रांन । सेऊ संग भई परवान ।।१६।। सकल परिगह सुख्ख छिटकाह । चाली श्रीपाल की माइ ।। पुरवासी और नरनारि । दिव्या धारन वली विचारि ।।१६।। कोटीभट बन पहुंच्यौ जदै । महा मुनिस्वर देष्यो तबै ।। वंद्यो ग्यांन धरम परमेस । लाया प्रस्तुति करन नरेस ।।१९।। जय भविजन जलरूह के भान । जय गंति वारन परबांन ।। जय जय सिव रवनी गलहार । जय जय रत्नत्रय व्रत धार ॥१९३।। विषयन वन भूरन गज दंत | जय जय गुरण रत्नाकर संत ।। जय जय सर्म दोष दुष हरन । जय भव जलनित्रि तारन तनं ।। १६४|| जय जय मोह पार षग राज । जय जय कल्पतर सुष साज ।। जय जय कोह दयानल नीर । जय जय निर्नासन भवभीर ।। १६५।। जय जय मोह पास हत बीर । जय जय नभ कुजर हरि धीर ।। जय जय अट्ठ कम्म कुल नास । जय जय केवल ज्ञान गमास ।।१९६॥ जय जय सूर भर सबै पाय | जय जय केवल अपन राश।। जय जय सुर नर सेवै हूँद । जय जय करुणा रस जिनचंद ।।१६७॥ जय जय वृत भूषन मुनि राइ 1 जय जय सूर नर रोवत पाइ ।। जै जै क्षमावंत शुभ कंद । जै जै प्रमु नासन दुइ दंद ॥१६८।।
दोहा भो गुन सागर परमगुरु, सरग भाईगो सोहि ।। या सरार समुद्र मै, बूडत राघौ गोहि ।। १६६।।
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श्रीपान चरित्र
चौपई
मी की वृत दी सुभसार | जो चहुंगति कुल छेदन हार ।
यह स नि मुनिवर जपं एह । धनि । जिन यह को नई ॥२७० श्रीपाल द्वारा मुनि दीक्षा ग्रहण करना
बहरयो तू भव दुष न लहैं । जामन मरन सब भी है। यह सुनि श्रीपाल जीय पर्यो । सिमां सिमंतर सबस्यो को 1।२०१।। मित्र भाष सबलों परगासि । राग रोस दोन जिय नाषि || पुनि सेहर मगि नषित सीस । छिन मैं लयो उतारि नर ईस ॥२०२।। कंकन कुडल दीए डारि । मूके वस्त्राभरण उतारि ।। पंच महाप्रत पर चित्त दियो । पंच मुठि सिर लुचन कियो ॥२०३।। वास्याम्यंतर गुध संभयो । अति निर्ग'थ भयो गथु गयो ।। जो हौं सब सुष सेबन जांनि । तिन दिल्या खीनी परवानि ॥२०४|| कुशपहू रानी सुभ बित्त । अजियो को वृत लियो पवित्त ॥ मैंनासुदगि सब सुष कर्न । दिण्या लीनी जिनवर सर्न ।।२०५॥ बछाभरण भोग सब गर्नु । छिनमै छाडि दियौ तिह सव॑ । रेनमंजूसा अर गुन माल । तिनहूं दिव्या लई गुनाल ।।२०६।। चित्तरेह पौमा परधान । और ज अंतेवर कल्लु पान ।। दीक्षा सनि लई घर भाउ । माया को सब तज्यों उपाउ ।।२०७।। और जु हृते सातस अंग । दिष्या तिन हूं गही अभंग ।। जो कछ राज मित्त है और । दिष्या सनि लई तिह मैंर ।।२०।। मध श्रीपाल भ्रमैं बतराइ । महा मुनिसर भयो शुभाइ ।। ताके सिर परि ग्रीषम भान । महा तप को कहै वषान ।।२०।। वर्षा मीत पर असरार । सह दुष मनमैं अधिकार ।। कृष्णागर वहु कुकुम गारि । तन चरचतो निहारि निहारि ।२१।। सीत तुसार छाया ता देह । तपमै तो जान्यौ प्रति नेह ।। घालं महावरा की छांह । इन्द्रो बन डाल्यो छिन माह ॥२१॥ दिख चरित्र धर्यो जिय जोइ पिठावीस गुन पार सोई॥ निज पद पारा गुन राउ । भ्रमैं अकेली पित्त शुभाउ ।।२१२॥ देइ जोग बन भीतर जाई । बहुत सह उपसर्ग सुभाइ ।। धरं ध्यान अति धीरी चित्त । ठाडो मानों मेर पबित्त ।।२१।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
मास एक दिन लेह अहार 1 सहै परीसा बाईस सार 11 पावस रित द्रम तरि सौ रहै । ग्रीम रित गिर परि दुष सहै ।।२१४।। सीत मास सागर के तीर । जोग देह दुप सहै सरीर ।। बहुत भई प्रति पीनी देह । छांडे सर्व सुप मद नेह ॥२१५।। हिम पटल तन छायो ताहि । सब मुष नहिए तात न चाहि ।। एक ध्यान ठाढौ सो रहै । कोऊ ताको भेद न लहै ॥२१६।। कोऊ कहै चित्र निरमयो । काह तन पाहन की चयाँ । कोऊ कह काऊ को देह । मन बच क्रम में थिर नेह ।।२१।। बनचर जीउ न भी मन धरै । तासौं देह घसे सूष करें ।। पंषी बैठे अरु उडि जाहि । ताकी संक न कछ करांहि ॥२१८।। हंस तुल्य की संज्या बीर । जो सोवंतो साहम धीर ।। गिर कंदरा सैन सो करै । कछुन दुःष अपने मन धरै ।। २१६।। जो चलती बहु दल बल साजि 1 हय उपरि जो पढतों गाजि ।। विनहि सुखासन चलतो राउ । छत्र छोह चलती परि भाच ॥२२०।। ताके सिर प ग्रीषम भांन । महा तपै को कर वषांन ।। वर्षा सीत परै असरार । सहै दुःष मनमै अधिकार 1॥२२१॥ कृष्नागार बहु कू कम गारि । तन चर्च ती निहारि निहारि ।। सो तुसार छायो ता देह । तवते' अय यासौं अति नेह ॥२२२।। अट्ट सहस्र त्रिय रमतो हो । सहै परीसा घाईस सोई॥ मन बघ काय बिचारं चित्त । जान एक सत्त अरु मित्त १२२३।
दोहा भोपाल मुनि को कैवल्य प्राप्ति
तप करत मन सुद्धधर, कियो करम को नास । ताको उपज्यो विमल पद, केवल ग्यान पयास ।।२२४।।
चौपई गंषकुटी की रचना
आसन कंपे देवनि तर्ने । प्राए सब सुर जै जै भने । धनपति निर्माप्पी सुभयान | गंधकुटी रचियो परवान ।।२२५।।
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श्रीपाल चरित्र
कंचन मनि रतननि सौं जरी । प्रति रवनीक विराज परी उभय चमर दीपै सिर छत्तु । चौ संघह बंदियौ महत्तु परि२६॥ तीन प्रदक्षिरण दे सुर राइ । भयौ करन प्रस्तुति घरि भाउ 14 जै जै प्रष्ट कर्म निरदलन । जय जय प्रभु त्रिभुवन के सरन ॥२२७।। जय जय श्री मंडल परमेस । जय जय मुनिगन व्रत उपदेस ।। सिद्ध चक्र फल पावन देउ । जै सुर नर असुरनि कृत सेउ ॥२२॥ जनम जरामृत नासन हार । जे मिथ्यामत षंडन सार ।। छ । सीतल मम नी : मुगासन भन भीर ।।२२६॥ जै जै काम कंज हीम पूर। जै जै अघतम मासन सूर ॥ ज ज पंच महाघ्रत धारन । जै जै मोहबली बल हारन ।।२३०॥ जै जै कोह सिंघ हत बीर । जे जे धम्म पुराधर धीर ।। जं जं चोगय कंद निकंद । जै जै जगभंजन दुह बंद ।।२३१।। जै जै प्रारज तन सुभ संत । ज ज मुकित बघू बरकत ।। जै जै चरन पराधर सेस । ज ज भासुर मन हर नेस ।।२३२।। जै जै ग्यांन फौस मुनिराइ । जं जं त्रिभुवन जीव सहाह ।। जज सम्यक दरसन सूर । जै जै लोह महीरुह चूर ।। २३३।। इह विधि स्तुति करि थनिबार 1 इन्द्र आदि सुर नरअपार ।। पन विवि सुरलोका गए सबै । निज थामह मुनि बैठ्यो तब ॥२३४|| लोयालोय पयास सोय । निरमल बांनी ताकी होय ।। भब्य जीव प्रति भौधे जैन । मिथ्यातिमर विनास्यो तेन ॥२३५।। सिद्ध चक्र व्रत प्रगट्यो करयो । राग रोस तिन सब पर हरयो ।।
धर्माधर्म प्रशासक संत । भाष्यो जिन व्यौहार महत ॥२३६।। मिर्वाण प्राप्ति
सुर नर पसु पंषी गन जिते । जिनवर मंगल मार्च तिते ।। कर्म धानिया चूरै सबै । दीरघ काल गयो कछु तक ॥२३७। पुनि श्रीपाल निमल पद गयो । अमर मुक्ति सिघ सोभयो ।। प्रठ्ठ महा गुन पाई सिद्धि । परमानंद भयो लहि रिधि ।।२३।। जामम जरा तिन चूर्यो मनं । सो भयो स्वामी त्रिभुवन सर्न । समकित गाण' दस बीर्य सुमंहत । अवगहण अगुरुलहु अव्याहत ।।२३।। सिद्ध विरामं जाति निधान । सुख अनंत निवसं तिह थान ।। सुर नर गन गणव धरि भाउ । पारा मनमैं करि बाउ ॥२४०॥
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बाई अजितमति एवं उसके समकालीन कवि
दोहा
सिद्ध चक्रवत प्रगट करि , पंच मवहात मडि ॥ थीपाल मुक्तिह गयौं, भव सुह सयस दिछडि ॥१४॥ इति श्रीपाल चरित्र महापुराण भव्यसंघ मंगरम करणं । बुधजन मन रंजन, पातिग गंजन सिद्धचक्र विधि दुखहरनं । त्रिभुवन सुष कारण भबजल लारण चौपई बंष परिमल्लकृतं । " वह राजवि किनउ जग जस बिनउ बहु विभूति को वरनि कहै । पूर पट्रन सव्वं परहरिगव्यं पंचमहावत सार लयं । सुभ ग्यान उपायो त्रिभुवन गायो कोटी भटु सो मुक्ति गयं । ११९४।।
चौपई
मैनासुन्दरी को तपस्या
पुनि मैंनासुदार बत्त सीन । कर महातप वन अति बीन ॥ सारा कही न माह । नाना वितिको कहे बनाय १॥ कंचन बरन देह प्रौतरी ।कूमम मंडित ही पल धरी । कामातुर रहती पिय संग । सो वन बस सह दुष अंग ॥ ॥ अति सुवास कम रस गारि । मृषन बहुत पहरती नारि ॥ सरद महल रहती सुषबास । कुमुम सेज सोवती उल्हास ।। ३॥ दीपग जोति घहति ही जाहि । सुष रहती रन दिन चाहि ॥ मंद पवन बहती दिन राति । कुसुमनि को वीजनी सुहाति ।। ४ा अाप प्राप वोसरै सुजान 1 दासी सेवतिही दिन मान ।। झीन बस्त्र पहनती सरीर । बहती तहां स्वेद की भीर ।। ५। अंजन मंजन भूषन साध । तन भूषती प्रीति प्रिय काज ।। अंबुज दल रहती कर लयं । रहती पालकनि परि पग दयें ।। ६।। खाती अति सुगंध बन सार । सऊ तपति करतौं प्रतिमार ॥ मो ठाडी गिर परि सुकमाल । सिर पर तपं भान तिहकाल ।। ७॥ पालिक पर रहती मन घाउ । भुवि परि भूलि न धरती पाउ । कोमल कमल नन अधिकार । पम नेवर पहरै नकार ॥ ८॥ महि उपरि मुवती शुभशान । तउ पग देती मनी मराल ।। स्याम वरन छिपतो तिह वाइ । मरुनाई पड़ती बहू भाइ ।। ६.
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६०
वह विधि
जाती
।।
श्रव सो बन मारग पग धरें। ग्रीषम रिति सिकता पर जरं ॥ १०॥ सर सोमवदन विकास । मल निवारती देषिय पास || श्रीषम महल महा परभात हो तो मलिन सीत के घास || ११||
हम पटलनि करि छायो सोइ । पंडुर वरन कहै सब कोई || दह विधि कष्ट सहे वर नारि । नाना विधि को कहै विचारि ।।१२।।
संन्यासहि तिन तज्यो सरीर । निज परजाइ छेदियो बीर ।। अच्युत स्वर्ग देव भयो तेह | अपछर कोटि भई ता गेह ।।१३।।
श्रीपाल चरित्र
बाईस सागर प्राउ प्रधान । विलसं सुष को कहे बांन ॥ महरूय चं हे शिव यांन। है है सो परमेस प्रवान || १४ || कुंद प्रभा रानी सुभ चित्त । वंही विधि तप व पवित्त ॥ तर छांची केवल पद जोड़ में ही सुरंग भयो सुर सोइ ||१५|| रैनमजूसां तप अति कर्यो । पहूती सुरग महा सुभ धरयो ॥ करयौ महातप और ज नारि । सुभ गति सब को भई बिचारि ।। १६ ।।
वह सिरि सिद्धच फल सार । सोभव दुःष विनासन हार ॥ सब हो जीवनि को हैं सनं । जनम जरा नासन सुभ कने ||१७॥
भो मगधेस सुनौं परि भाउ सी विधि श्ररिक तर पार मनमै को वृत धरि साउ | मन च क्रम बंधी जिन नाहु हथ गय रथ अरु दासी दास । अतुल लटि बहु भोग विलास || कर राज सो इन्द्र समान । कीरति महि मंडल परवनि ॥ २०॥
जहाँ श्री सिद्धचक्र व्रत धाउ ।। गनहर पे सुनियों सुभसार || १८ | नाना बिधि मन उपज्यौ चाज ॥ पहुंती नगरी बध्यो उधाडु ||१६||
बोहा
ज्यों सुप संसार को, श्रीपाल इन्द्र समान 11 सिद्ध चक्र व्रत पारि करि श्रम
सिद्ध चक्र व्रत का महात्म्य
मुकति मिलांन ॥ २१ ॥
चौपई
श्रथ नर नारी उत्तम लोइ । सिद्ध चक्र प्राराधे जोड़ ||
मन को भरम वेद छिट काह । पूर्ज जंगहि पिर मन लाई ||२२।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
जल गंधाक्षत पुहुप अनूप । नेवज दीपक भह सुभ धूप ।। फल नाना विधि अरघ चदाइ । अष्ट प्रकारी पूज कराइ ।।२३।। ताफै रोग सोग नहि रहै । अग्नि रूप दारिद्रनि रहै 11 पुत्र कलित्र वियोग न होइ । भूह पिसाच दुख कोइ ।।२४॥ डाइन साइन जोगन जाति । जे मसान गाजें दिन राति ।। इनकी मैन ताहि संचरं । जो को सिद्धचक्र प्रत धरै ॥२५॥ नेन निरंध नन हूँ लहै । रसना हीन वेद धूनि कहे ।। अवन हीन सब सुन सरूप । कुष्टी तन सौं होइ मन प ।।२६।। कनक बरन तन ताकी होइ । मन बच क्रम बत पाले सोइ ।।। सुष अपार भुजे पावं हम # म २७। पाच रतन हीर मनि चंद । पार्य हेम पेम सुष कंद ।। प्रतेवर अपचरा उनिहारि । पार्य इंछ जु मनह मझारि ।।२८।। होहि दास अरु दासि बने । सेर्व पति महि मंडल धनें ।। दंत गहे तिन मान हारि । नापस नैक न सकई दापि ||२६।। मुगै सुष जो मनमैं धरै । इन्द्र समान राज सो करें । अति महिमा को कहै बहाद । निहाचे सो नर मुक्तिह जाई ।।३०।। श्रीपाल जैसो फल लहौ । कवि परिमल्ल प्रगट करि कहो।। भविजन सुनौं सुफल तिय जांनि । यह बत भाराष परवानि ।।३१॥ एक चित्त राषो मन ध्यान | सुष निषि उपजं सोग्यांन ।। या संसार सयल सुख लहै । बहुयॊ मुक्ति पाइ दुष दहै ।। ३२४॥
काव्य उग्रं गोपरी रंचदुर्गमगढ़ रत्नं वरं भूषितं शं धीरे कृतिमंबरं मदगलं पाषान एरावतं । तन्मध्ये श्रीमानसिंह अधिपते भूलोकदर बंद्यले । तराज्य सुरनाथ तुल्यगवितं तत् केन संवर्म्यते ॥३३॥ सुजस रजत कुसलो नामेन चंद्रनयं । मत्सुत्रो गुरु रामदास विपुल मुक्त त भोग्यं सदा ।। तत् सुनुकलदीपकस्स्तु प्रकट नामा सकरणो सुमं । तस्पुत्रं परिमहल धर्मसदनं ग्रन्थं इयं क्रीयते ॥१४॥
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श्रीपाल चरित्र
प्रशाति
धीपा
गौवरि गिरि गहु उत्तिम थान । सूरवीर तहां राजा मान । ता प्रागै चांदन चौधरी । कोरती सव जगमें बिस्तरी ।। ३५।। जाति बरहिया गुन गम्भीर । अति प्रताप कुल राज धीर ।। ता सुत रामदास परबीन । नंदन प्रासकरन सुभदीन ।। ना मृत कृल मंटन परिमल्ल । यस मागरे में परि मल्ल ।। ता सम बुद्धि हीन नहिं अनि । तिन सुनियो श्रीपाल पुरांन ।। ३७।। ताकी छह का मति भई । तब श्रीपाल कथा बरनई । कीनी चौपई बंध वर्षांन । नबरस मिनित गुनह निघांन ।।३।। होइ प्रशुस जहां पद हानि । फेरि संवारे कवियन जानि ।। बार बार गंपोंकर जोरि । बुध जन मोहि देह मति षोरि ॥२२२२।।
नंदी गुरु ने गुरण के मूर, जिन ते होयमान प्रापूर । नंदी जिनबानी सोहनी, माते सुरगति होय प्राप्त घनी ।। नंदी कविकुल गुनह निवासु। जिहि पुरानु प्रगट यो सुखवासु ।। नंदी पण्डित कर नषान. नंदी श्रोता लोग सुजान ॥ नंदी जन सभा चिरकाल, नंदी जीवदया प्रतिपाल । छेव कथा को प्रयो प्रबै. जिनवर धरम पाराषौ सबै ।। जो भव दुख विनासन हारू, जो त्रिभूवन के जीव सिंगारू । जो विभुवन वर मंगल करन, मादि अंत नीव को सरम् ।। जो शिव रमणी को वरु भयो, जी जिनदेव सभा को जयो। साकी कथा निरन्तर भई, कवि परिमल्ल कथा वरण ।। थिर मनु कषा सुने जे कोई, मन वांछित फल पावै सोह। भर जो पढे पढावं सोय, ताक पोते असुभ न होय ॥ पर जो मरु नारी तु करें, सो पहुं गति को भ्रमणु हर। भव्यनको उपदेस बताय. निहल सो नर मुक्ति हि पाय ।। इति श्रीपाल कथा परिमरुल कृत भाषा चौपाईयक संपूर्णम्
। यह पाठ मूल प्रति में नही हे ।
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चाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि
अप्पय नगर प्रागरे मधि रहे मालमगंज माही । संपत्ति पंसठि साल जेठ सुदि दशमी माही। लिष्यो चरित्र श्रीपाल मांस एक मैं । निजु पर हेत के काज मिट क्रोधादिक जी के। यह परंथ बांचे सुने, सील विमा धीरज गहै ।। शभ गति पागे देग्मही, कर्मकाटि रिषभ कहे ।।
॥ श्री ॥
मिति पौस बुधि १० दीतयार सं. १८८६ ॥
समाप्त
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कवि धनपाल
धनपाल कधि अब तक हमारे लिये प्रशास एवं प्रचचित हैं। कपित्री बाई अजीतमति के समान प्रस्तुत पुष्प में ये दूसरे कवि है जिनका यहां परिषय प्रस्तुत किया जा रहा है। धनपाल कषि की रचनामो का संग्रह टोंक जिले के प्रमुख बष्णव तीर्थस्थल डिग्गी नगर के दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत एक गुटके में उपलब्ध हुआ है। लेखक ने जून१९५३ में जब नगर के शास्त्र भण्डार के सूचीकरण का कार्य किया तब इस महत्वपूर्ण कवि की रचनामों का पता लगा सका ।
धनपाल प्राचीन कवि देह के सुपुत्र थे। ये वे ही देल्द कवि हैं जिनकी अब रग लुधिः प्रकाश एवं विज्ञान कीटि गीत नामक कृतियां उपलब्ध हुई है। दोनो ही लघु रचनायें हैं। इनके एक पुत्र ठक्कुरसी बड़े अच्छे कवि थे जियकी अब तक १५ कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं । कविवर ठक्कुरसी का विस्तृत परिचय एवं उनकी कृतियों के मूलपाठ हम श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी के दूसरे पुष्प में दे चुके हैं। ठक्कुरसी के परिचय के प्राधार पर बन पाल कवि संभवत: देल्ट कवि के दूसरे पुत्र थे। इसलिए ये भी ढूढाड के प्रसिद्ध नगर चम्पावती के रहने वाले थे । करि जाति से खण्डेलवाल दि. जैन एवं गोत्र से पहाड़िया थे । धनपाल कवि ने अपनी अधिकांश कृतियों में अपने बड़े भाई ठक्करसी के समान अपने प्राए को "वेल्ह नंदम लिखा है।
समय-कविवर ठक्कुरसी का समय हमने संवत् १५२० मे १५६० तक का माना है धनपाल ठक्कुरसी के छोटे भाई थे इसलिये इनका समर बत् १५२५ से १५६० तक का माना जा सकता है । स्वयं कवि ने अपनी कृतियों में रचना काल काल का उल्लेख नहीं किया इसलिये उक्त समय ही ठीक जान पड़ता है।
कृतियो-~-धनपाप्त कवि की टमकुरसी के समान अधिक रचनायें तो उपलब्ध नहीं हो सकी हे लेकिन एक ही पुटके में उपलब्ध कवि की रचनायें निम्न प्रकार है1. देखिये--- कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
भेखक एवं सम्मादक-10 कस्तूरचंद फासलीवाल, पृष्ठ सं. २३२-२६५
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बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि
१. मुनिसुव्रत जिनवन्दना
२ ने मजित बन्दना
२. वर्धमान गीत
४ आदि जिन गौत
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इस प्रकार गुटके में कवि की चार लघु कृतियों का संग्रह मिलता है । राजस्थान के अभ्य शास्त्र भरदारों में हो सकता है धनपाल कवि को और भी रगों की उपलब्धि हो जाये । उक्त चारों कृतियों का परिचय निम्न प्रकार है:
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१५
पद कमल सेवित देल्ह नदा धन्नपाल क्रिया करो | मनसुबा जे जात प्रवं सदा मंगल रमा घरो || १ ||
१. मुनिसुव्रतबन्धना :
कवि
यह एक ऐतिहासिक बन्दना है जिसमें राजस्थान के बूंदी जिले में स्थित केशोरायपाटन के प्रसिद्ध जैन में में विरा भगवान मुनिसुव्रतनाथ की वंदना कर वर्णन है। वर्तमान में केशोरायपाटन नाम से प्रसिद्ध नगर पहिले पाटस नाम से और इसके पूर्व माश्रम पतन नाम से प्रसिद्ध था। स्वयं कवि धनपाल ने पाटन को भविषय क्षेत्र लिखा है जहां भक्तगण वंदना के लिए आते रहते है और अपनी मनोकामना पूर्ण करते रहते हैं। ऐसे पाटन नगर में मुद्रितनाव का अतिशय क्षेत्र हैं जिसकी वन्दना के लिए मुनि श्रार्थिका श्रावक श्राविका सभी प्राते रहते हैं । इसके पश्चात् कवि ने भगवान मुनिसुव्रतनाथ के पिता सुमति राजा, माता पद्मावती एवं उनके लांछन कछु का उल्लेख किया है। इसी तरह उनके शेष जीवन का भी छन्दों में उल्लेख किया है। पूरी वन्दना चार छन्दों में पूर्ण होती है और अन्त में कवि ने अपने पिता एवं स्वयं के नामोल्लेख के साथ भगदान मुनिसुव्रतनाथ की कृपा की याचना की है :---
अर्थात् कवि के समय में भी भगवान मुनिसुव्रतनाथ के दर्शनार्थ सपरिवार श्राने की परम्परा यी कवि ने उक्त वन्दना को राग मलार / मल्हार में लिखा है ।
२. मेमि जिन था—
कवि की यह दूसरी ऐतिहासिक कृति है जिसमें भगवान नेमिनाथ की बन्ना की गयी है । इस गीत में जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी आमेर के दि० जैन मन्दिर बोबला बाबा के (नेमिनाथ स्वामी) स्तवन के पश्चात् नेमिनाथ हामी के माता पिता, जन्म स्थान, तोरण द्वार से लौटने की घटना, राजुल व स्थाग
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श्रीपाल परित्र
गिरनार पर्वत पर तप, कैवल्य एवं निर्वाण कल्याणक का वर्णन किया गया है। १५वीं शताब्दि में आमेर के सांवला बाबा के मन्दिर में स्थित नेमिनाथ स्वामी की मूल नायक प्रतिमा अत्यधिक प्रसिद्ध एवं सतिशय युक्त मानी जाती थी। कवि ने जिसका निम्न प्रकार वर्णन किया है :
जाहि नाम लीया दुति कसी, गुबह पता :: पार है अंबावती प्रतिव्यंब, शोभिता स्याम वर्ण गहोर। . वन्दहु सुभ वियह नेमि जिरावरु, दोइ मट्ठ शरीरु ।।१।।
इस बन्दना में पांच छन्द हैं । कवि ने इस गीत में अपने मासको देल्ह तनय लिखा है।
३. वर्षमान गीत :
यह कवि का तीसरा ऐतिहासिक गीत है। इस गीत में कवि ने जयपुर से १२ किलो मीटर दक्षिण में स्थित प्राचीन नगर सांगानेर के संघी जी के मन्दिर में विराजमान महावीर स्वामी की स्तवम के रूप में भगवान महावीर..का माता पिता, गर्भ, तप कैवल्य एवं निर्धारण स्थान पावापुरी का उल्लेख किया है तथा गौतम मादि ग्यारह गणघरों का एवं अन्य घटनामों का वर्णन किया है। गीत में पांच छन्द हैं। सांगानेर में संधी जी के मन्दिर का निर्माण १२वीं पातादि में प्रा था । मन्दिर अपनी कला एवं शिखरों के लिए पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध है।
४, मादि जिन गौत:
यह कवि का चौथा गीत है जिसमें प्रथम तीर्थकर भगवान मादिनाथ का का स्तवन कियागया है कवि ने टोडारायसिंह के दि.जैन मन्दिर प्रादिनाथ स्वामी की प्रतिमा को अपने युग में अत्यधिक महत्वपूर्ण गिनाया है। गीत के शेष भाग में इसी तरह कावरणंम है जैसे उक्त तीन तीर्थ करों के गीतों में वर्णन किया गया है।
इस प्रकार चारों ही गीलों में कवि ने स्थान विशेष के मन्दिरों में विराजमान प्रतिमानों का नामोल्लेख करके उनमें इतिहास का पुट दिया है। कवि का मुख्य निवास चम्पावती था लेकिन वहां के किसी मन्दिर की प्रतिमा का उस्लेख नहीं करके पाटन (केशोराय) आमेर, सांगानेर प टोडारायसिंह के मन्दिरों के महात्म्य का वर्णन किया है।
मावा---गीतों की भाषा अपभ्रंश प्रभावित राजस्थानी है। कृषि का मुख्य कार्य क्षेत्र बाद प्रदेश था इसलिये गीतों की भाषामें टूवारी भाषा का भी प्रयोग अधा है।
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भाई अजीतति एवं उसके समकालीन कवि
गीतों के मूल पाठ मुनिसुव्रत जिन वभ्यत्ता रागु मलार
सकल जिरणेसर पणउ सरसं धरि ध्यानो जी । ए जह पाटण नगरु भलं तह अतिशय धानो जी । इक या प्रति षेत्र जारिणवि भविक जन धरणा । एतुरिय संघ आनंद उपज होइ महोछा जिरा तथा । परस्मासु पुरै विघन चूरं प्रगट जिरावरु जाणि जे। पाटण मानकि सुथिक बैठे सुव्रता जिन बंदिजं ॥ १
ए जो सुमति नरेसर नंदा पदमावती मातो जी । नसु नि काछि सो स्याम सरीरो जी ।
इक स्याम वर्णेहि अति मनोहर देखतां मनु मोहिए । द्रादिह जामरण महोखा मेर सिहरा सोहए । गायंति किन्नर प्रवर प्रछरि आणि माय सम्मपए । बीस जिावरु वादि सखी हे मनह बंद्धितु प्रमए ॥२॥
ए जहि जागे हो जोधनु जंतु भये यरागो जी । ए जहि जीत हो मदन भयंकरु उपसम रागो जी । उपसम रागों मदन जिस पंच श्राश्रव टालम् । दंसण गारण चरितमय जीय रगाण केवल पालए । दश श्रेठ गाहर मति आदिहि समोशर छञ्जए । मनसुव्रतां जिन चरा बंदै दुरित शयनां गज्जम् ॥५३॥
ए जो बसु गुरण मंडित जिगम्बर मुकति दातारो । चढतीसाति यारां गोभिना गुणंह पाराजी । अपार गुरगंष्ट न पार लाभ विविध जीव हितकरो । मनवच क्रम नरनारि से जनमि जनमि सुखंकरो । पद नामल सेवित वैह नन्वन चन्नपाल क्रिपा करो । मनसुव्रतां जे जात या सदा मंगलु त्याह घरो
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धनपाल कवि
२. मेमोजिन वंदना
राग सोरठी पणो अादि जिणंदो अहि पणयां होइ अनंदो । गुण प्रगट कर निशिर्षदो, है गाउं नेमिजिरणदी। गुण माइस श्री मेमि जिपबर, सयल सुल्ल दातारा जाहि नाम लीया दुरित नास, गुणह गरगत न पार | अंबावती प्रतिव्यंन शोभिता स्याम वां गहीर । मंदहु सुभ वीयहु नेमि जिणु, दोइ अनु धनुष शरीक ।।१।। सूरीपुरह उपन्नो, राई समद विजे सुत धन्नो । बर लक्षण गुण संपुलो, सिबवेकी कृषि रतन्नो । सिवदेवी माता जरि उपन्नो, समल सुरपति माइया । से मेर सिहरा करि महोछा, इंद्र प्रागै मच्चिया। तिहु ग्यान करि संजुत, दीस सुन्दरा प्राकार ।
दहु सुभ वीयहु नेमि जिरणवरु, जादम बंस सिणगारु ।।२॥ हलि समवि गोविदो, तुमि उग्रसेरिण धी मंगो । राजमती खरीय सुसंगो सा परष नेमि जिणंदो। नेमि जिपवर व्याहण चढिया, तोरण ताम पराइया । हकारि सारथि वेगि पूछा, जीव कांइ पुकारिया। ए भगति होइसी तुम्ह तणी राय उनसेरणी अगाया। रथु मोडि पाछै चलें जिणबरु, जाइ पढ़ गिरनारिया ॥३॥ सो जाइ चढ गिरनारे जहि तजीये राजमती नारे । सब प्रथिक जाणि संसारी, मुरिण घरै महाव्रत भारो। बत भारु से छमस्तु रहिये लोयंती यह पसंसीय । वरदत्त धरि पारणं किये, प्रथम गणहरु आइयें । वाणीय सरस विसा कोमल, भवि जनह नमसीये । बन्दी हु शुभदियो नेमि जिरायर, सब्वजीव अभो दियो ।।। छायाल गुरसह संजुतो, वाइसमु जिरणवर पतो। दश पठ घोश थे चत्तो, पुणु अठ गुणह संयुत्तौ । तिह लोक बंदित चरण जिरणबर, संख लछरण सोभिया । गिरणारि गिरि निर्वाण थाणक प्रटमी पुहवीं गयो । नरनारि जे गुण कहहि स्वामी, सफल जन्मह् त्या तना । कवि देल्ह तन धनपाल प्रणमि ते भेटियो मैय नेमि जिरणा ।।५।।
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बाई जितमती एवं उसके समकालीन कांध ३. वर्धमान गीत
रागु मलार सकल जिगेसर ध्याउ', सरसं आधारे जी। गुण गांज श्री वीर जिणेसर बुद्धि अणुसारे जी। गुणा गाइसै श्री वीर जिणबरु, बुधि के अनुसारि । तसु नाम लीमा होइ नय निधि भेटिया भवपार । सांगानधरि प्रतिबिंद्ध सोभिता, हेम वर्ण गहीर । बंदह शुभ बीयहु वीर जिपवर, सत्त हष सरीर ॥१॥ ए जो कुडल पुरिहि अवतरै भयऊ अनंदी जी। रशीशा दे ही ऊपनी सिधारथ नंदो जी। तिशलादे माता उरि उपनं राय सिद्धारथ नंदणो। तसु इन्द्र प्राग माइ नच देव दुदभी वाजगो। जिम मेष गजित मोर नाचित चात्रिय करति अनंद । तिम पेखि भवियह वीर जिणधरू, चैइसमउंजिणंदु ॥२॥ ए जो तीस वरस लगु जिगवा, मुज्यो ग्रिह वासी जी। पुणु ज्जुरण तिगगा समु जाणिरू, लीय वन वासो जी। वनवासु ले व्रत भार धग्यि. लोयंतीयह जुहारीय । दश अळू दोगह रहित स्वामी, जीष गण सा धारीय । दाइदश वरिस छद्मस्त रहिये, इन्द्र नासणु कपिय । मौ वर्षमान जिणंद दह, सब भत्र खय कारियं ॥३॥ ए जो केवल ग्यानु ऊपाया, मुनिजन भाया जी । तह गोप्सम प्राविहि ग्यारा गणहर पाया जी। गोत्तम श्रोत्तम प्रम निरौत्तम मयल मरणहर प्राइया । बारणीय के परगासु हुवो, अमरगण जय कारीया। सो अतिमै जिणु नमी भयीय हु चतीमती रायरू ॥४॥ एजो तीस वरस फिरि जिग्णयम संबोध्या मानो जी । पुग अंत कालु प्राय जारिहा पूरा सुभ ध्यानो । शुभ ध्यान पूग कर्म चूरा पंचमी गति पाइया । पावापुरिहि निर्वाण प्रानकु भव्य जन नसांसिया । कवि बेरह नंदणु मनि अनंदणु धन्नपाल गाइया । महु सयल बंछितु होऊ स्वामी वीर जिणु के कारिया |५|
॥ इति श्री वर्धमान गीत समाप्ता ।
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४. आदि जिन गीत
धनपाल कवि
राग गौडी
सो जिप्समरहु भावरि जहि सु चाही भवनार हो । मय दे माता उरि घरं नाभि घरां अवतार हो सो नाभि नंदनु भविक बंद तोड़ा नयरि मभारि । पंचसं धनुष प्रमाण काया विष लांछल धारि । सर्वार्थसिद्धि ये यादमा ईसाक वंशह जारिए । अजो निशु लिम गुण की खानि ॥ १ ॥ जनम चैत्र वदि नवमी को कंचनचरण शरीर हो ।
इन्द्र महोखे श्राइया, मेर व्हायो वीर हो । इकु मेर सिहां हयो जिवरु इंद्र नार्च बहू परे । सीसाहले विष्णु, प्राणियो माता घरे ।
कुमरें पर वसि लक्ष पूरब तेसटि रजु करेइ । निषेउ पायो पेखि अपछरे लोयंतीय हसरेइ ||२| श्राखातिजाहा पारणो घरि श्रेयांस नरेसहो । बरस सहस छदमस्तु भी केवल फागुण ग्यासिहो । फागुण ग्यारसी हुवा केवलु समोसरल विराजये । विषभ सेह यादि गाहरु वाणि दुदभी गाजियो ।
तपु लक्ष पूरव जेणिपाल्यो यह हरिहि नमसियो । मी आदि जिव चंद भवियहु धम्म मारग दंसियो ||३||
डंडक पटक पूरखा पूरा ध्यान चियारिहो । गिरि कपलासह मिठ गुणांह विचारिहो । कैलास गिरि निर्माण थानकु पठ गुण संजुलीया । जीति में जौति समाय मंठा पहि सुगृहि ति अनुजिया । कचि देल्ह नदंण सुगति मांगे धनपाल गाइया ।
श्री श्रादि जिरावरु नमी भवियहु तुरिय संघ मनि भाइया ||४||
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भट्टारक महेन्द्रकीत्ति
महन्द्राशि नाम वाले एक संदिदारक हो गये हैं लेकिन भट्टारक पट्टालियो के अनुसार अब तक निम्न प्रकार परिचय मिलता है :११) भट्टारक महेन्द्रकीत्ति ११) अजमेर गादी के भ० देवेन्द्रकीत्ति के
शिष्य (सं० १७६६) (२) ग्रामर गादी के भ० देवेन्द्र कीशि के
शिष्य (सं० १७६०) (३) , भ. देवेन्द्रकीति । द्वितीय) के
शिष्य (सं० १९३६। (४) प्राचार्य महेन्द्र कीति (४) सूरत गादी के भट्टारक मल्लिभूषण के
शिष्य (सं० १५७०)
उक्त चार महेन्द्रकीति नाम वाले विद्वानों में से कौन मे महेन्द्र मिति प्रस्तुत पदों के रचयिता हैं । जिस गुटके मे इन पदों का संग्रह मिला है उसमें भी झाई लेखन कान्य नहीं दिया । लेकिन गुटका १७ वी अथवा १८ शताब्दि में लिपि बत हुया लगता है इसलिए प्रस्तुत महेन्द्रकीति भ. देवेन्द्रकीति {द्वितीय) के शिष्य तो नहीं हो सकते क्योंकि वे तो अभी १००वर्ष पूर्व ही हुए थे। सूरत' गादी के भट्टारक मल्लि भूपण के शिष्य प्राचार्य महेन्द्र कात्ति भी इन पदों के रचयिता नही हो सकते क्योंकि पदों की भाषा एवं शैली१६वीं शताब्दि जैसी नहीं है । अब शेष दो भट्टारक रहे एक अजमेर गादी के, दसरे हारमेर गादी के । डिग्गी नगर जिसमें प्रस्तुत गृटका संग्रहीत है वह प्रामेर गावी के भट्टारक का नगर न होकर अजमेर गादी के भट्टारक के अन्तर्गत माता था इसलिए प्रस्तुत पदों के रचियता भट्टारक महेन्द्र भट्टारक विद्यानन्द के शिष्य थे जिनका पट्टाभिषेक मंवत् १७६६ में हुआ था।
संवत् १५५१ में भटारा रलकीत्ति ने अजमेर में पुनः स्वतन्त्र भट्ट रक गादी की स्थापना की थी और अपना पुन: पट्टाभिषेक महोत्सव प्रायोजित किया था। भारत रत्नीत्ति के पश्चात् विद्यानन्द (संवत् १७६६) में भोर भट्टारक
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१०२
भट्टारक महेन्द्रकीति
महेन्द्रकीति सं० १७६६ में भट्टाक गाी पर अभिषिक्त हुए थे ऐसा उन्लेख भट्टारक पटावलियों में मिलता है। महेन्द्रकीत्ति के चार वर्ष पश्चात् ही संवत् १७७६ में भहारक भनन्तकीति का राष्ट्राभिषेक होने का उल्लेख मिलता है जिसमें महेन्द्रकीति का समय संबद १७६६--१७७३ नवा (सन् १२१२ से १५१६) तक का निश्चित होता है और इसके माधार पर उनके सभी पद १८वीं शताब्दि के प्रथम चरण में निर्मित लगते है।
महेन्द्रकीति भद्रारक थे। पदों के मूल्यांकन से पता चलता है कि वे प्राध्यत्मिकता को और अधिक रूचि रखते थे अभी तक इनके बितने पद उपलब्य हए हैं लेकिन वे सभी पद भाव भाषा की दृष्टि से उत्तम पद हैं।
भ्रमस्यू भूलि रयो संसार–प्रस्तुत पाद में ववि ने प्रत्येक अन्तरे में उदाहरणों द्वारा यह प्रागो मोह मगन होकर प्रात्मा को किस प्रकार भूल बैठा है इसका प्रच्छा वर्णन किया है। यह प्राणी व्यर्थ ही मोह के वश होकर अपने पापको परतन्त्र कर लेता है और उलटे कार्य करने में ही सुख मान बंटता है । यह मानव बन्दर, तोता, स्वान, सिह, हाथी. हिरण प्रादि के समान विपरीत कार्य करने पर भी अपने पापको सूत्री मानने लगता है और मृग तृष्णा के समान दिन रात फिरता रहता है।
(२) मेरो पन विषयाही स्युराच्यो--- पद में कदि ने मानव की वास्तविक स्थिति
प्रस्तुत की है कि वह जीवन भर मृत्यु के अन्तिम क्षण तक स्त्री, कुटुम्ब, धन संपत्ति प्रादि में ही मगन रहता है और अपने प्रात्म माल्यारा की पोर तनिक भी ध्यान नहीं देता।
(३) साधो अद्भुत निधि घर माही एवं साधो अद्भुत निधि धरि पाई-म दो पदों
में मानव को अपनी निधि को पहिचानने का प्राग्रह किया है। यह मानद अपनी प्रात्मा को मूलकर उसे अन्यत्र देने का प्रयास करता हैं । जब कि प्रात्मा का शरीर में तिलों में तेल, काष्ठ में अग्नि के समान वास रहता है।
(४) देखो कर्म की गति न्यारी-इस पद में कवि ने रावण, मन्दोदरी, राम
सीता, यशोधर राजा अम्रित देवी राणी, माता चन्द्रमती मादि के जीवन में घटित घटनाओं की पोर पाठक का ध्यान प्राकृष्ट करते हुए कर्मों की विचित्र लीला का माछा चित्र उतारा है और पन्त में भगवान जिनेन्द्र की माराधना में ही कर्मों के जाल से छुटकारा मिल सकता है इसका वर्णन किया है।
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बाई जीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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(५) सेवत विषय नृपति नहि मान-प्रस्तुन पद में कवि ने संक्षिप्त रूप में
मानव स्वभाव पर प्रकाश डाला है कि वह संसार में विषयों के सेवन करते रहने पर प्रस्ने भाषको अतृप्त मानता है और दिन रात उन्हीं के पीछे
दौड़ता रहता है। (६) सब दुःख मूल है मिथ्यात-इस पद में कवि ने मिथ्यात्व को ही
मानव के जग में भ्रमित होते रहने का प्रधान कारण माना है तथा पच्चीस दोषों को छोड़ने एवं पंच परमेष्ठी का ध्यान ही मिथ्यात्व को दूर करने एवं सम्मकत्व प्राप्ति का उपाय बतलाया है।
(0) करणा करो भगवंत जिनेश्वर पय नव-यह पद भक्ति परक है जिसमें
प्रम् भक्ति से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसका वर्णन कियागया है । जिनेन्द्रदेव की महिमा वेद भी बखान करने में असमर्थ रहे हैं इसलिए उन्होंने "नेति नेति' शब्द के द्वारा उनके महात्म्य को प्रगट किया है। वेदों
के नेति नेति शब्दों का वैष्णव कवियों ने मी वरात किया है । (4) "वेतन का मामलाना" चेतन पोलत' क्य नहि मनमैं-इन पदों
में कषि ने बहुत ही रोमांचक शब्दों में मानव को सावधान रहने का आग्रह किया है । वह प्राणी मारम स्वभाव को छोड़ कर पर स्वभाव में लग जाता और रतन को छोड़ कर कांय के टुकड़े में ही लुभाता रहता है।
इस प्रकार उक्त पदों के मूल्यांकन से पता चलता है कि भट्टारक महेन्द्र कीर्ति माध्यात्मिक संत थे जो अपने प्रवचनों एवं साहित्य रचना केद्वारा सदैव समाज को नैतिकता एवं प्रारम स्वरूप को पहिचानने का पाठ पढ़ाया करते थे। उनके सभी पदों में प्रात्मचिंतन एवं पात्मज्ञान की जो घारा दिखायी देती है बह प्रत्यधिक स्वाभाविक है। ऐसा मालूम पड़ता है जैसे महेन्द्रकीत्ति को रात दिन प्रारमज्ञान प्राप्त करने की चिंता सताती रहती थी और उसी चिता को उन्होंने अपने हिन्दी पदों में व्यक्त किया हो। कवि के पक्षों में महावावि बनारसीदास के पदों की छाप दिखायी देती है तथा काबीर एवं दूसरे निगुंए पंधी कवियों की झलक दुष्टिगोचर होती है लेकिन इतना अवश्य है कि कवि ने इन पदों में अपने संद्धान्तिक ज्ञान का भी अच्छा उपयोग किया है ।
भाषा-महेन्द्रकीत्ति के पदो की भाषा राजस्थानी के समीप है। १८वीं शताब्दी
में जिस प्रकार भाषा में निखार प्राने लगा था वही रूप में हमें इन पदों की भाषा में दिखाई देता है लेकिन फिर भी राजस्थानी के शब्दों की बहुलता है स्यु,राच्यो, माच्यों जैसी त्रिया पद पाद राजस्थानी भाषाक साथ अपनी अधिक निकटता प्रदर्शित करते हैं।
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भट्टारक महेंद्रकीति रचित पद
राम ग्रासावरो
भ्रमस्य मूलि रह्यो संसार ।
मोह मगन ग्राम गुरण भूल्यो, भज्यो न जिनवत सार ||१||
सीत व्यथा पीडित ज्यु मरकट, ता गुंजा हार 1 कध मुख नलनी को सुबटा, कुपटक्यो हार ॥२॥
ज्यु नर मूड राचि विसयामिष, मगन भयौ तिहुं काल | सुष को लेस कहूं नहि सुपनं नरक निगोवामार ॥३॥ जैसे स्वान मूर्ती मंदिर में, केरि कूप गुंजार 1 फटकसिला मैं देबि आप गज, कोन्हौ दान प्रहार ॥१४॥
ज्यु मृग वन में देषि भाडली, मानि सरोवर धार ॥ च दिसि फिरोन पायी जलकरण, फूल्यो कांस गवार ||०||५||
पायकुच भयौ ग्रह घोरी, सब सिर प्रारची भार ||
एकलडी एम निरंतर, जामण मरण अपार ॥०॥६॥
२
राग प्रासा
मेरो मन विषया स्युं राज्यो ।
सुम को साज नहीं सुपनायें, परत्रिय देखि देखि नाय ||
arat त्रिषा प्रीति वनितास्य देषि परिग्रह मांच्यो ||०||१||
1
जख लग पल न घरं भनि प्रारणी, अशुभ कर्म नहि पाच्यो || महेन्द्रकत तब कहा करोगे, नरक निगोदिनि पांच्यौ । मेगा२॥
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बाई प्रजीनमति एवं उसके समकालीन कवि
३
राग सारंग तथा पौर
देषो मोह ती षिकाइ, सो मोदं कहियन जाइ 11
जिह टुप दीयो अनादि ही कालहि, फिरिफिरि तिह लपटाई || देना दुष्टदुर्गात दुखदाता, नरक निगोदि निसाई 11
छेदन बेदन ताड़न तापन, सूला सेज लुटाई ||||||
चगति भ्रम्यो महा दुख पायो. पराधीन भयो भाई || परकी संगति निज गुगा सबै घटाई दे० ||३||
३
ता सम्यक दर्शन सेवो, मव्य जीव सुषदाई 11 महेन्द्रकी त होइ निरंजन आवागमन मिटाई | | ० ||४||
१०५
राग श्रासावरी
साधो अद्भुत निधि घर मांही ।
इस उत फिरें करें नहि सोधी, भ्रमतं जानत नाही || सा० ॥३१॥२
जैसे मृग कस्तुरी कारण वन हिंडत डोलें ।
मोह मिथ्यात विकल भयौ प्राणी, परम धर्म नहि तोलं ||०||२॥
पर पुरसारथ भीजन सोद्धा, घरमै घलि कुं भटकत अंधा || युध्यो जीव कामत सुष कारण, लागिरह्यो गृह धंधा || सा०||३|| समर कोडाकौडी सागर, मोह महायिति भागी ॥
कारण तौनि करि समकित राष्यौ, लब धातम निधि जागी ॥ सा० ॥४॥
सप्त प्रकृति उपनाम करि शखी, क्षय ते क्षायिक राई ||
वे ते निज पर गुणा वेदें, यही मोक्ष की साई ॥ सा०||||
.
मोह कोयी सत चूरण, सठि प्रकृति बिनासी ।। महेन्द्रकी प्रभु जय जिनेश्वर लोकालोक विकासी ॥ सा०||६||
H
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१०६
५.
राग आसावरी
साधो अद्भुत निधि घरि पाई ।
भट्टारक महेन्द्रको सि
तुति श्री जिनराज बताई ||सा०||१||
अपना पुरुषों की भ्रूणी, घरणा काल की राषी ।।
बीजक सहीत पत्र ज्यों निकस्यो, सांप्रत भयो सुसाषी ||सागर ||
ज्यु परमातम देह भूमि में, त्युं कंचन पाषाणे 11 अनि काष्ठ तिल तेल ही वासो में श्रातम निधि जाणे || सा ||३||
भ्रष्ट कर्म्म रजसू प्रायादी. भेद बिना नहीं पायें ।।
सम्यग्दर्शन शान चरण बल, सद्गुरु यतन लषावं ॥ सा० ॥ ४ ॥
सो गुरु चौतिस प्रतिसय जाके अनन्त चतुष्टय सोहै ।
प्रष्ट प्रातिहार्य प्रभु सोभित, भव्य जनन मन मोहे । सा०||५||
निकट भव्य सो महा उपसमी, भद्ररूप परिणामी || महेंद्रकीत्ति भात्म निषि परसै, मुकति नयर पदगामी ॥सामा६||
राम प्रासावरी
देवो कर्मन की गति न्यारी । नही टरल कहौ नहि टारी ||
रावन सरीखे सुभट महानर कहे मंदोदरी गणी ।
सीता सती देहु रघुपती को, राज करों अती जाली ॥। १॥
अंतेवर जाकै सहय अठारा रूप कला गुण सोहे । विद्याधर पुत्री अति सुंदर, अनिश पिय मन मोहे ॥ दे०||२|| राव यशोधर विष दे मारो अति देवी राणी ।
द्रमती माता की संगति, मिथ्या बुद्धि वषाली । दे०॥१३॥
और असंख्य भए महाराजा, तेहू कर्म बसि हारे । सम्यक् भाव विना जीव जेते, चहुंगति माही मारे || ७ ||४||
इस जानि जिन धर्म्यं श्राराधो, हितु न जो कोई महेंद्रकीति जिन चरण शरण लें जन्म मरण नहीं होई ॥३०॥५॥
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बाई प्रजीतमनि एवं उसके ममकालीन कवि
राग कानरों परमेसूर निस्तारो। करुणा करि मोहि तारो हो प्रमु ।।परमे०॥ परमदयाल परमपद गामी, अघमोचन प्रचटारो ।। वीतराग अरहंत जिनेश्वर, मुकति रमनि बर प्यारोहो प्रमु०॥१॥ अधम उपारण सिव सुषकारण, भव्य जीव आधारो । महेंद्रकीर्ति कर जोरि चीन, पावागमन निवारी हो प्रमु०॥२॥
राग कामरी मयु करि भक्ति करौं प्रमु तेरी,
प्रष्ट कर्म धन बरी हो प्रभु०॥१॥ मोह मिथ्यात महा रिपु धेरयो, छोडत लार न नेरी हो ।। महूंगति माहि भ्रम्पो चिरफाल,तुम सरणागत हेरी हो ।।हो प्रमुगासा जिन अनंतगुण स्मरण प्रात्म शक्ति सुसेरी हो हो प्रमु०॥३॥ महेंद्रनीति अरहत ध्यान ते मूकतिवधू प्रति नियरि हो।हो प्रभु॥४॥
राग कानरो । भव सागर भ्रमतो दुष पायो, मोह मिथ्यात महामित लायो ।। यो संसार समुद अपरमित, प्रध जल भरघो पार नहीं पायौं । काम क्रोध मा लोभ महामद, जन्ममरण नक धक भरायो भकार। बटुंगति बढवानस अति तापे, नरक पताल माहि संतायो । जैन घरम सह परम परोहण, भव्य जीवनि मन भायो मारा। भाग्य विशेस पाइ दित राष, समकित हिस अति पवन सुहायो॥ महेंद्रकोसि सिव रत्न दीपकु', श्री जिनराज सुपंथ बतायो । भ ।।३।।
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१०८
१० राग कानरो
सेवत विषय पति नहि मानें, मदन महारिपु के मद जैसे स्थान अस्थि च
॥
तं चादि यधिर मनरेष जाने ।।
भट्टारक महेन्द्र कीसि
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भ्रम बसि मूलि गयो ग्रात्मनिधि, मूड और की ओर ही ठारों ॥० ॥ निज स्वभाव तजि परसंग रांच्धो, मोह विकल ममता चित बार्शी ॥ महेंद्रकीशि प्रभु से जिनेश्वर, पूतीनि भवन के राम्रो ||२||
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११
राग केशरी
सब दुःख मूल है मिथ्यात |
जाके उर्द जीव नहीं चेत करें प्रात्मघात || स० १ १७
मोह दर्शन नाम जार्क घरं प्रति उतपात ॥ छांड दोष पचीस तम घन होइ समकति प्राप्त || स०||२||
पंच गुरु पद नाम घ्यायो, द्रिढ रहे तात रमात ॥ महेंन्द्रकीति से श्री जिनवर, होनी निर्मल गात ॥ ० ॥३॥
१२
राग केदारी
महिमा अपार आके गुणाको न प्रारावार. जग को अधार इसो देव जिरण देव ध्याइये ||
इन्द्रादिक देव जाकी, मन अवकाय करें सेव, तीस प्यारि प्रतिसय बिराजमान गाइये ॥
अनंत चतुष्टय प्रगट प्रतिभास सदा, आठ प्रातिहार्य महाविभूति पाइये || ग्रहो भव्य बृन्द तजि मोह मान मावा कंद, वीतराग पद चंद निश् चित लाइये ||
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बाई भजीत मति एवं उनके समकालीन ऋषि
राग नाषी
करुणा वर्ग भगत जिनेश्वर पय न।। जिनमण सिंच अपार, पार कहि कैमे पाव।। इन्द्री बुधि मनहीन कहीं प्रभु श्यू करि गाधु ।। भेरु चढरण कुंपांमुलो उदधि तरण मज हीन ।। पंछी उई माकास मैं ताहि गिग दिग छीन जिन ।।१।।
गूगो मुखि कुवर, मालसी नभ को पास । मूड हलाहल भष, अगनि ज्वाला मुख ग्रास ।। ज्युसूर्य जल कुड मैं, पकड्यौ चाहे बाल इमो सुभट नर कौन है जो गहि राख काल जिने।२।।
श्रीत राग सवंश सिद्ध परमातम स्वामी । निर्विकार निदोष सुद्ध पद गो के गामी । निज भाषा स्तुनि ये करें समयसरण तिरजंच 1 ज्यु जलनिधि जल से गरबौ चिड़ी लेब भरनु च ।।जिने ।।३।।
दोष अठारह रहित देव अरहन भिमेश्वर । प्रतिसय वर चौतीस दिव्य सोम परमेश्वर । प्रष्ट प्रातिहायं भले अनंत चतुष्टय पाय ।
सरि प्रकृति विनासिक भए त्रिभुवनपत्ति राय जिने।।। जिनवर रूप अनंत काही क्यू मनही समावै । नेति नेति कहै वेव नाहि कछु अंत न प्राव । अपनी ममता मारिको रहै अंतरि लो लाइ। मैतै मिटै कुदुद्धी बी तब दरसन दे अाह जिने।५।।
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जाको सम्पक ज्ञान ध्यान रज कर्म त्रि.स । सकल तत्व को रूप परम झीए परमार्स ।। चिदानंद छिद पहै विद्विलास चिदधाम ।। महेंद्रकीति मनि निरा बसौ सिव पात्र विसरसम नि । ६१३
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राग सारंग
चेतन का भरम मुलाना ॥ टेक ॥
सहज स्वभाव राचि निज अपनी छिन में रिव पुरि जाना ||०||२| खांड प्रमोलिक रतन धनोपन, काच की किरच लुभाना ||०||३|| दृष्ट अनिष्ट मिध्यात महा विष, रचि रचिमेव घराना ||०||४|| स्वपर विवेक महा सुख कारण, सेवो समकित राना ॥ सहज यलन परगट होइ भैंसे, ज्यु कंचन पाषाना ॥२०॥४॥ जन्म जरा कहूं मरण न व्याचे, सुद्ध रूप ठहराना || महेंन्द्रकीर्त्ति तब अंतर कैसो जल करण सिंधु समाना ॥१६
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राग सारंग
भट्टारक महेन्द्रकी
चेतन चैतत क्यूं नहि मनमै ।
मोह प्रमाद महापद पीयो यो धरणि घर घन में | यो जड़ रूपक को दाता, राचि रह्यो तू तन में चे० || बट्स भोजन बहुविधि पोषो, तो हू नहीं गुरगनमें ॥
प्रन मिध्यात घटा है झाडी, सूर्य लबै ना घन मैं ||२||
बिनु समकित ज्यु तत्व न मासे, कहा भयो जोजन मैं ||
महेंद्रकीति कस्तूरी कारण, ज्यु कूंढत मृग वन मै ॥ ० ॥ ३ ॥
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देवेन्द्र कवि
हुए
१७वीं शताब्दि में जितनी संख्या में हिन्दी के जैन कवि हुए उतने इसके पूर्व कभी नहीं हुए । देवेन्द्र कवि ऐसे ही कवि थे जो १७वीं शताब्दि के प्रारम्भ के इस भाग में और जिन्होंने हिन्दी काव्यों के लेखन में अपना नाम प्रशस्त किया। जिस प्रकार बाई श्रजीतमति, धनपाल एवं भट्टारक महेंद्रकीति भब तक अचचत रहे हैं उसी प्रकार देवेन्द्र कवि भी नामोल्ले के यतिरिक्त क्षेत्र दृष्टि से अचत्रित कवि ही रहे हैं जिनका विस्तृत परिचय यहां प्रथम बार दिया जा रहा है ।
में
शास्त्र भण्डार
देवेन्द्र कवि का प्रथम बार नामोल्लेख मैंने राजस्थान के जैन की ग्रन्थ सूची पंचम भाग में किया था और उनकी अब तक उपलब्ध एकमात्र कृति यशोधर रास का उल्लेख किया था। इसके पश्चात् किसी भी विद्वान ने उनका कहीं परिचय दिया हो वह मेरे देखने में नहीं आया। अभी जब मैं नवम्बर ३ में दर्शनार्थ एवं वहां के शास्त्र परमपूज्य श्राचार्य धर्मसागर जी महाराज के भण्डार की खोज में प्रतापगढ ( राजस्थान ) गया तो जुना मन्दिर के शास्त्र भण्डार यशोधरस की एक प्राचीनतम पाण्डुलिपि मिल गयी जो अपने रचना काल के ६ वर्ष पश्चात् ही लिपिबद्ध की गया थी । इस प्रकार देवेन्द्र कवि ऐसे चोथे प्रचित कवि हैं जिनका यहां परिचय दिया जा रहा हैं।
देवेन्द्र कवि के पिता मूदेव विक्रम थे जो स्वयं भी कवि थे तथा अपने नाम के पूर्व कवि उपाधि लगाते थे । वे जैन ब्राम्हण थे इसलिए भूदेव शब्द का प्रयोग करते थे। देवेन्द्र के पूर्वज अनन्त पंड्या थे जो भट्टारक सकलकीति के अनुज एवं शिष्य ब्रह्मजिनदास द्वारा सम्बोधित हुये थे । प्रनन्त पंड्या का राजाओं की तरह सम्मान था । उसने सम्यकत्व की प्राराधना की थी तथा जीवदया व्रत का पालन किया था। कुतुलुखान की सभा में उसने जैन धर्म की प्रभावना तथा सर्प को घड़े में डाल दिया था। यही नहीं अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण
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देवेन्द्र वदि
तथा जीर्णोद्धार बनाया था । तथा प्रतिष्ठा विधान कराये थे।
मनन्त पंड्या के करजी पुत्र हुए जो अन्त्यधिक उदार स्वभाव के थे । इमको एक पुत्री पद्मावती भी जिसके पति का नाम धरसीधा था । ब्राहारणों के बीम कूलों में वह विशिष्ठ माना जाता था। धरणीधर के दो पुत्र थे जिनमें जेष्ठ पत्र विक्रम तथा कनिष्ठ पुत्र गंगाचर थे । गंगाथर जैन न्याय के विशेष ज्ञाता थे तथा सम्यकत्व से सुशोभित थे । उमे सोभाग्य से जगत से विरक्ति सो गयी जो बादमें भट्टाक दिसालकीति के पट्ट में देवेन्द्रकीनि के नाम से विख्यात हुए। जन्होंने कर्नाटक प्रदेश में जनधर्ग की बहुत प्रभावना की थी पोर जैन राजानों द्वारा पूजित हुए थे ।
विक्रम विविध प्रागमों के ज्ञाना थे इसलिए वे विक्राभट्र के नाम से विम्यात थे। महीपाल नीति उनके विद्यागुरु ग्रे । विक्रम की पत्नि का नाम अजवाई था जो शीलवती एवं गुणवती थी। देवेन्द्र उसी का पुत्र था। भगवान जिनेन्द्र देव का वह परम उपासक एवं जैन शास्त्रों का परम ज्ञाता था।
देवेन्द्र कवि थे। उन्होंने विचने ग्रन्थों की रचना की थी यह ती अभी ज्ञात नहीं हो सका है लेकिन उनकी एक मात्र रचना "यशोधर रास" का रचना काल १ धन धन जिनदास ब्रह्मबागी, सा. प्रतिबोध्या ब्राह्मण गज नो ।
यनन्स पंडया नाम भलू, सा०ा जाणे जेह ने राज ममान तो ।।५।। तीनों प्रादयो समकीत रत्न |साका प्रज्ञ जीवदया प्रतिपालतो ।
घट सर्प दीव्य करसा । कुतुसखान सभा विसानतो ॥६०।1 २ जैन धर्म तिहां थापीयो सारा व्यापीयो जस अपार तो।
बिंब प्रासाद उसार करया साo। तस सूत कउजी उदारतो ॥६॥ तस पुत्री पद्मावती ।सा०। धरणीधर तस त तो। चौबीसा ब्राह्मण कृलि सा सोहि महीमावंत तो ।।६२ सस पुत्र दोये पवित्र साo। विक्रम मंगाधर नाम तो। जनवादी विद्या तिला नसा समकित रतन सुहामनो ।। ६३। गंगाधरे नप उद्धरयो सारा भाग्य सौभाग्य समुद्र तो। बिसालवीति पाटि हवा |सा देवेन्द्रकीति सुरेन्द्रती ।।६४|| प्रकलक सूरी सींघासने ।साल। कर्णाटक देस प्रमीध तो।
जिनधर्म तीहाँ उद्धरयो ।साल। जन राजादिक पूजा कीपत्तो ।।६।। ३ विक्रम भट्ट विक्षात तो मा०n सील समकित गुण खाण तो।
तस चि पुत्र वीशारद ।साल। देवेन्द्र बासुदेव जाण तो ॥६६॥
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याई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
मंवत् १६३८ प्रासोज सुदी २ शुक्रवार है । रात की रचना महुभा नगर (गुजरात) हुई थी और वह भ० वादिनन्द्र प्रादेश से लिखी गयी थी।
देवेन्द्र कवि भगवान मुनिसुनत्त नाथ के परम उपासक थे इसलिए मथ का प्रारम्भ उन्हीं के मंगलाचरण परमान भी नहीं करना है। शोर रास ६ प्रषिकारों में विभक्त है तथा वह प्रबन्ध काव्य के रूप में है । कवि ने रास का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया है इसके पश्चात् सरस्वती बन्दना की गयी है और "गासू' यशोधर गस" के रूप में रारा रखने का मंकल्प व्यक्त किया है। स्वाद्वाद प्रकासिनी जगन्माता शारदा के स्तवन के पश्चात् चौबीस सीकिरों का २४ पद्यों में स्तबन क्रिया है और फिर तीर्थंकरों के गण घरों की संख्या का उल्लेख करते हुए भगवान महावीर के निर्माण के पश्चात् होने वाले तीन केवलियों एवं पांच शु तकेवलियों केनामों का स्मरण किया है ।
थत केवलियों के पश्चान् विशाखाचार्य प्रादि दश पूर्वधारी एवं नक्षत्रादि ११ अभ के पाठियों का भी स्मरण किया है । इसके पश्चात् प्राचार्यों को स्थान दिया है जिसमें कुन्दकुन्दाचार्य, उमाम्बामि समन्तभद्र, पूज्यपाद, जिनसेन, प्रकलंक, एयं गुरगभद्र जैसे प्राचार्यों का उल्लस एवं गुणानुवाद किया है।
एकादपांग सुजाण नक्षत्रादि सोहामरणाए ।
अनुकमि श्री कुदकुद पंच नामि कोडामणीए ।।२०।। जिन चरण कमल सेवि ।साल। करि जिन शास्त्र अभ्यास तो। ४ संवन् १६ पाठ त्रिसि |सा। पासो सुद तीज बीजि शुत्रवार तो।
रास रच्यो नवरस भरयो ।सा महूया नगर मझार तो ।। ५ प्रवनी अनोपम रूप, बादीच'द तम पाट मोहिए । वादी रायल सणगार । भवी अग अन तो मन मोहिए ||२६||
दोहा एह गच्छपती प्रादेस श्री, रास रचेवा प्राज । उद्यम मांड्यौ मन रली, सजन प्रानन्दह काज ॥१॥४॥ अनुक्रमि गौतम स्वामि, सुधर्माचारज केवलीए । अतिम केवली जागा, जंबूस्वाभि कीगती भलिए ॥१६।। श्रत केवनी बनी पंच, पंच संसार दुःख हरए । दिहणुनंदि मित्र होय. अपराजित बिजित स्मरए ।।१७।। गोवरधन गुणवंत , याणी भवी अण उद्धरेए । भद्रवाह वह भेद, चन्द्रगुपती संसय हरेए ।।१८॥
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देवेन्द्र कवि
उमास्वामी मुनि संत समन्तभद्र भाब प्रातिलोए । प्रति चोध्या सिवकोटि कोष स्वयंभू गुणनिलोए ।।२१।। पूज्यपाद प्रसीध जिनसेन सामने चंदलोए । अनापम प्रकलंक वीर धरि बोध जीतवा भलोए ॥२२॥ मुगभद्रादि अनेक पूर्वाधारज बहु हुवाए । हो ध्याघरी भाब काम वांछित सिद्ध थवाए ।।२३।।
कवि ने प्राचायों के पश्चात् भट्टारको की परम्परा का उल्लेख किया है जिनमें भ० पद्मनन्दि. विद्यामन्दि मल्लिभूषण, लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभुलगा प्रभाचन्द्र, वादिचन्द्र के नाम गिनाये हैं। ये सभी भट्टारक बलात्कार गण की सूरत शाखा के भट्टारक थे । इस प्रकार यशोधर रास ऐतिहासिक तथ्यों का भाग बन गया है ।
भगवान महावीर का समवसरण जब विपुलाचल पर्वत पर आया तो श्रेणिक महाराज पुरे प्रजाजनों के साथ उनकी वन्दना को गए। उनका हृदय से स्तवन किया और गौतम गणधर से यशोधर के जीवन बुत जानने की अपनी इच्छा प्रकट की इस प्रकार ऋवि ने प्रथम अधिकार काव्य की भूमिका के रूप में प्रस्तुन क्रिया है जिससे पता चलता हैकि कवि में काष्य निर्माण की विलक्षण प्रतिभा थी।
दूसरे अधिकार से नवम अधिकार तक यशोघर की जीवन कथा दी हुई है जो अत्यधिक काव्य-मय भाषा एवं शैली में लिखी गयी है। कवि के पूर्व में जितने भी यशोधर के जीवन पर काव्य, रास एवं चरित्र लिखे गये थे उनसे कवि परिचित था या नहीं इस सम्बन्ध में तो हम कोई प्रकापा नहीं डाल सकते क्योंकि स्वयं कवि ने अपने पूर्ववर्ती किसी भी कवि का नामोल्लेख नहीं किया जिन्होंने अपभ्रंश संस्कृत एवं हिन्दी में यशोधर काव्य/रास/चरित्र लिखे थे लेकिन कवि ने यशोधर
पिनकथा लिखते समय उसी परम्परा का निर्वाह किया है जो उसके पूर्ववर्ती कषियों ने किया था। लेकिन सभी प्रसंगो का वर्णन करते हए कवि ने अपनी कामग कौशल का प्रदर्शन अवश्य किया है। इससे काव्य मधुर एवं सरस बन गया है । वैये भी स्वयं कवि अपने रास को नवरस युक्त रचना कहा है। और "रास रस्यो नव रस भर यो । जैसे धाब्दों का प्रयोग किया है। यहां हम कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं :
नगर में नारी की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है कि सुन्दरिय पर भवरे झूमते थे और जब वे उन्हें उडाती तो उनकी करधनी शब्द करती थी । उनके मधुर शब्दों को सुन कर स्वयं कोयल लज्जित हो जाती थी।
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बाई अजितमती एवं उसके समकालीन कवि
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भमर बारता करुण नलके, सारस सरस सुगंत तो। कोयल नारी शबद सुणीयतु, लाजी यचन भणंत तु ॥६७।।
कवि ने एक प्रोर श्मशान का जहा वीभत्स वर्णन किया है वहां उद्यान का बडा ही मनोरम वर्णन इत्रा है। इससे पता चलता है कि कवि की वर्णन शली यामान्य रूप से अच्छी थी।
वीभत्स बन :
चौहाथकाए उठ्या बहु धम, अर्घ दग्ध कलेवर पड्याए। ठाम ठाम ए पडया बहुत, गली गयू मांस एहां मडाए ।।२।। विकसयाए मुख दीसि दांत, तू बली ए घरणी रहवडीए । मीनालीयाए ताणे तास, माकाशे गृष लेई जाए ॥३॥ कूतरा एव लागी प्रहार, बढ़ता माहो माहि इह डहिए ।
वायस ए फरमें बदठ, कागिण घण कल गली रहिए 11४॥२०॥ प्राकृतिक सुन्दरला .
वाडी वन हाम ठाम, कपूर कदली कोमल दिसी हेलो। नालकेर खजूर, पूग तो तरु पर ही सेहेल || ताल तमाल हे ताल,सरल सोहि समजन समाहेल । कोमल मध्य रसाल, देवदारु यादि उसमा हेल ।।६।। तज पत्र नागवेल एलची लची फले करी हेल ।
जायफल संवगह मेल, मग वेल छि झूमके भी हेल ||१०॥ कवि ने यशोधर गस में सूर्यास्त एवं चन्द्रोदय दोनों का वर्णन किया है। जिनके वान से प्रबन्ध काय की महत्ता में वृद्धि होती है । सूर्यास्त बान का एक उदाहरमा निम्न प्रकार है :
प्रस्ताचले रे सुर पाबंतो जाणीयो। निज मीर परि रे मुकूट समो बरवायो ॥४॥ पश्चिम दिसि रे रवी प्राविह धारातही । पंखी तणा रे सोल ससि करे वानही ।।५।। निर अंतरे रे रबि घण मान पामयूं। उत्तम नेरे को एि एक सीस ननामयू ।।६।।
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देवेन्द्र कषि
व्यभचारिणी रे गमन मेध र सि चढी ।
रवि उपरि रे देवाडि मांखि रातडी ।।७॥५३॥ उक्त पद्यों में सूर्यास्त होने पर वह किसको कैसा लगता है इसका सामान्यत पन्छा वर्णन मिलता है। इसी तरह कवि में चन्द्रोदय वाा भी अच्छा वर्णन किया है ।
पूरब दिसी रे गुफा पको ए नीसरी । गगन वने रे संचरय नारी ॥mi किरण नखे रे अंधकार गज विदारयो । जाणं तारा रे मुक्ताफल विस्तारयो ।।२३।। गामी भीतल रे अमृत मय कहि वाड तो ।
लांछन मसि रे हर दह्यो काम जीयाड लो ।।२६।। इस प्रकार यशोधर रास में और भी कितने ही अच्छे एवं काव्यमय वर्णन हैं जिनसे रास के काव्यत्य में वृद्धि होती है।
लेकिन यह भी कहा जाना चाहिये कि कवि की वर्णन शैली अन्य कवियों से एकदम भिन्न है। वह प्रत्येक वर्णन में अपनी छाप छोड़ना चाहता है लेकिन इसमें वह पूरी तरह से सफल हुअा है यह सन्देह युक्त है। भाषा-कवि गुजरात का रहने वाला था और गुजरात में ही रास की रचना की
गयी थी इसलिए रास की भाषा पर गुजराती भाषा एवं शैली का पुग प्रभाव है। इन्दो का प्रयोग एवं शब्दों का चयन दोनों में गुजानी का प्रभाव थोतित है। महाकवि ब्रह्म जिनदास ने जिम शैली का प्रयोग किया था और उसी शैली को यहां कवि देवेन्द्र अपनाया है। १६वी १७वीं शताब्दि में गुजराती शैली का हिन्दी कवियों पर पूरा प्रभाव रहा ।
इसीका नमूना यशोधर रास में देखा जा सकता है। छन्द ----रास में दोहा छन्द के अतिरिक्त और भी भास छन्दों का उपयोग किया
गया है। हमें प्राज एक भास में कितने ही पद मिलेंगे साथ ही दूसरे भाम प्राणदानी भास हेर्लानी (१३), भास नारे सुझानी (१५). भास ब्रह्म गुणराजनी (१६). भास चौपई (२४) भास भमारुलीनी भास रासनी (३१), भास साहेलीनी (३६), भास वसन्त फागुगनी (४६), भास भूपाल रागनी (५३), भास भद्रबाहुनी (८१) भास पटुललाटीनी(८४) भास जीवदानी (६८) आदि भासों का छन्दोंके रूप में प्रयोग किया है। कवि
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बाई प्रजीतमति एवं उसके समकालीन कति
ने चौपई जैसे स्वतन्त्र छन्द को भी भास चोपई कर छन्द का प्रयोग किया
गया है । हा दोहा के प्रागे पीछे भास का प्रयोग नही क्रिया है। रचना स्थान-जैमा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि यशोधर रास पी रचना
महवा नगर में चन्द्रप्रभ चैत्यालय में की गयी थी। मगर धनधान्य एवं सुवर्ण में प्रोन प्रोत था । वहीं वशिक समाज के पर्याप्त संख्या में घर थे । वड़े बई वाड़ी परवं बगीचे थे जिनमे विभिन्न प्रकार के फलों वृक्ष थे। नगर में धायकों की अच्छी बस्ती थी जो दान पजा व्रत अभिषेक करने में बड़ी मचि रखते । वहां बड़े २ विणाल जिन मन्दिर थे इस प्रकार जिस नगर (महा) में कवि रहते थे वह अपने समय का उत्तम नगर माना जाता था।
तेह देस माही सोहि महमा नयरी असंततो । धन करण करणय र तने भरी, महाजन नवसय महंततो ॥1 ब्राह्मण वेदने अभ्यास नाहि पूर्ण नदी मांही नो। प्रवर बरण घरमा वसि सा. नित नित होय उछाहतो ।। सिंहपुरा कुल मंडण बाहि वारिया श्रावक वसंततो 1
दान पूजाप्रत अतिरेक, बहुरि घर रंजनो::१२१३२॥ महुआ नगर के मन्दिर की मुलनायक प्रतिमा चन्द्र प्रमु स्वाभी की थी। मन्दिर में धरणेन्द्र पथावती की प्रतिमा भी श्री जिनके दर्शनमात्र से भूत पिशाच की वाधा दूर हो जाती थी मन्दिर के बहार क्षेत्रपाल भी पूजे जाते थे।
महुअा नगर में अनेक धात्रक थे जिनमें संघवी नाकर नन्दन, मंघवी शिवदास सघत्री दाभाई, माह चाहानकुल चांदली. संघवी जगा, जयवंत संघवी, हंसराज सुत साह कंपारी, नाहन रुत मांगजी, भाजी आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय थे जिनके नाम कवि ने अथ प्रशात्ति में गिनाये हैं। इन सबने यशोधर रास की रचना में विवेष प्रेरणा की थी।
संघसी नाकार नंदन ।साला संघवी साहि सिवदास तो। भूपाल कुल सोहायर साल संघवीदा भाई गृगाराम तो 11३९॥
साहा नाहा नकुल दिलो !सादा भाई दान दातार तो। माधवी जना कुल माहरण ।साल। जयवंत संघीव उदारतो ॥३। हंसराज सुत साहा कुअर जी ।साल। नाहन सुत मागजी सुचंगतो ।
भारणजी आदि संग मादरथी सा०। रास दच्यो मन रंगतो ।।४।। १ तेह गच्छपती प्रादेस थी, मया नगर मझारतो ।
बद्रप्रभ चैत्यालय रास रच्यो सुख कारता ।।
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देवेन्द्र कवि
देवेन्द्र कवि भट्रारक सकलकोत्ति के ग्राम्नाय में होने वाले भट्टारकोंसकनकीत्ति, मुक्नीनि. ज्ञान मूषण, विजय कीत्ति शुभचन्द्र, सकल भूपरण, सुमति कीति मुगकीति जसे भद्रारकों एवं ब्रह्म जिनदास एवं उनके शिष्य शांतिदास प्र. हंसराज एवं क. राजपाल के व्यक्तिगत एवं कृतित्व से बड़े प्रभावित में इसलिए कवि ने जमका साभार उल्लेख किया है । कवि के समय में ब्रह्म शातिदास थे जिनके उपदेश एवं प्रेरणा से कवि की धर्म एवं साहित्य रचना की और प्रवृति बड़ी । यशोषर के जीवन को लोकप्रियता
यशोधर राजा का जीवन जैन समाज में मत्यधिक लोकप्रिय रहा है। द्रव्य हिंसा के स्थान पर भान हिंसा भी कितनी पाप बन्ध का कारण बनती है यही इस काव्य का मुख्य संदेश है इसलिए महाकवि पुष्वदन्त से लेकर देदेन्द्र कवि तक निम्न कवियों ने अपनी शैली एवं भाषा में यशोधर काव्यों की रचना करो यशोधर के जीवन का एक फीतिमान प्रस्तुत किया :
१. जसहर नरिउ महाकवि पुष्ादन अपभ्रश ६ वीं शताब्दि २. यशस्तलक चम्पू सोमदेवसूरि संस्कृत शक संवत् ८१ ३. यशोधा चरित्र भ। म कलकीत्ति
१५ वी शतारिंद ४. यणोधर रास व, जिनदास राजस्थानी १५ वीं शताब्दि
मूल मंत्र भारती गच्छ पपनंदी गई राय तो। नेह पाटि गोहे दिनकर मकल कीरति गुण ठायतो ॥५०॥ भुवनकीति मवि विज्ञात, नस पाट तार सयागार तौ । ज्ञानभूषण ज्ञानदायक, गोयम सम प्राचार लो ।।५।। विजय कीरती गुरु गच्छपनी, वचन सीधी मुनि इंसतो। नम पटोधर सुभचन्द्र बादीस्वर वर बसतो ।।५२।। हूंव कुल बर्ड माजन सफल भूषगगो नुन 'पायतो । वादीय मान मर्दन पट् दर्गा चादी रायतो ।।५।। सेह पारि सुमती कीरती सूरी, तेह पाटि उदयो भगा लो। भयोया कमल विकासबा, गुणकीरती गुण जाणतो ।।५४।। एह गच्छपनि तरिम अन्वय, ब्रह्मचारी जिरणदास तो। मांतिदास तम पट धम, बा हंसराज गुणवासतो ॥५५।। राजपाल ब्रह्म तेह पाटि, समिति श्री शांतिदास । नेह उपदेम धनगोर श्री जिनयम उल्हास तो ।।५।।
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बाई मजीतमती व उसके समकालीन कवि
५. यशोधर चरित्र प्राचार्य सोमकीति संस्कृत संवस् १५३६ ६. मशोधर रास
हिन्दी ७. जसहर बरिउ पं. रइधू अपभ्रश १५ वीं शताब्दि
कविवर देवेन्द्र के पश्चात् संस्कृत एवं हिन्दी कवियों को और भी यशोघर काव्यों की रचनायें मिलती है जो उनकी जीवन कथा की लोकप्रियता की द्योतक है। देवेन्द्र के यशोधर रास की वही कथा है जिसका हम अकादमी के पंचम भाग में सार दे चुके हैं फिर भी पाठकों की जानकारी के लिए यशोधर रास का संक्षिप्त सार पहां भी दिया जा रहा है।
कथासार
भारत क्षेत्र के प्रार्य खण्ड में योष देश था जहां को प्राकृतिक सुषुमा निगली या तथा प्राणीमात्र निर्भय होकर विचरण करते थे। राजपोर नगर में महलों की पंक्तियां एवं मन्दिरों के शिखर दूर से ही नगर की भव्यता एवं सुन्दरता का प्रदर्शन करते थे। नगर में सभी जाति के लोग रहते थे । योष देपा के राजा मारिदत्त था जिसका राज्य वैभव निराला था। वह अत्यन्त प्रतापी राजा था। एक दिन उसी नगर में भैरवानन्द नाम का एक जोगी पाया जिसके हाथ में त्रिशूल था । यह उमरू बजाता तथा वनबरों की हिंसा करने में मानन्द मानता था। उसने नगार में आते ही अपने ज्ञान विज्ञान के सम्बन्ध में अनेक बाते बतलाई तथा कहने लगा कि उसे राम लक्ष्मण, पाण्डव आदि दिखलायी देते हैं और वह जनता को भी दमन करा सकता है । जोगी को राज दरबार में बुलायागया जहां उसने राजा को प्रभावित कर लिया और जब राजा ने आकाशगामिनी विद्या प्राप्त करना चाहा तो उसने चण्ठमारि देवी की भक्ति एवं उसके आगे थलचर जल कर एवं नभचर जीत्रों के युग नों की बलि प्राकामा गामिनी त्रिवासिद्धि के लिए आवश्यक बतलाया। राजा ने अपने सैनिकों को तत्काल सभी प्राणी युगलों को लाने का प्रादेश दिया । चंडमारी का मन्दिर पशु पक्षी युगलों से भर गया। लिसा का घोर वातावरण बन गया । मन्दिर में चीत्कार एवं पिल्लाह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा । इसके पश्चात् भैरवानन्द ने कहा कि जब तक मानय युगल को बलिदान के लिए नहीं लाया जावेगा तब तक विद्या सिद्ध नहीं होगी 1 राजाके प्रादेशानुसार उसके सनिक चारों ओर दोड़े और मार्ग में जाते हुए एक बह्मचारी एवं एक ब्रह्मचारिरिण को पकड़ कर देवी के मन्दिर में ले पाये ।
राजा मारिदत्त वहीं था । मानव युगल और वह भी साधु के वेश में तथा सुन्दर तथा कान्तिमान देह युक्त शरीर धारियों को देखकर राजा माश्चर्य चकित
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देवेन्द्र कवि
हो गया । नगर के बाहर तीन दिन पूर्व ही दिगम्बर जैन मुनि सुपत्ताचार्य का संघ माया था। प्राचार्य के तपोबल से चारों तरफ हरियाली छा गयी थी। उसी संघ के ये दोनों साधु एवं साध्वी थे जो प्राहार के लिए नगर में जा रहे थे।।
राजा मारिदत्त जैसे ही नर युगल का वध करने के लिए तलवार सम्हालने लगा, दोनों साधु साधी ने राजा को प्राशीद दिया तथा उसके दीर्घजीयन एवं यश की कामना की। राजा उनके वचन सुन कर उनसे अत्यधिक प्रभावित दया और अल्प वय में ही साथ जीवन अपनाने का कारण जानना चाहा । ब्रह्मचारी ने राजा से कहा कि वह इनके सम्बन्त्र में जानकर नया करेगा क्योंकि वह स्वयं सो पाप बुद्धि में फंसा हुआ है । राजा ने तत्काल तलवार छोड दी और उनसे पूर्व भाव जानने के लिए प्राप्तुर हो उठा।
मारिबत्त तब उपमम्यो, खड्न मुक्यो तेरिए वार ।
कर युगम जोडी करी, करी कोपनो परीहार ॥३॥२४॥ इसके पश्चात् ब्रह्मचारी ने निम्न प्रकार कथा प्रारम्भ की:
भारत देश के प्राय खण्ड में प्रबंती प्रदेशा था जो अपनी प्राकृतिक मौन्दर्य के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध था। उज्जयिनी उसकी राजधानी थी जो सभी तरह से सम्पन्न नगर था। जिसका कवि ने बहुत ही विस्तृत वरांन किया है। वहां का राजा था यसोत्र जो क्षत्रिय वंश भूषण था । रागी का नाम चन्द्रमती था जिसकी देह का निर्माण मानों स्वयं विधाता ने ही किया था। कुछ समय पश्चात् उसको पुत्र रत्न की जब प्राप्ति हुई तो चागे प्रोर प्रानन्द छा गया। राजकुमार का नाम यशोधर रखा गया।
नाम बसोधर तेह वीकए, बहु पिरि करि उछाहतो।
रतन जडित भूषण भलाए', पहिरवी धरि ऊमाहतो ॥२३॥३२॥
पांच वर्ष का होने पर राजकुमार को पढने भेजा गया जहां उसने सभी विद्याएं सीख ली । न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार तक संगीत, ज्योतिष, प्रादि सभी शास्त्रों में पारंगता प्राप्त की। युवा होने पर उसे युवराज पद से सुशोभित किया गया । युवरांब के विवाह का प्रस्ताव लेकर बराइ देश के राजा सालिवाहन के पास भेजा । उसकी पुत्री का नाम अमृतमती थ। । अब अमृतमती का लग्न लेकर वहां का मंत्री उज्जधिनी प्राया तब अनेक प्रकार के उत्सव किए गए । पत्रियां लिखी गयी और सहस्त्रों कुटुम्ही जन एकाविस हर। नाच गान एवं संगीत समारोह सम्पन्न किए गये । उजमिनी से बारात बाराड देश गयी जहां उसका इतना अधिक स्वागत एमआ कि लोग प्रापचर्य करने लगे । दहेज इतना अधिक दिया गया जिसका
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बाई जीतमसी एवं उसके समकालीन कवि
कोई पार नहीं था। विवाह के पश्चात् राजा यशोध ने राजकुमार यशोधर को पूर्ण रूप से योग्य मान कर उसका अपने ही हाथों से राज्याभिषेक कर दिया।
राजा यशोधर राज्य करने लगे । गनी अमृत मती भी जीवन का प्रानन्द लेने लगी वसन्त ऋतु प्राने पर वसन्तोत्सव मनाया गया तथा राजा एवं रानी बन क्रीड़ा करने गये । कबि ने बसन्तोत्सव का सूर्योदय एवं सूर्यास्त दोनों का अच्छी तरह वर्णन किया है । कुछ समय पश्चात् रानी का महलों नीचे रहने वाले कुबड़ा से प्रेम हो गया और वह एक रात्रि को राजा को सोता हुआ जानकर पूरे शृंगार के साथ अकेली ही उसके पास चली. राजा भी जग गया और उसके पीछे पीछे चलने लगा। वहां राजा को यह देख कर महान आश्चर्य हुया कि किस प्रकार एक रानी दुर्गन्ध युक्त कुबड़े की मिन्नत कर रही है । एक बार नो राजा ने अपनी तलवार से उसे मारना चाहा लेकिन बाद में उसने स्थिति को देख कर वापिस पलंग पर सो गया । कुछ समय पश्चात् रानी भी यहीं प्राकर सो गयी।
यशोधर राजा को जब दुस्वप्न की शान्ति के लिए एवं सुख समृद्धि के लिए देवी के सामने जीवों का बष करने के लिए उसकी माता चन्द्रमती ने बहुत समझाया लेकिन राजा ने कहा कि हिंसा करने से पाप लगता है, नीव गनि का बंध होता है । उसकी माता ने एक प्राटे का कूमाड़ा बनाया और उसी का बध करने का माग्रह किया राजा ने माता की बात मानली और प्राटे कुकड़े का बध कर दिया। इस से यशोधर ने वल पश्चानाप किया और गृह त्याग कर तपस्वी बनने का निर्णय लिया । गनी को जब यह मालुम हया तो वह रोने लगी और विना पति के जीना ही व्यर्थ समझा । उसने राजा से प्रार्थना करी कि वह एक बार उसके यहां प्राहार लेवे उसके बाद दोनों ही तपस्वी बन जायेंगे | रानी ने राजा को एवं माता चन्द्रमती को विष के मद्दष्ट स्थिला दिये जिसके कारण गजा वध २ करता हमा पर गया । इसके पश्चात् रानी ने रोना पीटना प्रारम्भ किया। और प्रजनों को ऐसा आभास करा दिया जैसे राजा की प्राकृतिक मृत्यु हुई हो । यशोधर की मृत्यु से सारे नगर में शोक छा गया । राजा की५०० रानियों में से कितनी ही स्वनः ही मर गयी। कुछ ने वैराग्य धारण कर लिया। राजा का दाह संस्कार कर दिया गया । बाह्मणों को खूब दान दिया गया ।
काम ठाम घी ब्राह्मण माग्पा, बयर दान देवाय । धन कांचन करण घृत पणा, मणी वस्त्रादि अपार ||१| गड मश्व रप गो महीसी, मादि बाह दीघां दान । बस वाचर जीके बाहया, ब्रह्म भोजन विधान ॥३।
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देवेन्द्र कवि
इसके पश्चात् राजा यशोधर एवं माना चन्द्रमती के भवों का क्रम प्रारम्भ होता है । राजा यशोधर मर कर स्वान हुग्रा और चन्द्रमति मोर हुई। एक दिन मोर चंद्रमती रानी के महल की छत पर था। वहां से उसने रानी एवं कुबडे को कुकर्म करता हुआ देख लिया । मोर ने कुबड़े को अपनी चोंचों से पायल कर दिया यशोमतीने मोर को पाला था जिसने लपककर मोरनी की गर्दन दबोच ली जिसमे बहु तत्काल मर गयी । कुत्ते को बनमें दोड़ते हुए बाघनीने खा लिया । इसके पश्चात स्वान मर कर सर्प हुआ तथा मोर मरकर सेहलु हुई। जब सेहलु ने सर्प को देखा तो उसकी पूंछ पकड़ कर चया लिया । अगले भवन सेहलु मर कर बडा मगर हुआ और सर्प रोही ( संमार) हो गया ।
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एक दिन राजा की नर्तकी तलाब पर नहा रही थी तभी उस मगर ने उसे पकड़ लिया। जब राजा को समाचार मिला तो मगर को पकड़ने का आदेश हुआ । अन्त में उस संसुमार ने मगर को पकड़ लिया और लकड़ी मूसल श्रादि से उसे खून मारा । बहु अत्यन्त बेदना के साथ मर गया और नगर के समीप ही बकरी हुई। कहां यशोध राजा की रानीहांजीत सत्सकले को मारने से गति प्राप्त हुई । रोहित मर कर बड़ी मछली हुई । जिसे तल २ खाया गया फिर वह मर कर बकरा हुआ। बकरा मर कर पुनः उसी बकरी के गर्भ से बकरा हुआ 1 बकरा मर कर पुनः भैंसा हुआ जिसे वरदल बाजारा भार लादने के काम में लेने लगा । वे फिर दोनों मर कर मुर्गा मुर्गी की की योनी में पैदा हुए। उन दोनों को मुनिराज से धर्मोपदेश सुन कर जाति रमरा हो गया तथा व्रत ग्रहण किए ।
तव श्रमे बेहू कुकड़े, सुयुं अश्मनि भवांतर सार ।
जाति समर उपनु सही, श्रहमे पर बीघा वरत भवतार २९॥१०२॥
दोनों मुर्गा मुर्गी प्रसन्नता से क्रू कू कर रहे थे तभी राजा ने दोनों को शब्द भेदी बाण से मार दिया। फिर वे ही कुसुमावली रानी के गर्भ से पुत्र पुत्री के रूप मे पैदा हुए। जिनका अभयरूचि एवं प्रभवमति नाम रखा गया। कवि ने शोचर एवं चन्द्रमती के भवों का निम्न प्रकार वर्णन किया है
श्रमृायि जसोधर चन्द्रमनी मारया, मोर कुतरा भव भव भागो रा तीहां भी मरी सिहिलो सांप हवां, बली रोहीत ससुमार । चन्द्रमती छाली हवा तेह गर्भीराव याग हबो वे बार सा०||२५||
चन्द्रमती महीम योनि पढ्या तहां भी कुकड़ा हवा हु । कृतम जीवद्दि साफल माम्या, भवि भमतां नही ह || सा ||२६||
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दाई गाजीत मनि एवं उसके ममकालीन कवि
यशोधर एवं चन्द्रमती की पूर्व भवों की कहानी सुनकर कोटवाल एवं मारीद राजा भयभीत हो गए और उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर निम्न प्रकार विचार प्रकट किये :
अाज निलामणि रस्म में पाम्यू, पाम्पो धर्म कल्प वृक्ष । जिनवाणी जिनयन मायद, बिरिण जाणते वक्ष !!२!!१:३।।
राजा यशोमति एक दिन वन में गया जहां सुदत्ताचार्य मुनि ध्यानस्थ बैठे से राजा ने मुनि दर्शन को अपशकुन समझा और मुनि के ऊपर ५०० कुत्ते छुड़वा दिधे । लेकिन मुनि की तपस्या से कुले शान्त होकर बैठ गये। तब राजा तलवार लेकर मुनि को मारने चला। उसी समय उसे कल्याणमित्र मिला जो मुनि की बन्दना के लिए वहां आया था। राजा से उसने मुनि बन्दना के लिये कहा लेकिन राजा ने कहा कि उनके दर्शन तो अपशकुन है। कल्याण मित्र ने राजा की बहुत ग़मझाया तथा का नानत्व लो मरल स्वभावी, त्यागी एक शुद्ध परिणामी होने का लक्षगा है 1 उसने कहा कि ये कलिग नरेश सुदत्तराज है राजा और कल्याण मित्र में उनकी वन्दना श्री तो मुनि ने घमंवृद्धि हो ऐसा प्राशीर्वाद दिया । राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ नथा वह अपने किये पर पछताने लगा । उसने अपना घात करना चाहा लेकिन प्राचार्य श्री ने उसकी मन की बात जानकर रोक दिया । राजा मुनि से बड़ा प्रभावित्रा हुआ।
___ इसके पश्चानु मुनि ने यशोधा राजा एवं चन्द्रमती के पूर्वभवों की कथा कह सुनायी तथा प्राट के मुग का वध भी कितने जन्मों के लिए दुखदायी होता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उसके पुत्र पुत्री हैं बतलाया। राजा को तत्काल वैराग्य हो गया तथा अभय रुचि को राज्य देकर पांच सौ राजाओं के साथ मुनि बन गया। इसके पश्चात अभयरुचि एवं अभयमति ने भी जिन दीक्षा धारण करली मारिदत्त राजाको उक्त सब वृतान्त सुनकर वैराग्यभाव उत्पन हो गए । सुदत्तचार्य ने उसके भी पर्वभवों का वृतान्त सुनाया। इसके पश्चात् मुनि दीक्षा धारण कर स्वर्ग प्रास्त किया 1 चण्डमारी देवी के पुजारी ने भी हिसाहति छोड़ कर जिन दीक्षा पारण करली । देवी के मन्दिर को स्वच्छ कर दिया और जीव हिंसा सदा के लिए बन्द कर दी सुरत्ताचार्य ने समाधिमरण करके १६वां स्वर्ग प्राप्त किया। अभयमती एवं अभयरुनि ने भी कठोर तप साधना द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया।
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यशोधर रास
1. रचयिता - देवेन्द्र कवि 2. राना कास -- संवत् १६३८ (सन् १५८१) 3. रचना स्पान - महुना नगर (गुजरात)
संवत् १६४६ (सन् १५८७) ..पा यि
प्राप्ति स्थान - दि. जैन मन्दिर प्रतापगढ़ (राज.। * नमः सिम्यः । श्री सारदाई नमः । श्री गुरुभ्यो नमः ।
वस्तु छन्द मंगलाचरण
श्री भुनिसुक्त जिनबि नमेवि, क्षेत्र करे जसु सुर निकर ।। गणहर मुनिवरे जेह पूजिय, तीर्थकर बीसमो जयो ।। भवीमण बेह वचनेहि रंजिय, छपतारतीस गुणि भंडियु ।। खंडीयो कुमत प्रसार । सो जिनवर मंगनकरो, त्रिभुवन सारण हार ॥१॥
थी जिन बदन कमल थकी, प्रगह वीस प्रसीष । सरसती सरस वचन दीयु, हंसगामिनी मति द्धि ॥१॥ गुम्सगरूपा गुरू ध्यायसू', 'पायसु सुमति सुभास । सयल सजन प्रानन्द करो, गासू यशोधर रास ।।२।।
नयन पूजित त्रिभुवने, विक्षाता त्रिनेत्र । वेणा पुस्तक बारिणी, अपमाली पक्ष सुविचित्र ॥३॥ विविध वांछित परदायिनि, स्याहादिनि अगमाम । सेवक जननें सारदा, वांछित करो पसाय ।।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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मास जसोधरनी भदोभरण जरण प्रानद काज, तीर्थकर देव ।
चोवीश जिनस्तव जूजू प्रा बहू भावसू हैव ।।१।। चौबीस तीर्थकर स्तवन
प्रथम जिनेश्वर वृषभनाथ, नाथ्यो जेरिण काम । धर्म कर्म प्रगटी की पाभ्यो सिव ठाम ।।२।। अजित जिनाधिप विजित कोह, मोह मछर धारण । केवल वोघ सुवचन दिप, भव्य दुरित निवारण ।।३।। संभव संभव्य भव्य पुण्य, पुण्यम सशसभ मुख । त्रिभुवन अन उदरी करी, करी शिववधू मुख ॥गा अवनी अनोपम अवतरयु, हरपो मिथ्यानन्धकार । अभिनन्दन जिन जाणे भाग, जाणे कमल विस्तार ॥५॥ सुति तीर्थंकर सुमति दान, मान मातंग शिनी। तत्त्वप्रकाशी शिव गयी, जयो सो जिगि बहुपरी ॥६॥ पद्मप्रभ जिन पन भास, भाषा जित जलधर । धर्मामृत रसि सींचीया, भवीयासस्योत्कर ॥७॥ मरकत कांति सुपार्श्वदेव, देवेन्द्रवी वंदीय । बण्यकाल बसु सिसुपणि, परिण भूषणे भूषीय ॥८॥ पन्द्रप्रभ जिन पति हरो, नषो अवनी चन्द । कुमति कमल कोमलालो साघु, वाध्यु हरख रामुद्र ॥६॥ पंच कल्याणे पूजीयो, जयो जिन पुष्पदन्त । तमु जीत नारद चन्द्र वद, कुंद को कली दंत ॥१०॥ सीतल सीतल वचन पंप, मंग सप्त तरंग। चारणी गंगा प्रक्षालया, मंत्रीमा अंतरंग ॥११॥ श्रेयह दायक श्री श्रेयांस, हंस रणाण सरोवर । सुर नर फणधर करी प्रसंस, संसार भयंकर ॥१२॥ बसुक्षायक बजुपूजस, पूजीय पितृवास । यासुपूज्य जा पूजीउ, जीतु काम बिलास ॥१६॥ बिमलजिन प्रमु विमल लक्षण, इसग सुखदायक । रखपत माह सहित अनुछ, श्री क्छ छषादिक ||१|
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हे कुटु
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अनंत अनंत सुगुण नीलो, तिलो त्रैलोक सोहें ॥ अनुदिनु जिहूं अनुभवु तहां बहुत उद्या ॥१५॥ धर्म धोरंवर धर्मनाथ, पाथो विधि गंभीर । अनंत चतुष्टय मन्दिरो भेद र राग र धीर ।। १६ ।। शांतिकरण जगे शांतिदेव, सेवि सुर विद्याधर । पट खंडाविप कोटि काम, गयी रूप मनोहर ||१७||
कुथु मादि जीवह दयाल, जिन कुंधु समर्थ । मिथ्यामत तम विघट्यो, प्रगटघो परमार्थ ॥ १८५ ॥
अर श्रभ्यंतर बाह्य लक्ष, लक्ष्मी करी मंडित | चतुरानन चतुरपरि, धणु सेव पंडीत ||१६||
सुर मुकुट स्थित मल्लिमाल, पूज्यो पद पंकज | काम मल्ल प्रति मल्ल मल्लि जिनगत सत्य बज ||२०||
सुव्रत संयुत सुव्रत जिन, दिन दिनपती शसी ।
करय प्रदक्षरण मेरू समो सम दम की वसी ॥ २१ ॥
·
नमि जिन नमीत सुरेंद्र द, कुंद चंद जसोज्जल । लप्त सु कांचन सद्सुवर्ण, कर्णं सुखद जेह स्वर ॥२२॥
धर्म महारथ जैसो नेमि, नेमि जदुकुल मंडरा ।। सामेल वर जिनाभिराम, काम कुमति बिड ||२३||
नील वर्ण तनु पार्श्व स्वामि, कामिनि रती दूर || फरणपती पूजीत जित मदाष्ट, दुष्ट कमठह चूर ॥ २४॥
वर्षमान जस वर्धमान त्रिभुवन विस्तरयो ।
कलियुग मांहि सोक्ष कूप, उपकारज करयो ||२५||
वस्तु
ए चोवीस जिन जिन त्रिभुवन ईश ।
अतीत अनागत सहीत सदा, बाहू हू हैये भाव प्राणी ॥ संसार सागर तारण, कारण सहू मंगलह जातीय | वेहेरमाण बीसे सहीत, सहीत वचन सुखदान ॥ श्री संवह मंगल करो, शेवेन नुस विक्षात ॥१३
south.
यशोधर रान
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
गणधरों की वन्दना
मास दोमतीनो
भव भवन सहीत, हिना न गणधर वरणवू सार संक्षा सहीत भली परिए || १ ||
.
पमसेन छे यादि प्रादि जिनह चोरासी हवा ए । अजीत गणवर नेऊ, लेऊ गुण सिहसेन भाए ॥ २ ॥ गंभवनि गत पंच, सहित चारुषेणादिक ए ॥ व्रजनाभि आदि होय अभीनंदन सतत्री अधिक ॥३॥ सुमति एक सो सोल. चामर मुख्य गणाधिप ए ।। पद्मप्रभ सत एक दस सुवज्य चामर भू स्वामी ||४|| पचार' ले सुपार्श्व गणपति बलपूर्वक सरणी ए ॥ त्राणं चन्द्रप्रभ देव दत्त प्रमुख सदा भरण ए ॥ ५ ॥
2
पासी पुष्पदंत, संत विदर्भादिक सहीए || गारादि गोस, सीतलनि एकासी कहीए ॥ ६ ॥ ॥ कु प्रधान यांस, सत्योत्तर सत्यें भगोए स्यामठ श्री वासुपूज्य पूज्य धर्म प्रादि गणुए ॥ आ विमल पंचावन मेह, धीरा मेरू श्रादि कह्या ए ॥ गन्द्र अनंत पंचास, आशाजयि जयायं लह्याए ||८|| त्रयतालीस गरीष्ट, श्ररीष्टसेनादिक धर्मनिए ||
छत्रीस शांति चक्रेश, चक्रायुध भादिशमंदे ए । १ । ३ यांक पात्रीस गणेन्द्र कुंथु शंभू स्वयं प्रमुख अरति श्रीश गणेश कुंध मुक्षध्याइ होइ सुख ||१०|| यावीस विसार, पूर्वक गरिणमल्लिनि भलाए । मुनिसुव्रत नि मठार, मल्लिमुख सही गुण निलाए ॥। ११॥
गणधर सत्तर होय, सुप्रभादिक नमिनायक ए । नेमि जिननि अठ्यार, वरदत्तादि वरदायक ए ।। १२ ।। दशदिशि यश की वास, पासनि यस स्वयंभू मुख ए ।। गौतम श्रादि श्रग्यार, वीरनि विस्तारित सुख ए || १३||
एवं कारें जारि गरणघर संक्षा चौदसो ए ॥ बावन पावन होय, जोई श्रागम नित पभ्यास ए || १४ ||
૨૭
C
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जिम लही मोप श्रपार पार पायो संसार तरणी ए 11 रोग वियोग विग्रहास, भास ए कवि देवेन्द्र भरिए ।। १५ ।।
केवली एवं तवली
प्रनुक्रमि गौतम स्वामि, सुधर्माचारज केवलीए ।। अंतिम केवली जारिण, जंबू स्वामी कीरती भनीए ॥१६॥
भूत केवली वली पंच, संसार दुःख हरिए । विष्णुनंदि मित्र होय, अपराजित विजित स्मर ए ।।१७।।
रंग व पूर्व के ज्ञाता
,
गोवरधन गुणवंत वाणी भवी मा उद्धरे ए ।। भद्रबाहु बहूभेद, चन्द्रगुपती संसय हरे ए १८ दमपूर धरषीर, विशाल प्रादि मुनीवर हवा ए ।। जिनशासन उद्योत सबस मिथ्यात निवाराए ।। १६ ।।
एकादशांग सुजाण नक्षत्रादि सोहा मगाए || अनुक्रम श्री कुंदकुंद, पंचनामि कोडरमा ए ।। २०।३
प्राचार्य वन्दना
1
उपास्यामि मुनि संत समन्तभद्र भविश्रां तिलो ए ।। प्रतिबोध्या सिव कोटि की स्वयंभू गुनिलोए ||२१|| पूज्यपाद प्रसोध, जिनसेन सासने चंदलो ए
नोपम अकलंक वीर, वीर बौध जीतवा भलो ए ||२२|| गुणभद्रादि अनेक, पूर्वाचारज बहू हवा ए । तं व्याऊं धरी भाव, कामबोलित सिद्ध थषा ए ।। २३ ।।
भट्टारक बन्बन्दा
अनुक्रम श्री पद्मनंदि, पुण्यकंद पदोषरू ए ।। देवेन्द्रको मूति भयोभनि उछष करो ए ॥ २४॥ विद्यानंद मुनेन्द्र, तेह पट कमलदिवाकरू ए । मल्लि भूषरण माहंत, वचन सिधगुरण प्राकर ए २
घर स
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कषि
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लक्ष्मीचंद्र मुनिचंद्र, तस पद जलवि वृधि करू ए ॥ वीरचन्द्र विख्यात, अन्न त्यजि जस विस्तरथ, एकार। ज्ञानभूषण मुरूप, भूप सह मानि धणं, ए ।। लाड न्यात सणगार, शांति मूत्ति गौसम भणं, ए ।।२७।। तस पाटि उदयोचन्द्र, प्रभाचन्द्र सोहामरणो ए॥ वादि सरोमरिण वीर, हूंबई कुल कोडामणो ए |॥२८॥ अवनी अनोपम रूप, वादीचंद तस पर सोहि ए ।। वादी सयल सणगार, भवी प्रण जन तणां मन मोहि ए ||२९|
रास रचना का संकल्प
वहा
एह गछपत्ति श्रादेसथी, रास रचेवा आज । उद्यम मांडयो मन रली, सबन प्रानंदह काच ॥३॥
लघु गुण देखी पर तणो, गिरि सम लेखि अह ।। बहू नीज गबह नही, कहीनि सज्जन तेह ।।१।।
सजन प्रशसा
सुजना मन माखरण समू,जे कहि तेह प्रजारा ।। पर संतापि सज्जन तपि, माखण एह गुण हारण ।।२।। सजनासा करसेलडी, सुनू सुगंध सुधूप ॥ बाटीय पीलीय छेदीयु, दह्यो नदाखिक रूप ॥३॥ सज्जन नेवली बांसली, भला उपना भसि वंश || छेद्या भेयां बहु परी, मधुर वदि सु प्रसंस ॥४|| सज्जन रचतां कर थकी, स्वरमा जे परमाणु ॥ ते परमाणं करी रच्या, मेष चंदन चंद्र जाए ||५|| पावस रुतु घन ऊपगरें, ग्रीष्मे पन्दन चन्द्र ।। सजन सदाए ऊपगरि, सह जन नयनानंद ।।६।। सज्जन सरीसी गोठडी, दिन दिन दीउ देछ । दुज्जण दूर दीसि रषे, छायम पडो एक खेव |७||
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मशोबर रास
सजन सरीसो क्षण भलो, नही परस खल साथ ।। माया भली क्षरण छाहुली, न भली बाउल बाप | साधु साथि सादज सुखद, नहीं पिर खल खल सू' बाद ।। अमृत तथो स्परस जू भला, न भला विन मास्वाद ।।। दुग्जा भलि नीपाईउ, अरे विधाता जाण । काच विमा मणि केम लहे, तम विण दिवस वखाण ।।१। दुजणा घूहल दोए समा, दोस्रो दय संतोष ॥ अंधारो अवगुण गमि, ज्योति होए रोष ।।११।। मात थकी दूजण भलो. रणे वखोडो कोय ।। मात घोयि मल करी करि, दूजण जीभय धोय ॥१२॥ मनें नलो मुख मीठडो. मूक्यो दूज्जरण दूर ।। कठिण सिला सेवा लसू, लपसि भाग ऊर ॥१३॥ भण्यो गयो पण अवगणो, दुज्जरण घणं, घणं, दूर ।। मरिण मंडित सूनव्यहरि, प्राण 'करणी अति दूर ।।१४।। नीमून मणो दूजरणो, देपी विस्वास म ाण ॥ जिम नमतो नीचो भीलडो, बाण मूकी हरि प्राण ।।१५॥ विनय करो भई चन्द्र करो, तेहू पण खल नडे सोय ।। सिर पर परो पाएं हण्यु, पण फरणी रसतो जोय ॥१६॥ घणं सीखव्यो दिनहस्सम्यो, खल न मूकि दुष्ट अंस ।। दूध धोईयि जोहू पण, काग न होइहं हंस ।।१।। खल पुखसो गरढो हो, तोहू दुष्ट पण, न जाय ।। फल पाका इन्द्र बारपीना, किमे न मीठो थाय 11१1 दुज्जण जीको वरस सो, जेह तापि सह कोय ।। सूधि मारग संचार, उत्तम मज्मम लोय ॥१॥ सूकर दुजण दोए जणा, उपकारी महि मज्म ।। सूकर मेरी सूककि, दूजण दोख दिसूऊ ।।२०।। गुणग्राही सज्जन सदा, दुज्जण दोख अजोय ।। ए एह नोछि सभाबडो, दोषम देसो कोय ॥२१॥ सज्जन दूरथी दिल दुहि, खल मलयो दहिकाय ।। बेहू दाहक गुण सम हवा, कुझो किम भेद कहिवाय ।।२२॥
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बाई प्रजौतमती एवं उनके समकालीन कठि
भूतल उपकारी सदा, सजन दुज्जन बेउ । तेह भणी समता पाणीयि, भला भट भालि भेउ ।।२३॥ दोष लीयितो लेथ जो, करो कवित कवि लोय ।। जूउका तणि भयें करी, वस्त्र न मूकि कोय ॥२४॥ सुवित्त सुकवी करच सुणी, फो एक पामि उल्लास । कामिनि नयन कटाक्ष यी, करय प्रसोफ विलाप्त ।।२५।। तुछ छे मुझ मति प्रति घण, घण प्रेरघो गुरु भास । रास रचू एह तेह भणी, को मम करसो हास ।।२६॥
बिनय प्रदर्शन
थोता मन सुन भिर करी, सुगज्यो त्यजी प्रमाद । जोडता पद दोहलू, मम घरसो अनुवाद ||२७|| सप समो प्रोता भणो, गुण किहीयो एके जाण । दोष त्यजे दूर करी, गुण पादरि बपाण ॥२८॥ चालणी समवली जारपीयि, श्रोता वीजा भेद । दोष राखें हदि दृढ करी, गुणके रो करें छेद । २६।। एक नर काई लहि नहीं, सभा मांढाहो थाय । मिहिस पडधो जिमि मादणि, प्राछु मीरडोहो बाय ॥३०॥ गुरण जारणह पागल गुणी, करे ते विस्तार । दूर यो अलि कंज गुण लहि, भेक न नहि पिचार ॥३१॥
भास रासनी
बम्ब द्वीप भरत क्षेत्र वर्गम
जंदू पक्षि उपलक्षीयो ए, लक्ष योऊन जंबूदोपतु । दोए चंदा दोए दिनकरा ए, करय उद्योत जेम दीप तु ।।१।। सयल दीप सायर माहें ए, महीय मध्ये एहतु । लक्ष योजन उन्नत भणो ए, ऋणय गिरि नामि तेहनो बार नाम सुदरुसन तेह का ए, व्यु हो वने सोहें जे हतो। अपचरासुसुरि सेवयो ए, जयो एक सोल जिन मेहतो ॥३॥
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यशोधा रास
पंचोसर मोजन उन्नत ए, सत योजन आयाम तु । पोजन पंचास विस्तारें कह्यो ए, तारय भवीया सुठ'मनु ।।४।। कनक कलस करी खंडीयो ए, खंडीयो कुमतिनो मानतो ।। मानस्थंभ पागल भलाए, भली घंटा निधान तो ।।५।। सिखर ध्वजा घुघरी घणं ए, घमकि पवन संयोग तो।। लहलहिं गगर्ने दूरथी दीसे ए, दीठि दुरति वियोग तो ।। ६॥ कनकमय रतने जड़या ए, अष्टमंगल सहित तो।। रतनवेदी रली नामणीए, मणीमम बिब समेत तो 11७11 पंचसे धनष ऊनत मग ए एकः स पाठ प्रमार। तो ।। पंचवरण किरणें करीए, बी कीया कोटी भारत तो ॥६॥ भमर ससुर विद्याधर ए, चारण मुनी करें सेवतो । पंच चूरण स्वस्तिक करीए, करय पूजा नित देव तु ||६|| पंचामृत अभिषेक होइ ए, होइ त्यांहां नाटारंभ त् । प्रमरी किनरी जिन गुण गायिनिए, भांवि नाचि रंभ तो ।।१।। ताल कंसाल मादल भला ए. काजि अनेक वाजिव ता ।। भवीण जन भावि भावनाए पूजय जिन जग मित्र तो ।।११।। तेह मेरू पक्षण दसिए, दीसय भरत सु क्षेत्र तो। गंगासिंघु विजय करीए ए. सोहि खट खंड विचित्र तो ।।१२।। प्रारज खंड तिहां जाणीयिए, जाणे स्वर्गह खंड तो ।
मगध देश तिहा भलो ए, सहू देश माहि प्रचंड तो ।।१३।। मगध देश वर्णन
पुण्य तीर्थ करी अलंकरमो ए, गंगा यमुना मध्यतो ।। ठाम ठाम मुनि तपि बलिए. बनें वनचरछि अबध्य तो ॥१४॥ सरोवर छ जीहां सोहामशाए, भामणां कमल विस्तार तो ॥ परिमलें बांध्यां भमरलांए, करसते रण भएकारतो ।।१शा निरमल अलि करी पूरीमाए, हंस करें स्वर सार तो॥ सारस चक्रवाकी सणो ए, कलीरव करय अपार तो ॥१६|| वनवाडी विवध परी ए, पिरपेर तर पर जुक्त तो ।। आंवा प्रांबली प्रामलीए, अशोक मवंती अति मुक्त सो ॥ १७॥ बोलो वकुल वली वलसरिए, कदंब चंपक करंट तो ।। बाडी सींचे वा बालकाए, गांवती हाके परहिट तो ॥१८॥
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याई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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रेहेंट चीत्कार तीरिग सरो ए, थुत पूरेछि एह तो || कवण चतुर नर गावता ए, पावि विकृती न जेह तो १६ जाई जूई जासू अशीए, सोवन केतकी कोड तो ।।। मोगरा मालली मचकुंद ए, चालीनि भषोड तो ॥२०॥ नानि केर नानारंग ए, नारेंग में नागवेल तो ।। कमग्ग्स कोठां केवडा ए, केवडा यांना केल सो मार॥ दिशि दिस द्राक्षा मंडप ए, उपि छाया प्रचूर तो ।।। पीवडा पंथ चाला ए, संताप में करि चूर तो बा२२।। नींबू जांबू जंबीरडीए, बीजोरा बहुभेद तो ।।
यण भादि अनेक तरू ए. देखलां जायि खेदतु ॥२३।। क्षेत्र दीसि ध्यान्य लगाए, नीपना अनेक प्रकार तो ।। गग्दय कुणबी कन्यकाए, गावइ सरस अपार तु ।।२४।। ते सुरों वनि घणी हरणलीए, वेषी नचरि लगार तु ।। बोनय वेध्यांवली हरणाला ए, तुहू जाइ बनह मझार तु ।।२५।। बालकाने नयनें जीकीमा ए, लाजीया तेणी वार तो।। पंथी मा गान सुरणी करी ए, सांभरी पावे नीज नार तो ॥२६।। वदन नीहाल लता बापुडाए, जुड़ी नवि सकय लगार तो॥ एहवी गति विषई तरणीए, वीसरि विवेक विचार तु ।।२७॥ नयर पारणपुर प्रती भलाए, खेटक कट नाम तु ।। भरयां धण करिग करी घणं ए, करणय रमरण भभिराम तु ।।२।। अनेक लोक तीहा बसिए, हसए ते देवनो अपार तु ।। रूप संपदा चतुर परिणए, महाबन विविध प्रकार तु ॥२६॥ वन वन गिरि गिरि पुर पुरे ए, कनक तथा प्रतीवतु ।। जिन प्रासाद सिखरबंध ए, देखी हरर्षे भब्य जीव तु ।।३।। ठाम ठाम मुनीवर दीसिए, घेवंता उपदेश तो। नरनारी सणगार करीए, जिन पूजी सुविसेस ते ॥३१॥ वांदि मुनीने नीरमलाए, स्वामी वखल करि सार तु ।। च्यार वरण लोक पूरयो ए, देश सुषर्म विस्तार तु ।। ३२।।
दूहा कटक नदी सियर तणो. मंग नही क्षण एक ।। कटक मंडित कर नर तणां, स्त्री सिर भंग विवेक ॥१॥
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यशोधर रास
नीत राखें नप अति घणं, लोक प्रनीत विकार । ए प्राचार्य मोटू पछे, डाहा लहि विचार ।।२।। इरयादिक मोभा सहीत, सहू सुहीतकारी देश ।। भवी असा जन सद्ध सा भनो, नयरह मुगुण कहेस ।।३।।
मास समालोनी राजगृह नगर वर्णन
राजगृह नगर छि रुन्नडू तो भमारूली। तेह देश माहि वीसालतो, पाषल फरतो ऊनत तो भ.।।
सोनातयो सोहितालतो ॥१॥ राता रतन को सीसे जड़यां तो, गगन किरण विस्तार तो ।। मध्या न रवी ताबडतो भ०।। रातडो होयि जीहां सार तो ।।२।। नील रतन करी वेधी तो भ०॥ कही एक नीलो होय तो । रवी जारणे नील गिरि परी ।।तो भ० ।। कन्यु एक श्रण संग तो ॥३॥ अलि करी पूरी खातीका ॥तो भ०॥ दीटी रहि पोर मान तो॥ जाग लोभिणी सपिश तु म। सभी रही एक निध्यान तु ॥४॥ पिर पिर पेस्वीयि पेषणां तो भ०॥ पोठी पोल पगार तु ॥ मोटी मेडी मतवारणां ॥तो भ०।। दारणां वन सूसार तु ।।५।। हाट श्रेण सोहामणी ।।सो० भ०।। साहि मेडी श्रेण तो ॥ घवल हर ऊन न घणा ॥तो भा। सात खरणा सोहि तेरण तो ।।६।। नर सुदर सुरपति समा ॥तो भ०॥ भूषण पिहिरि बायतु ॥ लीला लिहिर यहि वारीमा तो भ०॥ दान पूजा करि भावतु || कल्पवृक्ष जिम सोहीसा ॥तु मला भला मोग भोगवे चंग तु ।। घरि घरि मोहुन्छव होय ॥तु भ०॥ होड नित नवारंग तु ॥८॥ मोटा मेडी मालीया !|तु भ०1। विस्तरि प्रगुरु सुघूप तु ॥ चूा चंदननि कस्तूरी तु भ०।। परिमल महे महे रूप तु || घरास कपूर वली एलची ।।तु भ०। पान बीडा अखंड तु ।। भोगी भला सुख भोगवि ।।तु भOI। नहीं त्याहाँ पाप पाखंड तु ।।१०।। मंदरि नागरी पदमनी तु ||भ०॥ रूप सोभाग सोहंत तो। हाव भाव अनेक परी तो भ०।। कंतह चीत हरंत तो ॥११॥ मलपती चालि गजगामिनी ।।तो भ०|| वीछीमा नेउर नाप तु ॥ करकंकण चूही कही तो म०।। खलकती मांजोयाद तु ॥१२॥
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आई अजीतगति एवं उनके समकालीन कवि
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कटी मेखला घिसी घूघरी ।।तो भ०॥ धमकि अतीही अपार तो ।। जाणे छटो हाथीयो तो भ०॥ उरवर सकिहार तो ||१३|| कोटि चंपा टोडर तुभमारुलो०। झूमणं झूलांक रसास तु ।। नाके मोती अनोपम ।।तो भ०॥ काने झबूकि झाल तु ॥१४॥ ग्वरो वांदतो मोती भरघों तो भ०11 पीमल सोहिगाल तु ।। सेसफूल रुडी राखडी ॥तो भ०।। आमही छिमरणी प्रालि तु ॥१५॥ दान सील तप भावना तो मला। करय मंगल गीत गान त । पात्र विविध ने मनरंगि ।।तो म०॥ दे विनीत दान मान तो ॥१६॥ जिन मुवन तिहां मामग्णां ।।तो म ।। सिखरबद्ध उत्तंग लो । भ्रूज तोरण कनक कलस तो म|| वाजिन बाजि सूरंग तु ।।१७॥ जिनवर बिन सोहामरणा तो म|| महोछय होनि गुणमाल तो ।। मनीवर तत्व पुराण सू॥ती म०।। कहिषर्म कथा विसाल तो ॥१८॥ वाडी अन तोहा सोहीयां |तो म०॥ फल फूल सहित अपार तु ॥ सुडा साद सोहि घरमा ।ता भ०।। भमरा रणभूणकार । १६॥ बाड बडा सेलाडी तणा ॥तो भ० यंत्रे पील्या रस अनु । झापेद्या सही उपगारि ॥तो भ०॥ कृपण तणा एह मेयता ।।२०।। मांबा रान रली भामणा । तो भ०।। सोहि तांहा सुखकारतो ।। कोएल करय टहूकडा |तो भ०।। विरहीनि दुःख अपार तु ।।२१।। सरोवर सोहि जल भरया ।तो भ०|| कमल कुमुद सहीत तो 11 हंस सारस सरस बोलि ||तो भ०।। चकवा चकवी सुमीत तो ॥२२॥ ते नगरीनु राजीत | तो भ. श्रेणीक राय सुजाण तो ॥ रूपि मनमथ जीतीउ तो भगा परतापिज सुभाण तो ।।२३।। सयल सजन धानंद करू तो भा जाणे पूरण चन्द्र तु ।। राज लीला लक्षण करी ॥ तो भ०।। जासों दूजो इन्द्र तु ॥२४॥ न्यायवन्त गुण प्रागलो तो भ०।। दानिज सो कल्पवृक्ष त् ।। समवित रयण मंडोयो तो भ०।। ऊपगुहन गुणि दक्षि तु ॥२५॥ तस मन रंजन सबढी ।तो भ.)। राणी चेलणा नाम तु ॥ सीलवती गुण बली ।।तो भगा। रूप सोभागनो ठाम तो ॥२६॥ समकिस व्रत करी मंडीत तो भ०॥ बोध नु मोडयो मान तो ।। एक जिह्वा हूं कि म कहू तो म०॥ सहू गुण तणो निधान तु ॥२७॥
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१३६
यशोधर राम
जिम रूकिभरणी सु माधवो || तो भ०|| रोहिण सू जिम चंद तो
तिम वेला सूश्र ेणिक । तो भ्र७॥ जिम रती
॥
मकरध्वज || तो भ० तिम खेलणा सू कि । सो भय
राज करे सुख कन्द तो ।। २८ ।।
इन्द्राणीसु' जिम इन्द्र तु ॥ राज करि सुख समुद्रतो ।।१३।।
वस्तु
श्री कि राजा २ करे तिह राज, भोगवि सुख सोहामा || धर्मवन्त वली न्याय पालय पर उपकार करय घणों ।।
प्रजा तणों सन्ताप दालय, जिनवर धरम करि भलो ||
अनेक भूप करि सेव, समकित गुणे करी मंडीयु | सेवे श्री गुरूदेव ॥ १ ॥ भास माल्हंतडानी
एक बार राजा श्रीक ए महालंतडे । सभा बिलो गुसावंत || सुरणे सुन्दरे । सामंत क्षत्री मंडयो ए |माण सहित विद्वज्जन संत | मु १
चमर ढालि बारंगनाए । मा जारिए गंग कल्लोल ॥ करवली कंकरण रणभृणिए सुखा नयर बालि पती लोल ||२||
गज अवगाह गजगामिनिए | मा० ) आंदोलि वारोवार ॥
सिर वरि छत्र सोहि भलूए | मा० नीर्मल यस विस्तार ||०||३|| अनेक क्षत्री नृप पर ए । मा० नक्षत्र सू जिम चन्द्र ॥ भालि भाव सभातणो मलो ए । सु०॥ सहश्राक्ष जिम इन्द्र || सुमा सांभलि कवीनी कवि कला ए | मा० | काव्य कतूहल चंग || क्षरण एक षटन ताए | मा० वादीओ बाद नारंग ॥ सु०॥५॥
सारी ग म प ध नीसप्त स्वर एमा० तान मानादि संगीत ॥ सुधां गंगावती नृत्यकी ए मा नृत्य जोवि और बात || सु०॥५॥ बंदी जन वीरद बोले ए । मा० छंद प्रबंध कवित्त ।। दान देवि मनबांधीत ए मा धनपाल का श्रागमन
घन धन ए नृप रीत || सु. ६॥
तीरिंग अवसिरि एक प्रावियो एमा० वनपाल राज दुधार || राज प्रादेशाथी हरीयो ए । मा० पोहोतो सभा मकारि || सु०||७| फल फूल भेट मूकी करीए | मा० बीनव्यु राय सीर नाय || घन वन त पुण्य करीए । मा० समोसरण अभिराम || || || विपुलावल मति स्वsो ए | मा०] महावीर जिन भवतार ॥ भाया अती सोमरणाए । । सु०॥ भवीभरण तारणहार ॥ ६ ॥
18
ग
1.
1
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गई मजितमती एवं उसके समकालीन कवि
वनवाडी सह गहगहीए |मा छ रुतु तो बह फल ।। एकि वारि प्रगटयाए ॥४०॥ वाय सुगन्ध मनुफूल ॥१०॥ कोयल करि दहकहाए ।मा०।। दूकडा भमर गुजार ॥ ममरि किनरी प्रपश्चराए ।।सुगा रासडा गावि सार ।।१२॥ सादी बार कोडी बाजीत्रए ।।मा011 मादल ताल कंसाल ।। भेरी मूगल घरण गहगहीए ।।सु०।। सरणाई साद रसाल ।।१२॥ अमर किनर खग फरणपराए 11मा०॥ करय ते जय जयकार ॥
विमान बिठा विद्याधराए ||सु मावया जान अपार ।।१३। रामाणिक की प्रसन्नता
हे वाणी सुणी नप हरषीए ||मा०॥ सींचीउ अमृत पार ।। सिंघासण पकी उठीउए सुका चाल्यो सात क्रम सार ।।१४।। धीर देसि विवेकसू ए मा० नमयो राय उदार ।। वनपालनि पसाय दीयोए ।।सु०।। सहू भूषण गलिहार ।।१५।। आनन्द भेरी उछस्नीए ।।माः ।। वांदवा वीर जीवंद ।।
राजा माल्यो कटक सूए ।।सु०।। अंसउरी सूप्राणंद ॥१६॥ श्रेणिक का समवसरण के लिये प्रस्थान
हाथी प्रा बहूं सणगारीयाए ||सु०।। घमघमि धूधर मास ।। घंटा घण, टंकार करीए ॥माoll सूदि मोनी जाल ।।१७। कानें हेम चमर पर्याए ॥मा| अंबाडी घजा फार ।। पंच वरण वस्त्र पहिरिमाए ।।सुगा सुभट हाथी हथियार ।।१।। जगमग भाला फल हलिए IIमाOI1 विठा मंकुश परी हाय ।। कनफ लगाम मोती जडयाए ।सुगर कंठ चमर सोहि साथ ।।१६। तुरंग चानि बमकताए ।।मा०।। रतन जडीत पलाण ।। गजबिसी राय चासीयूए ।सु०॥ चेलणा सहित सुजाण ।।२०।। नगर तणा लोक सहए ।।मा0।। नर नारी धरीय उवाह ।। शय चाल्या जाणी करीए ।सु०।। उधक हवा माहो माहि।।२१।। एकि वारि सह संचरवाए नामा०॥ सेरी समदं उत्तग ।। हाथि संचार करंतहाए ।।सुमा भीडाभि अंगो अंग ।।२२।। हार तूटि वेरिण छ.टिए 11०1। फाटि धीरयो रंग ॥ घाट पछि मोती कडेए ॥माछा तोटडी थकीम सुचंग ॥२३॥
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यशोधर रास
भवि भोला भला भवीपाए ।सु०।। भावी आदिवा काज ।। वीर स्वामीनि मन रलीए ।।सु०।। साथे सामग्री समाज ॥२४॥ श्रेणिक राजा नि देषियो ए ।।सु०।। समोसरण भवतार ।। गज श्रको हेठो उसरयोए ॥सु०॥ जाणि विनय अवतार ॥२५॥
सनि सनि राय चालीयो, प्रानंद भंग न माय ॥
छत्र चपर विरण गुणनिलो. सुधो मन वच काय ।।१।। मानस्तम का भव
मानस्थम्भ शोभा घणी, मान निधारण दीठ ।। बीस सहरा पम थारीयां, पढता हरष पईठ ॥२॥ गह सरोवर बली खतीका, फलवाडी बढ्नु फूल ,। कांचन गद वारु बापिका, जन्तु रहित अतूल ॥३!! ममरी किनरी अपहरा, करय ते नाटक साल' ।। उपवन वाडी फूलि फली, रतन वेदिका विसाल ।।४।। पंच वरण धज लहलहि, मशीपय गढ़ उत्तंग ।। कल्पवृक्ष पंकति भली, उन्नत शाथा अभंग ॥१॥ रत्नस्तूप तेज झगमगि, मगमगि धूपह कुभ || हविली हरषदीपि. दीसि नही किही दंभ ॥६॥ नीमल फटक तणों सुणो गढ उन्नत अभिराम ।। बार सभा तिहाँ रुवटी, भवीयां करे विनाम ॥७॥ प्रथम सभा मुनिवर तणी, कल्पनारी बीजी होय ॥ अजिका समा श्रीजीसणो, घोयी योतिक स्त्री जोय |८|| पंचमी वितर कामिनी, छठी नागिनी जाण || नागसणी सातमी सभा, पाठमी व्यतरनी बषाण ।।६।। नवमी योतिक सुरतणी, दसमी सुर कस्प बास ।। प्रग्यारमी नरवर सभा, बारमी तिर्य'च निबास ।।१०।। बाघ गाई गज सिंह सू, सर्प नकुल सुविचार ।। ग्राम सिंह मृग र महिष, करि हंस मार्जार ।।११॥ वातर मोढ़ा मोरड़ा, गरुड़ भेरंग अतीव ॥ समली सिचाणा सेहली, नेह लाग। त्याहा जीव ।।१२।। जात बैर छांडी करी, क्रूर जीव वहा शांत ।। भूष तरस पीडा नहीं, नही पाणी भन भांति ।।१३।।
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बाई अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
श्रीषला नमसे देखिए, पांगला पावि पाय 11 बुधा सुधा चालिए, मूंका जिए गुण गाय ॥ १४ ॥ निरोगी फांकी निर्देशक
रोग
बहिरा गुण श्रवण सुखी, समोसरण मही माय ।। १५ ।।
पोल छत्रीस सोहामणी, मणी तोरण गुणामाल ।। ठाम ठाम मोसी कां, मेडी मालीया सुविसाल ॥ १६ ॥
सुत्रधार तिहां धनपती, सुरपती माज्ञा तास ।। एक जिल्ला केम वर्ण, समोसरण सुख वास ॥१७॥
बार सभा मध्ये सही, जय सिहासन रंग ॥ बिठा जिनवर निर्मला, चतुरगिल उत्तरंग ॥ १८ ॥ दीठा स्वामी सोहामणा चोत्रीस प्रतिसयवंत || प्रातिहार्यंज कोडामरणा, हरपु राय महंत ॥ १६ ॥ श्रम प्रवक्षरणा देई नम्यो, पूजेषि भ्रष्ट प्रकार ॥ कर जोडी जिन वोरनि, स्तवन करि विस्तार ||२०|| मास त्रभ्यसनी
महावीर स्तवन
वीर जीनिस्वर विभुवन तार । जय जय स्वामी जगदाधार ॥ पाप संताप निवार || १||
नाथ वंस तो सगार । सिधारथ राय सुत जनि सार ॥ प्रीयकारणी मल्हार || २ || कुंडलपुर धरयो अवतार | बरस मेघ कनक मरिवार ।। नवबटमास अपार ।। ३ ।।
सुरपती जिन के घरयो । चोणी काय देवि पर धरयो । सुरगिरि पिर संचरों ॥४॥
अनेक उछाह मंदरगिर पामी । याथा पंडु सिला पर स्वामी ॥ सुर सुरपति सिर नामी । . ५ ।। एक योजन मुख मरिमिजाण । भाठ योजन गंभीर बखार ॥ मागम को प्रमाण || ६ || सहस अष्टोतर कुंभ राज करया खीर सागर निर्मल जल भरया ॥ इंद्री तेलि करे बरमा || ७ ||
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यशोधर रास
जय जय करंता जिन सिर ढास्या । जनम जनम नो पाप पखाला।
सहस्र नयणे नीहाल्या ॥८॥ एक सहश्र मात्रै सुम लक्षण । सणगारि इन्द्राणी विचक्षण ।।
इक्षण सुखद सरूप ।६। स्तकन गीत नर्तन सुखदात । वीर नाम त्रिभुवन विक्षात ॥
पूजां जिन मात तात ॥१०॥ कही वसांत प्राप्यो तब बाल । बाजि मादल ताल कसाल ।।
नाटक रच्यु रसाल ।११॥ निप्त निप्त सुरपति सेवा प्रावि । ब्रम्प काल भूषण पहिरावि !!
. अमरी किनरी गुण गावि ।।१२।। तनु भन भोग विरक्तं जाणी। लोकातक देथे स्तव्यु वषाणी ॥
जय जय करता वाणी ॥१३॥ सुरपति सियका सू ले चाल्मा । मिली सिंच म त्यो ।।
स्वामी संजम पाल्यो ॥१४॥ घात कर्म गिरि बम समान । प्रगटयो निर्मल केवलज्ञान ।।
तनु तेजि जिस्यो भानु ।।१५ धनदत्त रचित ता सभा सुसोहि । त्रिमुधन जन केरा मनमोहि ।।
अगि तुह्म सम नहीं कोहि ॥१६।। असोक वृक्ष सोहि सुखकार । पुष्प वृष्टि सुर करि उदार ।।
दुदुभी नाद विस्तार ॥१७॥ घोंसठ चमर अमर तुझ ढालि । दिव्य ध्वनि धर्मने मत प्रालि ।
भामंडल सुविशाल ॥१८॥ रतन जडित सिंहासन दीसि । छत्र त्रय सुर परि जेहै सिसे ॥
टीटी सहूं मन हीसि ॥१क्षा छाया रहित चतुर्मुस स्वामी । पुण्य फलि तुझ महरति वामी ।।
रक्ष राक्ष शिवगामी ॥२॥ मोह राक्षस मुखथी मुझ राची अनेक जीवने प्रसय जे पाखो ।
मुक्ती मारग मुझ दाखो ॥२१॥ राग द्वेष मोटा विसासा । इसया दीय माप संताप ।।
सलो तेह विष व्याप ॥२२॥
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बाई मजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
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मन उडयो मिथ्यात महामह । संसार कृ नासे पाग्रह ।।
निग्रह तहना कीजि ॥२३॥ काम पारधी मुझ मृग ने रंजाणि । नारी नयण शर मेरे संघारिण ।
तुझ बिण कोण राखी जारिण ॥२४॥ मासा नदी सागर संसार ! लोभ मगर मुखें पडयो गमार ।।
राक्ष तू जगदाधार ||२५।। विषय गहन इन्द्री गज रुः । तृष्णा भगन स्वासर प्रति कुद्ध ॥
तिहां थी राम्न समृध ॥२६॥ दोष कंटक भव वन मझार । गर्भ पिसाच भमाडि अपार ।।
ते मुझ फेरो निदार ॥२७॥ हाकिनी साकिरणी मूत विताल । वाघ सिंघन नाडि विकलाल ॥
तुझ नाम ध्योता दयाल ॥२८॥ मगि मंगल कारी वीर जीरेंद्र । प्रभाचन्द्र वादीचन्द्र गणेंद्र ।।
स्तवि विक्रम देवेन्द्र ।।२६।।
एणी पिरि बीर जिरणवर तण, स्तवन करी सुजाण ।। गरावर गोतम मादि करि, मुनी वांया सुबखाण ||१|| मनुज सभा माहि बीसिज, भाव सहित गुणवंत ॥ धर्म कया रस साभली, दीप धुनि जयवंत ।।२।। योजन मान सु विस्तरी, वाणी प्रमिम समान ।। प्रगटी वीर बदन घकी, निर्मल जिम हिम भान ॥३॥ तत्त्व पदारथ संभली, पाम्यो परमानन्द ।। पुनु चछाय सभा थकी, बंदीमा गोयम गणेद ।।४।। भाव घरी मन माहिं घणं . पूछि कथा विचार ।। राय जसोधर तेहनी, कहो स्वामी दया मंडार ॥६॥ श्रीमंतो जिननायकाः शुभ चतुर्विगन् महाभयंकाः ।। त्रैलोकेश्वर पूजिता, जितमदाः सत् पंचकन्याएकाः ।। अहंन् श्री परमेष्ठिनः सुखकपः सत्प्रातिहार्याष्टकाः ।। श्री देवेन्द्र सुविक्रमस्तुतपदा: कुर्वन्तु वो मंगनं ॥१॥
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यशोधर राम
इति श्री यशोधर-महाराज-चरिये रासचूडामणो काध्य प्रतिछन्वे भदेव कवि भी विक्रमसुतदेवेन्द्रविरचिते श्रेणिक समवधारणा प्रागमन महावी रस्तवन भोगौतम प्रश्नकरणो नाम प्रथमोऽधिकार ।।१।।
द्वितीय अधिकार
मास हसीनो यशोषर राणाको कपा
गौतम स्वामी वेव | मपरीय वागी उच्चरया हेल ।। वंत किरणें करी हेव । जनमनना तिमिर हरया हेल ।।१।। मुरगी श्रेणिक सुविचार | राय जसोषर कवा तरणो हल ।। पछि दया भंडार । छेदसि मिथ्यातनो घणो हेस ||२|| प्रगटि दया अपार । पुण्य होय एह सामलि हेल ।।
पाप तपो निरवार । मन तणा संसय सहरले हेन । योष देश वर्णन
अंजीप मझार । भरत क्षेत्र भावि भणो हेल ।। पारज खंड तेह ठाय । योष देश कोगमणो हेल |भा कुकुंट पाति गाम । ठाम ठाम सोहि रुपमा हेल ॥ . प्रनेक लोक विनाम | सजन पसि धर्मी घणा हेल शा गिरि कंदरा वनमाहि । हाथी हीहि तिहां मलयता हेल ।। सीतल तस्बर छाहि । हापणी सूरहींजि खेलता हेल ||६|| कहीं एक हरीणा रान हरी ने भय नाहा ठो फरि हेल ॥ मुनीवर भरयां ध्यान । तेहि तशी मात्रम अनुसरि हेल IIII वाडी धन ठाम ठाम । कपूर कदलो कोमस्न दीसि हेल । नालकेर खजूर । पूग तणां तर परही से हेल || ताल तमाल हे ताल । सरल सोहि वजन समा हेल ।। कोमल मध्य रसाल । देवदाह प्रादि उत्तमा हेल || तज पत्रज मागवेल । एलची सघी फलें करी हेल ।। जायफल सवंगह मेल । मरी घेलछि भमके भरी हेल ॥१०॥ द्रास्व मंडप विसाल । छाया फल फरी लंक हेल ॥ पंथीया तीणि काल । भूष तरस तह विसर्पा हेल ।।११।। सरोवर नीमल नीर | काल पोयणे घणं मंडीईयो हेर।। माया वनह गंभीर । देखी माननी मान छडीया हेल ॥१२॥
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खाई प्रजोत्तमसी एवं उसके समकालीन कवि
भमरा रण कणकार । होइ कोएल ना टहुकड़ा हेल ।। कामनी कंत सहीत । सुणतां ममतना पूंटडा हेल ॥१३।। खेलि कत स तेह। नेह घणरि तेजडा हेल ।। रूप सोभागह गेह । गावय सरम गीत गोरडी हेल ।।१४१1 ता अनेक ताणे देश । निपजी सरस सोहामणा हेल ।। गाम गाम मुविसेस । गिर सरषा ध्यान देग घणां हेस ॥१५॥ जिरावर तरणा प्रसाद सीस्त्र रे । धजा घणे लहलह हेल ।।
घंटा म से करी साद । गर्व म फरो स्वर्ग इम कहि हेल ।।१६।। राजपोर मगर वर्णन
तेह देश मझार । राजपोर नगर छि प्रति भलू हेल ।। अमरावती जिम सार । साही पाखल करी संकल्पो हेल ॥१७॥ गर, ला मावार I (H ATH इसाई हे । कंत सगोठ विलास । हाथ चालता बलाके चूडी हेल ।।१८।। रतण तणी छि भीत । नीज प्रतिबिच ने देषीयो हेल ॥ मंत सू मांडि खंत । प्रवर नारी सूप्रेम लेखियो हेल ।।१६॥ प्रांगण रतनाम ममि । निश तारा प्रतिबिंबिया हेल ।। मोती कपनो भ्रम । हंस चरता विलखा यया हेल ॥२०॥1 दोसि पङमा मोती । तेहमें पण हंसनथ्य चरि हेल ।। दुजुरिण छे तर्यो होति । सहीते सज्जननं ते हेवो गणि हेल ॥२॥ धावक सुजन अपार । दान पूजा करि सणो हेल ।। पात्र प्राप्तीसय सार । पंचापर्य होइ घणो हेल ।।२२।। उपवनछि उत्तग । खडो कली निर्मल जल भरी हेल ॥ पीठी परिमल रंग । फूल महिमहि तिहा बहूं परी हेल ।।२३॥ जल क्रीडा करि नार । र्फत सरीसी सोभागिणी हेल ॥ ते नगरी मझारि । दीसि नही को दो भागिरणी हेल ॥२४॥ नर तिहा आणं इन्द्र । रूप संपदा भोगने गुणि हेल ।। गुण लक्षण समुद्र । बरम घगी छि तेह तरणो हेल ।।२५॥ भवर मिथ्यात लोक । वरण च्यार तोहां बसि हेल ।। नही कोहनि दुःख भोक । धन करण तेस तनि उल्लास हेल ॥२७॥ राजभुवन उत्तंग । कनक कलस धजा सोहीयो हेल ।। कटिक मडप बहु रंग । रासारतन पंभि मोहीयो हेल ॥२७॥
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यशोधर रास
जाणे नप जस एह । प्रगट प्रतापि थीर घरपी हेल ।।
लास रतन तणा तेह । तोरण सोभालंकरपो हेल ॥२८॥ मारीवस राजा
मारिवत्त याहां राय । राय भनेक घण सेवीयो हेल ।। गुन्ज प्रताप जुटा जिनि म गोद प्रिंग कीगो हेल ।।२।। गम पोम पसंभ । रप पाला पार नहीं हेल ।। चौदह विद्या सुलक्ष । न्यार नीति तेहनीरिक हेल ॥३०॥ सौम्पगुरिंग चिम चंद्र प्रताप गुरिण सूर जाणीपि हेल ।। लीला गुणि यम द्र। रूपि कामपणागीह हेल ॥३१॥ ममें पण मिथ्या भाव । क्रूर मसीछि प्रति घर हेल ।। तेह तरणी नारी सुभाष । रूपवंती नामि सही स्पणी हेल ॥३२॥ तेह सरीसी राम । राजपासि वपरी विण हेल ।। विषयासक्त सभाय । धरम न करि एक क्षण हेल ।।३।।
नगर में भवानन्द जोगी का प्रागमन
तेणि प्रयसरि नगरी माहि, जोगी पाषु प्रचंड ॥ भरबानं नाम तेह तण, बोलि बात बीतं ।।१।। अनेक जोगी बीहामणा, वीसि तेहवि साथ ।। पात त्रिशूल पादिरी, भायुष घि सेह हाए ॥२॥ जम डम डमरू हाकलां, बजावें बीकराल ॥ सिर सींदूर लांबी जटा, कहा ले खेत्रपाल ||३|| जोगी नागाधि केरला, शिवरायांग ।। हरण पमर पिहिरि केटला, बाघ मर्म पिर रंग ॥१॥ कसोटी गावली केटला, बावरी झाट जटान । हाक दीह एक दूरंपरा, जीव तरणा तेह काल 1॥५॥
भास नारेसूनानी बोमी का रोल रूम
जीव हंसक ते पापीया । नारे सूमा । हीरियन पलंत ।। पक्रनाले पण फेरवी ।।ना०1। उनपर प्रागण हरंत ।।१।।
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सई अजीत मति एवं उसके समकालीन कबि
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अर्द्ध चंद्र फरसी बडि नो०। जाणे मम तणी डाळ ।। मद्यपान करि घणए नाका हाक कठि अनी गाढ ॥२॥ हाथे प्रगनना खापरी ना०॥ लोह काछी करि उन्ही ।। जीभि पारि ज्वाला पीयि ||ना०|| प्रागी प्राकाहावि खेद ज्ञान ॥३॥ गुपत खड़ग के तावहि ||ना०॥ गरन केलला भीडमाल । लोह जूडीला कडी धरि ना। बली छरी विकराल ।।४11 को शनिंगी बजावता ना०|| दुर्घर शौंगडां नाद ।। शंख बजावि ते सवि ।।ना। मांहो माहि करि वाद ||५||
खि भांग धतूरडो ॥ना || राता नेअछि तेह ॥ तू बडी पत्र घणो धरि ||ना ॥ भीष मांगि गेह गेह ॥६॥ केटला कोट कांथडौ ॥नाग। चीथरां माला हार ॥ चीथडायु टोप शिर घरि ||ना०॥ केटला शिर जटा भार ।।७।। .. सो मुदा दिनेला । स पूर बेहू बांग । लडथडता हीडि घणमा || गाचि करि गीत गान ।।६।। हाथे दोरयां कूचरर्या ॥ना| रीछा केतला हाथ ।। चीत्रा वाघ बचां घरया |ना केटला मांकडा साथि ।।६।। किनरी जंत्र बजाक्ता ना० सेता गोरख नाम । विलय वा ह्या भुला भमि ना! पाप मिथ्यातनो ठाम |1१०11 जोगरिए साथि साकोतरी नाO डाकिणी सांकिणी भेव ।। जाणे पालती व्यंतरी नाOII नाक तणां तरा छेद ॥११॥ अस्थि तणां काने कुडल | नाता। संखलाना गलि हार || अस्थि तणा हाथे कहा ॥ना011 कोट सीगी सणगार ।।१२।।
व्यं ताल काल पंचाक्षरा |ना०॥ चेडा चेटक भनेक । कामण मोहण उच्चाटणा ना! कूड कपट अविओक ।।१३॥ विषयी विसनी जुमारीया ॥ना०|| जूठा बोला जपाट ।। प्रापें भूला पर भोलवि ॥नाना ते किम दाखि सुवाटि ||१४|| एहता जोगी जोगिए मली ॥ना०|| देक्षो भैरवानंद ॥ लोकमानि मिथ्यातीया ||नाot| विवेक नहीं मतिमंद ।।१५।।
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यशोधर रास
बोगी द्वारा रावण विभीषण प्रावि को देखने की गर्वोक्ति
सांबू कूछ नख मोटेरठा नामोरज पीछनां छत्र ।। लोक पूछि वात ते कहि ना०/ फांकल बोलि बिचित्र ॥१६॥ रावण लगानगो ना! सो गनी ब्रह्मा ईश्वर देखीया ना०।। जमीयो लक्षमी साथ ।।१७।। हरी सू' मीठी करी गोठडी ।ना०।। कोधी बलभार साथि ।। पांचे पाणवा मानता ॥ना०॥ मंत्रषतिमाहारी भाख ।।१।। रामलक्ष्मणे वषाणीयो |ना०)। सीतानि पूजा कीथ ।। अनेक राणा राय राजीया ||ना०॥ तं मूठ वादि प्रसीध ।। मारीरत बात सांभली ॥ना०।। तेंडाव्युतं ततकाल ।। ते प्राव्यु ऊताचलो ।।ना०॥ साथ जोगी विकराल ॥२०॥ रायि प्रावंतो देखीयो ।ना|| साहामु चाली लागु पाय ।। कर जोडी राय वीन बि मागाससि करो पसाय ॥२१॥ जोगी किहि राय सांभलो ॥ना०॥ समल बीधामू पाश हूं। तूसूतो राज देऊ, ना| रूसू तो सवि वीपास' ॥२२॥ तंत्र मंत्र यंत्र घणा एना॥ पिर पिरधाऊर्वाद ||
विद्या प्राकाश गामिनी नाका विद्या प्रजुसीकरणछि प्राद ।।२३।। रामा द्वारा प्राकारा गामिनी विद्या प्राप्ति की इच्छा तन राजा प्राचंभीयो ।
नायोल्यु मधुरीय वाण ।। प्राकाशगामिनी मुझ दीयो ना०॥ विद्या सम्हे सुजाण ॥२४॥ नोगी द्वारा उपाय बतलाना
जोगी किहि राजा सांभलो ना०॥ विद्या सीझवा ऊपाय ।। चरमारीजे देवता ||ना॥हनी भगत जो थाय ॥२५॥ थलचर जलचर नभचरा ना|| जीव जुगम प्राणदि । देवी प्रागलि हिंसतां गाना || तलक्षण दूसि देधि ।।२६।। दीइ विद्यानभ मामिनि ॥ना०॥ मवर घणेरी रध्य ।। दुर्भक्ष रोग मरकीटल ना।|| संकटटलि प्रसीध ।२७।। रायते वचन प्रमाण ना| मूकपरिण प्रपार ।। कुगुरि भोलभ्यां जीवडा ।।ना|| कुरण न पडि संसार ॥२८॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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ले नगरी पक्षण दिसा ना| पंडमारी विख्यात ॥ देवीकूर कुरूपिणी । नाका वाहलो तेहनि जीव पात ।।२।। निसा विण ते पापणी ॥ना करि अनेक उत्पात ।।
राजादिक मिथ्यातिया ना०।। समय करि जीव घात ।।३७|| पशु पक्षियों के युगलों को लाना
देवी मढ राय भावीयो ॥ना|| लोक सहीत भजाण ।।
देवीनें पाए पडयो ।।ना०|| मनलाउ घणी चार ॥३१॥ अलचर जीव
तीन जुगम तिहां प्राणीयां ।ना०|| कूबाड छाग पराह ।। हरण रोज ससा सांबरां ॥ना०।। महेख मतंगज घोडु ॥३३॥ रीर नीता करू सान
गनुन नीकाल : साप सरड पहली धामणी ।।ना मारि स्वान विकराल ॥३४॥ सर करभा सृषभादीक ॥ना| वनचर प्राण्या अनेक ॥ समलि सीयारणा सारसा ना०। हंस वायस चली भेक ॥३५॥
नभचर गीत
मोर चकोर लवारडा नासाकोयल कीर कपोत ।। चकवा चकवी पारेवा ।।ना०|| टीटिभ गूहरु बोत ।।३६।। महुसी सोलीना खडगीश्रा नालाकोंच मेंरड गुरूड ।।
एह प्रादि नभचर घणा 11नागा बांधवानवास किंऊड ।।३७।। जसपर गीत
मछमगर जलमारपसा ॥ना|| करचला काचबा भर ।। जलहस्ती आदि जलचरा ।।ना०॥ बहू प्राण्या ते क्रूर ।।३।। मह पालि ते बांधीना ।।मा०॥ वापडा करि पोकार ।। भूष तरष प्रति पीडीयां ना || भयकरी कांपि प्रपार ।।६।। पुरध्दारिण खणी मही ||ना०॥ खाउ पाउचा ठाम ठाम ।। पापी हंस कलोकनि ॥ना। मरक जावाने काम ।।४।।
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यशोधर राम
व्हा
खडग ऊघाडो झलकतो, बीज तणो झत्कार ।।
केश कलायछि मोकला, जलधर सोभा धार ।।१।। मानव युगल लाने को प्राज्ञा
कोटवाल राय तेडीयो, बंडकर्मा नस नास ।। मनुष्य युगम प्राण्यू नहीं, ए हवू सू तुझकाम ।।२।। राय नम्यो भयभीत तदा, कोटवाल ततकाल ।। मनुष्य युगमनि कारिणि, जण मोकल्या जिम काल ।।३।। ते चाल्या ऊतावला, दोहो दशधामि धीर ।। तीणि अवसरि तिहां यावया, मुनीसागर मभीर ।।४।। भास सामेरी माहिपण कहीयि, केदारा माहिपरण कहीयि
मुनीचर्चा
एक प्रात्मा ध्यान मन धरे । राग द्वेष दोए परहरि अनुमरे ।। त्रण्य रत्न अति नीरमलाए । सहीए ।।१।। याय गारव अण्य सन्य टालि । अण्य गुपति मुनिवर पालि ।। अजूमालि । घण्य प्रागमि करी त्रिभुवन ए । सहीए ।।२।। च्यार कषाय विहंडमा । यार बंध कोय खंडणो ।। मंत्रणो च्यार संघ तो घणं, ए कामहीए ॥३॥ पंच याचारिज रंजीउ। पंच ग्राश्रन वल मंजीउ || गंजयो पंचदीय दल दुरघरोए सहीए।।४।। पंच संसार दु.ख वारण। पांचमी गति सुखकारण ।। तारण पंच परम गुरूनित ध्याइए । सहीए ।।५।। षटकाय जीवरक्षण ! खटद्रव्यू कहि लक्षण विचक्षण ।। षरदर्शन जन जन प्रतिबोधवाए ॥सहीए।।६।। पटकालनी स्थिति लहि । श्रावकना षटकर्म कहि ।। मन मांहि सात तत्व चितन करें सहीए।।७।।
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बाई जीतमति एवं उनके समकालीन कवि
मात भय थकी वेगलो । सात गुणस्थान ऊजलो 11 नीग्मलो सांत दांत दांत गुगा जेहनोए || सहीए ॥ ८॥
आठ ध्यानको ॥ सोहो जलो चीतवे धानमा निति दिन ए ॥ सहीए ॥ ६ ॥ घाट महा सिद्धि दायक | बाऊ महा रिद्धि नायक || गायक अमरी किनारी गुण बेहनाए । सहीए।।१०।।
नव नयन नोरमल जाए । नवविध सील घरि सुख खां ॥ मन मारिए केवल सब्धि गुण ए || सहीए । ११३ । मुनि का उपदेश
दश लक्षण धर्म प्रकाशि वस धर्म ज्यान मभ्यासे || प्रति भासे । दश दिसि जस विस्तोरी ए ॥ सहीए ।। १२ ।। अपार प्रतिमा उपदेसि । लहि श्रग्यार अंग विसेसि || नोसेसे बार अग श्रुत पाठक ए ।। सहीए ।। १३॥ बार भेद आरि । वार अनुप्रेक्षा मनधरि ॥ विस्तारि बार बरत श्रावक तरणाए || सहीए ।। १५ ।।
तेर प्रकार चारित्र धारी। चौद मल तरो निवारी || क्षयकारी । पनर प्रमाद नो अति घर ए ।। सहीए ।। १५ ।। भावे सोले भावना । सत्तर संयम पालि पावना | सोहामणा । यम नीयम धार घुर लगि ए ॥ सहीए ॥ १६ ॥
प्रहार सहस भेद सील रात्रि । उगणीस जीव समास भाखे || नाय । दुष्ठ दोष वीहा मगाए || सहीए || १७ ॥
बीस मागंणा भेद कहि 1 एक बीस चोगुणा लक्ष गुण बहि ॥ गे सहि 1 बावीस परीसह दुरंधराए । सहीए ।। १८ ।।
चौबीस जिन दिन दिन ध्याइ | पंचवीस कषायनि न वीठाय ॥ कविगाय अनुदिन गुरा एह मूनी तरणाए । सहीए । १६ ।। वरय मूलगुरण अठावीस । पाठक गुण घरे पंचबीस || छत्रीस | छे श्राचारज गुरण अलंकरया ए || सहीए || २० || एह प्रादि गुण प्रति वरणां । एह गुरुनें ले सोहामा || भामला | गुरु गुण गावें वेवेन्द्र कवीए ॥ २१ ॥
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यशोधर रास
दूहा
पांचसो ममियों के साथ सुबत्ताबारीका मागमा
पांचस मुनीदरें परवरची, वरभो संयम श्रीचंग ।। सुदत्ताधारण नाम तेह तणं, तप संय में अभंग ॥१॥ नगर समीपें प्रावीया, मुनिवर स्वामि सुजामा ।।
अनेक वृक्ष करी अलंकरपो, दीठो तब उखान ।।२।। बन को शोमा
प्रांबा ऊनत प्रति वनां, भोरचा तेहां अपार ।। कोएल कुहू कुहुका करें, सुरगतां काम बिकार ॥३।। मालती मंदार मोगरा, फूल तणा मकरंद ॥ गजता ममर भर्मि भला, वायू वाय प्रति मंद ।।४।। सेवती सोवन केतकी, पाडल परिमल पूर ।। वेलतणा पर पिर पिरह, करन पसारय सूर ।।५।। भूख दुखीयां दुःख पीसरि, सुखीमा होइ सुख भूर । हुइ व्यरहणी दुखि दूसरणी, बेह भरतारछि दूर ||६|| फूल पगर पसरयां घर , फलवसी पत्र ठाम ठाम ।। नीरतणनीझर तिहां, व्यापय विषयने काम ।।७।। ए मुनिनित गत्तं नहीं, इन बहूराग सचीत्त ।। प्रवर स्थानक नीहालवा, चास्या मुनी सुपवित्स ।।८।।
मास ब्रम्हगुणरामनी मशान वर्णन
से मुनीए । चालया जाम । ताम मसाण दीठो घणोए ।। मडो तिहां ए बलि अपार । रौद्र दीसि बीहामणो ए ।।१।। वीहायकाए । ऊठया बहु घुम । अर्घदग्ध कलेवर पडयां ए॥ ठाम ठाम ए पड्या बहुत । गली गयू मास एह्वां मडाए ॥२॥ विकसपाए । मुखदीसिदांत । हूबलीए घणी घणीरउ बडी ए ।। सीमालीयांए ताऐ सास । पाकासे गृध लेई उड़े ए ॥३।। कूतरा एव लगि अपार । बढता माहोमाहि हहडहिए ।। वायस एक रके बइठ । कागिरण घर्ण, कलगली रहिए ।।४।।
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बाई मजीतनती एवं उनके समकालीन कवि
अवल्यां ए का अंबार । हा पयां अती यायो ५ ।। देषीउ ए मसि पणो रौद्र । कायरनो मन कांपीयो ए ॥५॥ तिहा बहार धरी करी सोक । लोक बहु बापडारडे ए ।।
वाही पाए मोहना तेह । बाप बाप कही मही पडिए ॥६॥ श्मशान को भय नकता
नीर वीर ए । एक कहंत । माता सुत नारी नाम लीयिए ।। तेडाए साथि सजन । बाहालाने इम नहीं मूकीहए ॥७॥ एणी पेरें ए । ए करीमबिलाप । मोहीया रडेते बापडा ए॥ करता ए प्रती घणं रीव । पामये प्रतीही संतापम ए ||८|| निणसमे ए. भूतजोटींग । ऋ र रूपि हाक जु करिए It डम डम ए डमरू प्राडा हाक । इह डाह नाद कायर बरें ए | वाघ सित्र ए महिस्वना सा । बाबरी झाट बीहामणा ए॥ झव झये ए खडग सेह हाथ । स रमतो भूत भूमि घणा ए॥१०॥ डाकणी ए ब्यंतरी कर । सीकोतरी हीडे घसमसीए ।। देपी ए कलेवर भूर । हङहडाट हेडवाहसें ए ॥११॥ सिरविण ए धड धाड धामंत । धरावण शिर पण ऊलिए। ठाम ठाम ए जडता जाग पूला अगनी त बलें ए ।।१२।। जोंगटा ए साषि व्यताल । तू बलीत्रण्य टोली करी ए ।। राधिए अनेक नवेद । होम करय बढि परी ए ॥१३॥ एह ए प्रति बिकराल । मसाण दीठो मुनीवरि सहीए !!
होइए धैराग्य बृधि । अपवित्र माटि रहि नहीं ए ||१४|| श्मशान में ध्यानामान होता
ज्याहां पी ए पड़िते दृष्टि । प्रासुक ठाम ते जोईयो ए॥ सांभसीयि ए रडिते साद । साघु संघाष्टक होहीयो ए ॥१५॥ मोटीए सिला प्रपार । तेह ऊपरि प्राश्रम कर यो ए॥ परिकमें ए सहू सूजाण । विहि कासग भरयो ए ॥१६॥ पडले ही ए बेठा ठाम । आवश्यक करे मापणो ए॥ कोइ भणे ए अंग ने पूर्व । प्रागम त्रिविध कोडामणो ए ॥१७॥ हिसा तणो ए जागीय दीस । चोवीहार सबे उपरमां ए॥ संतोष ए घरी निसल्य । ध्यान मौनकरी प्रलंकरमा ए॥१८||
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यशोधर रास
अभयरुचि एवं अभयमति का गुरु के पास पाना
ती समें ए मुनीवरे दीठ । अभयची प्रमयामती ए ।। माहां नहां ए नव दीक्षत । भूखे कोमलाणां प्रती ए ||१६॥ प्राणी प्रए करूणा भाव । वदय वचन सुदत्तगुरु ए ॥ तेंडीय ए दीयि पादेश । वछ यथा सुख तम्हे कारो ए ।।२०।। लागीयाए तेह गुरु पाय । काय स्थीती काज वालीयां ए॥ जोडली ए ब्रह्मचारी नेह । ईरीयापंथ नीहालीया ए ॥२१॥ तंगों समिए सेवके तह । ब्रह्मचारी युग देखीया ए ।। रूप ए मोहि अपार । वाम रती समलेखयां ए ।।२२।।
यगल को देखकर विभिन्म विचार
माहोमाहि ए । करयते वात । भ्रात यापणा घणा वम दल्याए । लक्षण ए रूप विक्षात पात काररिंग जोइता मल्या ए ॥२३।। पामसे ए देवी बल आज । काज राय तणं सीझसे ए॥ देखीयए युगम सरूप । भूप आपण प्रति रीझसे ए ।।२४।। सांभली ए किकर भास । भाषा कोमल अभय रूचीए । बोलीयो । बेहेनर साथ । हाय रास्त्रो मन करो सूची ए ॥२५॥ सह, गुरु ए का बहू पैर । परीसह जीको तप फल ए॥ तेह भगपीए घरीभ समाध । बाब त्यजी थाउ नीश्वलए ।।२६॥
संसार स्वरुप
जीवने ए ममतां संसार । पार रहित दुःख पनि ए । नरके ए शातें माहि । काहिं सुख नहि नीपजे ए ।।२७।। मूल तृषा ए पाहिए रीर । नीर अन्न रती नवि मल्योए ।। छेदें तनू ए नारकी पाप । बापडो जीवडो टलबत्योए ।।२८।। वनी भम्यो ए वार अनन्त तियं च गती जीवडो ए॥ यिहितो ए भार अपार । सार वहूरसो रखवडयो ए ।।२६।। मुखिए तरसे उ दुखी उदास । भास आनंद करि वलीए ।
छेदन ए भेदन माद । दु:स्य जाणे ते केवली ए ॥३०॥ १. अन्य रचमानों में ब्रह्मचारी के स्थान पर क्षुल्लक भुल्लिका पाय मिलता है।
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हाई अजीतमसि एवं उसके समकालीन कवि
मानव ए गते मझार । भारत रौद्र ध्याने पडयो ए॥ दारीद्र ए रोग वियोग । भोग भूलो कामें नडपो ए ॥३१५॥ देवगतीए माह प्रमाण । मानसीक दुःख व्यापीयो ए ।। देखी सुख ए प्रचरहरीष । बीघीयो मन प्रती कांपीयो ए ॥३२।। एणी पिरिए चोगती माहि । एह जीव भमयो दुखि भरयो ए।। भोलो ऐ भोलब्यो भूर । कुगुरु कुदेवन ऊपरयो ए ।।३३।। पुण्यनिए योगि जाण । वाणी जिन तणी पामीयो ए॥ श्रीगुरु ए तरणे पसाय । तेहनें सीर नामम्रो ए ॥३४॥ पामयो ए श्रावकाचार । सार लघु दीमा भलीए ।। प्रतीमांए भेद अग्यार । धारक हवा ममें रलीए ।।३५।। भव भव ए लहीह प्राण । पण समकित प्रत नवि मलें ए । इम जारसीए तिम करो गान प्रात भर निर लिए : ले से ए जीवराय दीक्ष। दीक्षा सीक्षा लेसे कोनहीए ।। ते भणीए । देहेन' सुजान । प्राणो मन जिनपदे सहीर ।।३७।।
तब बोलीए बिहिनी बोल । ब्रह्म सुणो वाणी मुझ तशीए ॥ पूरव ए भवे सो भ्रात । हिसा कीधी वीहामणी ए ।।३८|| पीठनो ए फुकडो एक । देवी पागल हण्यो ए ।। तेइ फलिए । पांमयांए दुःख अतीव । भव सातिते मुझकले ए॥३६॥ एक हवि ए लाधु धर्म । कल्पद्र म चितामरणी जसो ए ॥ समीकीत ए कर सूजतन्न । मन्न रहनो समय किसो ए ॥४०।। इन चीतीए मन दृढ कीध | लीध अगसण दोए परीए ।। जीए तो पारण जाण । नहीं तो प्रा प्रणसण मनुमरीए ।।४।।
दूहा
सिपाहियों द्वारा अपने मागे करना
हक देई पागल करया, तेरिण सेवक तेणी वार । बेहू चालता चीतवे, अनुप्रमा भेद बार ||शा क्रू र काल नफरे घरण , चीत्या सोहि सार ।। मेघ पटले जिम वीटीयों, कांति सूचन्द्र उदार ।।२।।
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यशोधर रास
भास होवोलसानी देवी मठ की भयंकरता
दूर थो देवी मठ तदा । दीठो दूरंग बिसाल ।। पाषल फरतो उपकन । हींदोलडारे । अनेक तरु छिरसाल ||१|| केसू जासू बन सीहां । रातला असोक अपार || जाणे भयभीत वसंत । हो। भेटण मांस विस्तार ।।२।। महडा मोरया बह यहां । फलगलि बारबार । जाणे रडि देवी भयें । हो । वसंत मूके ग्रांसू पार ।।३।। काला बाबू फल करी । काला वृक्ष तमाल ।। देवी मेटण मावीया ही जा पसाय बिकसल ।।" ताड तणा तरु जन्नत । ताड फल स्याम विशाल ।। देवी मलमा बहु रूप धरी ही। जाणे ईस गलि रूडमाल ॥५।। खजूरी नारी अली । घडीयां बांध्यां छेदेय ।। देवी मलवा सजयीया ही। मच धडा सिर लेप ॥६॥ पूला दीसि 'मध' सरगां । माखी अमें अपार ।। जाग देवी कारणे ही। सूका मांस तरण भार ॥॥ ठामे ठाम चणोठडी 1 रातडी दीसि भोय ।। देवी पूजवा कारण ही। अभक्ष थाल भरयो जोय ।।८।। फला तिहां बली चांपला । पीला पेखीया जेह ॥ देवी कोपि कांपता ही। जागो पिजर हवा तेह || कोयल सूडा सारसा । बोलि भमर गजार। जाणे बीहना भयकारी ।ही। स्तवन करिज प्रपार ।।१०।। मत गनिको सीमडि । मागास माथां मांड ।। जाणे जाता जीचनें पी0 खावबे जूइतें रांड ॥११॥ अनेक जीव मढ पाखलि । बाँध्यछि वडी पार ॥ भूख तरस पीडया घण ही करय पोकार अपार ॥१२॥ मद्यपान करि जोकटा । जंगोटा गलि चंग ।। सायि संख सीगी सींगहाँ ही। कली कली करिय उतंग ॥१३॥ डम डम डमरू डाकला ही० तवली ताल कंसाल ।। रएभेरी रण काहल हो। तूर वाजि विकराल ।१४।।
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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मठ का आँगन
दीठो देवी मढ मोगरणो। माँस ढपछि ठाम ठाम ।। अजीर्णे जाणे देवी वमी ही। मास्त्री तरणा विसराम ।।१५।। रुधीर तरण। दीघा खड़ा । मढ फरती मद धार । जीव मस्तके चोक पूरया ही० । रुधीर हाथा मढ वार ।।१६।। मस्तकनी तोरण रच्याँ । जीभनी बानर वाल || पंखी पीछ पशू पूछड़ा ही काम ठामें बांध्या विकराल ॥१७॥ रायन नफरें मुगम दीयो । दीठो राय यम काल । मोकले केश कोपि भरघोही०। झबकि हाथे करवाल 1॥१८॥ राति प्राक्षि जाणे राक्षस । जाणी केर यमदूत | पख बखतो जाणे ब्यंतरो ही०। जाणे भयंकर भूत ॥१६॥ जाणे क्रोधनों पूजसो । जसो अधरमी चित्त ।।
प..लो पोतो हो नीले मागमोड ।।.i! भैरबानंद योगी
भैरवामंडपाणे भैरवो। वसमो वीर वंताल 11
खडा झाली मोटी गड़ो ही० नयण जाण अग्नि ज्याल ।।२१॥ देवो का रूप
देवी दीठी बोहामणी । सकत त्रिशल छि हाथ ॥ रूडमाला गलि ललकतीही। विठी छि संघनाथ ।।२।। लांबी जीभ छि सत्तडी । राता मोटा दाँत ।। उह हहती मुख पसारती ही बाघेण नी होइ भ्रांत ।।२३। कोडौ सम मोटे रडे । फाटे डोले जोय ॥ अनेक जीव हणावती होन परतक्ष मरकी होय ॥२४॥ हाथ काती मद् कांपती । कांपती कोपि मपार ।।
मद्य पीइ नरन् बली ।ही. सोकोत्तरी भयंकार ॥२५।। ममयचि समयमति को देखकर रामा द्वारा विचार
ब्रह्मचारी राय देखीयो । लखीयो काम स्वरूप । कए इंद्र स्वर्ग तणो हो। के मही माहि महा भूप ॥२६।। * पंयालनो राजीयो । के धनपती के चन्द्र ।। के ब्रह्मा के ईश्वर ही। के हरी के बलभद्र ।।२७॥
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यशोधर राम
के नंदी के नल कह । नलहु रूपह पार ॥ सक कह के सरगुरु ।ही। सूरवीर उदार ।।२।। बालिका जारणे सरस्वती । रोहणी लक्ष्मी होय ॥ इन्द्राणी उर्वसी कह ही० नागकुमरी के जोय ॥२६।। कि सावित्री सीता कहूं । तोरा मंदोदरी एह ।। गौरी के प्रजनी कह ही इस न लाह ' ३.ji रूप लक्षण बहु गुरंग निलो । कला अनेह ठाम ।।
मारीढत न प पूछए ही। कहो तुह्म कवरण सु नाम ।। ३१।। राजा द्वारा प्रश्न
कवण गाम थका प्रावीया मात तात कुरण टाम ।। अकल रूप ए प्रमोपम ।ही कवरण मो हो साल सुधाम ।।३२।। दयाधर्म तहा जय करो। त्रिभुवन माहे जे सार ।। आशीर्वाद दें उच्चरें नही | मारिदत्त अवधार ।।३३।। काम तम्हारू तम्हे करो, मम पूछो प्रा बात ।।
अह्म वृत्तांत दयामय ही। तह्मने गमें जीवघात ।।३४।। साधु यूगल द्वारा उत्तर
प्रघा प्रागनि नात्र । बिहिरा आगलि गीत ।। पापी ग्रागलि धर्मकथा ।ही०। कहिता होइ विपरीत ॥३५।।
पहेलां सू गण गोठडी । उसर ममें बीज रोप।। गिर सिर नील पेर खेडव' ही सिम ब्रह्म वचन निरोप ।।३६।।
मारिदत्तकेहदय में क्याभाव प्राना
दमा भरी अह्म मोठडी. रुचे नहीं राय मान ।। पीतज्वरी मन रुचि नहीं, साकरनि दूध पान ।।१।। इम जारपी निज हित करो, प्रह्म ने म पूछो प्राज ।।
जेहनि जेहदी गति सही, तेहेनि सेहवी मति राज ।।२।। खड़ग का त्याग
मारिदत्त तन उपसम्यो, खङ्ग मुक्यो तेणी वार ।। कर मुगम जोडी करी, करी कोफ्नो परिहार ।।३।। ब्रह्मचारी प्रति बोलियो, विनय सहीत उदार ।। कहो कथा तमो रूखड़ी, स्वामी दया भंडार ||४||
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बाई मजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
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ब्रह्मचारी तब बोलीयो, वागणी प्रमी समान ॥ भो भी भूप भन्ना भानो. साधु साधु तर बारा ।।५।। धर्म बुद्धि सही जीवनें. पुण्य विना नहीं होय ।। सुरग मुगति सुखकारणी, राय बिचारी जोय ।।६।।
1 मी ... नीति || सेह ब्रह्म पण अगसरी, भव साते मझार ।।७।।
भास चोपई भरत क्षेत्र वर्सन
ए.हम अंदीपज माहि । सुरमहीयो मंदर तू चाहे ।। पांडुमित्या चीहो मही तनु जोय । जिनपर जनम कल्याणक होय ।।१।। धीही वने मंतर किनर पास। देवी देवी रमये जिहां रास ॥ परदक्षणा योतकी करें सदा । सास्बतो अचल चले नहीं कदा ।।२।। तेह दक्षरण दिशि भरतह क्षेत्र । ग्रारज खंड मांहि सुपवित्र ।। देश यछि तीहा मोटो घणो । नाम अवंली छि तेह तणो ।।३।। अनेक गिरी गहवर पर बरघो । अनेक महा नदीयि अनुसरयो । मोटी अटची वृक्ष असंख्य । पाछेकर जीव तिहां लक्ष ।।४।। यमरी गाय भछे से घरणी । पूछि भोम्य यू हारे तेह तणी ॥ झर मर मेष घडो तिहां देय । देस महारायह पद लेय ||५|| चमर चमरीमा मग हालत । पाटला तरु फूल्या जे महंत ।। पंच वरण जाणे छत्र धरंत । अनेक ठाम दीसे जयवंत ।१६।। किनर गंध्रव जाणे गीत गाय । देव अनेक सेवें जेम राय ।। , सूखा सारस सावजां साद । जाणें बंदियन करें स्तुतिवाद ।।१७।
अनेक फूल रचना तिहां होम | चोक पूर्रता देवता जोय ।। पोढा फल जाणे भेटण, । वन देवता के नित नरा ॥६॥ भोज पत्र प्रादि बलकल जाए । बिचित्र वस्त्र सोभा बखाण ।। विविध वेल मंडप घर भला । भमरा भमि किंकर केटला ॥६॥ कपूर बेल के लदीयि कपूर । कस्तूरीया मग धीर कस्तूरि ।। बिचित्र रूप मही सोभिनार । देश राय सम सोभे सार ||१०|| बसि ठाम ठाम बहू गाम । ढूकदां दूकडा प्रति अभिराम ।। गाय तरणो नवि लाभि पार । जाणे भूपह जस विस्तार ॥११।।
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अवन्ती देश वर्णन
यशोधर राम
दीसि दस दिश चरती फिरे । गोवाला सादि अनुसरें ॥ पूंछ उलालि पावि धसि । भवर कोहने न व्यथापि वसि ।।१२।।
महिषी मोटी घरी छिवली भिस कुमामिनी भोला जीव गोवालिया सिर सोहि घूघटी। मयोर पीछनी मनोहर घड़ी ।। सोमें लाकड़ी हाथ उदार || १४ ||
गले लिलकि गुजानो हार
फूल मुकुट सिर रह्यो लली गीत गायि नाखि मन रली
।
जल दीठि पोहोचि मन रली || सही पाती देखि हरषे प्रती ||१३||
मुख मधुरी वायि बांसली ||
सोभले हरण घणी हरणली ||१५|| बस नाद सुरगी डोलि सांप भूख तरसनो न लेखे व्याप ॥ विषय बलूधो जीव गमर । न व्यलेखं सुख दुःख विचार ।। १६ ।।
पाली राति तीहा गोलणी । दीही बलो ं घूमे घणी ।। कंकण खलकि ललके गोफणो । कटि चालि मटको तेह तो ।।१७।।
राते रच्यो जे काम विलास रखे बीसरू' जाणी करय अभ्यास || विलोरगां गंभिर सांभली साद । जारखे मेत्र तणो ते नाद ।। १८ ।।
नाचे मोरडा रची कलाप | मेही मेहो शव्दह करि व्याप ।। बन महि मोरडी साथै रमे । जाणे प्राथ्यो बरखा समे ||१६||
साल क्षेत्र भर नमी रहि । स्थल कमल ऊय तेह महि ॥ हिलाबि सीस । परीमल जाणे वस्त्राणि ईस ||२०|| सूहा साद करें सोहामरगा । वनफल त्यजी तिहाँ भावि घाँ || बहु फूलत्पजी त्यहाँ समर भ्रमंत रामरण करता साल सेवंत ॥ २१॥ अवर धान्य तीहा नीजि घरां । परवत सम हम होमि सेह तया ॥ राखि कोय नही तेहनि । लेई जायि जोई िजेहनें ||२२||
ग्रीषमे कठरण कर सुरज तो । राजा कर न कठिण लिहाँ भरणो ।। नारी पयोधर करें पीडाय । नहीं गाम राय करिसी दाय || २३।।
मिदं नव्यलोक दही यि । फूलें बंध व्यलोक बंधीयि ॥ नारी अधर कामी करें खंड || जीवह खंड नहीं परचंड ॥ २४ ॥
अवन राय सरणागत तणो । न कोई गाम वन पाखि भणो ॥ जीहा भला भमरा दीसिजपाट | नही लोक को हीटें कुवाट || २५ ।।
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बाई अजीतमता एवं उसके समकालीन कवि
लंपट भमरा कमल बंधाय । नहीं लंपट को लोक कहिवाय ।।। नर मोहि चोर नहीं कुवटी । छिनारी घण, मन चोरटी ।।२।। ट्राख मंडप दीसि काम ठाम । नागबेल बाड़ी अभिराम ।। व्यरही जननि व्यापि कौम । नारी सम वीसि पाराम ॥२७॥ सीलफ मंडीत पत्र बल्ली साथ । पातलडी दीयि तरूणा वाथ ।। प्रवाल सू उरै स्तन झूबका । विभ्रम छ प्रक्ष तणी अधिका ॥२८।। मदन मंडित भोगी सेत्रए । फूल रेणु ऊदणी सेवए ।। पंखी सादें जाणे गावे गीत । दीसे सह नामोहि चीत ।।२६।। नाग केशर नारंग जमीर । कोनोरा रामण बहु नीर ।। फणस खजरी ने नारकेर । फूलफल दीसि बहू पेर ।।३०।। मालती मोगरो ने मचकूछ । मंदार माउ बकुलह कद ।। एह मादिछि तर पर लाख । पिर पिर पंखी भोलि भाष ।। ३१।। जाणे दीन दुखी भूखीया । तैडि तरु करना सूखीया ।। पाली नदी यहि तोहा पाट । अनेक भेष सीचेवा माट ३२।। सरोवर घाव कुआ गंभीर । भरीया ते वहू नीमल नीर ।। कमल नयण जाणे जूमि समृद्ध । हंसा ना घलाणे सबद्ध ॥३३॥
नीत राणे राय लोक मनीत । देश अभय लोक प्रमयाधीत ।। सोक माहि को खल न कहिवाय । तिल पीलता सही स्खलयाय ॥३४॥ कोतकमाल तणो होयि युद्ध । कटक युध तिहां नहीं होयि सुघ । फस सम समायें तरु परछे विरुद्ध । तिहां नहीं लोक माहि क्रोध ।।३शा जिन प्रसाद दीसि प्रति चंग । गिरी गिरी नगरे नगरे उत्तंग ।। कनक कलस सोना दंडधरि । घुघरी सहीत धजा फरहरि ।।६।। अनेक लोक तीहाँ प्रावि पात्र । अण्य काल नाचे तिहाँ पात्र || दुमि दुमि मदन ताल कंसाल । होइ नफेरी नाद रसाल ।।३।। अनेक फूल फल लेई पकवान । जिस पद पूजि सुजन सूजाण ।। अनेक प्रत विर्धान पावरि । भवसागर ते हेलांतरि ।। ३८| चतुर्विष दान देवा सुपात्र । पर उपकार सफल करि गाव ।। धन कम रयण मागगन देय ! लोक सहू स्वर्गनि निदेय ।।३सा
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यायोधर रास
अनद तिहां एक अहां अनेक ! इंद्र घणां नर पाहां सुविवेकः ।। चतुर घणा नर सुर गुरु समा । घणी परणी भोम तीलोत्तमा ॥४०॥ सवे नार भर्ता उर्वसी । घिर घिर नार सुकेसी असी ।। रंभा जरणी कर घगी माननी । रंभा धन मंडित अवनी ॥४१॥ गजल ५५ गिग भाविनी। मान्यता दि ।।। मंदारंभ साधर्मी घणा । पारजातक तिहां जोनकी भणा ।।४।। विध विद्वासन जागा पार 1 सह घरि सुख संतान अपार ।। हरीचंदन चर्या बद्ध तीन । स्यांतो एक काम जोय ॥४३।। अई.रावण सम गज नहीं मगणा । ऊचाश्रवास रखा हय घगमा ।। सर्व लोक कवि कला निवास । नित मंगल गावे सुभ भास ।।४।। चन्द्रमुखी मंदगति नार । गाम नगर पुर पाट मझार ॥ ग्रादित तेज अनेक छे सुर । सवे सुबध अती नही कूर :।४५।। नारी प्रति अंबोडे राह । गुठी वेरा केतु बहु चाहु ।। अनेक नवेग्रह मंडीत लोक । स्वर्ग स्वर्ग करे ते फोक ।।४६।।
एक सुरु गुरु एका रवि एक मंद । राहु केतु, एक बुध सुकेन्द्र ।। एक मंगल माहिए दस । चा स्वर्ग नेहसि विसेस ।। ४७॥ शाम ठाम बली सतकार । भूस्सा न जमाडि अपार ।। कंटला वस्त्र भूषण देयंत । मागरम गायणन गुणवंत ।।८।। नागबेल इन बी-डी अखंड । नारद तुबर अनेक प्रचंड ।। नयारा कटा नारी चालनि । मयण मूजंग मइस्या पालवे ।।४६|| अधर अमृत रस देई अपार 1 मधुर वचन मंत्रोपधी चार ।। अमृत भरया स्तन कुभ बहु सार । अमललेलि मुगता फल हार ।। ५०॥ घूया मीठा गीत गाहा यावे । अमरीनि नीज गुण हारवे ॥ सह जन वदन सरस्वती वसे । स्वर्ग में देस तह कारण हो ।। ५१
वस्तु
देसह मोहि देश सोहि । अती बह एह । सवे देशा माहि भलो । मध्यम छ पण अति ही उत्तम । मध्य मेरु वम गिरिपती ।। नारा माहि जेम चंद्रसत्तम । तिम सह देश मांहि अवंती चंग । श्रन कण करणय रयण घगा । मंडिरा अताहि उसगा।।
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बाई अजितमती एवं उसके समकालीन कवि
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श्रीमंतः सदनंतबोधनिचयाः सम्यक्तमुल्यैगुणे। युक्तायेऽष्टभिरष्ट सिद्धिकरणाः पूजया: असामिणां । थीसिद्धाः परमेष्ठिनो व्ययजनि धोव्यायनन्तोत्सवात धीरेवेनसुविक्रमस्तुतपदाः कुर्वन्तु मो मंगल ।।१।। इति श्री यशोधर महाराज चरित रास सुडामणी काय प्रतिछंदे भूदेव कवि श्री विक्रमसुत वैन विरचिते भारिदत्तनृप देवीमठागम ब्रह्म श्री मदमयषि प्ररूपिताती देशा पपनो नाम द्वितीयोऽपिकारः ।।२।। ॥छ।।
तृतीय अधिकार
मास भमाइलोमी उम्मयिनी नगर
तह देश माहि सोहि । सो भमाहली । नामे नगरी उजेण तो। नवतेरी नगरी भली । तो भ०॥ अमर नगरी जीके तेए तो ।।१।। उन्नत गट सूना तणों । भ०। रतन बडीत को सीस तो भ०॥ जगा जोति करी जाणीयि । तोम०।। तिलक भवनी कोसीस तो ।।२।। पाखल करती स्वातिका ।।तोभ०॥ निरमल मरयू थे नीर तो॥ जाणे नगगे नागर नारी तोमपेहरयो नीले वीर तो ।।३।। राता नीला कमल भला । तोभा जाणे भरत मरी भात तो ।। ऊपवन उपें अनोपम तीम० फूल्पाछि तरु बहु जात तो ।।४।। फल रेणु पगर तिहां ।।तोभ०॥ माकासे ऊडाडे वात हो । जाणे पीलो पीछोडलो | तो भ०॥ जाणे भमरा कालीमात तो॥५॥ जाणे नगरी नायका । तो भ०।। ऊर्म स्तन गढ भार तो ।। लाजी पापण प्रापरे सोम०करें करी दाखे राग तो ॥६॥ पैरवीयि पोलि पोढा पैरवण तोमा कनक सांकल लल काय तो ।। मोटा माता हाथीया । तोभ-।। साकल्या अनेक बंधाय तो ॥७॥ तलीया तोरए झगमगि ।।तो भा रतन तणा सुविसाल तो।। मेढी मोती अबका तो०म।। मोहोल मोटे मोती जाल तो।। पोलि पातली पूतलो ।तो। विश्वामण छि अनेक तु । बोरासी मासन भनी सो० म० रूप काम शास्त्र अनेक तो l
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पशोधररास
विकट सुभट बिठा राषि तो० भ०। प्रायुध भनेक प्रकार तो ॥ कोतक करता कामीयो ।तो० भ०। केता कोडि जूइ सार तो ॥१७॥ नगर मध्य राय धवलहरा । तो०भ०|| एक बीस खणा उत्तग तो।। कनक कलस कोडामणा तो०भ०।। सोभा दीसि अती पंग तो।।११।। रातां रतन रग मंडार उपरितु तोम|| फटफत तरणो सोहि छम तो।। पाखलि फरती पूतली । सो०म०।। करय ते नाटा रंभ तो ।।१२।। । जाणे प्रतापरराय तरणो तु ।भ०। प्रश मंडित सोहंत तु ।। रतन मोती झूवरे करीतु ।भसभा मंडप सोहंत तो ।।१३।। महल मोटा माननी तणा तु तो भला पाखल फरती अनेक तु ।। रतन मेडी रलीग्रा मणी ।तोभन्। रचद्धि प्रती सुविवेक तो ॥१४ मुपेउ राज रडी।तो भा। कनके धड़ी जड़ी रत्न तो ।। रतन पेटी प्रति उरडि ।तोभ०। वस्त्र भूषण नहीं यत्नो तो ॥१५॥ अतः पुर घर अनी घग तो भा भरया सामग्री अपार तु ।। गुरव प्रत्राली जालीग्रां तु ।सो भ०। अगुरू सु धूप विस्तारतो ।।१६।। मारिएक शेफ सुर चाहूंटा लो।।मः| चुरासी दीसि दौसि च्यार नु ।। हाट अंग सोहि सारी ।तुभ०) भरां क्रीयांगपां अपार तु ।।१७।। उपलबद्ध मेडी घणी तुम०पंचवरण मणी चंग तो ।। चित्रामण मोती सिर ।।तोमा रंगत छि बहू रंग तो।।१८।। नांगोद श्रेण छि नवरंगी ।तो भला नागा अनेक प्रकार तो ॥ जह विरीउल जाणीइ । तो भला रतन तरणा झलकार तो ॥१६॥ सोहू ठसामपी ।तोमा सोना धढ़िया घाट अगायोत तु ॥ जडीया उत्त'ग मलि जडि तो०भ०। वनाहे दोसी अट दीसि भली ॥२०॥ वा अनेक छिमीण तो तो०भ०। बहू मूलक सेसा सासू ।। पटकोल मादि अरवीरा सो।। गंधी अरे मह पामीर । तो भा अनेक क्रीयारणा सार तो ।। नेसरी नबनीध्य जाणो तो०भ०| मनेक ध्यान अपार तो ॥२१॥ भनेक वस्त व्यापारीया। सोभा ठाम ठाम छि बखारितु ॥ एणी पिरि मोटा चोटों | तो०भ० भूलि चतुर नर मारि तो ।।२२।। अनेक वसि विवाहारीया तो भ०। वारया दारीद्र जेण तु ॥ मागणिनि वांछीत पीयितु ।तो०म० लीयि कीरत सु गुणेप तो ।।२३।।
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बाई मीतमती एवं उसके समकालीन कवि
सात खणा प्रवास तु । भमाउली । राता रतन नी भात तु 11 हसी करी कहि कंस ने तो०म० साडी पिहिरवा चयू चील तु ॥२४॥ फटिक कंचोलि चंदन तिो भ। राते किरण बेघ्यू गोयती ।। कंत भागलि घरधू जगदान तो०भ०। कुकुारणीय जिसोयतो ।।२५।। नील रतन मयरुडी तो भ०॥ गोरही सणगारिक कावतो ।। नील घिरणे सामली जाणी तो० भ०। भोली वली कली पीठी लाय तो२६ फटक तणो पर भौंतरे तो०म०॥ नारी दीठी प्रतिजाय तो।। गोठ करिते गोरही तो भला सही परभरणी सेरिग डाय तो ॥२७|| रीस करिते परि तो०म०कतर नहीं दोषि काय तो॥ किरीसाणी सुझ ऊपरें । तो०भ०के कर्तेनू दुहबीमाय तो ।।२।। कहीं रातां तिन तणो तो म। उरेडि रमवा गई चाल तो ।। रात जाणी रंग रस भरी ।तो भा। वाछि कंत रसाल तो ॥२६।। पीला रतन नी तुरही।तोम०||सामली कंत प्रति जाय सो॥ परनारी करी लेखवी ।तोम०। क्षण प्रादर तो संकायतो ।।३०॥ चन्द्रकांत गोस्वरु घडा तो.भग चंद्र किरण मलि जाण तो ।। झरमर धार प्रमून झरे ।तो०म०। सारद मेघ वखारण तो ।।३१॥ फटिक गोम्बतणि जालीमि तो मा चन्द्रना किरण प्रसारतो ।। भोली भामनी लेवा मि तो०म०। जागी मोतीहार तो ॥३२॥1 हार विना पलषी हवी । तो०भ०ी हासू करि तब नाथ तो।। हार देखी वली सचिलो ।तोमा वावरि नहीं तहाँ हाय तो ।।३३।। प्रावास ऊना मेडी उलीयां तो भ०॥ ठिी चंद्रमूखी वाहि तो ।। पुण्यंम दिन ग्रहण कालि तो०भ० भूलो गगनें भमें राहतो ।।३४।। शाम ठाम चन्द्रदेषी तो भिसंसि पयो तेण ठाय तो।। संदेह थी चन्द्र सरण नो ।म क्षमा एक ग्रहण न बाय तो ॥३॥ घिर घिर गरबी गोरडी तो म0) नारी रमें सही पर साथ तो ॥ हास करें ताली दीयि तो । मिला प्रेम पोति मीटिं बाप तो ॥३६।। हीडोलि धरण हीचकितो ।म01 गावती गीत रसाल तो॥ ललिक बेणी गोफरणों तु ।म। हार लाहि किगुणमाल तो ॥३७t
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यमोधर रास
नाह बेठोहि मही डोलारितो।मला हीचती पबला बाल तु ।। मगती करती मामनी तो II मला मोग भोगवि रसाल लो ॥ ३८|| बूबा बंदन कस्तूरी तु ।म० पीठी परीमल पंगतो । रमत करि रती प्रामणी तु ।।भ०।। नर नारी बहु रंग तु ।।३।। को गोठ करे कर लेहेकते तो मिला जिनके घरती हाथ तो ।। नयण कटाक्ष गोरडी तो भिक। रिझवि तेह निज नाष तु ॥४॥1 बालाकते करें करी तु भा नीवी छोखंता लाजी नारि तु || रतन दीवा नव्य जलवाय तु ।भ। करे जेहू कमल प्रहार तु ।।४।। एगी पिरि भोग भोगी भला तो भ० भोगवता जाणे इन्द्र तो ।। रतन सोगटे खेलतां तो भ० । बोहोत्तर कला समुद्र तो ।।४।। बत्तीस लक्षणेऽलंकरा तो भ० नगरी तणा सह लोक तो ।। रोग शोक दोसि नहीं तु म। पुण्य तणां फल जोयतो ।।४३॥ नारी दीसि पदमनी तो भि। बोलती मधुरी वारिण' तु ॥ मुख परिमल भमरा भमितो ।म०। नयणे सलगी जाए तु ॥४४।। बौछीया सोहि रतने जदया तो भ०। झंझरनु झमकार तु || रतन मेखला कटि खलकती तु ।भ०। घूधरीनु धमकार तु ।।४५॥ चंपकली मोतीहार तु ।भ पतकड़ी जड़ी मतूल तु ।। मुम्न तंबोल प्रवर राता तो ।भण नासिका मोती अमूल तो ॥४६।। झालकाने खरी खोटली तु भिनन फली राखडी सिसफूल तु ॥ बेणी गोफणी प्राखि अपी पाली तु भ०। भमेरते काम वसूल तु ॥४७॥ कर कंकण चूड़ी रूडी तो भला बिहरषा बीटी हाथ तु ॥ घाट ऊडी चाली मलपती तो । भ० सेरीये सही पर साथ तो ॥४८॥ अगर ठाम ठाम धूपतो मिला अगुरू न बीसि लोक माहि तो।। भवीनय नही बली को दीसि तो भ० प्रविनय प्रगनी तू चाहे तो ।।४।। मवीभव नहीं को वसि तीहां तो।म०। प्रबीभव मेरवज होय तो॥ मलीतीवर कुमती नहीं तो भ०) मलीनांबर निसि जोय तो || द्वीज वृत्ति संरज नहीं तो भ०। द्विज खंडनी नारी उष्ट तो ।। वादि बढवू नहीं तु भ०। वाद वीया सही गोष्ट तो ॥५१॥ राति चोर नागनि नही तो भला नारीनां वस्त्र हरि नाह तु ॥ केली करता को जन नहीं तो मिला फंससू निसौ माहित ।।५२।।
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बाई अजीतमती एवं उनके समकालीन कठि
काठन पणु स्त्री स्तन विखेतो भि०। नही ते कठिण वचन तो ।। बांके भमरांछ कामोनी तो भाग बांकू नहीं तह मन तु ।। ५३॥ मंदगति छी माननी तुम०। मती मंद नही तेह तु ।। जठर कटी छि दूर्बलो तु |भ०। नीतंब द्रुषले नहीं बेह तो ।।४।। काला केश भमर समा तु 140 काला गुण नव्य होइ तु ।। नीची नाभि छिनार नीतु भला नीची रमत न क्यजोय तो ॥2 वैल प्रालंपि विटपी सूसो भाग नारी योर सून लग्ग तो ।। कुमागि जाय पंथी पशू तो ।भा नव्य नर नारी कुमग तो ॥५६॥
ननेक लोक तीहां वसित भन बन करण रयण महीत तो ।। अनेक कला कुशली कारु तो भि. बोलता बतर पंडीत तो ।।५।। वनवाडी सू सरोवर तो भि। कमल छाया भरयां नीर तो ।। पालिनी हालि कतूहली तो भला चतुर नारी गंभीर तु ।।५।।
सही समाणी साहेली तु भ०। गोरडी करती नीर तु ।। सिर घट घट एक बाथ सुतो [भा पावती भरवा नीर तु ।।१६।। कनक कुभ वायु वसि तो भल। भों भौं भासय भासतो ।। सही नारी संगें रसीमा तो भला कोणनो हि विकृत नीवास तु ॥ ६॥ नारी ठवण गमन तणी तु मला उभा शून हंसराज तो।। मोतीया परवा स्पजीय तु भ० जाणे सत्य सौखवा काज तु ॥६१) पेखि पंखी शाखा बिइठा तु भि०। नारी नयण बितान तो।। फल बरते ते वीसरा त भगते सोमा लेबा धरि ध्यान तो ॥६२२॥ देखी नारी मुख चांदलो तु भा दिवसि कमल मेलाय तो ।। नारी नयरण कमलें जीवया तो भला लाजे जाणे कोमलाय तो ॥१३॥ नारी नयण चपल पणं तो।भा वली गली माछलां जोय तो।। चंसस परणं मापणं छांडीयतु म । पाय लांगतो जोय तो ।।६।। बीहीनी वोलि केटली बाला तो .म। ऊध्रसी वनम अपार तो।। सास गधे कमल त्यो तो भा भमरें बीटी तेणी वार सु,१६५।। भमर भारतां कंकण खसके तोमा सारस सरस सुरत तो ।। कोपल मारी गावद मुगीय तु (भा लाजी वचन न भयंत तु ॥६६॥
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मशीधर रास
भमर दारतां कांकरण खलके तो मि०। सारस सरस सुरगत तो । कोयल नारी शवद सुणीय तु Iभ० लाजी वचन न भरणंत तु ॥६७ चतुर नरनि नीहालती तु 1भा भरतां घट न भराय तु ।। निज अवगुण नबिलेखप्ती सोम० घट पेर रोस कराय तो ॥६८।। नारी भरी करी चालती तु ।म०।। चालती नयण विचित्र तु 11 जाणे लक्ष्मी चालती तु । चालती चतुरनों चीत्त तु ॥६॥ हसिते उत्तर बालती तु ।मका मालती कंभह जोड तो। ताली देकरि वातही तो ।भा होउनी बाहुही रोलती तु ॥७०।। सोना ऊवरण फूमती पालीतु ।म। पातली मचका मोडसी तु ।। मारन लेखती सही साहामीत ।म। वढी वार बात करि कोतु ॥७१।। पोन्म घणी कमले भरीयतु ।भा सामला रतन ना यंभ तु ॥ नीलरसन पगारीया तु । भन्। भरी छि निर्मल अंभ तो ॥७२॥ देखी नारी मुख चंद्रमां तो मिला रोदि चकधी अपार त । बियोग भय राति लेखती तो भि। श्याम किरणि अंधकार त् ७३॥ कृपि कूपि यंत्र नाटा नडा तु ।म | नीर नि फेरावि नार तु । करि चीतकार फेरा माटि तु भि। जाणे ते रौब गमार तु ।।७४|| कणु कुण नर फेरप्या मही तु 1०। नारी नयन विखपे तो ॥ कर घरया कोण नव्य फर तु !मा एछिवात संक्षेप तु ।।७।। जीहां कुत्रा कूपण गुण तु Iम०) गले पर देई धीर तु ॥ दोरें गांधी काढीयितोमा हठं करी तेह नीर तो ।।७६।। लोक माहि को हवा नहीं तो।भ०। कृपण धन संपि थाय तु ।। पौरघा स्नेहन को त्यजे तो भ० तिल पील्या स्नेह जाय तु ।।७७।। जिन त्याला तिहां घणो तो मा उल्लत सीखर यि तास सु ॥ कनक कलस धज लह लहितो ।म। बिव छि कोट रवि भास तु 11७11 सीखर पासि सिंह देसी तु ।भा चंद्रनो हरण परत तो॥ तेह माटि चंद्र नमी करी तु म। दक्षरण ऊत्तर फीरंत तो 11७१ संत सजन श्रावक भला तु भ०। नित प्रावि जिन जात्र तु ॥ सणगार सारी सवे नारी तु म) पूजी सफल करि गात्र तु I1८०|| पंचवरण ललके घण तो भल। नगरी माहि ध्वज कोड तु 11 जाणे अथीने तेडती तो । ०। नाखू दारिद्र मोद्ध तु 11८१||
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बाई प्रजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
एगी पिरि नगरी सोहामणी, उजेणी शुभ नाम ।। कणक रयणें .गंडार भरयां, सजन तपो विधाम ।।१।। पालि फरतां पुरां घणां, साखा नगर कही तास ।। फुलें बहोदसि चहूटहां, सुजन तणो धो वास ।। २।।
भास रासनी
उज्जयिनी का राजा यशोध
ते नगरीनु राजीए । गाजीयो झ्याणे मुगेन्द्र तो॥ प्रबल प्रतापि मंडीयो ए । सेवी मनिक नरेंट तो ।।१।। नाम जसोष तेह जाणीथिए । क्षत्रीय वंश विज्ञात तो ॥ हस्ती हय रथ छि घणा ए । सछि अनेक बहू भोत तो ॥२॥ सामंत क्षत्री वीटीयोए । सुभट सेवंता कोउ तु । रण मोम्य जय लक्ष्मी वरपो ए । बैरीतला मान मोड़ तो ॥३॥ सोमगुरिण जाणे चन्द्रमाए । प्रताप गुरिंग बाणे सूर तो ।। चरी मद मछर वजेए । सांभलतां रण तूर तो ॥४॥ सहस्त्राप्त जांनि गुणि सही ए । क्रूर गुरिंग यम रूप तो।। धान गुणि धनपती समोए । रूपगुशि रती भूप तौ ।।५।। जाणे दश लोकपाल सरणा ए । विधाता रच्यो लेइ प्रशतो ।। देश विदेश यश विस्तरोए । सोहाव्यु क्षत्री वशतु ॥६।। लक्ष भट कोटिभटिए । परवरभो राय सोहंस तु ॥
ग्रह तागयि सोहीयो ए। जाणे चन्द्र महंत तो 11७।। रामी चन्द्रमती
तस कामिनी गजगामिनीए । भाभनी कनक सुदेह तु ।। चंद्रवदिनी नामि चंद्रमती ए । रूपतणि छि रेह तु ।।८।। गोरडी सोभाग उरडी ए । घड़ी बीभातांयि नीज हाय तो॥ मेह सरोसी बीजलोए । त्रिम प्रीत छि राय साप नु ।।६।।
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१६८
मगोभर रास
हरीचंदन विलेपन सीए । हरती राय संताप ॥ मणी सम हृदय परिजनए । होइ कामफरणी विषय व्याप तु ॥१०॥ अनेक गार करि घण'ए । देखाडि नयन बीकारतू ।। जाणे मोहण वेलडी ए : मोहती रायनि अपार तु ॥११॥ जिम नि धान ना कुभने ए । भोगी नम किसमारतु ॥ तिम राणानि राजा भोगीयोए । मूकीन सकि बड़ी वार तु ।।१२।। चन्द्रमती गुण मा हालतौए । मालती नू जाणे फूल तो ॥ बहुगुण जारण राणों मणोए । भमर समो अन् फूल तो ।।१३।। चन्द्रमती जाणे पदमनीए । राती नूप गुण वृध तो। कनक बरण प्रती कोमलोए । राय जाणे मकरंपतु ||१४|| चन्द्रमती मोवा मांजरीए । मत्त कोकिल समोराय तो।। रंग रभंतो रस भरधो ए । कुषि मर्डर सुठायतो ॥१५॥ चन्द्रमती जाणे मुभ मती ए । संपदालाम सम भूपतो।। सुख संतोपि पूरीयोए । भोग्य सोभाग्यनु पसो ॥१६॥ चन्द्रमती जाणे सिधि समोए । भाव समो जाणे मर नाथ तु ।। प्रारण योगि प्रेम प्रती घणोए । राज्य भोग वि राणी साथ तो ॥१७॥ न्याय प्रजानि पालतु । सुकवि विद्वांस विश्राम तो ॥ कामधेनु कल्पवृक्ष समोए । पूरतो वांछित काम तु ।।१८।। नमरस नाटक नव नवाए । नित निम जोवि रसाल तु ।। हस्ती अग्झादि मति बलीए । मेष महीष विकराल तु ॥१६॥ एगी पिरि राजा सुख भोगविए । करय ते पर उपकारतु ।। मान भोडी बेरी तणाए । धन मणी भरया भंडोरतु ॥२०॥ धर्म करि जिगपर तरणोए । दोन पूजा भवतार तु ॥ सह गुरु वाणी सुणि घशीए । करि रूडो पाचार सु ॥२६॥
ते बेह कूलि हूं ऊपनो ए । कुंभर सुलक्षण बखाण तु ॥ बीज चन्द्रयम सोहीयो ए । दिन दिन वाघ्यु सुजाण तु ॥२२॥ जनम समय दांन दीए । कनक रतन नीधांन तु ॥ पंखी पशु बहु छोडयाए । छोडया बहू बंदी वान तु ।।२।।
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बाई अजीतम ति एवं उसके समकालीन कधि
१६९
यशोधर नाम रखना
माम जसोपर तेह दीकए । बहू पिरि करी उछाह तो ॥ रतन जडीत भूषण भलाए । पहिरापि धरी ऊमाहतो ॥२३॥ क्षण इरशिक्षण हसिए 1 मांडि क्षण क्षण भालतो। राय रासी नीज मन रलीए । खेलावि लेइ बास तु ॥२४॥ रतन तण, रुड़ पागरण । पूरघ मोती चोक तू ॥ घसमसही रखतो ए । कोक माधो कर कट ' वली वली रचे मोडि वलीए । मोती साथीया भरघां रत्न तो ।।
अनेक सजन लीधि फरिए । करय ते पती पण यल तु ॥२६॥ कुमार का बाल्य काल
कुभर सहीत ही खेलतु ए। जाणे नागकुमार तु ।।। भमर पणे जाणे परवरघोए । इन्द्रनो जयंत उदारतो ॥२७॥ पंच वरसनो पोढो हवो ए । कुपर हूं जसोधराजि तो ।। महोछब करी पारुक धरिए । मुक्यो भणया काज तो ॥२८॥ अनेक प्रकार शास्त्र भण्याए । शस्त्र तणो अधीकार तु ॥
धनुष विद्या भादिक करीए । सोषवीयो अपार तु ॥२६॥ विद्याध्ययन
व्याकरण छंद असंकारए । सर्फ छह दर्शम भेव तु ॥ सामुद्रिक संगीत सहीए ! सालिहोत्र पत्र छेद तु ॥३०॥ न्याय नाटक नपनीत घणी ए । बास्तु शास्त्र सूत्रधार तो॥ जोतीक वंदक रुबडी ए ! रत्न परीक्षा वीचार तु ॥३१॥ काम शास्त्र कोक कतूहल ए । प्रासन चोरासी प्रकार तु ।। धनुर्विद्या शस्त्र पालवाए । धर्मशास्त्र मुस्वकार तु ॥३॥ दंडनीती अयो लहूए । मान्यक्षकी तनुरक्षतो। वार्ता चौद्या विवेक बहू ए । गूढ मंत्र अगीट दक्षतो 1॥३३॥
राजनीति निपुण पयोए । अनेक कला विद्वांस तु कुअर तणा गुण देखीया ए । सहू जग हो. उल्हास तु ॥३४।। काला खींटली पाला कुंतलाए । सोहिम तीही अपार तु ।। वदन कमल पिर भमर लाए । जाणे करय प्रसाद तु ।।३।।
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१७
अष्टमी सखी सभी सोहीयोए । भालस्थल झलकेय तो ॥ मल्लयुगल विषिये रच्योए । ससि दो खंड करेय तो || ३६ ||
नयन जांणे दोष माछलां ए । लावण्य अलिकरि खेलतु ।। अथवा चपल गुरिंग करीए भमरा तों ए बोन तु ||३७|| कर्ण दीसि कोडम ए । जाणे अनोपम राय तो ||
यह सीम चांपी रह्या ए1 मोती अरमानो ठाय तो ||३८||
सुके चंचू सम नासिकाए । अथवा जागेतील फूल तु ॥ भमरी मयण धनुष समोए ।। हर हाथ मूल तो ||३६||
ए
कंठ नारी हरी हा
हृदय त्रीशाल कुवर तर ए । लक्ष्मी बसदा बीसेष तु ॥ ४७ ॥
+
?
अमुलक मुक्ताफल तो ए । उर वर हार लसंत तो ॥ राजलक्ष्मी विवाह ए। वरमाला सम सोहत तो ॥४१॥ ॥
यशोवर रास
लांबा सुज मुजंग समाए । जाणे पराक्रम रूप तो ॥ भुज श्रमुत बल पीडीश्रा ए । बीहीना सेवे बहू भूप तो ||४२ ||
रतन जडीत कंकरण घरणए । कनक सांकला संजुत्ततो ||
उन्नत खंध सभा भए । भूधरा धरण अद्भुत तू ॥४३॥ कटिके जीत्योमिलो । वली मृगराज अभीमान तो ॥ महाराज राज प्रताप जाणी ए| लाजीमो गोमो तेहरात तो ॥४४॥
युवराज पद प्रदान करना
जंघा कनक थंभा जसी ए । वाटली कोमली चंग तु ॥ कमल जीत्या चरण तलेए । लाज्या जल करं संगती ॥४५॥
रूप सोमगि हूं मगलोए । लावण्य जल तरणो कूप तु ॥ जसोध राजा मझ देखीयो ए । मनोहर मनोहर रूप तो ||४३||
बूहा
तब राजा मन रोकीयो, चीतवे चतुर सुजाण । अनेक मोहोलवियापीयो, युवराज पद वषाल || १ || वीवाह मोहोछवि कारणें, उद्यम करो अपार । मंत्री पाठव्यो आपणों, देश वराड मकार |१२||
I
एलापोर नगर भलु श्रमरावती यम जाए ॥ राजा राज ऋरि तीहाँ, सामल बाहन सुख खाग ॥३॥
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चाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कांव
१७
सालको राणी तेह तणी, रूप सोभा गनि रेह ।। ससी वयणी मृगलोचनी, अनेक कला गुण गेह ॥४॥ ते बेहू कूखि ऊपनी, प्रभृतमती तेह नाम । कुअरी अतीही कोडामणी, रूप योवन गुणठाम ॥५॥ ते मंत्री रायनि मल्यो, राय दीपो बहुमान | कीधी बात वीवाहनी, प्रापी लेष नीघांन ।।६।। लेख वांची भाव जाणीयो, प्राणीयो राय प्रानंद ॥ चंद्रिका सम ए कुअरी, यशोषर कूपर ते चन्द्र ।।७।। इम बोली महोछव घरिण । नीश्चय वचन ते कीध ।। कुंकुम केसर छांटों, श्रीफल फोफल दीध ।।८।। वाने मंत्री पूजीयो, लगन लेई करी चंग ।। मंत्री उजेंगी प्रावीयो, रा प्रति को सहू रंग ॥६॥
मास बोबाहलानी यूवराज का विवाह
रंगधरी बीवाह अनो। प्रत घणो माङयो उछाह ।। घबल मंगल घणं गावता । मूर्त ली| घरी उमाह ॥१॥ मंडप यंम रतना तणा । प्रती पणा वीसि महंत ।। फटकतणा वली शोभता 1 पाट वीचीत्र दीसंत ।।२।। पंच वरण रतना तसा । खरण विस्तीर्ण वीशाल 11 परवाली तपां नालीया । मालीयां मोती माल ॥३॥ तोरण नील रतन तणां । झगमगि प्रतीही अपार ॥ चमर ठाम ठाम बांधीया । सोहि ताहो फूलहार ।।४॥ चोक रतन तणा झलकि । ललकि मोतीनी दाम ॥ कनक कलस बहू ललकि । बहकि अगर ठाम ठाम ॥५॥ नील उत्पल रचना पणी । मोतीना साश्रीया सार ।। पहकोलि घणं, छायो । सोहीउ पंचवरण सुवीचार ।।६।। ठाम ठांम कंकोत्री लखी । अनेक तेडावपा राय । पकवान पिर पोढी दीसि । कंदोई घणारनी पाय ॥७॥
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यशोधर रास
मनेम प्रकार जमण तणी । सामग्री भरया मंडार ।। कामनी मंगल गावती । कुमर तणा गुण विस्तार ।। सजन समा भावि घरपा । रायाराण नही पार ।। साहां मा मानदेई करी । पाणे ए नगर मझार ॥६॥ या जिन्न वाजि बहू परी । ताल कंसाल रसाल । मादल दुमी दुमी बाजिए । दम ढाम ढोल दीसाल ||१०॥ सरणाई साद सोहामणा । भामीणी बंश वाजंत । झीभी झीमी झल्लरी भुगल । नफेरी गगन गाजंत ।।११।। झरण मण करि देरणा घणं । तण तणा रबाब समाज । तत प्रानेस सूरिवर घन । वाश चतुर्विध वाज ।।१२।। संगीत शास्त्र प्रमाण ए। गायण गायसो लाजि । तान मानदीक ममूर्छना । नटवा गर्व सू गाजि ।। १३॥ जारणे रंभा नीलोत्तमा । उत्तम प्रपछारा निहरावि ।। पात्र नाना विष नाचे ए । हस्त कमाल काणादि ।।१४।। ताता येई धेई बोलती । कविण उवि पद छंद ।। नाटक रााला नाचतां । तिहां उछे प्रति छंद ।।१५।। भमरी देयंता मेखला । घूघरी न घमकार ।। नयन कटाक्ष नीहालती । चालती कुंडल झलकार ।।१६।। फूले काहोयि पोढ़ी परे । घरे घरे मंगल सार ।। राज मारगि शेरी चौहटो । सोहतां धीत्रामण उदार ॥१७॥ घिर घिर गुडी ऊछल । पंच वरण धज सोहि । पवनें पताका लहिकती। पुरी जारणे नाचीती मोहि ॥१८ तलीया तीरण झगमगे । सोहिए रंभा सुर्थम ।। ठामे ठामे तान गान सू । नाथि नाना विध रंभा ॥१९।। रतन जडीत मलि हांसलो । होरालुताजी अमूल ।। मोती तारिंग मरवीप्रारणि । पाखर प्रतीही अतूल ।।२० कनक घडॉ रतने जडा चोकही उछिलगाम ॥ हेम पलापछि रुवा । रुवढी सोभा सुठाम ॥२१॥ मोतीय झबका भ. बता । फमतां हीरना वीसि || पगे नेउर झमकार । हिसारतो ह्य घणं दीसि ॥२१॥
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बाई अजीतगति एवं उसके समकालीन कवि
१७३
राय राणा महाजन बहू । सह तेडी दीपो मांन । श्रीफल' फोफल पूर । कपूर देवाय सू सूपान ।।२२॥ केसर कपुर छोटणा । प्रति धरणां चूना पांपेल ! तिनक करी मोती चोटियां । प्रबीर नाषि करे गेल ।।२३।। होल नीसारण ध्र.सू किए । मूकिए रीपू सुपी भान ॥ सरणगार सू गजगामिनी । कामिनी करि गीत मान ॥२४॥ मोती पडे वधावी करी। कार उद्धरयो सेणी वार । सजनिहू घोडि चडाययो । भारोदत्तव अवधार ।।२।। कुंकुम पूजी बधावीभो । हय गलि टोडर ललकि ।। घूधर माल कनक तणी । चालतहां घणं षकिं ।।२६।। तबह वह तणगारयो 1 भारयो सणगार भार ।। रतन मुगट प्रति झलकि । ललकि कुडल सार ॥२७॥ नल घट दीउ पिरवरू' । सिरि प्रसावि जगाजोत ॥
आंजी प्रांखडी पदम पांखडी । पद कडी कीरण उद्योत ॥२०॥ विभिन्न उत्सव
मामला म न भूक्ताफल । ललकिंतरवर हार ।। रतन जहित वाजू छिहिरणा । करें वीटी वेदु अपार ॥२९।। कटि खल के कटि मेखला ! रतन पाउडी सोहि पाय ।। सहथी पारा असार । पालनु पार नही पाय ३० ।।३०।। गज प्रवगाह चमर कल । रमणीमा सिर बह छ । पंच वरण धज कर हरि, पटकुल तणी प्र विचित्र ॥३१॥ बाजीय नाद संम्भल करी, घिर घिर नारी उछाह ।। वरजो वारणि कारणी। साद करि माहोमाह ।।३२॥ एक प्रोती मोतीहारडो । दोरहो बीटीने पाय ।। चालतां धांथी खडो । खू चिजे मोती चंपाय ।।३३।। एक मामूषण करी तीय । मतीय ऊतावली थाय ।। फानें कंकण करें कु'डल 1 पिहिरती प्रतीय संकाय ।। ३४।। एक बालका सलाकाकरी। मांजीऊं नयनछि एक 11 जोवा मावते ऊतावली । विकल निनोहि वीवेक ॥३५॥1 एक बायतू मूकी बालक । दालका जोवानि जाय ।। पोहानि थाने सीचे सेण्डी । गोरड़ भीर झील भीजाय ।।३६॥
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यशोधर रास
एक यमती सापि छोकरा । कृत्यरथ बसगाई भारिण || विहिलांजमो जोईयि भूमूमा पंपू मालती बोलि वाण ॥३७|| एक मेलंती पाछरू । कसा बांधीऊ ठाम ॥ दोहीसू पछि कही बालती । वाथरु नू सरयू तक काम ॥३८॥ एफ राघती राधण। लूण घण घाली धान मांहि || दाल वधारी प्रलूणी । सलूणी बेगि पर चाहि ।। ३६।। एक प्रीसती भरतारने । वारनि भिखारिनि प्रावि ।। भारी नास्ती पर जोवती । सही भरनि मने भावि ।।४।। मेडी जोचि सवे पदमनी । घसमसी सास भरंत ।। ममर भमि मुख परीमलि । कमलनी शोभा धरंत ॥४१॥ मरद मोगरो मालती । माहालती लाजा वषादि ।। जय जय वारणी उच्चरें। जिहां बर मारगि मावि ॥४२॥ एणी पिर फूलि काहोयि । जूयिकोद्धि देवी देवी । नसोधर राजा भुत परणीह । वरणना कोरिंग कहेवी ॥४॥
व्हा इत्यादिक उछर घणा, नित नित जमणवार ।। मागरण अननें देवतां, बोटीत वान उदार ।।१।। जान सजाई होइ घण ह्य गय रथ सुविसाल | पाला पार न पामीइ, पालखी बहू गुणमाल ।, २॥
मास भूलनी हाथी बहु सरगगारपां । कनक साकलि पण भारचा ।। घंटा तणी टणकार | घूघर मालाना धमकार ।।१।। अंबाडी कडी वीसि । रतन कंवल सोहि जीसि ।। सौंदरें रंग्या सीसें । मोती जाली मनहींसि ।।२।। अंबाडी घज लहिके करी । कान वद बिहिके करि ।। सिहा भमरा झणकार । अकुस सहीतकुतार ।।३।। भनेक कुभर तीहां विष्ठा । रू रमणी भन पिइया ।। चमर सोहे गज कति । दंतूसल सीत वाने ||४||
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आई अजीमति एवं उसके समकालीन कवि
प्रजन गिरि जाएंगें चालता । भारि धरणी हालतां ॥ मलपता महीअल माहोलि | ऊंची सूढ हूलालि ॥५॥ प्राजाय घोडा जाति बबर हबसीय भात | वानायुज छिबिनीत | वायुवेगी छिवीचीत ॥ ६॥ घोडा मरिण छि कांबोज पाणीपंथी छिपीरोज 11 पंचकल्याण पारसीक । बाहलीक बलीया कीक ॥७॥
गंगा जल गुण जाणं । ह्रासला बोर बताएं. " एह मादि श्राण्या घणा घोड़ा । सरणगारमा नहीं थोडा ॥८॥
रतन जघा हेम पलाण । पाषिलि पाषर वषां ।। हरीनां घणां कूपतडा मोती प्रवाला ना बकडा ॥६॥
मस्त्री प्रारणि मोती ललकि । लगांम चोकडे मणीभलके ।। क्षरि वेणी क्षोणी भाग । रजि रुध्यो रवि भाग ॥ १०॥ रथ रूढा वस्ति भरया । धोरोयडा धोरि जोतरया || केटला राजा बैठा रथ । जूता घोडा समरथ ।। ११ ।। अनेक राजा तीहा विइया । सुरवीर सुभट गरीअ || प्रतीष तिहां हमी प्रार । छत्र कमर के नहीं पार ॥ १२ ॥
पंचवरण लिहिकि धज्ज । चिन्ह छि जलखवाने कज || पाला धसि यह मज्ज । श्ररी श्रण भय करी भजन ।। १३ ।।
पंचवरण मिहिरा वस्त्र । घरमा बहुवोध सन् ॥ एणी पिर चतुर्दोष सैग्य । राय जसोध सुधन्य ॥ १४ ॥
हस्ती उपरि । बिहू सार सांथि सद् परिवार ॥ एपी पिरि चालिए जान | मधकीयू संगल दीवान ||१५||
हस्तो उपरि बिइठुहू जाण । मारीदत्त सुरणो वारण || छत्र चमर वरणी सोभ । श्रगलि नाचिए रंभ ।। १६ ।।
मम ढोल सूकि वंरी मानसाहू सुकि ॥ भो भो मंगल नाद | सराइ सुभ साद ॥ १७॥
वाली कनकमि सोहि । घरणीय सोभा मन मोहि || कटक भसमसी चाल्यो । मही कंपी सेष हाल्यो ।।१८।।
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यशोघर राम
गिरीवर घणा द्रमद्रमया । ग्रह तारा भ्रमे भमया ।। नदीय सायर उलटया । बाष संघ दूरब टया ।। १६५ तव पाम्यो बराइ देश । अनेक सोभान नीवेस ।। पावयो जाणी नरेस । मषित पूजा करिबीसेस ॥२०॥ ऊनत तर घाये हालि । श्रातनि जाणी वाय धासि ॥ तरू वेल थी फलफूल । जाणे वघावि अतूल ॥२१॥ रतन सिला छि ठाम ठाम । जाणे आसनदि अभिराम ।। सरोवर नीर नीझरण । प्रभोलरणा दीसि यि चरण ॥२२॥ पिर पिर तर भर फसया। जाणे भेटणा आगल घरया ॥ ब्राक्षा मंडप म ठाम । जान नि दीयि जाणे विनाम ॥२३॥ श्रीफल कादंग । कर एगी दिए । चंदन तिलक ससु दापि । इक्ष बंड रस राखि ॥२५॥ तरशां अक्ष रस पीवाय । भूमा अनेक फल खाय ।। सेलड़ी पनि नीराये । दूध दही पार न पाये ।।२६।। इकडा ढुकडां गाम । लोक सजन ना विश्राम ॥ नगर पाटण पुर झाझा । धनयरिंण घणं प्राजां ॥२७॥ मंजलि मंजल चालतां । चौविध सैन्य महंत ।। एला नगरीयि प्राण्या । सहू सजन तरिण मन भाव्या ।।२।। जान बधामणी यानि प्रसीध । पंचपसाय रायि दीघ ।। वन उद्योते ऊतरया । सूत्र धारि घर करया ।। २६।। मंडप मोटा बिसाल । पटछुल तणा गुण माल | मान सासं यानि कानि । वाजिन बहूपरि वाजि ।।३। हथ गय रथ मू प्रसंस्म । पाला चपल छिलक्ष । सजय संभ्रम साथ । साहामो आधि नरनाथ ।।३।।
जन नि दीपला मान । श्रीफल फोफल पाम ॥ छाटणा तीलक अबीर । कोधु विनय गंभीर ।।३२॥ नगर प्रवेस इम होवि । नर नारी बरनि जोषि ।। कहिए माघभ रूप । जाणी किए नल भूप ।।३।।
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बाई श्रीमती एवं उसके समकालीन कबि
अन नरेंद्र नागेंद्र | सूर गुरु सूरके चन्द्र ।। के अवतरयो ए काम । गुण लक्षण कैरो ठाम ||३४||
जागे ध्यायतो समोह । दीठि ऊपनि मोह ||
जा प्रगट क्षत्री धर्म । एणी विरि करि घणो भर्म ||३५||
८५
नगरी पौलि प्रकार । सात खर्गा वर अपार ॥ चहूटां चोकि श्राव्यु | नारी फूलि वधाव्यु ||३६|| मेढी गुख़सू वीचार । जीवि बहुविध नार ॥ नगरी सोभा महंत । धज तोरण झलकंत ||३७|| चंदन हाथा चीनाम । जाणे नगरी हसि सकाम ॥ गूठी लहिकि सहरा कि जाणे नगरी हरषि नाषि ||३८|| रतन तरणी जगा जोत 1 निसी परिण घरो उद्यत ॥ राय घलहरद्दि हो । जाणे नगरी नारी नो चूडो ||३२||
कारंजे नीर भरए । जाणे प्रभोषण धरए ॥ पांजरि पोपट पढिए । जाणे विनय मुझ दृढए ॥४०॥
नगरी महि सुभ ठांम । जान उत्यारा विश्राम ॥ धवल हरे सहू उत्तरयो । मानवी मंगल करो ||४१ ||
चूहा
स्नान विलेपन मुझ वां वो बहुरीता चार 11 लगन दिन यानें घरी । नमणि न वाडि नार ॥६॥ १॥
रतन जडीत ग्रासन धरम् । माणक मोती चोक ||
कनक कलस घं जलि भरथा । पल्लव यावा असोक || २ ||
रागदेशाख
5
नारी नवरंग चीर सू । घाघरी आलोघार ॥
सर्व सोही सरगार सूं
आदि वधावा माट ||३३|
मास फागुनी
नारी नामें नारंगदे । श्रावि नव नेह | मुरादे गुण गोरडी । जीवादे जेह ||१||
हीरा देहे जिहसि । हरख हरषादे ।। सणगार सू' सींगार दे । मचक मरषादे ॥२॥
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१७८
यमोधर रास
गोमादे गोरी गुरिण । गंगांदै गरवीसरी । पादेसही सोभती । सीखें नही पर वो ।।३।। भावल दे माय भली । भीमादे मोली। चतुर चालि चंगा दे। चंग पंचरंग चीर चोली ।।४।। मोहरण मागिकि मोहती । मह्नागदे मोटी 1 लक्षमादे सक्ष्मी समी । नक्षरिण नही खोटी ।।५।। कमलादे कोमल वदी, कोडादे नही कूरी। रतनादे रलिया मणी । नछना देनि छिछोटी ।।६।। माजादे प्राधि प्रलज्जड़ । रस भरी रगाद ।। वहलादे विहि धारणी । बाहाली कंथवजावे ।।७।। रुपादे रुपि रस भरी। रमादे रूडी। रंभादे रंभा समी । करिं शोभती चूडी ।।८।। रंगादे रंग राषती । राजलदे राणी ।। अमरादे प्रमरी जसी । धनादेषि यषाणी ॥६।। बनादे वन देवला । वीरोदे वारु । अदि अर्थकारी । रबादे रती सारु ।।१०।। हाससदे हंस गामिनी । हंसा दे हंसी। सोमाग वे सौभागणी। प्रेमादें प्रसंसी ।।१।। तेजलदें तेजि तपि । जसमादे वारिस । एणी पिरिनारी बहू मली । रुपगुण तरणी खणी ॥१२॥ तिलककरी एक कामिनी । एक मोली चुहुटिं जिएक ॥ सीख देती सोहामरणीं । मीठु बोलती मोदि ।।१३।। एक मोतीड़े वधावती । एक नयन सुप्रजि ॥ एक भाभरण पिहिरावती । एक हंसती रंजि ॥१४॥ एक अंडी पीडी करि । एक दीवा ऊतारि ।। एकज जूण उतारती। एक मंगल उचारि ॥१५॥ एम मली सोभागिणी। मंगल गाए वा । सहरीत होपि राय सुणो । चालु परणिवा ॥१६॥ वाजिक वाजिब हू परी । घणी नाचि पात्र । भश्व बिइठोडूंअपतो। बली चामर छत्र ।
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बाई मजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
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अनेक क्षत्री करी परवरयो । मान्यु तोरण बार। सालो सन्मुख रही रिण । भला श्लोक विस्तार ॥ १८ 11 प्रत्य उत्तर एलोका घणा । मरणयामि उत्तंग । सुणावि नगर नर नारीनि । बाध्यु बहुरंग ॥१॥
पस्तु जस पस्तरयो मग तणु । सार हार तुषार ।। नगर मझार जस विस्तरयो उज्जसु बंदी बीरद बोलि घर । गायण गावि गीत मंगल ।। दान देइ तव भन रली । राय जसोध अपार ।। तोरण रीतह विकहू 1मारीदत्त प्रविधार ॥१॥
भास साहलिनी सालो मांडप थी छाटतोए । सहेलिरे श्रीछव्यो देह धान ।। मान तोरण प्रागलि कनकनुए । साहेलीरे सिंघासन सुनिधान ॥१॥ लीसा भूपालबली लटकतुए। सा० । ऊभो रह्यो तेणीवार । पुहुकयातणी सजाई लेदए । सा । प्रावी पदमनी नार ।।२।। प्रमाण पचायतीए । सा० । पुहकती चतुर सुजाण । दूसर मूसल मादि करीए । सा० । सरीउत्राक वषारण ।।३॥ गेवा सूत्र सापड उतारतीए । सा० । हिका सू' लोबि हाथ ।। पाट धाली नाकतारपतीए । सा० । हसयो तव सहू साथ ।।४।। माहिर रुडा रतन तण 'ए । सा० : सिंघासन पर लीध । हूँ बेसारको भामणिए । सा० । माटु अंतर पट कोष ॥५॥ कन्या प्राणी कोडामणीए । सा० । साहामी बिसारी रसाल ।। मोती रतन फूल तणीए । सा० । कठि घाली वरमाल ।।६॥ पंडित मंगलाष्टक भरिणए । सा० । जोसी करि साबधान ।। पल अक्षर वासा दाखदिए । सा० । जारिणए दिन निसीमान ||७|| सुभ महूरत लग्ने सहीए। सा० । बेगि वजावी चाल । जय जयकार तय हवोए । सा० । पडीम पटुसडे गांठ ॥८॥ कन्यावर हषेवास डोए । तव मलयो सुसराल । प्रत्रपट दूरि कियाए । सा० । तबहवो तंबोल छांट ।।
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५.
यशोषर राम
बेहूजए नयए मेलावडोए । सा० । हयो तब मती सुविषारण ।। माहो माहो वेहू जण हरषीयाँए । सा० । निधान पाभ्यो एम बाणि॥१०॥ होल नीसाण प्रसूकीयाए । सा० । नफेरी भूगल जोड ।। भाद मटाई भलु भणिए । सा० । मावय गायण कोड ॥११॥ कामिनी गीत गाषि घण ए 1 सा | बहुगुण यश विस्तार ।। नयण विकार विस्तारतीए । सा० । हरपती प्रतिहि अपार ।।१२।। कूपर इन्द्र समो जागिहए। सा० । 'पारी इंद्राणी वखाए । अमृता जसोधर जोडलीए । सा० । भलि घडी वौंता सुजाण ॥१३॥1 कुगर जाणे चंद्रसमोए । सा० । कूपरी ते रोहरिण जोय । ममता जसोधर जोड़लीए । सा० 1 रखेरे वछोहि कोय ॥१४॥ कुभर जाणे सुरज समोए । सा० । कुभरी प्रभावली सार !! अमृता जसोघर जोउलीए । सा । धन धन ए अवतार ॥१५॥
पर जाणे काम समोए । सा० । रतीदेवी री विख्यात ॥ अमृता जसोघर जोडलीए । सा० । भली रची एस निधान ।।१६।। कुंवर जाणे ईश्वर समोए । सा० । कुंपरी गौरी समान ॥ प्रमप्ता जसोधर जोडलीए । सा० । अनोपम अवनी निधान ॥१७॥ कुपर जारणे नरहरि समोए । सा० । कुअरी लक्ष्मीवान ।। अमृता जसोषरा जोडलीए । सा० । धन धन ए अभिधान ॥१८॥
पर जाणे बलभष्ट्र समोए । सा० । प्ररी रेवती एह ॥ अमृता जसोबर जोडलीए । सा० । रूप सोभागिनी रेह ।।१६॥ कुंअर जाणेए नल समोए। सा । कुभरी घमंती रूप ॥ अमृता जसोधरा जोडलीए । सा० । रूप सोभागनो कूप ॥२०॥ माणिक उपि अप्ती पण ए। सा० । हेम मू दीपिरहोय ।। अमता जसोधरा जोडलीए । सा० । संयोग सोभति जोय ॥२१॥ यम मोती ममूलकए । सा० । गुणकरी प्रतिही सोहत ॥ अमृता जसोषर जोडलीए । सा० । संजोग मन मोहत ।।२२।। यम राजा पल रूपसूए । सा । राजनीति हुभिक्षात ॥ अमृता जसोबर जोडलीए । सा० । तिम संजोगि विक्षात ।।२३।। कंकरणबिरी जीत्या तह्म करिए । सा । कठण लमरण सुविचार ॥ कृषरी कर कोमल धोए । सा० । रे भोरतां अपार ॥२॥
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बाई ग्रजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
त कल्पतरु दृढ घणोए । सा० । कुंभरी बेल प्रविवार !! तरु बेसना गुण मन धरिए । सा० । समकर पीडो लगार ||२५|| श्रमता के साथ विवाह
एणी पर मंगल गावताए । सा० । चोरी रतनमि थंभ ॥ नीला वंश हीर दोरडीए । सा० रचित कनकम कुंभ ।। २६ ।।
चौरी सारि ब्राह्मण भलाए । सा० 1 भग्न थापी छत होम | मंगल काज ऊभी सोहिए। सा० । वहू पर रोहण सोम ||२७|| सानु सूप साही रह्यो ए ! सा० । लाजा मू ́कि मठचार ॥ करसं करिए । मा होमे श्रग्नि मजार ||२८||
१८१
पहिल मांगल वरतीइए सा० । कन्यादान देवाय ॥ मलपना माता हाथी धरणां ए। सा० । दीवसा मलवाहन राय ||२६|| बीजू मोगल वरतीइए । सा । कन्या दान देवाय || हसताय वर हाँसला ए। सा० । दीइ सामन वाहन राय ॥१३०॥
जीजू मंगल वरतीइए । सां० | कन्या दान देयाय || रथ समरथ धरथि भरघाए । सा० | दीद सामन वाहन राय ||३१|| चूभू मांगल वरतीए । सा० । कन्यादान देवाय ||
गाम पोर पाटणु वरणाए । सा दीड सामल वाहन राय ॥३२॥ मांगल फरता बहू सोहिए। सा० । कुश्ररी छि दक्षण हाथ || मेरु प्रदक्षण देश तोए । सा । जाणे सूरज प्रभा साथ ||३३||
साली गुपए । सा० । सोहि प्रती अपार ॥ जाणे मझ रूपे जो कियोए । सा० । काम पाय लागि विचार ॥ ३४ ॥
सप्तपदी साते गिर करचो ए । सां० | कुंअर अंगुठा तारण ॥ गुरु आमिर उलंघयाए । सा । ससीकर कुमुदनी जाण ||३५||
कन्यादान होय धरण ए सा० । सजन सह परीवार ॥ गोधन महिखी पार नहीं ए सेज भाजन प्रकार ||३६||
सासू प्रीसी सोहामरपी ए । सा० । सोना थाल कंसार || कुंअरीय माती मजनि ए (सा० ॥ को लीया मोटेरा बार च्यार ||३७||
सहीसमां गीमिरी एस०॥ हाथ षांची साहि कौन ॥
हाथ साही जोरियमतां ए (सा० हसया सवे सुजारा ||३८||
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यशोधर रास
मन्द्रसाथि यम नहीएस सूर पाश साप । अमृतमती मुतेम.जमो ए सा|| तहह्म असोधर नरनाथ ।।३।। विसल्या साथि यभ्या लक्ष्मण ए सा०॥ राम जिम सीता साथ ।। ममलमती सूतम यमो ए । साना तम्हे जसोघर नर नाथ ॥४011 सुलोचना सुजयकुमार ५ ।सान भरत स्त्री रत्न जु हाथ ।। मभृतमती सूतम यमो ए सा०। तम्हे जसोपर नर नाथ ॥४१॥ मंजनी सूपवनजयो ए सा। सुनीष तारा साथ ।। ममृतमयी सूतम पयो ए ।सा। तम्हे जसोधर नर नाथ ॥४२।। सावित्री सुब्रह्मा ममा ए सा. श्री हरी लक्ष्मीय साम ।। अमृतमयी सूसम अमोए ।साल। ता जसोधर नरनाथ ।।४३|| एह प्रादि मंगल मननीए ।सा। गावती गीत रसाल ।। मिजमाडी फुअरी ए ।सा०। बार च्यार गुणमाल 11४४||
पार सोहासणी वधावयोए ।सा। मोती माणिक तेशीबार ॥ गौरी सावित्रीमि प्रहिवा तनए साल काहि वली अय अपकार ॥४५॥
एणी पिरि बेहेवा महोछव हावाए । हचु हरष रहूरंग ।। रायकरि उलट भरी । पियहिरामणी उत्तम अंम ॥१॥ सोना पार मोहामणो, मोती चुक पुराम ।। अनेक सगा सजन बह, विनय सहित ते होय ॥२।।
भास रागदेशाख राजा रस बेटडा मेडीयिए । तिहा लगन लेवानी जोसी तेडीयिए ।।
भास महाधवलनी पाट पाथरया पटोलडेए । तिहां राय बोलि बोल मीठडे ए ।। पाणे करणय कमाय घणीए । पीछोडी पागडी कनक तणीए ॥१॥ सेला साल भूना झोपलाए । वह मरव परकाला भलाए ॥२।। पीला पीताम्बर ऊपताए । रूप सारा कणा ससी जीपताए । देवांग वस्त्र झीणां प्रणाए । फलवंश गोपी नख सुम्या ए ॥३॥
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बाई भजीतमती एवं उनके समकालीन कठि
पंचवरण मसरु बहूए कसबी मंग तिहां पिरि पिरि लहू ए । मसजुरा मुकंबल सूफ सकलासए । एह आदि देवहू देसली जात ए ॥४॥ नवरंग चौर पटोलडां ए । साडी साउलाट घट चोलाए । झूचा झीणां छाएस भलाए । कमखा मादि सावटू सोहो जलाए ।।५॥ कडक कुडल भसा विहिरवाए । हार गांठीया रतन माणक सरबाए ।।
रह प्रादि पिरभूषण बहूए । पिहिरामणी पिर निसारधा सहूए ।।६।। भरात को पहरावणी
रायराणां मंत्रि घणाए 1 वर तात काका मामा भण्या ए॥ भाई भतीजा पीत्राइऐ या ए। मोहोसाल मासा मसी प्राई प्राए ॥७॥ वर माय मोसी काकी मलीए । वर बिहिन भाभी भावे भलीए ।। एह आदि कुटुब मिल्यो बहूए । पिहिरामणी काज बिइठा सहूए ॥८|| राय दूधै पाय पखालतु ए। रागी साभि बोनय जागणे चालतु ए । कुकुम तिलक काढी करीए । वली पाय पीलिते बहू परीए ।।६।। एम सह सजन पिहिरावया ए । बरबहूनि ग्राभूषण दीयां ए॥ बहू रीति मांडव वघाबयो ए । वरण, पाच लागी नि मनाइयो ए 1 १०।। कुअरी कुकुटीला काठीयाए । मि माणक मोती चोदीया ए॥ वाजिन वाजि तब पर्णा ए । हुई मंगल गान माननी तीणां ए ।।११।। जांन चाली ऊतावली ए । राय प्राथ्यु बलाना मन रली ए॥ दासी दास साथि दीयां घणाए । सा विनय कौधा कहू तह तरंगा १२ मागरा सह संतोखपा ए । परि परि पात्र शुभ पोलीयां ए ।। मजल मजल जान पलती ए । वली ढोल नीसारण बजावती ए ॥१३॥ सगा दान मांनि संतोषा सबे ए। राय जसोष जैन सुत परणीइए 1। समकित द्रव देवेन्द्र विनय कौउ ए, गुरुषांदु प्रभाचंदमन रतीए ।। १४॥ पाछेण पाणी छांटतां ए । घरमाहि प्राध्या देह संघटता ए॥ गोत्र जनें पामे पड़यां ए । माय बापनि नम्या मोह बड़ा ए ।।१५।। जिनवर मुबनें वधामणां ए। कीषा पूजा अभिषेक घणा घणा ए । संघ पूज संघ वाछल करयो ए। तिहां राम जसोष जस विस्तरयो।ए।१६ सजने सहू बधावो कीयो ए । राइ दान मान तेहनें दीयो ए॥ विनय करी संतोषीमा ए। राय राणा मोहपा निज घिर गया ए ॥१७॥
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यशोपर पास
गुरवी प्रभाचंद मनि रली ए 1 वादी चंद, सेविं जयदेव वली ए ।। राय बसोधर कोजामणो ए । राजभार परयो सोहामणो ए॥ सामंत क्षत्रीयें परवरयो ए 1 सपांग राज अलेकरयो ए ।।१८।। काल घणो राज भोगविए । रणि वरीयना दल जोगवि ए ।।
प्रगट प्रतापि परयों ए 1 बहूदाने देखीयाँ दुःख चूरयो ए ॥१६।। राज्याभिषेक करना
एक दीवसिह देखीयो ए । रांयप्रबल प्रतापि लेखीयोए । राज्य देवा उधम करिए । बहू जोसी तेडी मुहत्तं परिए ॥२०॥ राय राणा तेडा वयाए । बहू भेट लेइ ते प्राषयाए ॥ जलदेवता पूजी करीए । घणा कनक कलस प्राण्या जल भरीए ।।२१।। कनक सिंघासन प्रापीए । परिण उछवि हैं तिहारो पीयोए । मोतीय चोक पूराषयोए । नारी तिलक करी वनाधीयो ए ॥२२॥ वाजिक वाजतां बहू पिरिए । राय कलस हामि लेन करीए । सुभ लगनि सीर हालीया ए । तब जय जय कार सहूयें कीया ए ॥२३॥ पट्टबंष सीर बांधीयो ए । तव राय राणे पाराधीयो ए मुगट माथि काने कुडल ग । तेजि जीत्या रवी शसी मंडल ए. 1|२४|| कनकमाला मोती सोहिए । मामला प्रमाणि मन मोहिए । हाथ सांकला राज मुद्रका ए | सोहासरण कीधी मारातिका ए ॥१२॥ राय जसोध उभो रह्यो ए । मुम प्रागलि कनक दंड प्रमो ए । राप राणा प्रागंभीमाए । सब ऊभा रह्या जाणे थंभीया ए ||२६|| बिनय करीय सोर्घ वदिए । लाज्यों हूँ पीता देखी नीचे पदिए ।
राय मुझ वपन श्रीकारी थिए । राय राणा जूहार अवधारीयिए ॥२७।। राज्याभिषेक में विभिन्न देशों के राजामों का प्रागमन
अंग नमी म के भेटणं, ए ! बंगरायनि मान दीयो षण ए ।। राय कुतल केरल तणाए । एह नि दृष्टि प्रसाद कीजि घणाए ॥२८।। कोसल मगध देस राय नमें ए । एइनि प्रति नमीजि जो मन गमे ए ।। नमि कनर प्रवड पणी ए । एहनें वधन कृपा कीजे धरणी ए ॥२६॥ कलिंगराय निमें चीत दीजीयिए। नीखधरायमु जुहार ते लीजीयए। नमन नयन बचन रसिए । केता हस्ति ममंगि थोडि हसिए ।॥३०॥
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चाई अजितमती एवं उसके समकालीन कवि
१५५
मानीया राय पण पूजीयाए 1 राय राणी लज स्थानकि गया ए । एणी पिरि राज हूँ पामीयोए । राजा जसोष तणो भार वामीयोए । ३१॥
राज जसोध ते नीर्मलो, राज पालि गुगामाल 11 सल्य रहीत ते जिन तणो, धर्म करे सुवीसाल 1॥१॥ षट कर्मह श्रावकतणां, पालिते मन शुद्ध । मुमकित पालि निरमलु, भव्य तरणी ए बुध्य ।।२।। जसोध राय एक समि, विठो सभा रसाल । परी सिमुख जोमंता, दीठो पल्यो मोपाल ॥३॥
मन जीनाभि, तटरको निरस्त ॥ काल तणी स्थिति छि असी, करय विचार सुजुत ||४||
नमः
प्राचार्या: परमेष्ठिनः सुतपसो निस्यादृतावश्यकाः । पंधाचारविचारचारुचतुरा: सद्भक्तसौरच्यप्रदाः ।। सद्धर्मामृतमहर्षकरणा वाक्कायश्चित्तावृताः श्रीदेवेद्रसुविक्रमस्सुतपदाः कवतु को मंगल: ।।१॥ इति श्रीयशोधर महाराजचरिते रासचूडामणों काव्यप्रतिछदेः ।। भूदेवकवि विक्रम सुत देवेन्द्र विरचिते । यशोषराज वर्णन यशोधर विवाह पूर्वक राज्याभिषेक वर्णनो नाम तृतीयोधिकारः ।।३।।
चतुर्थ अधिकार
ढाल भद्रबाहुनी वृद्धावस्था का प्रभाव
राय भलिए पली शिकूडी । जाणे यम तणीए दूडी। बोडी मावीए तेउवाए ॥१॥
अथवा यौवन वन घणं, रहयो, काल महानल वेगि दहयो। रयो भसमनो हग जसो ए ॥२॥
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यशोधर राम
जाणे अथवा जरा ए राक्षसी, तनू समसान माहां प्रावी वसी, हसीत बांत समी लेखीयए ।।३।।
देह तलावरोमानली झाइ, काल पीसाचि जाणे नार्हाड,
वाडव कामर्ने धारवाए ||४|| सरीर दीसि जाणे मोटो वड़ए, अनेक रोग पंक्षी प्राछिनड । बडवाई समा दीसोयि ए ॥५॥
सरीर जारणे सायर सरीखो, रोग मगर दुःख लेहेरी परीयो ।
संख सीपोनी फीण भलूए॥६| जाणे देह ए मोटी वाडी, पली हाड तीहां मूक् ऊभाडी । वीहाडया भोग सीनालने ए॥७॥
मारणे जरा प्रषवा ए वेल, सरीर वृक्ष पामी करे मेल । कील तंतु सम एह भणो ए ||८||
रूप लावण्य ए थान्य प्रसीधो, विषय इंदि जाणे लूहूसी लीनो। कीधी दगए परालनो ए HIT
अथवा जरा रूपिणी ए नारी, परस्त्री रत पर कोपी भारी ।
केमधरी दांत पाइती ए ॥१०॥ काला केसते प्रधार घोर, कुटि पाडि बीखया चोर । सूर बरा उद्योत मला ए ॥११॥
जुहू गरदु धणं होय रसाल, वांछतु दौसि बिखराल, चांडाल तलाव परिस्त्री त्यजिए ॥१२।।
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बाई ग्रजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
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नवौवन सेषि दूध साकर करी, वृधनि त्यजि गूगल क्वाथह परी । परी कामनी एहवी कही ए ॥१३॥
वृधनी नारने दीवी सरखी, स्नेह सींचे करि जाले हरखी।
पण पर पुरुषनि ऊपगरिए ॥१४॥ धोलानी माला केसरालो ऋद्ध, जनवनि भमि केसरी समो वृक्ष, क्रिम धीरे नारी हरण लीए ॥१५॥
अथवा प्रवनी गनि ए वृद्ध भमि क प जारिणए गृद्ध ।
परबा वीहि नारी हसलीए ॥१६॥ प्रवनी नदी वृध मगरनी वास, वांकी डाद सौर ऊम्जवस मास । पासि न प्रावि नारी माछली ए ।।१७।।
हाथें लाकडी वलयो वृध दांको, नीची नजर भमतो घf थाको ।
यौवन रतन नीहालतो ए ॥१८॥ वृधि हाथ धरा जे लाडी, अचेतन थी परणहीडि ना हाठी। पाठिन स्त्री केम चेतन ए ॥१६।।
वृष देह कर पली बली रह्यो, लावण्य रस परनालि बयो।
ग्रहयो जाणे जरा साकिनी ए ॥२०॥ नयन झरि मुख लाला गलए, लोभ विस्खय वाद्यो वल बल ए। करय तृष्णा कल माहि खयो ए ॥२१॥
वृष हाथ वली सीस पणावि, जाणि जम तेडि पणनावि । हविक्षण एकरहो इम कहिए ।।२२।।
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१८८
यशोधर रास
राजा यशोष द्वारा चिन्तन
मिवली पणो रषयो प्रारंभ, बिचारी जूहहोयि प्राचंभ । कुभ भरघ. पापि प्रापणो ए ॥२३॥
कुटंब काजि राज विस्तार कोध, तनु गोले दीटी मंकोडा दीध ।
लीध कुगत दुःख में घपो ए ||२४|1 मेघ पटल सम र परिवार, विघंटता नवि लागे वार । गवार फोकि जीव मोह करिए ।।२।।
भव पनि फालि सह वीकराल, मुख पड़या जाणें जीव मग बाल,
सबल सरण ते कुण राखेए ।।२६।। समुद्र मध्ये वाहाणथी ऊघो सूहो, सरणि तेइनि जिम को नहीं हो । जीवडो कष्ट पड़पो धर्म राखिए ।॥२७॥
द्रव्य क्षेत्र भव्य भावनि काल, पंचप्रकार संसार विशाल !
काल अनंतो जीव दुःख सहिए ॥२८॥ घोहुगत माहि जीव एकलु भमिए, सुख दुःख काल एकलोनी गमिए । समय एक साधे को नहीए ॥२६॥
करम कलंक काया यको भिन्न, ज्ञान स्वरूपी आत्मा छि मन । मनोपन तेजनो पूजलोए ॥३०॥
मसुची रुषोर मांस में देह, हाड मरयू कर्म बांडाल गेह । नेह तेह सू न्यानी किम करिए ।३१।।
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१८
बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
दुजरा देहू मेहू सम जातो, नह वाक्यो जमाख्यो मंडाड्यो । घखाप्यु प्रापरणों पण ए किम नोहिए ।। ३२॥
लोभरणी कुडी छितारी गोरडी, मलमूत्रादिक असूचीनी तुररी। पडीयो पासि कुण्ण भवतरिए ॥३३॥
पंच प्रकार प्राश्रव सत्तावन, मलि पावन में करि अपायन । धन्य ते जे एथी बेगुल ए ॥३४॥
प्राधवरोधन करय महंत. गुपति बोषय जम यति गुणवंत ।
संतते संवर प्रादरिए ॥३५॥ तप करी कर्म करें ये जर्जर, उभय प्रकारि करय जे नीजर । निर्जर यई मोक्ष ते लहिए ॥३५।।
घन रज्जू त्रयसि त्रिताल, पुरुषाकारि लोक विशाल ।
मनादि अनंत द्रव्यिं भरभु, ए ।। ३७।। प्रार्ज खंड मनुज उत्तम कुल, दुर्लभ समकित जिन धर्म नीमल । निश्चल पालि ते धन धन एह ।।३।।
त्रिकरण सूध करि दस धर्म, सास तस्वनु आणि मर्म ।
कमहणी सिव ते लहिए ॥३६॥ एणी पिरि चितवता मनुप्रेक्षा, बसोपराय मझ देवि सीक्षा। दीक्षा लेवा उद्यम करिए ।।४।। राय सहू सूक्षमतम कीष, माथि एक सत नुप छि प्रसीष । लीध दीक्षा दान पूजां करीए ॥४१॥
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१९०
मशोधर रात
यशोधर रामा एवं अमृता का जीवन
प्रजालोक हर्षित सह, करिते मुझ मुणगान ।। मारीदत्त अवीधारीयि, जाणे पाम्यो नीचान ।।२।। समित क्षत्री राय पणा, मंत्री प्रादि परीवार ।। मझ तरणी प्रामन्या सिर वहि, प्रबल प्रताप विस्तार ॥३॥ अनेक राय भि वश करघा, रण मंगरण करी झझ ।। उपचीता रीपू वीटीग्रा, कोन लहिं मुझ गुझ ॥४॥ सुष्ट से पारण मनावया, दुष्ट से कीधु नाशि ।। मुझ नीसारण सुतडो, रिपु जननि पडि त्रास ||५॥ अनेक राजा तणी कुंपरी, परभ्यु हूँ उत्तंग ।। रूप सोभागि आगलो, तेह सूरमू मनरंग ॥६॥ अमृतमती सू अतिघणु, निसदिन रास दिलास ।। गुख भोग हूँ मनरमी, करतां कुतुहल हास ॥७॥ अमतमती कुखे हो, पर जसोमती नाम ।। दिन दिन ते मोटो हनी, रूप विलास गुण ठाम ।।८।। इम करतां दीम बहु गया, पाब्यु मास वसंत ।। अष्टाह निका व्रत प्राचार, मवि अग लोक महंत ॥६॥
भास वसंतनों फागुगनी, राग पंदोला गुडी लोक सवे उलसंत, वसंत सू प्राप्यु मास ॥ घिर घिर नारी कोज मणी, भामिनी गावि रास ॥१॥ मंत्रीयि मझ मन जाणीऊ, पारणीयो मन विवेक ॥ वसंत क्रीडानि काज, साथि कटक अनेक ||२|| हार्थीपि पाली बाडी, देवाडीय मंगल तूर ॥ निसारण नादे ऊमट्यो, ऊलटयो सागर पूर ॥३॥ अनेक सुजात वखाणी, पलाशीया चपल तोरंग ।। कीष धजा घणा संतरा, संघरमा रथ उतंग ।।४।। पालायो सर घसमसि, वमसि करि न लगार ।। पालखी अनेक सुखासन, रासनि काज अपार ।।५।।
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अजोतमति एवं उसके समकालीन कवि
व्हा
अंत:पुर सज था, पावेए मन प्रानंद ॥ बिसी सुखासन पालखी, सखीनां साथि बृद ।।६।। कंचूनीया अनुगामी, प्रामि कनक दंड धार ।। वाडी धवलहर माहि माहि रमिसुविचार ॥७॥ राय चाल्यो तब नेलवा । खेलवारु छि साथ ।। हाथो घंटा चालि मलपती । जलमती हय नर नाय ।।८।। अनेक राय घण' मंडीयो । खडीयु रीपु दलमान ।।
उडी रज खराया मही । रहोयो ऊ पाई भान 11६|| सन्तोत्सव मनाने राजा का बाहर जामा
राय चाल्यो तब जाणीयो । प्राणीयो लोकि पाणंदी ।। क्रीडा कर वा उछक्क हवा । कि हिबा लागा नारी वृद ।।१०।। सहा प्रात्रु ब्रह्म सांथि । ए नाथि दीधी सीस ॥ आगि नारी वली परीय । पिहरीय चीर सरीय ।।११।। पिहिरा पोती भरी कांचली । चंचली अांखें अंजेस ॥ बंटी करवा आभूषरण । भूषणडा बहु लेय ।।१२।। वीछोया पागडां घूधरा । नेउरनू झमकार ॥ हंस गामिनी जाणे मंगल मेखला नु धमकार ।।१३।। मोतीयुनु हार ललकि 1 ढलिकि टोडर कंटे चंग ।। एक दाणीज बली पद कडी । जडीय छि रतने सुरंग ॥१४॥ मोहोडीयि सोहि बिहिषो । सिहिरषी चंपाकली हार ॥ करवली कंकण चूडीय । रूडीय मूद्रडी सार ॥१५॥ नाके अमूलफ मोती । पनोती कानें सोही झाल । नलवट टीलू जडाव । सोहावि ए पीसलदो गालि !1१६।। सिंथो फूलो सेस फूल । प्रमूलक राषडी वेण ।। गोफण झुललकावि । लोडावि बाहुडी तेरण ।।१७॥
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१६२
यशोधर रास
खेलवा चाल्या मसि ! घसमसि सह नर नारि ॥ हार गमिण तूलिए ' मामाश नार ! वगधीय सगर वगरी ठीय । हेठी नव्य लेय ॥ कही भमरी कहीं सांकलां । मेखलां छूटी पडिय ।।१९॥ बहटा सेरी मणि भरी । पहिरी जाणे भम नारि ।। नौज स्वामी ने नरखेए । हरखी करि सरगगार ॥२०॥ राए ऊद्यान जब धीठो । मीठु होइ पंखी नाद ।। जाणी राय देखी भावतो। भावतु वन करि साद ॥२१॥ केसूअडा फूल्या रातडा । रातम अशोक मपार ।। मांया मांजरे मोरीमा । मोरीया कुद मंदार ।।२२।। पीला फूल्पा रुडा चंपक । नीप कदंब अतूल ।।
पाउल परीमल अबसर । पसरि पगार प्रमूलः ।।२३।। बसन्त बहार
परीमल बैध्यो जायनें । जाइ नहीं अलीपुर ।। रातडी पण सासु बने । सूजनी पिरित्यजय भूर ।।२४।। जूखडी जूई वखाणए । जारिगए केतकी चंग ॥ मयण गज वंतूसल । उज्जल केबष्टु रंग ।।२५।। मधुक फुल्या फूली माषबी। बांधवी अली रह्यो श्रण है रूपि रूडी रूप मंजरी। मंजरी छि बहतेण ।।२६।। पारजातक रुडी रेवती । संवती सोहि गुलाल | कमल भलांवली करम । रकरि ममर रसाल ।।२७॥ घकूल छि परीमल गाउ । महउ मोगर मंच ।। टगर अवंती सींदुरीयो । छे बपोरीयो बहरंग ।।२।। वलसरी वालो वसंत । दीसंत मनोहर रूप ।। भमर भर्मि जारणे किंकर । तर पर सेवि नृप ।।२६।। प्रांबां बन बहु मंजरी। पिजरी दीसि चंग ।। कोयल करि टहूंकडा । दूकडी कूजि सुचंग ॥३०॥ तर पर ताल तमाल रस । लिही ताल अपार ।। रायण रातडा एवडा । सूमडा सेवि विधार !॥३१॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
१६३
ऊती सुडा तरणी श्रेणी । सुजेगि बोलत रसाल ।। पर वाली वचि नीलमरिण । बसंत तणी कंठमाल ॥३२॥ अखोड बदाम बीजोरडी । जंबीरडी जंबू नाम ।। नाग के सर नारंग | लबंग एलची तणो ठाम ।।३३॥ मालीकरी करणा एम | दाडम रही छिन मेव ।। तुकी किरनि करमदी। भरम हरम सगो देय ॥३४॥ मंडप तोहा द्राक्षा तरणी । अतीघरणा छि गम्भीर ।। नागवेल नवरंग । सोरंग सोपारी थोर ।।३।। फण सफल्या भरला तकी । जातकी चारू चारोली । खेलिय राय सूरंग भरी । अतेडरी करि रोल ।।३६।। अनुरकी केसर सपा परी अलि अपार । मुठडी भरीय गुलालनी। लालना मुख परि सार 1। ३७।। अबीरी नाखती नयन पुरी। रस भरी हससी नरसाल ।। गलती कमल करीहूं हणे । स्तन कपरि गुणमाल ॥३८॥ फूलझी हणि कलधरी । ललीकरी पडि मूमे चंग ।। बलि ऊठी अंगि पालंगि । रंगि रमि उसंग ।।३।।
दोए कर धरी दोए ऊचली। हंसली समी सोहंत ।। तूबी सूजाणे वेणा वल्लवी । वल्लभ मन मोहंत ॥४॥ एक करें पीडी भोयि पडी । पातली भीडी बाथ ।। चंपारणी अचेतन रही । मुख कहिमो मो नाथ ॥४१॥ एक अपरि घण संडीयि | मंडी रही क्रूर वृष्टि ।। एक पयोधरि पीडीय । छेडी नापि करि रूट ||४२॥ वेणी घरी एक रीसि कहि । रहि रहि मण तथा चोर। अहो प्रबला तनु कोमल । कमल समीन निटोर ।।४३॥ वनक्रीड़ा काज भमती। रमती जाणे वनदेव ।। वेल वेलिहिडी झबती, झूबका चूटीय लेव ।।४।।
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१९४
यशोधर राम
सरू डालि एक वलगती । हीचती वारीवार । घगी तीहां बांधी हीदोगडा 1 जोड लहीवि अगार ।। ४५॥ लव कटी मम्बन्ला खलकती । घरती जाणे श्रुती सार ।। गावती गीत रसान । विशाल' ।। रति अवतार ||४६!! डाल बलगी कारें खांचनी । उठे विसे बहू बार ।। मुरत बीसरधो संभारती । करती नयन विकार ।।४७।। फगाभिर रही छान ख़ाचवा । सांचवा कुमुम अतुल ।। कंतें रसोली हसीबली । डान ऊछली पद्धयां फूल ।।४॥ जागोह रावू देखी लाजीया । लिऊ पाव्यु प्राज ।। डाल तालणतां एक चीर खस्यो । हस्यो तब सही सह राज ।।४६।।
फूल मुकुट फूल टोडर ' फूल पछोडिपि राय ।। फूल परणा फूल बाटडी । गेडी फूल मामा ।५ । जाणे प्रतक्ष ए बसंत । खेलंतो वनदेवी साथ ।। वन कीडा करी नारमू। मारिदन सुरण नरनाथ ॥५१॥ सह नर नारी यह वोलि । खेले ए वनें वसंत ।। चंदेव केशर शांटेगां । वृकुम तिलक महंत ।।५२॥ हल टोडर वह परीमल । पसरे दस दिस सार ।। परीमल लाभीया भमरा । रणझण करी अपार ।।१३।। जल मूखडो कली दीठीय। पीठीन फूल पगार ।। वन कोडा श्रम 'फेडीस । तेत्रीय राणी सराग 1३५४।।
स्वल करी मुखपरी छांदता । तूटता कमन सूवास ।। माहोमाहि घण भवतां । करतो हास विलास ॥५५।। जल खेलें इम नीसरया । पहिरघा वस्त्र विवेक । पहिरयां प्रनेक ग्राभूषा । दूषण नहीं अंगि एक ।। ५६।। नगर जावा सने सज थया। दाजिया विविध वाजिन ।। संभ्रम सहीत पुरी प्रावीयो । सोभा दीसि विचित्र ।१५७।।
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वाई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
१६५
नगर मझमी । नगर मझमी । हूंछ सुविचार । वन क्रीडा करी आवीयो । अंतेजर सू सार मनोहर ।। म्नान पूज जिन भोजन सजन सरसु कोष सुखाकर । ओह प्रान गिल वर जहू की पानंद प्रणार ।। एणी पिर हूं राज भोगव । मारीदत्त अवधार ।।१।।
अमृतमती रानी का कुबडे के गान पर प्रासक्त होना
एक समय अमृतमती, धवल ग्रह मझार ।। सही पर सूफरि गोठडी, मीठडी पतुर अपार ॥१॥ सेरिण समि सेवक अधम, कूबडो प्रति हि बिसाल । मालव पंचम प्रालवे, सुदापि सुरमाल ।।२।। तब ते गान श्रबण पडयो, पडिहरणाली जिम पास ।। दुती चतुर भली सदा, पटावी ते पास 11३॥ कृरूप देखी पाछी वली, चीतति चित्त अपार ।। काम चरित्र अचित्त छि, दुस्सह काम विकार 11४11 हे जाणे अपचारा. होय विस्मय देखी रूप ।। ले देवी कुबडु एहनि मन बरि, दुर्जय काम ए भूप 2 दतीइ देवो वीनबी, तेछि कम्प अपार ॥ नीचनिकष्ट निठोर तनु, तेह् सूमोह निवार 11६1॥ तव अमृतायि एम बोलीयू, सांभिल मुषी मन सध्य ।
कुल कुरूप कुतनु कह्मरे, के कहिं वेह कुबुध्य ।।७। ये हनि सम प्रमन्न भयो, त्रिभुवन विभई हेच H तेह नर नितू जापाने, कामिनीनि कामदेव ॥८| रूप यौवन फल तेह की, पामोयि स्त्री मन रस्न ।। ते सो मन एणि ग्रस्य, रूप न कसू यत्न III से कर एहधू जई, जेणी पिरिए बश याव ।। एह दिगा मुझ तन मन तपे, क्षरा एक रही न सकाम 11१०॥
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१६६
यशोधर रास
तब तेरणयि तेसू बाऊन, अवसर जोई रमेय || मारीदस अवधारतू, हूँ नवि ल हुए भेय ॥११।।
मास रासनी राजा यशोधर का राज दरबार
दिन दिन प्रति राजपाल तो।।करतां पर उपकार तो।। प्रजालोक ने सुली करए । होह मुझ यश विस्तार तो।।१।। एक समि सभा मंडगिए । मध्य उन्नत भद्रपीठ तो ।। उज्वल रतन नो सोभतु ए । जागणे निज पण दीठ तो ।।२।। परवालाना थंभ मला ए। मंडप प्रती विसाल तु ॥ फरती विचित्र धणं, पूतलीए । मंडी नाटक मालि तु ॥३॥ तेह परि कनक सिंघासन ए । पंचवरण मणी बद्ध तो ।। प्रमूलक मूडा गादी मला ए। रचना प्रतिहि प्रमिङ तु ॥४॥ सेरिण अवसरिहू प्रावीयो ए । सभा मंडप मझार तु ।। सामंत मंत्री रठी नम्या ए । विनय सू करय गुहार तु ॥५॥ सिंहासन बिठी सोहीयो ए । यम उदयाचल मूर तु ।। रतन कुण्डल तेजि करीए । कोषु तिमर प्रती दूर तु ।।६।। उलबद्ध घणा राजीया ए । उभा रहा तेणी वार तु ।। यथायोग्यमि संभालीमा ए । ते जिरण कीर्घा जुहार तु || बेहनि बिसवा प्राणाहती ए। ते विठा सुविचार तु॥ अनेक राणा उभा रहया ए। कर जोड़ी तजी हथिप्रार तु ॥८॥ नयण बलावि को नहीं ए। को नहीं चालि हाथ तु ।। को नही अांगली चालधि ए । वात न करि कोय साथ तु || को माहोमाहि मव्य हसिए । नभ्य करि कोय संकेत तु ।। चरण चलावि को नहीं ए । को नहीं प्रठींगण देय तु ।।१०।। सोस हलावि कु नही ए। को नहीं सीस वोम तु । कर कंपावय को नहीं ए । आंगली कोय न गणेय तु ॥११॥ को कटका मोडि नहीं ए । को जंभाई न देय तु ॥ को स्वांसि खंखारें नहीं ए । को नहीं दे को नहीं लेय तु ॥१२॥
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पाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कषि
छौंकि कोई तिहां नहीं ए । कोय न रास भराध तु [] को किहिनि कसि नहीं ए । कोय न सीख देवाय तु ।।१३।। को कामि मोकलाय नही ए । फोय तीहां न तेडायतु ।। कोई स्तुति माबि नहीं गए । को काई नम्प खाय तु ॥१४॥ प्रण बोलाव्यु बोलि नही ए । नवि कोडाहुन थायतु ।। बोलाब्यु बोलि थीर थई ए । जारोह बुसू पसाय तु ।।१५।। को मूछि हाथ घालि नहीं ए । नध्य भमरी व चलाय तु ।। प्रत्रामरस वालिको नहीं ए । परताभ्यि कंप्या रांम तु ।।१६॥ पीत्रामा पिर सो रहा ए। लक्ष भट कोटीभट वीर तु | जरिय सभा सायर समी एं। वायु वीना थाइ धीर तु ।।१७।। छत्र उज्जल पीर सोभए । कनक कलस उत्तंग तु ।। नज प्रगाह चमर भलाए । नीरमल' गंग तरंग तु॥१८॥ वारंगना ढालि धणी ए । हुइ कंकरण झनकार तु ॥ रुपि प्रपछरा जीपती ए । ऊपि प्रतीही अपार तु ॥१६॥ अनेक राणाना भेटणए । प्राग्या लेख सहीत तु ।। विनय सहीत मंत्री बांदए । राय सुष्णु थीर चोत तो ॥२०॥ लेख सुखी प्रति उत्तर ए । देयू हूं धीर युध्य तु ।। मंत्र बटि गुप्ती करू ए । बाधि यमराज रीत्य तु ॥२१॥ क्षण एक कवित्त प्रलंकरपा ए । सुकवित्त तणां राणु चंग तु ।। क्षण एक बाद बीतांसनाए । सांभलू मनि तणि रंगतू ।।२।। क्षण एक नव रस नाटक ए । जोऊ भेद संगीत तु ॥ सारीगमपधनी सप्त स्वर ए । अनेक ताल भली रीत तो १२३॥ मुर्छना भेद भला लहू ए । नदमा नचावि पात्र तु ।। ताता थेई येई ऊपरे ए । नाचती मोडे गात्र तु ।।२४।। क्षए एक भाट भणीत भलाए । कबित रखा सुरसाल तु॥ वीर रस विविध परि ए। निज पराक्रम गुणमास तु ॥२५।। इन्द्रजाल वीर साधक ए | अंग साधक कला कोड तु ।। शस्त्र साधक श्रमजोउ ए । लहगुण अवगुणा मोड तु ।।२६॥
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बशोधर राम
मल्लयुद्ध क्षण एक जोउए । मत्त मतंग जूद्ध तू ।। मीढा महीष झूमता जीऊए । ते अद्धि छि प्रती क ष सु ।।२७॥ इम करता लतृहल । गण मंडीत सभा माहि तु ।। कलपतरु चिंतामणीए । कामधेनु मऊ चाहि तु ॥२८॥ दान देखी सहू लाजीए । अदृशयां इम जाण तु ।। सारद चन्द्र कुमुद समुए। यश विस्तरयो वपारण तु ।२।।
बा विरह वर्णन
तेणि प्रयसिरि मुझ मांभरी, अमृतमती मुवीचार | रूपयौवन गुण देह तरणा, जीतु रुदय मझार ॥१॥ वोरह ज्याप्यो मुझ अती घरगो। क्षरण एक रहण न जाय ।। अमृतमती गुण अमृत सू', रह्मो हु चित्त लगाय ।।२।। विरह संताप व्याप, मझ कोमल अतीकाय ।। अमृतमती गुपचन्द्रका ए। रहयो हृदय लगाय ॥३॥ विरहतणी घणी वेदना, तब उपनी मुझ देह ।। अमृतमत्ती गुण बड़ा, रसांग रस पिर रथ्यो सनेह ।।४।। विरह तण अति दुःसहू। हृदय पिइट साल ।। अमृतमती गुण शस्त्रधर, बैद्यनि घांठ विसाल 1101 वीरह दावानल ननुवले, लागो अति विकराल ।। अमृतमती मेघ पयोधर तदा, घ्यांऊ प्रती ही रसाल ।।६।। विरह तृषायि व्यापीयु. यापीडु अपार ।। अमृतमती गुण चीत जाणे जन्मघर धार ।।७।। विरहा. मातो मतंग जो, तनु पाटण गंजेय ।। अमृतमती गुण प्रकुसि, चितधरवी गंजेय ।।८।। विरह मुजंगम मुझ नडयो, वेयर वीवह ज्याप ।। अमृतमती नू मनकरू', नाम मंत्र तणु जाप्प ||६|| वीरही दीछी बिर्ख व्यापयो, मझ शरीर मझार ॥ अमतमती गुण ऊषधी, घरी करू सीतकार ॥१०॥
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ई अजीतगति एवं उसके समकालीन कवि
विरह अंधारि दुःखीयो । चक्रवाक सपूर ।। अमृतमती नाम मन रली, चीत हूँ गुण गूर ॥११॥
मास महालतानो अमृतमतीना गुणधरणार : महालतहे। षीतबू प्रतीही बरवारण । सुरण सुन्दरे ॥ बिरहायण भण उपसमिए । मा। हृदय वसीयिम बाण । सु. ||१|| चरणों कमलपणं जी कीयाए । मा । लाजी याकी उजलि वास ।सु०॥ मजबली गमनें जीकीयो ए । मा० । तेह वनें रह्यो उदास ||मु०॥२।। घूटण विरह हणवे भलाए । मा० । बंधा कनकमय भ ।। सु० ॥ जघन जाणे करी कर सोभा एमा०।।
जीके रंभा प्रदंभ |सु॥२।। अमृतमतो सौन्दर्य वर्णन
कटालके जीत्यो सिंह लोए ।मा। लाप्रो गयो बन ठाय ।।४।। पोढा परभान पामीयाए मा०। दूर देसांतर जाय ।।।।४|| ऋष्यवली उदार सोहिए 1मा०। रोमावली बन जागा ।। सु।। मयण मातंग जम जुवाए ।मा० नाभी ए रह वखागा सु०॥५॥ कनक कलस जाणे ऊपताए ।मा। अमृत भरया हम जोय । सु०।। पीन स्तन मुखे मेव कस |मा० जाणे मुद्रा दीधी होम सु०.६॥ अथवा पयोधर घणं सोहिए ।मा। रपे लागि एह नि दृष्ट ।सु०। इम जारणी फरयो मिस लांछन एमा०। चतुर विधाता घृष्ट ।सु०१७।। अथवा कनक कलस परि एमाग1 नील उत्तपल सोहंत सूका कमल छोड़ा अथ स्तन भए ।मा। उपरि भमर मोहंत ।मु०॥८॥ चकवा चकवी जोडलूए मा। एहना स्तन रसाल ||सु०॥ मुख चंद्र देखी भय तजीए मान जारणे रोमावली सेवाल ।सुपर।। अथवा हृदय सिव शंकर ए मा चंदन बचित जाण ।।सूना स्तन उपरि जे स्यामीकाण ।मा। सुउपरि कल्हार बखारण ।मु०१।१०।।
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पातली नारए जाए ।मा०। कोमल स्वीए कठीसा ।सु०॥ स्त्री सुमुखी स्तन कालमुखाए मा०) बाहेर काबधा मादि तेरा ॥११॥ कठिण कालमुखा घणं, होइए मा० पण अर्थि त्मजि न लगार । काठिण थेइ नहीं टूटीयिए !मा कूपराए जाणो विचार सु०१२। जाणे कनकनी विध घडीए मा०। पातलाडी भली बेल ।।सु०॥ गिरिर म पण कोकर देश निरि बल सु॥१३॥ लावन्य सांपो कनक तणो ए मा०। अमृताए दमणा छोड़ ।। बेल बीला लागा लहूंए ।सुला ए मऊ कोतक कोड ।।१४। केटली स्तन सोभा कहूं ए ।मा० जागो ए मोटा राय ।सु०। प्रासमुद्र हूँ कर ग्राए ।मा० तेहनिमि कर देवाय ।।१०।१५।। कनक दंड समा मुज कहू एमाला कल्पवल्लीन वितान ।।सु०। लावी आंगली वली कोमल ए मा कर पालव समान ।सु०॥१६॥ कंठ सोभात्री रेखमूए ।मा०। देखीय वर्ष सुवर्ण । संख डकयो जलि जै पडयो ए मा । लाज्यु हृदय विशीर्ण ।।१७॥ हडवटी दरणं, छि पर ए माल चंद्रमाहि जसु नक्षत्र । दांत दाहिम कुली कहूंए ।मा०। रतन के मोती पवित्र ।।सु०।१८। नासिका मसिए सुक लहू ए ।मा। बेटो मोती घरेय ॥४॥ कान पासि ए भामर धनु ए ।मु०। ग्राह्य सूक कोंड्यो पण नउरेया ।।१६। अधर पाझांटी दूरडा एमा०। दांत दाडम कली जाण ॥१०॥ ए माहि पहिलू कहने ग्राह्य एमाग थरथई चीते वखाण ॥सु०२०) भाखडी कमलह पांखडी ए ।मा | माजी छि अपी पाल सुका अथवा राता कमल भरणं, ए मा० काला भमर छिवीसाल ।सु०॥२१॥ अथवा मछ युगम समीए !मान रहीषा लावण्य' सर मांहिं ।।। धीवर देखी पीडा घरे ए मा ए बहू अश्चर्य ठाह ।सुना२२॥ नयण शोभायए गंजीयाए ।मा०। खंजन बली चकोर ।सुका वनि भमंता हीडता ए मा० नागते जेम चोर ॥४०॥२३॥ अर्ध चंद्र समो सही ए सु०। तेह भालस्थल होय सु। नयण वाण भमरी धनु ए मा साधी कंपावय लोय ॥सुग२४।। कान ए काम हींदोलढा एमा०। अथवा नयन मृग पास ।। केस मारे जीकधा मोरहा ए मा तेरिंग पण घरघ बनवास ।।सु।।२५
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बाई अजीतमसि एवं उसके समकालीन कवि
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जाने कनक तणी पूतली ए मा। पासली मोहए वेल ।।सु०॥ मसार सुख माहि भूलू एमाजेएह सूकर गेस !सु०॥२६॥ गमनागमन बेगि करिए 1मा। अस्थए अमृता कटाक्ष ।सु। क्षणविनय घोडा थीर होइए 1मा०। अमृता केरा प्रभिलाख ॥सु०॥२७॥ वाटला कोमल पीरोजडा ए मा०] धोडा अमृता थण साध सु०॥ रतन मोती परवालडाए मा०। अमृता वीना एकाच ||सु०॥२८॥ माता मेंगल मोटका ए मा एमझ मन न सोहाय ।सु। अमृता बीना एम लेख ए ॥मा। दर दाया गीरी ठाय ।सु०।२९ रथ जाणे एगै हिटीया एमाग रारकरि प्रती कर सु०।। रथ रोध मझ मन भम्पू ए मा०। अमृता मती रिहि रुध ।सु०॥३०॥ अनेक राणा राय देशसू एमा। मंडार सहीत ए राज ।मु० ममृतमती नारी विणए ।मा०। एणि मझसू सरि काज ।।सु०॥३१॥
बहर अंगी पिरि चीता प्राकुल्यो, सांकलपो जिम नाग ! अंतर मदें नयन तरें, पण उठवा नहीं लाग ।।१।। तेरिण अवसिरि दिनकर सही, लोक बधिय इम जाण ।। प्रस्ताचल सन्मुख ययो, जाएं मुझ करुणा प्रारण ॥२॥
मास भूपाल रागनी सूर्य प्रस्त होने का वर्णन
दिनकर रे आश्रमतृ हवो रातडो॥ निशि नारी नु रे, जाणं कि कुकुम चोलहो ||१|| जिम प्राथमतो रे, तिम ते घणं रागे चढ्यो । सही महाजन रे, रंगनमूकि कष्ट पडयो ।।शा यम ऊगतो रे, तिम प्रायमतु रंग भरघु ।। सहि सज्जन रे, मन सुख दुःखे सममुख करयो ।। ३॥ प्रस्ताचलें रे, सूर मावतो जाणीयो। निज सिर परि रे, मुकुट समो वायो ।।४।। पश्चिम दिसि रे, रवी माबि हवी रातडी । । पंखी तरणा रे, बोल मसि करे चानडी ।।५। ।
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यशोधर रास
बिन अंतरे रे, रवि घणं मान पामयू। उत्तम नरे, कोणि एक सीस न नामयू ॥६॥ व्यभचारिणी रे, ममन रो रीसि बढी । रखी उपरे रे, देषाडि प्रांखि राती ॥७॥ जाणे तेहस्यारे, सूरज प्रस्तोगत गयो। अनला तणि रे, स्वा कोहोनो नही क्षय थयो । जेह उवय थोरे, धर्म कर्म चाले घणो। तेह प्राय रे, जाणे वोषा काल तणो ॥६॥ रवि मायमेरे, कोमलागी धरणी पदमनी । देषी नव्यसकिरे, प्रांख मीची रही परणी ।।१०।1 निज मीत्रनो रे, दुःख देखी अती दुर्घरो। दुखीयो पाय रे, कोरा नही ते उपरो ॥११॥ रवि साथमें रे, कमल माहि भमरो रमि । सही कामनी रे, निचसू संग करिसिमि ॥१२॥ कमल तणी रे, सोभा तव क्षय पामीई । जिम व्यसनी रे, विद्या सरीखी वामई ।।१३।। ममे भमरा रे, दीन या विलखे घणं । जिम विदांस रे, कुजन मांहिं पामे दीन पणां ॥१४॥ अंधकार ए रे, लोकनि पीडि पापीयो। जिम कुस्थिती रे, भूप घणं लोभि व्यापीयो ॥१शा सह लोकनारे, नयन तदा नीफसा होवां ।। जिम कृपणनाए, जनम बली धन सांचवा ॥१६॥ सय दीवी रे, ठाम ठाम घणं प्रगट ई ।। अंधकारनी रे, व्याप्त ते वारें विघटई ॥१७॥ जिम जिनवाणी रे, ज्ञान कीरणि करी व्यापती॥
घर करी रे, मिथ्या तीमरनि का पती ॥१॥ चन्द्रोदय बर्शन
तीगि अवसर रे, अग्यो पूनम चांदलो ।। पूरव दिसा रे, नारी सिर जाणे बांदलो ॥१॥
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२०३
बाई मजीतमप्ती एवं उसके समकालीन कवि
जागणे उज्ज्वल रे, पूज दोसि कपूर नो ॥ छे समरथ रे, ताप निवारवा सूर नो । २०|| पूरय दिसे रे, ए नारी मुझ प्रक्षाणं करे ॥ समी श्रीफलरे, नक्षत्र तारा तंदुस धरे ॥२१॥ पूरच दसि रे, गुफा थको ए नीसरी ।। गगन बनें रे, संचरयो शशी केसरी ॥२२॥ किरण नखे रे, अंधकार गज विदारयो ।। जाणे तारा रे, मुक्ताफल विस्तारयो ॥२३॥ उग्यु चांदतु रे, अवनीयि बाणे गारुडी । काम सापने रे, जगावि कीरणे लाकडी ॥२४॥ अथवा ससि रे, जाणे नीसाणा नोखंडडो । बांगा छूटडारे, धसिए काम पुलंदडो ॥२५।। शशी सीतल रे, अमृत मय कहिवाडतो । लांछन मसिरें, हर दो काम गलती ॥२६॥ देखी व्यरहणी रे, संताप पामी प्रतधणी । चन्द्रप्रति रे, कहिया लागी सेह भरणी ॥२७॥ पासी सोतल रे, बाह सकल ए किहो हती । केहर गले रे, विस्वतणी हवि संगती ॥२८।। सायर माहि रे, घडवानल श्री मौस्त्रीयो । तू कलंकीय रे, दोखाकर जड लेखीयो ॥२६॥ तूं कुमुदनी रे, साथि खेलि मन रली । गोल आलोपि रे, परस्त्रीनि छके चली ॥३०॥ मसासरे रे, अमृत पीतां पतिबिंब नु । हूं नालज रे, परनारी मुख, चंचनु ।।३१।। सायर मधीरे, फोकें देवि ऊपाइयो ।। छई खोषण रे, सायर कुल तिल जावीयो ॥३२॥ मंदर तसि रे, सिहिजिसि नहीं चंपाइयो । अगस्त तशी रे, मजलीसि न पीवाईयो ॥३३॥
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२.४
यशोधर रास
एरिण परें रे, ब्यरहरणी ससी सूखीजती । संजोगणी रे, किरण लागि घणं, रीझती ॥३४।।
बही
सय में सभा सज्जन सहू, प्रावस्या नीज ठाम । हूँ उठयो ऊतावलो, मनिम्हा अमृता नाम ॥१॥ रसनवंश परतीरिण समि, मंचूकी भाव्यो जेम ।। अमृता पवासि पधारीपि. हरष उपनो मुझ तेम ।।२।। भूख्यो दिन बिध्यार नु, पंचामृत लाहि जैम ।। तरसो सीसोदकि लहि, हरष उपनु मुझ तेम ॥३॥ तावड घणं संतापयो, फलो तरु सहि जेम । विनयवली दान गुण लहि, हरष ऊपनो मुझ तेम ॥॥ रूपवंत निवली भयो, भण्यो विगग मुश र ! विनय वली दान गुण लहि, हरष ऊपनो मुझ तेम ।।५।। दुष वली साकर भली, मंदी मली मगि ओम ॥ चन अर्थि निधि पामयो, हरष ऊपनु मुझ तेम ॥६॥ श्रीमतः परमेष्ठिनो मृशमपाध्यायाः कृताध्यापकाः ।। शिष्यारणा प्रतिशिष्यकादिमुनिनामेकादपांगानि ।। पूर्वाश्येक चतुर्दशादृतमाचाराः पटतः सदा ॥ श्रीदेवेन्द्रसविक्रमस्तुतपदा: कुर्वन्तु वो मंगलं ॥१॥ इति पशोधरमहाराजचरिते रामभूडामणी काम्पप्रतिछंदे भूदेवकवि श्रीविक्रमसुम देवेन्द्रविरचिते वसंतक्रीडाराजसभास्थिति प्रगटित विरहपट्टराजीवर्णन सूर्यास्त चन्द्रोदयवर्णनो नाम पसुर्थोऽधिकारः ॥४॥
पंचम अधिकार
भास मारवंदानी को भणंग
सबहू काल्यो रंग भरी । प्राणदारे । मध्यवक्त परमाहिती। अंगरक्ष सापि सही पा पोस उसंषी चाहितो ॥१॥
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बाई जीतमती एवं उनके समकालीन कवि
हूँ बढयो पेली पोलि । प्रा० वालया दृष्ट अनेक तो । जोसो बैद विबुध जन || विनय सहीत सुवीवक तो ॥२॥ बीजी भौम्य सोहामणी | अर० नोल रतन तणी सार तो ॥ संगीत जारण बीलाबीया प्रा० गायकी यात्रय उदार तो ।। ३ ।।
(प्रा० पीला रतन में जोयतो ।। सुरगतां हरष बहू हो तो ॥४॥
ू
नोजी भोम्य क्षेत्र जंत्रधारणी जंत्र बाय 1प्र०
चुश्री भोग्य उलास' मा रतनदीप झवकें वरपर प्रा
स्याम रतन मय जातु ।। ऋटो सुणतोस वा तो ||५||
चढयो हूं सुरसालयो । राता जाणे परवालतो ||६||
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०
राता रतन ती पांचमी यहां मोती ना भूलका | प्राol फटिकती छठ मही । प्रा० दोठी निज प्रतियो || जाओ एवति मरणोन माय तो ||७|| सातमी मही सोहो जली ! प्रा० पंचरतन मय चंग तो ॥ पंचवरण स्वस्तिक मला आol अनेक विश्रामरण रंग तो ॥ ना
तीहां चघो रंग भरयो । प्रा० सही सहुए जय जय कोयो प्रा० श्रादमी भोम मनोरम (०२ उपर अनेक चित्रामतरे ।
भरघो दूवारको हाय तु ॥ तिहाथी चाल्यो राहू सरथ तो ॥६॥
रात रतन भीत मली श्रा० प्रमुख रतन मया ठाम तु ॥ १०॥ तिहरे चोहू समसी | मा० हसीत वदन हो जाए तु । जानीधान में पामी मा01 अथवा अमृत करवाए तो ।।११।।
अमृतमती जाणे यूं | आता मंदिरे पारा राय तु ॥ घंटा वणी वजावती |प्रा०] [भावनी साहामी काय तो ॥ १२॥
aratast maaranी | भा०| तेवर तो भ्रमकार तु 14 हंस गमणी जा हंसली । प्रा० हूं हंसप्रति आये सार तो ।।१३।। कटी मेखला खलकावती |प्रा० पातलडी सिहलंकतो || गजगामिनी जाणे हस्तीनी स्तन भारी घणं नमी रही मा० सो प्रावती र नुटती (आ० उरवर हार लिहिकावती या हसती है जिन्हें या तरिण | 101
G
हूँ हस्ती प्रति अवलकतो ||१४|| नीतंत्र भारें घरा खीनतो || कटी झणी माटि बीहू मन्त्री ||१२|| खलकावती चूड़ी हाथ तो ॥ बेगलिदे बामू सुनाती ॥१६॥
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२०६
यशोधर रास
नयण वारण घरणं नाणती या| नयण क्षोभावसी मरत बदन शशी एह देखता माला विरह संताप गरा काने कुडल झलकावती ।प्रा०। सेसफूल फूली उद्योत तो।। वेणी गोफणो लाहिकावती याला गम्खड़ी रतनहु जोततो ।।१।। वदने मुझ गुरागावती ।पा। भावती जय जय वाण तु । प्रावती हूं पालंघीयो पाला लैई चाली करताण तु ॥१६॥ रतनपलंग छत्री ग्रालो ।मा। हंसनलका पहि रंग तो। कर धरी शेजि हे जिसू प्रा० विनय सूउभी असंग तो ॥२०॥
प्रा. लीधी तब तेणी वार तु ।। पाणंदारे चीर छोडता लाजंती ग्रा०। रतन दीने फूतकार तु ॥२१॥ विफलथया कमल हण्या मा० तेहूं नदीवान देवाय तो॥ मान मोडाइ माननी ।आ। रही मुझ सू तनु लायतो ॥२२॥ भेद चुरासी ग्रासन ! कीचो तब संभोग तो॥ नख दीघा जे स्तन परी मा०। काम प्रसस्ति जाणे जोग सो।।२३॥ मघर संडते ऊपतु माला कोमध्वजाए लांछन तु ।। हृदय हृदय मुख परीमुख मा। तनु करी भीडयो तल तो ॥२४॥ गाह पालंघन देयतां मा० मनपरि तनु महा पेठतो ॥ विपरीत मुरत खेलता प्रा61 बोनपैर चपल ते दीठतो ॥२५॥ अमृता मालती महालली पाoll हू भमरो इम जोयतो । ममता जागे कमलगी पालन हूं मकरंद सम होयतो ।।२६।। ममृता चंदन छोडूउ ।।प्रा०। हूँ भोगी इम जाण दू ।। अमृता सरस तलावडी प्रा०ा हूं मेगल वखारण तु ॥२७॥ अमृता जाणे वीजली !मा। हूं वली मेघ समान सो ॥ अमृता जाणे मीठी झाखडी मारा हूं जाणे मंडपवान तु ॥२८॥ अमृता ए कल्प मेलडी मा०ा हूं कल्पवृक्ष विचार तु ।। अमृता रती रमती रुडी पाहूं कामह अवतार तु ॥२६॥ इम सुरत सुख भोगयता प्रा0 परसेनश्रम लीनतो ।। हू सुतो तब रंगभरी ।पा। ममृता कंठे कर दीन तो ॥३०॥ तेण गुण क्षण भरण चीतब पाल। सुरतकला प्रेम भाग तो । मकर नार उपर नीडी प्रा० माय वान लहे लागतो ॥३१॥
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राई प्रजीसमती एवं उसके समकालीन कवि
प्रभात समय हूं कुअर ने प्रा०। प्रापी संसयज राज भार तु । अमृता घिरहू चिर रहू प्रा० भोग भोग सुविचार तो ॥३२॥ राय ए नीद्राव थयो गयो पा ०१ जारणी नीसरी समे तेरण तु॥ मुजपंजर थी चंचली प्रा01 काजलीयो यम न गा तु ॥३३॥
वृहा ममतमतो का कबडे के पास जाना
तय हू मने प्राचंभीयो, एणी वेला विहां जाय । अघलाए बली एकली, कुण कारण कुण ठाय ।।१।। तब सेग्याधु उठयो, चाल्यो ह तह साथि । उटो अंधार शिकलो. जसा परा निज दाथ ।।२।। सने समें ते नोसरी, कमाइ युगम उघाट । मारीदप्त अवधारिये, रही कुबडो उठाउ ॥३॥
मास बोबडानी रामदेसाल, नगर घूसारा हो लोक नी वालि । कुबडे के शरीर का वर्णन
कालो कोढी कसमलो हो । बाहिला काजल बन 11 लषी कांबस समान । काम के पांच मुखो हो। नारी मनरथ कूरडी हो। नारी नाख संसार हो जीवडा ॥१॥ हो जीवता जूज जूउ नारी बीधार ॥ एग मोगली ठाम नही हो । घटी घूटर मान । भूहरुनी पिरि घर परि हो । चासतु रीछ समान हो जोरडा ।।२।। उभे घटण जब जेसे हो । तवछ माथां देखाय ।। कोट केथी दीसि नही हो । दोय माथा छि सहाय हो जी० ॥३॥ रोम जसा कांटा समा हो । जाँघ ए बाजल खांभ ।। पेट मोटू रु दोल सभो हो । पिर पिर पाषाल डांभ हो जी० ॥४॥ टीरांफला मुख समी हो । हैया मुर्य स्खयो षाड ।। हाथ सूका मोटी नसा हो । तुनु दव बलयु झाड होजी०३५॥ बीह बल्पा काठ खंड खभा हो । वामो ऊटनो समान ।। कडि भांगिढ गले वल्यो । जाणे हुक संस्थान हो जी ।।६।। कान कोही जाणे सुपडा हो । नाक दाकिणीनू टोच । पड़े खाडो वीयर मोटो हो । प्रालि दीसि अब हो । जी० ॥७॥
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मगोधररास
प्रांत ऊडी नुडी पडी हो । भमरी भेदन अगाय । पाणि पण फापी त्यजो हो । ए पापणी नेह लाय होजी ।।८।।
स वरना होता हो । कई बार काई माहिं ।। मुख दुरगंधे रहिदाय नहीं हो 1 होठ तणो नहीं गाहि हो जी ||६|| कपाल ऊहू सीप समू हो । नही बली सीसम पाल !! माथू जाणे कागि टू मू । कोपा करद सूगाल ही जी०१०॥ हाथीनि मूनि हाथ बल्या हो। प्रांगली गली गई जांण ।। जाणे बल्यु ए थांभ हो । मारिदस सुरगो बाण हो जी० ॥११॥ का कूतरो निकाने कीडा । मुडो नि भूषाल ॥ अघमाने प्रछौ बोलु हो । तेह मोटुवाल हो जी ॥१२॥ पगफाटा जिम झांबडा हो। हलना पड्या घाहाल ।
पायतलां सी आगब्यु हो । तैऊ यो निमकाल हो जी ॥१३॥ रानी का कुबडे से निवेदन करना
राणी परती मोलियो हो । कटरण वचन बोकराल । कर असुरी प्रावई हो । भोटें झाली ततकाल हो जी० ॥१५॥ श्रीगे धपोई हीके करी हो । पगधरी ताणी चाहि ॥ कु अली पातली लही जिम हो । चंद्रकला नितराहें ।हो ।जू ॥१६॥ दली बोल्यो ते कुबडो हो । कायन बोलि नार । शिरनामी पायें धर हो । तुम मन माहि बिचार हो जी० ॥१६॥ हाम सहित बोल सभिली हो । ते बली बोली वारण ।। राय ते मुरु धेरह प्राययो हो । सेरिण दार लागी जाण ।हो जी० ॥१॥ राजा जो पहरो मरि हो 1 तो न चीतह नार । स्वामीनी तो भगत मारु हो । मझथो कोप निवार हो बी० ॥१६॥ हूं तुझ पगनी घाणो ईहो । सु' मुझ है या हार । हतुझनी दासी समी हो । हूं म झ काम अवतार हो जी०॥२०॥ है तुझ ऊजीठा समी ए। तु मुझ मुख तंबोल' ।। हूं छु पतंग तू मझ मन हो । वस्त्ररंगे वा चोल ॥हो जी०॥२१॥ तू' मुझ मनें करकंकरण हो । हूं मुझ चरण हरेण ।। तूं मुझ कोटि कारलो हो । को पत कवण गणेग हो जी०।२२।।
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बाई प्रीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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तू मुझ सिरें सेसफूल समो हो । तू मुझ गोफरणो वेण ।। हूँ तुझ किंकर किंकरी हो । कोपते कठण गुणेण हो जी०।१३।। तू मुझ काठ टोडर समो हो । मुझ गुण सुछ छे जेरण ।। गुणसागर तू नाही लाहो । कोपते कवरण गुणेरग ।।हो जी ।।२४॥ तू मुझ जीवतो जीवन हो, तू मुझ योवन जेण ।। तूं मुझ तनु सणगार सही हो, कोपते कबण गुरणेण ॥होजी०॥२५।। तब ते कुबडी हरषीयो हो, जाणी नारी अतरंग ।। ते नारी तेरिण पादरौं हो, भोग भोगवि मनरंग ।।होजी०।।२६।। तन हूं मन मांहि चीत हो, घिग पिग नारी एह ।।
हुमरीखो राय परहरी हो, नीच सू मांडपो नेह ।।होजी०।।२।। नारी चरित्र
नारी चरित्र सायर सम हो, कोय न जांणि पार ॥ हाथ धरें पण थीर नही हो, पारा रस सम नार हो जी ||२८॥ नारी नदी बेहू समी हो, सहजे नीचा संग । गोत्र उपनी सायर बरी हो, मल भरयो तुहूल सूरंग ।।हो जी।।२६।। बनें दावानल दीपयो हो, सूकू नीलू नध्य जोय || तीम फामनी कामें बनी हो, ऊच नीच नव्य अवलोय ॥होजी०।।३०।। नारी निवली वेलडी हो, ए बेह एक सभाब ।। मोटा तरुनि अवगणी हो, वाड भाखरां पिरभाव ।।होजी०॥३१॥ नदी घणी सायर ते मलि हो, तो हू ते ठालो अपार ॥ नारी नर बहूम रमि हो, तुहू नुहि तृपत लगार होजी ०॥३२॥ जिम जम जग जननें ग्ररातो हो, तोह न हो संतोप ॥ सम नारी बहू नर साथि हो, रमतां अधिक होइ सोख होजी०॥३३॥ न्यायें नारी ए कूवि पति हो, न्याय पालि गलि पास || साहासि सूरी सिद्दिजि हो, माया तणो निधास ॥होजी०॥३४॥ कूड कपट जूठा तरणी हो, नारी ए मोटी वारण ।। बापड़ा नर नै भोलवती हो, धूति मीठी वारण होजी०।।३५॥ नारी घीखनी बेलडी हो, नारी अनरथ ठाम ।। मारी नरकनी बाटली हो, नारी बीवन प्राराम होजी०॥३६॥
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यशोधर रास
नारी वाघरा वष वषती हो, नारी अशुचौ नीषान || नारी प्रत्यक्ष राक्षसी हो, ग्रसती मन तनु वात ||होजी०।३३७।। नारी पापन पोलो हो, नारी लोभन पुज ।। मारी नामि व्यंतरी हो, खाती नरनि मुज होजी०॥३८।।
नारी प्रन्या देषी करी, कोप उपनु अपार ||
ए बेहूनि हविहू हणं , है यि एहवं विचार ।।१।। रामा द्वारा ललवार निकालना और पुनः शान्त होना
खलंग काढयो पडी प्रारयो, वली बीनार मन लीन ।। मा अपला अवध कहीं, ए कुबड़ो भृत दीन ।।२।। एह हण्यो मझ ऊपज सहसि, काई न सीझ सि काज ।। खडग साबमू वली जोइ, मारिदत्त सणो राज ॥३॥
मास नरसूनानी सग के गुण
सब खडगह गुरुल चीतव । नारे समारण प्रांगण बीकराल || अरी दल मलि प्रती पर ए 1 जाणीइ कोप्पो काल ।।१।। रणभेरी रणकाहल ए ना। वाजि जब रण तुर ।। तव मम हाथि उलसती एमा। जाणे रोमांच्यो सुर ॥२॥ वापस तोरंगम काय वेगी ।ना। चपल साधकई अपार ।। सनाहि हूँ जाणे मेघलो एनाof खडग वीज झनकार ।।३।। रूग ए जाणे तीरप ए ना धारा बहु नीर ठाहि ।। द्विजनि देता धन तनू कापी ना। परि हरि हरि करी नाहि ॥४॥1 खतम जाणे राह समुए माग कालो तेह वीकराल । मुक्ष्यो अलि बेरी तणं ए। मा राजमंडल ततकाल III खडग जाणे सही मेघलो ए नाot पारामल वरसाय || भीना बीना वली नाहा मता एना) राजहंस कोतरे जाय ॥६॥ खग जाणे जम जीभडी ए ना। लल लस लांबी होय ॥ मोटा कुटा लोंटा देरीडाए नाग सुभटां चाटली जोय ||७|| प्रताय वैश्वानर वगए ना खडगए मोटी पास ॥ हूँ सूरसही परी इम कही ए ना। धीज काणि चाटि ऊदास ।।
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चाई अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
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खड़ग करि घरधो पुजिइ ए ।ना०। राणि प्ररी पण सवाद ।। वैरी रुधीर पीअंतडाए ।ना० सीस धूणी वषाणि संवाद ।।९11 खडग ए तेजनो पूजलोए ।ना०।। झबकि झबकि ए सूर ।। तेज सही नहीं सकिए ना। गगनि पीरि नीत भूर ॥१०|| ग्खड़ग ए मोटो दीवडो ए ना। परीप्ररण सोखिमंग ।। तेज तेनू सहि नहीं ए ।नाo] पटि वेरी पतंग ||११॥
डग दीवा काजल रेखाए ।ना। काली रणगिरिण जोय ।। तेह देसी वीरा । नाल गुमा होस । रुधीर भरयो हय गय तरीए ।ना०। र सागर परचंड ।। तीहा विरीदल बुडमांए ।ना। खड़ग एम करंड ।।१।। बडग भडके भुयि द्रम द्रमा ए ॥नाol कम कमि कायर कोई । परघापि गीरीवर प्रसिए ।ना०। मझधर वानूपायि कोड ॥१४।। खडग सहलि संजोगथी ए मा ऊषि अग्नी फलींग ।। संग्राम क्षेत्र स्थीरि सींचू ए पाना०। प्रताप वीज वाबू चंग ॥१५॥ खड़गमाहि प्रतिबिवऊ ए ।ना०। सोलू रण भोमि ।। जय लक्ष्मीवर वाजणेग ।ना। नील वस्त्र वीटयो जिम !।१६।। विरी करी फु'भस्थल ए ना मैदया खडांग वाणि ।। मंगलकाजि ए खड़गनि ए राना मोती भडे हबू स्नान ||१७|| हूँए हबो प्रतापियो ए नाम खरगए हवो विसाल ।।
शिम हां एणि करी ए राना०। कूबडो ए अबला बाल ।।१८।। राना का चिन्तन
कोप्यो जुह बहु सिंहलो ए ना०। परा नव्य हरिण सीयाल तिम हूँ कोप्पो किम हां ए नाका कूबडोए अयला घाल ॥१६॥ कोप्यो सूर संग्राम माहिए ना। न होए ना हाकानो काल " तिम हू कोप्यो किम हां, ए ना। कूबडो ए अबला बाल ।।२।। प्रचंड वायु तृण नव्य ऊखेडे ।ना। जेसह पाडिऊ माल ।। तिमहू कोप्यो किम हणं ए राना०। कुछडो ए अबला बाल ।।२१।। ससलासू हाथी धामिनहींए ।ना जे पाहि गिरीवर माल । तिम हू कोप्यो किम हां, ए |ना0कूबडो ए अवला बाल ।।२२।। वाघमकारयो वीर सूवदिए ना स्वान सूनव्य दीपि भाल ।। तीमहू कोप्यो किम हणं, ए ना। कूबडो ए अवला बाल ॥२३॥
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११२
फूकूतो फणपती जैम ए तिम हूँ कोप्यो किम ह
अगी भाऊ पैर नभ्य को
तिमहू कोप्यो किम हु
far विनोदी वादोयाए नाला जडसू न जां
विशाल ॥ तिम हू कोध्यो कम हां, ए मा०11 कूबडो ए अला बाल ||२५|| ए ॥ ना० चंद तेज के रसाल ||
ए ता० कूबडो ए श्रवला बाल ||२६||
ち
अय
सिम कोप्यो कम ह
गौरीवर मोड ए नाला नव्य ऊकरडा पराल |
ए ना
यशोधर रास
ना०॥ वलगें नहीं जल कंगाल ||
ए ना०] कूबडो ए अबला बाल ।। २४ ।।
+
रक्ता राणी का कथानक
कुंबडो ए प्रबला बाल ॥१२७॥
एम वीचारी चीत्त
एता
चरित्र पाछु त्यो ए ॥ ना०] मोहि भावास लेख्यो प्रतिभौमि ए ना। स्वर्गतणु प्राकार ।। हमें साते नरक सम लेखीए | ना०| तूं मारिदत्त अवधार ॥ २६ ॥
खडग कीधु पडी बार ॥ श्राभ्यो उपरडे तेलीवार ||२६||
ज्यों सूं तो चींतनू ए ना० नारी चरित्र अनेक ॥ रक्ताराणीयि जे रच्या ए निTol सुखो श्रेणिक सुविधेक ||३०||
कोयल वेस छे रुवडो ए ना० साकेता पोरी जाए ||
देवरति राजा तिहां रूवडो ए ना तस रक्ता राणी बखारा ||३१||
रंजे रमन्ते रस भरी ए | ना० रूपयौवन फल खेय ॥
राणी रूपि राम मोहीयो ए | ना० अबर न जाए लेब ||३२|| अनेक राजा उलगे आथिए । ना०| क्षत्रीय केरी कोइ ॥ राय रुडो परण मोहोल नहीं ए । ना० ए तेह मोटी खोड ॥१३३॥ सामंत मंत्री प्रती भलाए ना० सभा भाव्या कर जोड़ || राय रुडों पर मोहोल नही ए | ना० ए तेह मोटी खोड !
महता मोटा महतरा ए ना० बेसे दफ्तर छोड़ । राय रुडो पण मोहोल नही ए हाथी घोडा रथ घरणा ए || || रारा रूटो पण मोहोल नहीं ए ठाम ठाम ना लेख घणा एना राय रुडो पण मोहोल नहीं ए ना० ए तेह मोटी खोड ||३७| सीमाडी बेरी राजीवा ए ना०] नाथ नयर पुर मोड || राय रुडों परण मोहोल नहीं ए ना० ए ते मोटी खोड ||३८||
ना० ए तेह मोटी खोड ||३५|| पाला बहू फरे दोड || नए तेह मोटी खोड ||३६|| भेटणां श्रावि कोड ॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
परवारि परघान पाठव्यो ए ।ना०1 पोहोतु ते प्राधास 11 दूर थको राय बीनन्यो ए ना0 मधुरीप सु ललीत मास ॥३६।। राय वचन अवधारी इ " मा0। बीनबे तानि परीवार । मोहोल देई संभालीयि ए । ना७ देश प्रजा सुविचार || ४011 सर ऊम्या ण म व्याप एना चोरदा घर्ण अषकार ।। तिम स्वामी मोहोल बीना ए ना। लोक पीडयि अपार ॥४१॥ मंदिर मोटा माली मा । दीप बिना स्विकार ।। तिम स्वामी मोहोल वीना ए ना। लोक पीडयि अपार ॥४२॥ मंदिर नवनीषी भरच ए । पुष बिना दुःख भार ।। तिम स्वामी मोहोल बिना एनाका लोक पीड़ायि अपार ।।४।। पुत्र पौत्रादि कुटंब घणं ए ना बन बिरण दुःख विचार ॥ तिम स्वामी मोहोल विना ए राना लोक पोटायि अपार ॥४४ बहू सणगारी गोरडीए । ना। विण नयनांजन सार ।। तिम स्वामी मोहोल विना ए । ना० । लोक पीडाय अपार ।।४५॥ देस सीमा राजीया ए। ना० । भौजि पाटण पुर गांम ॥ प्रजा उपरी दया करिए । ना । मोहोल दीयो अभिराम ।।४।। तव राणीसू बिचारीयूए । ना० । राणी किहि सुगो राय ।। तह्य धोठा विण शण एक ए | ना नव्य रहिवाय जीवाय ।।४७|| सव सा प्रधान प्रति किहिए । ना ! संभालो तह्म राज । लोकनी रक्षा तो करो ए । नाक 1 अह्मारि नहीं राज काज ॥४॥ मंत्री किहि राज दूध घटए ! ना0 } वनयोगी सवे मांगार ।। किम तेहनि दूध भालत्री ए 1 ना० । राजन हृदय विचार ॥४६॥ राय किहि राजषय नहीं ए । ना० । नारी सूचि मूझ काज ।। किहि मंत्री तुह्म एम गमिए । ना० । ती राज मूको राज 1101 तब नारी मोह्यो राजीयो ए । ना०1 राज तजी साथि नारि ॥ रतन मोती साथि लीयाए । ना० । चाल्यो अदबी मझार ॥५१।। रक्तासू रंगि रमें ए । ना० । भमि अनेरे देश । यमुना नदी काटि ऊपबन ए । नाउ । तिहां ऊतरपो नरेस ।।५२।। सीलांत पर छोहोडी ए । ना० । रक्ता षोलि सोरमेहेल ।। भात राजा तिहां कोसभ्यो ए। ना० । निद्रा प्रावीते वेल ॥५३॥
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२१४
वडीये रेहेट हाकतो ए ना० पंगु अपंग अपार ॥ तेहनू' गांन सांभली घरं ए । ना० । रक्ता वेषी गमार ||५४ ||
ती जं पांगलो जोईयो ए ना० । बोली नोलजते वार || तू मुझ जु गोकरिए। ना तो हूं होऊ तुझ नार ।। ५५ ।। तब द्रहो आयी राय कपात करि बरी से || राज विना किम कोजीयिए । ना० । वरस गांठना भेद || ५६ ॥ राम कहि ते far कहोए । ना० कीजि जमाचार | महोन बाबीइ ए । ना० । कोटि वालीयि फूल हार 11५७ | तब नगर लोकनो हो तरए । नाम लोक जमें अपार ॥ रक्ताविहार रच्यो सीए । ना० । पास सरखी विचार ।। ५८ ।।
alt एकव्रत मानीय ए ना० तंतु व्रत एम जाण ॥ तांत भांणीता बांध सू ए ना० । नदी कोठे ठीक पग होगा ।। ५६ ।
यशोधर् राम
पायथ्यो ते
राम रोहयो सामग्री मैनीए । ना० । अंगूठां कंठसू तदी केंद्र || हसतीयि रायद्रुढ बांधीयो ए । ना० उलंठ ॥ ६०॥ पोते तीलक करी बधाथीयो ए । ना० | कंठे धाल्बु पास हार || कंठे वाली ते ताणीयो ए । ना० पास गलि बिइठो ते बार ॥ ६१॥
तब राय नदी माहि नाखायो एनाः । गई रक्ता पांगला पा चालि वीहिलो हवि जाईमिए । ना० । मम चूकसनीज भास ॥ ६२ ॥ तब से सीथि आभ्यो दोपलो ए ना० । पांगली शीर पेर ले | गाम गाम अमती फरि ए ना० | सती सती एह कहिए ।। ६३ ।। लोक मानिन्यानया ए । ना० । पग पीले शीर कु कुलाय ॥ भली भली भोली भरिए । ना० । केना कहि माथ माय ॥ ६४ ॥ मायाविणी सुख भोगविए । ना० । पांगला सू दीन राति ॥ लोकय माडि वस्त्र दीमिए । ना० । ए रही होंथि वात ॥ ६५॥
तोस बोडी ते माखले ए । ना० । राय तरी पाम्यो पार ॥ मंगलपुर राजपामीयो ए । ना० । राजपालि भी नार ॥६६॥
रक्ताचावी तेरिए पोरें ए । ना० । लोक पाम्यो प्रारंभ || राजमुदने तेडी वलीए । ना० । बोली ते घरी दंभ ॥ ६७॥
राय बोलते उसी थिए । ना भेद कहाँ वीरक्त हृवो ए
ना०
1
सही नसती यिम जाण ॥
संसार दुःख मनें शा ।।६८ ॥
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पाई प्रमितमती एवं उसके समकालीन कषि
परीत्र पीतव' वीरवती तए'ए। ना० राजनहे धन मित्र साह ।।
धारिणति तस सुत दस नरम ए । ना० । बली भूमि ग्रहपुरी माहि ।। ६६।। बीरबती कथानक
मानंद साह तिहो पसिए । न तो तप सस पुत्री सुवेवायोए । ना० । दसनामा कुमार ||७०।। घोरवती नाम तेह तणए । ना० । सुखि रहि परीवार । एक समि साहा परि गयो ए। ना धन पन गयो अपार ।।७१३ इत्तकुमर दुःखी हवो ए । ना० । पोहरि भुको नार ।। भन का ते पालयो ए। ना० । रतन द्वीप सेणी वार ।।७२ वीरपती प्रन्या करे ए । ना० । पाप जोडे विकराल ।। अंगारक सूसुख भोगवि ए । ना० । ए मनी ममि घणो कात ।।७।। व्यसनी चोरी करतणो ए । ना० । परचो ते कोटवाल ।। मूली दीधु ते पापीयो ए। ना० । पाप फल्यो तदा काल ।१७४१३ चौरवती नो जार सही ए ! नाव वीरवती मोहि जाप ।। मेह मल्याविण तेहनो ए । ना० । जीवन जाय वरमारप १७।। सेणि काहायु' वीरवती प्रति ए ना। तुझ विण प्राण न.जाय ।। धीरवती मला तणो ए । मा० । चीतवें तय ऊपाय ।।७६।1 सब उपम करी मावीयो ए 1 ना० । वीरवती भरतार ।। सजन सहू भानंदीयूए । ना० । हज प्रो प्रोहोरगा चार ।।७५१ निशिह संता शेजडीए । ना०। सूतो नाह लहेय ।। भीरवती पाली जार भरणीए । ना0 1 हाथें खडग घरेस ।।७।। सहस्त्रभर चोर कौतकी ए । मा0 एणी बेला ए मार ।। फवय ठाम जांमिते जोर्क ए । ना० । पूलिं बाल्पो तेणी वार ||७६।। पडयांन चासंच लो ए । ना० । खर्षि यो फेरच खउंग ।। पणीक यांगनी बढाईपर्डीए । ना० । बयाईपि पण लग्ग ।।८०॥ बेगें मसास माहि येईए । मा० । मारने नव्य पोहोचाय ॥ उपे र उपर मडां बरीए । मा० । नार प्रालंधी काम ।।८१॥ भार कहि बन फरोए । ना० । तेह मुखें अधर देयंत ।। जीव गयो तेह चोर नुए । ना० । भीडामा दृढ तेह बंत ॥२॥
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यशोधर राम
२१६
पगधी मडांष सीपडया ए । ना० । पडी भोमे ते नार॥ होट चोरनें मुखें रह्यो ए । ना० । नारी भावी घर बार ।।८।। नाह फह ने मूती क्षणी ए ! ना । करी उठी पोकार ।। ईरणे होठ मझ खंड कीयो एमाहवो कोलाहल अपार ||४|| परभातें राय जाणीयूए नाम बीरवती भरतार ।। वीरवई कही काठपो मारवाए ना नव्य जीयो न्याय विचार ॥५॥ तब चोरें राय दीनव्यो ए। ना । देखाइयो प्रगली छेद ।। नारी परित्र को नष्य लहिए !ना। कहयो हदो चे भेद ।।६।। तब रायें सेवक मोकल्याए । ना० । चोर तणं मुख जोय ॥ उष्ट काळी राय खन्याए । ना० माघम पाम्धः सका । नारीने दंड कोषो घणो ए ना०1 साहने दोधू मान । गोपवती चरित्र चीतए नाक मारीदत्त सुरणो सुजाण ॥६८)
गोपवती कथानक
वर ध्यान देश छि रुवायो ए ना। पलाशग्राम पुर नाम ।। सिंह बल अत्रीति बसे एनाश तस नारी अभीराम गोपवती नाम तेह तणं एना। रुपसोभाग अपार ॥ सिंहबल क्षत्री तिहां गयो ए |ना सेवा काजि विचार 1800 पदमपुर त्याहा श्री वेगल्यूए ।नाग सिंह सेन तिहां राय 11 वल्लभा राशी तेह तणी ए नान पुत्री तेहर्ने गुण ठाय 118 सुभद्रा छिनाम तेह तर्ण एना. सोहि प्रती ही अपार ।। सिंह सेवानि प्रावीयो ए ना सहर भट्ट झूभार ||१२|| भूमिह सेनने भेटीयो ए ना०) रायदोघं बहू मान ।। गाम ठाम दोषा भला एनान कुबरी दीवी निधान ॥१३ ते साधे सुख भोगवि ए ना। बोसरची ते नीज नार ।। दीवस घगों नेणी जाणीय' एनाला नाह तमो विचार ॥१४॥ तब ने फोप घडी षणं एनाआदो तीहां ते जोय ।। भेद माल्या महू नाहना एना। गोपवती छांनी होय ॥१५॥ घर उपरि चढ़ी करीए ।ना०1 ऊतरी करडी मांहि ।। मोय वासीर छेदी लेईए ना। तिम प्रावी निज ठाह ।। ६६॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
सिंहबल सब जागीयोए नाग नारी नसीर मध्य दी। कमाठ दीयां देखी करीए ।मान मनि प्राचंभ पईल ॥१७॥ आलमूऊपेर मानसि ए ना। इम जाणी माहाठो ताम ॥ चकित थयो मनि चीतव ए ना पायो ते निण गाम ॥८॥ नारी कटिं वीनय कर ए ना। स्मान भोजन प्रकाश ।। जमता कोल करें घरीए ना रात्र भाभ विचार IIEI तव ते गोपवती यदिए ।ना। अन्न न भावि भाष ।। इम कही सिरभाणि ठबीए ना। हवे जमो मापनि साथ ।।१०।। पोकर करतो तन ना सनु ए नाग हरायो काही तरवार । सोर करती रोक्ती ए ना। कोरिण हण्यों भरतार ॥११॥ नारी मू मांयू लाययो हतो एनाका ते माटि मारभो जाण । इम कहो हर हर कही ए ना। पीहा माहिं बली दूःख खरा ॥१०२॥
एम कीतत एम पीतत । गई बहू रात । नारी रमी प्रावी प्रधमसू। सूती मुज पंजर पहछीन । मन कारण सुख दुःख सणं । पढम एह भावंत मीठीय । पछे सीमस तरु समी । रुखू चेतन सूमपार । इम रजनी प्रणी नागमी। मारिवत्त अवधार ॥१॥
भास-सोल सपन नागौ तनी प्रमाल वर्णन
मधुप चुबित मुमुदनी रातो। पांबलो जाणे नीचे पर्थे जातो ।। रजनी नारी प्रति चतुर सुजागी । चंद्रमकीनाग्नि कलंकी जाती ।।१।। चंद्र झांखो नमतो हवो पाए । अंबर अति वसगो न मनाए ।। जाती नारी कोहो कोरिणर खाय। चंद्र रह्यो इम लही नीज ठाय ॥२॥ जाणी राति रोती पकवई खीणी । कुमुदनी कमलणी घणी प्रसौनी ॥ पारके दुःखे सजन दुःख पावि । दुष्टनें खड खड हासूम प्रावे ॥२॥ वायू वाजि सुगंधी झीरयो । यमल परागर्ने भारें खीशी ।। नारी घणी घेर घूमेव लोणां । पेर पेर पंखी साद सलूणां ।।४।।
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२१८
यशोधर राम
पूर दिस कोई कांई होई पीली । रवि श्रावि माट पीठी करें भोली ॥ तारा बीण पण थया जागे। उद्यम हीन राय पेर वखाणे ||५||
विर घिर दीवा कोई नव्य सोहि । नीर्घन गुण जिम जन तथ्य मोहि || बिर बिर काम कतूहल जीता। ऊं जागरथा दीवा सीस डोलंता ॥६॥ सूर प्रथमे तो खल घं सोम्या । रवि न फरे पवनें व ओम्या " वाजे विविध वाजिन रसाल । तेहि जाभ्यो वली परभात काल ||७||
I
N
प्रबल बीरुद मुझ बालि बंदीयण । गीत गंभीर गुण गावये गायण || बार बोध्यां माता हाथीया डोलि । मद लोभी भमरा मला बोलि ॥८||
माय पिरपिर हम रह्या हींसि । क्षार सकल ग्रागल पडघा दीसे || सूर ऊग्यो जाणे कुंकुम रोल पूरव दिसि घाटडीरंग बोल ||६||
अथवा उदयगीरी रातुं छत्र पाकू दाडिम फल नाणे विचित्र || गिरिवरं वानरा लेवा धाय । ग्रहण हाकतो दुःखीयो थाय ॥१०॥
वेगना पील्यो पूज्यो गिरिठो । उदयगिरि रवि राय बईठी || रातां किरण करो सिरसू प्रषार सींदूर लेखना घेत राया पो तार ।। ११।।
रांडी सिरसिया सम लेखें । लोक फोकि कु कु करचो देखि ॥। रोडा एम मंडन ए करती । कुडुन कुठु किम नहीं व्यभिचरती ।। १२ ।।
सूर ऊगि परिए दुर्जन अंधा पण अवगुण बोल वातरणा बंधां ।। दान पूजा धर्म सुजनें कराम । इम ऊग्यो रवी जाणीयो राय ।।१३।
प्रातःकालीन क्रियायें
उठी जिन गुण चिंतन की। नौयो त्रीयि दंतधावन कर दोषू ॥ मंगल स्नान आदि श्राचार। मुकुट प्रादि कीघोसणगार || १४ ||
सके सरगार सू मावीय नारि । अमृता देखी कमल मूवयोय वारी ।। कमलषाय भोधि पडी विचीत्र । जुषतु असंभम नारी चरित्र || १५ |
मने बोललो पण भेद न दाखू । दीक्षा तणं, मन केहेन न भालू ।। मंगल तिलक मानयि वधाव्यो। राज मंडीत सभा माहिंहूं याच्यो ।। १६ ।।
यशोधर का राजसभा में बैठना
रयण संघास बैठो तेणी बार राय राणा मंत्री की जूहार । जैन ऊपाध्यायनि दीय मान । बेसी भासने तब की आख्यान ॥ १७॥
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बाई श्रजितमती एवं उसके समकालीन कवि
तत्त्व पदार्थ श्री जिनवाणी | सांभली भाव सहीत सुखखारणी 11 कुंभरनि बेसाडी तिज ठाय ||१८||
दीक्षा लेवानों चीतू उपाय
चन्द्रमती का श्रागमन
ती अक्सरे चन्द्रमती माय । श्रावती देखी हूं लागो पाय ।। दक्षण भाग सिंधारिण बैठी । प्रासीस दीयि मुझ देखी संतुदी ॥ १el
जीव नंदन मुझ वीर काल मंगल नित नित होउ बिसाल 11 जयजयो मुज पराक्रमें पूरो। तुम रक्षा करो जगतो सुरो ||२०|| चन्द्र सम सोम्य तुझ जय करो बंद । मंगल नित नित करो भानंद || बुध विबुधपती करो त रक्षा सुरगुरुशुक्र दीयो शुभ सिक्षा ॥ २१ ॥ राहु मर्नचर पीडा निवारो । केतु कल्याण सदा विस्तारो || हरीहर ब्रह्मादीक सहू देव । दीयो आयुष्य धरणां तुझ देव ||२२||
खडग ताहारो अरी भए मदहारी । जयो जयो राज प्रजा सुखकारी ॥ राज साहार' जयो सिंधु मर्याद । तूं चिरजीवो मुझ श्रासीर्वाद ॥ २३॥
दोहा
दीक्षा लेया उपायने, वितथ वचन विस्तार || माय श्रगल में बोल | माय वचन श्रवधार ॥ १ ॥
यशोधर द्वारा रात्रि स्वप्न का मरन
त जे प्रायु धरण कहा, किहां थी माधु विसाल || रातें सपन में पेखयू, राक्षस एक विकराल ॥२॥ हाथ त्रिशूल बीहामणों, बोल्यो करकस वार || कुटंब सहीत तुझ क्षय करू, वचन का दुख खास ॥३॥ दीक्षा लीपिजो जीन सरणी, तुमकू जा जीवंत || सेह भरणी दीक्षा लेवसू, किम मुझ प्रयु महंत ॥४॥
चन्द्रमती द्वारा बेवी पूजन
चंद्रमती सब बोल देवी कोपी पुत्र ||
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विधन उच्च ए घटता, सपन देखादि विचित्र || ५ ||
चंडी चामुंडा कही, मुंड मथनी वली जोय ॥ काली कात्यायनी सही कुल देवी ता सोम ॥६॥
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२२०
यशोधर रास
तहाँ तो तेह मानो नहीं, समकीत परयू प्राण ॥ करो जिन धर्म दया परो, केम चालि राज काज ||1| देकी पूजा कीजिये, होह विषन विनाश ॥ भाई अंबा ए कही, तूठी पूरि प्रास ।।८।। छाग महीस प्रादि जीवडा, बल दीजि सही राय ।। मायु बाधि २: रिये, विकारोत्रि नटी जा साधुश्रीपरमेष्ठिनः सकरुणा षड्जीवरक्षाकरा । प्रात्तौद्यद् अत गुप्तिसत्समितिका बद्रिमाः सालिकाः ॥ लोचास्नानविलको स्थितिमु नो पूजद्विकाशना । श्रीदेवेन्द्रसुविवेकतपदः कुर्व तु बो मंगलं ॥१॥ इति श्री यशोधर महाराज चरिते रासचूडामणी नाम काव्यप्रतिछंदो भूदेव कनि श्री विक्रमसुन देवेन्द्रविरचित कामकेमिस्त्रीदुश्चरिता दर्शन शौर्यान्वित खङ्गानप्रभातवर्णनो नाम पंचमोऽधिकारः ॥५।।
षष्ठ अधिकार
भास हीदोलहामी यशोषर द्वारा देवी के सामने बली का विरोष करना
वचन सुनी हू बोलीयो; मात सुणी मुझ गात । ऊत्सम कुलना ऊपना हीदोलहारे । केम करीमि जीव वात ॥१॥ उत्तम मध्यम कुनै कला, जीव हिंसा ना भेद । उत्तम जोई हिंसा करे ।ही। उसम गुण होए खेद ॥२॥ जीव हिंसा वीधन टालि । ए मुझ वज समान पर ना प्राण विषन करें।ही, विपन विशेष होयें मान ।।३।। दीन दुखी थे वापड़ा । धन वस्त्रादिक रहित ॥ परभव जीय वध्या तणांही। फल जाण्यो हट चीत ॥४॥ प्राधलां विहिरा पांगला । मुगा गाहिला जेह ।। जिनवाणी माहिं हम कहा ही जीव हिंसा फल एह ॥५॥ कोबी करपा रोगीया । इष्ट वियोगीया जेह । जिनवाणी माहि इम का ही जीव हिंसा फल एह ।।६।।
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पाई प्रजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
२२१
ममिध्य साधि रोग कम दलि । अथवा कदाच रोग जाय । डाहा उत्तम जाणताहीका ममेध्य कहो किम साय ॥७॥ विघन जावान कारणें । न करू' होस का। वचन सूरणी माय मोली यूनही । पुत्र मोह्यो जिनधर्म ।।८।। निः कर्म मार्ग कल गयो । न लाह वेदना भेद । कामें कनें जीव हिंसता ही नहीं होये धर्म न छेह ।।६।। जीव हिसा धर्मह होय । इम कहि खोटा लोक ।। दान पूजा तप व्रत क्रीया ही। जीव दया विणु फोक ।।१०।। मुझ सभाग्रह घरगो करयो । एक जीव हराया जाए। खडग काबधो सब भापरणो ही देवा में प्रापमा प्रारण ॥११॥ राय मोटे मुझ कर घकी । लोधो तब ते क्रपाणु ।
विलखी थई माय एम बदे ही। सभिलि पुत्र सुजाण ।।१२।। चन्द्रमती द्वारा पाटे के कमरे का वध करने का प्रस्ताव
मात पिता पचनहतणे । मंगकीधि हई पाप । पीठ न दीजि कूकडो हीं। जिम टालि सोक संताप ।।१३॥ लाजि मुनि रह्यो । साभली दीन वर्चत ।। श्रीनय करी मन गह परभो ही। नीगम्यु धर्म रतन ।।१४।। पीउनु कूकडो करावयो । बीत्र वीवीत्र अपार ॥ देवीमा बालीयो ही। माय सहीत तेणी वार ।।१५॥ डम डम मरू सफलो । खडग तणा झबकार ।। रण काहलवली बाजता ही०। पोहोतां देवी मठ बार ।।१६।। अश्वन मास अजु पालडो । अष्टमी मंगलवार ॥ देवी नमी हूँ बोलीयो ही। वली लेई करो जयकार ||१७|| खडग काठी कुकडो हण्यो । सबद हवो मसार । जाणे मुझ नि तेडती ।ही। वेगलें दुर्गत्य नार ॥१८॥ माय कहे ए प्रशिका । लीधे होय कल्याण ॥ जे जे मागे मिथ्या कह्यो ।ही। तिमि करयो मि अजाण ॥१६॥ जेहेवी होय भवितव्यता । दुष्य सेहेबी होय ॥ कर्म मधीन सही जीवडो ।ही। पापकरतो न जोय ।।२।।
पर ते राज बिसाइयो । सोप्पु अर्थ मंडार ।।
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२२२
यशोधर रास
रानी द्वारा यशोषर से प्रार्थना
तप लेवा जब चालीयो ।ही। तब प्राधी ते नार ।।२१।। तेह्म तप लेवा चालया। मुझ में मूकी प्राज ॥ एकलही नोरधार में ही मझ परि रहें कुण काज ।।२।। एकलहा क्रम आये सो । मुझनि नखी संसार ॥ हूँ तह्म सरसी तप करू नही। सफल का अवतार ।।२३।। मझ ऊपरि तम दया घरणी । वमन न लोपु एक ॥ मऊ मंदिर भोजन करो हो। पछि तव लेसू वीवेक ॥२४॥ कुअर तणुराज जोईनि । क्षमा तम कीजे राय ।। पछि बेहू जण तप लेसू सही । इम कही लागी पाय ॥२५॥ पतिश्रता जे कामिनी । कंत सुतप लीयि सार ॥ तप करी फल हूँ मागसू ही। भव भव तुम्ह भरधार 1॥२६।। माज तहह्म स्वामीनहो तसी । के वेस' या एपो राय !! माय सहीत जमो मन रसी ही प्रभाति बासू वनठाय ॥२७॥ भोजन प्राग्न्या दीजियि । कीजीमि करुणा एह ।। माया वचने हैं मोहियो ही मान्यु वचन बलीतेह ॥२॥ स्वपन न दीठं इम लेखव । नीसी दी जे अन्याय ॥ नारी माया क्न माहि ही। पडया कवरण न भूलाय ॥२६॥ राय सहीत चालीयो । भोजन काजे जंग।। जाणे जमेंह' तेडीयो ही। नारी मंदिर गयो रंग ||३०||
रानी द्वारा विविष पकवान बनाना
हरवीत हबी मायावनी । स्नान विलेपन दोध ।। कनक पाल हेम वेसणही । प्रोसणा हरष सू कोष ।।३१।। खाजां सेव सूहालडा । फेबी सेंजोरी सार ।। धेवर साकर फेणीका ही। हेसमी लापसी अपार ॥३२॥ पूड़ा वहाँ भाडा वेदमी । घृत वली साक अनेक ॥ माय सही जमतु र ही. पण देखू दीवध बीयेक ॥३३॥ प्राग पाचमू भाग करो । जाणे करयो मुझ छेद ।। बंधुकी दुध्य करी रही ।ही। बेहु मारवा विश भेद ॥३४॥
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चाई प्रजोतमनी एवं उसके समकालीन कवि
२२३
विनय सहीत मुझन कहि ! छानी नाहानी बात ।। विनमुक्त नायक खिलाना
साड रूडो पाजणो हो। मोकलयो मुझ मात ।।३५॥ माह वंचीजे वाचरे । ते सही नारि कुनार ।। पोहर केरी सूखडी हीन श्री राजनि मत्रीधार ।।३।। श्रीस' जो प्रागन्यां होय । हसी करी प्रीसो तेह ।। याई जी ती प्रारोग सोही०। थोडो एकलीयो एह ।।३।। एम कही मायने मूकयो । बेहू जमा मने रंग ॥
समय समय विख व्यापयू ही। दीसतू भमि मुझ अंग ॥३८।। राजा का सिंहासन पर जाकर वैध २ चिल्लाना
चसू करी हूं उठीयो । बेठो सिंहासन जाय ||
वैद बंद करी भोमि पडयो ही। तब नारी भावी धाइ ।।३।। राजा की मत्यु होना
वस्तु धाई भावी घाई प्रावी । तवहते नार । रे रे कंत कसू हवं । इम कहीं पे बचन परी परी । केस कलाप विस्तारयो। षसमसीती पड़ी मुझ ऊपरि । जागा वैद वीखवास शि ॥ दंति कठ पीछेय । जीव गयी तेरिण क्षणि । मारीदत्त सुरणी भेय ।।१।।
मास वरणमारानी रामो द्वारा विलाप करमा
वजारे तव ते नारी जाण । पापणी मिथ्या तणी नि लेई जसोधर नाम । रोवि ते मायावणी ।वि०। ॥१॥ जसोषर रे हवि ए बाल । जसोधर रे। सूर सनो तू राय !! ऊग्यो निवली प्राथम्मो । जसोधर रे । राज ए कमलरणी जाण ।। कुमलाणी ए सू तुझ गम्यो । जसोधर रे ॥२॥ व्याप्पो हवि अंधकार । हु एकलौ किम रहू ज०। वापड़ी अबला बाल । बिरहनी वेयरणा केम सहज ॥३॥ तरु पर अमि विण वेल । द्वाष मंडप विण किम रिहि ।ज। तिम सही अबला अनाथ । स्वामी विना कहो किम सोहि ॥४॥
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PRV
यझोषर रास
विनय विना यम शीष । विवेक विना जम बातमी ॥ज०॥ कंत विना तिम नार । किम हूं सोनु वापसी ।।जगा॥ तारा विण जिभ चन्द्र । चंद्र दिना जिम रातडी ज०॥ कंत विना सिम नार । केम सोहूं हूँ बातडी जि॥६॥ प्रांषडी विना यामि मुख । अंजन विण जिम प्रांखडी जिला कंत विना तिम नार । के महू सोह' बापड़ी ।।जा दया बिना जिम धर्म । श्रावक विण जिम' प्रांखडी ।।ज०॥ कंत विना तिम नार । केमहू जी बापड़ी ।।ज०॥८॥ सरोवर कमल विहीन । कमल विण जैम पांखी जा कंत बिना सिम नार । केमहू जी बापडी ||०६॥ मुकुट विना जेम भूप । मणी विण बीटी कनक षडी ॥ज०॥ कंत विना तिम नार 1 केमहू जी बापड़ी ।।जय।।१०॥ मोहत बिना जीम प्रेम । प्रेम घिना जिम भेटसी ज०॥ कंत विना सिम नार । केमहू जीयू बापडी ॥११॥ दान विता जिम कोत्ति । कीति विना नर गोरठी ।।जा मंत बिना तिमनार । किम जी बापडी ज०॥१२॥ परिमल विरा जिम फूल | फूल फल विण वन जिसो ज०॥ गुण विरण हार विचार । नारी भव कंत विण तसो पज॥१३।। पुत्र विना जिम वंश । हंस पीना देह जसो ज०।। मद विण हाथी जेम ! नारी भव कंत विण तसो ज०॥१३॥ वेग धिना जिम अश्य । धन धिन नवयौवनाम ||ज०॥ न्याय विना जिम राय । नारी भव फंत बिण तसो ।।अ॥१५॥ रामा विष जम गेह । गेह सुपात्र बिना जसो ॥ज०॥ विद्वांस विणा सभा जेम । नारी भव कंत विण तसो ज०॥१६॥ कंट बिना जेम गान | ध्यान क्षमा मिण मुनी जिसो जि०॥ समक्ति विण प्राचार । नारी भव कंत बिण तसो ज०मा १७॥ देवल विरण जम गाम । वेब वीना देउल जसो [ज बाद कला विण शास्त्र । नारी भव कल विप तसो ।।ज०।१७।। लवा बिना जिम पाकः । वृत्त बिना भोजन जिसो जि०॥ भाव विना शुभ काम । नारी भव कंत दिरण तसो ॥ज०॥१६॥
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बाई अबोतमति एवं उनके समकालीन कवि
२२५
सील विना नर नार । भक्ति बिना तीरथ जसो ज०|| गुणा विणा उत्तम वंश । नारी मव कंत विण तसो ज०॥२०॥ एकलडो नर पार । प्रबलानि नव्य नारखी ||Mon लीला मूमाल नरेन्द्र । बोल रुखो एक भारवीयि ।।ज०॥२६॥ माहान हो जसोमती राय । सीख सीखामण पौजियि ज०॥ शम तव करी सहू साथ । चालो दीक्षा लीजीपि । ज०।२२।। इन्द्र सभा तुझ काम । सही त्याँहां तु बोलावीयो ॥जमा स्वर्ग' नहीए हो राय । तेह भणीतू' भावीयो |ज०॥२३॥ हवो तझने स्वर्गवास । दीक्षा भाव तुझनि घणो ।।ज०। किम लेता तप भार । कमल कोमल तनु तर तणो ॥०॥२४॥ सू थ! तुझान नाह । रोग अचीतो प्रायोजि० पेट माहि हदू दुःख । प्रोस्यू अन्न न भावियो ॥२५॥ मझ सरज्यो नहीं लाभ । तू साधर्मी जम्यो नहीं ॥ सामी अने वली स्वामी । एहे वो जोग मलि कही ।।ज०।२६।। भगतन जम्पि पैंद्री नाथ । ए मोटो रह्यो लाखक ।।ज01 वरत करी कहू' नाह । भव भव तू घर छिउ ।।ज०।।२७।। समफित धारी तू देव । देवी पूजा कम गमि ॥ करुणावंत महंत । जिनवर धर्म सुमनरमि ॥ज०॥२८॥ कपट करघ देवी साथ । दोघो पीठनो कूक हो ।।ज०।। कोल देवी कोपी ते माद 1 विधन देखाइयो ठूकडो ज॥२६॥ विणजारा रे पापणी दुष्ट ते नार । रही पोति कंतह तणी ।। लोक प्रालि फिहि इम । मायावरणी मिथ्यातणी ॥वि०।।३०।। सासू मंगुठो देय । मारी ने कहि तह्मो सूथयू वि०।। रोग विना कोहो माय । जीव तह्मारो काम गयो वि०।।३१।। गरपणा माटि जाण । कोलीयो क. केमे रह्यो वि०।। पीक पीक ब्रह्म अवतार । जीव तह्मारो जमें ग्रह्मो वि०।।३२।। कवरण देसि हवि सीख । देखीयो राज नहीं पुत्र नो ॥विo! वृधि विना किम होय । स्वस्ति पण घर सूत्र नो वि०॥३३॥ तव हदो हाहाकार । मरण जसोधर पामयो ।।वि०।।
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२२६
राजकुमार यशोमती द्वारा विलाप
साथि मोटा राणा राय । कुबेर जसोमति घामयो || बि० | २४|| हा हातात तू भास विरी तिमिर क्षय कारणो ॥ बि० ॥ हा हा तात सू चन्द्र । प्रजा संताप निवारणे ||०||३५||
हा हा तात तू इन्द्र । लीला लक्षरिए मंडीयो दि० ॥ हा हा तात नागेंद्र । भोग भरघो भलो पंडीयो ||३६||
रीपू दंढयो || वि० ॥
हा हा तात सुधीर । रण अंग हा हातात
घु
7
यशोवर राम
हा हातात कल्पवृक्ष । कामधेन लिमणी समो ॥वि०॥
हा हा तात तुझ दान । विलखो धनद दिन नीगम्यो | वि०||३८| प्रताप पुंज तु उत्तमो ॥वि० ॥
I
हा हालात प्रचंड हा हा पराक्रम पूर | सूर सुखि गगनें भभ्यो ॥वि० ||३६|| छत्र मंग हवो श्राज । राजभार कोण पेर करो || वि० ||४०| मोधाला नले राय । नर्घोष सगर मादि गया । वि० बि०॥ हरीहर जल चक्रवसि । काल श्रागल कोन व्या॥० ॥ ४१ ॥
खल भलयो तवलोक । हा हा कार नयरे पडयो || बि श्राभ्या सह कोय तो रामनें जम नडयो || वि० ||४२ || प्रबल वायु जम जारण । दुर्धर सावर खल भहयो ॥वि०॥ तेम बाजारी लोक | लोंटो तव धोक मल्यो ॥वि०॥४३॥
नयरी लूटीय अपार । लोक बुंधा रव बहू करि ॥वि०॥३ फाटि हाटनी रण । बहूटो लूटाइ बहू पिरि ॥वि० ॥४४॥
यशोमतीनी फरी प्राण । नरय लूटा बार यूं ॥ विश या मोटा राणा राम राम मरण श्रवषार यू ॥०॥४५॥
रोद्र आजि वाजित्र । रप काहल बीहामरणो । वि० ॥ वार हाहाकार शेर पोकार करि ॥०॥४६॥ संस्कार काजि राय काढीयो तब मोटी परें । वि० ॥
प्रन्तःपुर में बिलाप
अंते उर ते बार। हा हा कार घणो विस्तरां ॥०॥४७॥
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बाई जीतमति एवं उसके समकालीन कवि
एक रfe कहीं नाह । एक मूर्खा घरी भोमि पढि ॥ वि० बि० एके ते है होय । एक मोथि सूं सीर माइ ॥वि०४८६ ॥ एक ते फाडि चीर । नयर नीरें तनु भोषदि ॥वि० वि० ॥ ब्यरह् दावानल व्याप । तनु बनते जाणे बुझवि । वि७॥ ४६ ॥ एक जोडि मोतीहार एक से कंकरण मोडती ॥वि० वि०॥ एक भोगि कूटती हाम । एक से आप षोडती | वि०५०।
एक ते चोली चूथे । एक ते वेणी छोडती ॥वि०वि० ॥ एक सती थावा काज । हरी हरी कहीं हाथ जोडती ॥वि०॥५१॥
एक ते बसती जाय। ऊची पई तनु नाखती ॥वि० वि० एक वलवलती बाल । देव देव इम भांखी वि०५२||
विष खाती वली एक । एक कटारी षांपती ॥वि० त्रि०॥ पास मालती गलि एक एक खडगि सीस कापती ॥वि०॥५३॥
केटली चाली समसान | चीहा माहि कंपलावती ॥वि० विorl जेन राजा तख श्रेय । केटली वैराग्य भावती ।। वि० ॥५४॥२
केटलीक दीक्षा लेय । प्रतिमा अग्यार केटली धरे ॥वि० वि०॥ गांचसि राखी जाए। एखी पिरि घरी दुःख करि ॥वि० वि०॥५५॥
जेहनि वाक्या राय । मित्रवली सेवक घणां ॥वि०वि०
सांगली मरणमी बात । त्राण गया केहा तरणा ॥बि० ५६ ॥
केसा कटारी करत । केला मरंत विषग्रही ॥वि० वि० केला पडयां बीहा मांहि । भाला साहामा चाया सहौ ॥वि०॥ ५७ ॥
केला खडगे सीस छेद । कमल पूजां केता करें ॥वि० वि० केला साधर्मी राय । वैराग्य लेइ दीक्षा घरि ॥८॥
२२७
यसोधर हवो संस्कार । स्नानादिक सहूए करू ॥वि० वि०॥ मोहो कारिए मोटा राय । ती िजसोमती घासनें घरो || वि०||५६॥
ब्राह्मणे दीधी मासीर्वाद राय कीया हवि करो ||० वि० ॥ ब्राह्मनि दीयो दर्शन हवें । जसोधरनि उद्धरो ॥ विभा६०॥
तन जसोमती दीदिन । क्रीया कीधी तब मुझ सरणी ॥वि० वि० मि काई नव्य लब | दूर गति लही येवला घणी ॥वि० ६३ ॥
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२२८
यशोमति द्वारा राम देना
चूहा
ठाम ठाम श्री ब्राह्मण भल्या, बहु पेर दान देवाय ॥ धन कांचन करण घुस घणा, मणि वस्त्रादि पाम ||१||
गज अश्व रथ गो महिषी, आदि बहू दोषां दोन ॥ छाछरडी वायां ब्रह्म भोजन विधान ॥ २॥ सूम्य सेय्या ग्रामज दीयां, पाप घटादि विक्षात ॥ ब्राह्मण बहू परणावया. लहे नो जसोधर तात |३||
तुला दोन पिरपिर तणां कान पुरुष यम भात || कृष्णा जिन दासी दीयि, लहि जो जसोघर तात ॥ ४॥
तिल गुड हेम रूपा तशी गाय दोषी बहू जात ॥ वृषभ महीष बहू लोह दान दीयू, लिहिजो जसोधर तात ॥५॥
खासष्ठां धोतीया करवतां । जल कुंभसी वात ॥ नित्य प्रश्न बहू गृह त्रीयां । लह जो जसोघर मात || ६ ||
कुंभ कनक केरा करथा । भरया सामग्री अपार ॥ राय जसोबर स्वर्ग थी । पामजो ए सुविचार ||७||
यशोधर राय
पण में कोइ न पाम । मारीदत्त सुण राय ॥1 दुरगती दुःखज पांमयू' । अचेतन हिंसा पसा ||८|| इम जाणी सुजनं सवे । स्वजों हिंसा संकल्प ।। फल उतारण फल हनन पुतलों ते विकल्प ॥१॥ जीव बया ना पाप तणों। कोहो कोण दाखि पार || यो वेतन कूकडो । तेरिग वाथ्यु संसार ॥ १० ॥
इम जारणी नीश्क्यु करो । पाल्यो श्रीजिनधर्म || हिसा पातिक पर हरो । जिम पामो सीय धर्म ॥ ११ ॥
सील समू भूषण नहीं । समकित सम नहीं रहन || बंधु नहीं को धर्म समो । करो दया यत्न ॥ १२ ॥
मिध्यात सम की शेपू नहीं । विष न मिध्यात समान ॥ से भी मिध्यात दूरि त्यजो । पालो दया निधान || १३ ||
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__ बाई मजीतगति एवं उसके समकालीन कवि
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मास गुणराजनी हेमवंत पर्वत एवं वन का वर्णन
हेमवंत ए दक्षरण भाग 1 नगरी पासि छि गिरिवर ए॥ गुफा माहि ए सिंह रीसाल । वाटतां पाठां वनचर एश मजनसाए । गीग कडि लगा । दंतू मलेगीरी मोडता ए ।। गजतरणाए कुभबिदार 1 महीसू मुक्ताफल जोडताए ।।२।। फरगघर ए करय फूतकार । बाघ घसं वखवखी रमा ए॥ शुकर ए घूर साद । डाढ वांकी बम सम कहा ए ॥३॥ हरिण ए नाहाठडा जाय । धाय क्रूर वरू प्रती घणाए । वानरा ए फाल पलंत । दूतकार करय बीहामगाए ॥४॥
गूजा ए पडी ठोम ठाम । दव जाती हरीणां त्यजे ए ।। सीमालीयां ए फालू पोकार । मांस जारणी क्षण ते भजिए ।।५।। भीलडीए गूजा हार । फूल फल काजि पनि भमें ए ।। भीलडांग कामठो हाथ । भमतां जीवन घणं दमें ए ॥६॥ टाढडीए पीडया जाण । वानरा चीस पाडि घणं ए॥ प्पणो ठीय ए ढग्ग करिय । सेवि जाणे ए तापणं ए ।।७।। घूधूमिए चूहडजाण । समली सींचाणा पृथु भमें ए ।। माहोमाहि ए वंस घसाय । दवलागि एह संगमें ए ।।८।।
दवें बल्या एफदि बांस । तण खले वन घणं व्यापीयो ए॥ तेह बनें ए मोरडी गभं । अवसरयो पा संतापयो ए ॥६
राजा का मोर के रूप में जन्म
जठरनीए प्रागिहूं दूग्ध । नारकी प्रग्न्यनि कुडे जस्यो ए ॥ मलमूत्र ए सरस्यों अपार । भूष तरसें घरणं कस्यो ए ॥१०॥ मोरही र जनम्यो जाण । ताम पंखमाहि राषीयो ए। हूं फैएहवो पुष्ट यंडे । इडू फूटि तव तनू पापियो ए ॥११॥ जीवडे ए पोसतो तंन । तव भमतो प्रायो पारधी ए॥ धनुख तव' बाप माय माहारी तेरिए बधीए ॥१२॥
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यशोधर रास
मोरडीए नापी खांष। ई लीधो फांटि ग्रहीए । वाटिए प्रावतां मोरी। कोटवालें लीधी सहीए ॥१३॥ पारधीने दीधी गाल । ठासु ते घिर अावीयो ऐ॥ नारीम ए देवे गाल । गलुते नव्य भाषीयो ए Int खासे ए मोटा पाहाण। हाणवासीर सीद गयो । बालीयो ए पहूटा मांहिं ।। कोटवाल नेहूं वेवीयोए १११॥ पोडीए मूलज माठा । हूं राय नहटें वेषाईयोए ।। संसार ए मंड एम । करम नटावे नसावीयोए ॥१६॥ कोदवा ए जसोमती राय । भेट का घरे लेई गयो ए॥ जतन ए काजे तेग, पांजरा माहि हूं ठप्पो ए ॥१७॥ करण घणाए। चरणीपीयू नीर । सनें सने योषन हवों पy सोभतो ए मझ कलाक। पंचवरण तब अभीनयो ए॥१८॥ एक बार ए जसोमती राय । प्रागलई भेट परयो ए॥ देखीयो समझ स्वस्प । मोह राप मर्ने बीस्तरघो ए १m प्रांग, ग ही खेलंत । मोती चोकनि मंजतु ए " बोलतु एमपुरी भास । राम तणे मन रंजतो ए॥२०॥ नारीने ए नेरि नाद । पाय पाय होडू नाचतु ए॥
ऊडीय ए बेसू प्रवास । मेघ देखी घसं चतु प २१०० स्वान का जन्म सेना
चन्द्रमतीय एजे मझ माल । भरी करी स्थान हो एF चंचल कर अपार । अवतरको जाणे जम अयों ए ॥२२॥ मसोमती ए भावयो भेट । राबने तब मोह ऊपनों ए ।। वामती इबानी फाल । पारध सारथी नीपनो ए॥२३॥ मो वन ए सांकल कोड । पंचवरा झूल सोहयो ए ।
दौसे ए प्रति विकराल । नयस बोहाममो जोपको ए २१ मोर का कुबरे पर आक्रमण
एक समि ए मोर हूं जाण । अमृतमती प्रवासि बढयों एः ।। कुबडो नासी संघास । खेलतो दृष्टे पडभो ए ।।२।।
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वाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
२३१
सालयू ए वैर मपार । झडफ देई कुबडो हण्यो ए॥ चौमनाए कीधा प्रहार । नारीमूबीबल कोषो घणो ए ।।२६।। कटी तगी ए मेखला छोड । नारीयि माखी मझ भणी ए॥ मोडीयो ए पग तेणी वार ! खोजतो नाहाठो भय घणो ए ॥२७॥
कोणीए के । हप्यो चमरने दंड । कोणे कपूरमि दामहे ।। कोणीए के ए वीणा दंड । मारयो कोगि हेमदंड वष्टि ए ॥२८॥ यसोमती ए लावयो स्वान । सांकल बोडी से चावीयो ए ।। हाहा ए करतो तेम । कंठे धरी दृढ वादीयो ए ।।२।। जीवडो ए गयो सेणी वार । मोर मझो राय जाणीयो ए| कर धरीए चोकीयो उसंग । सब वली स्वान हणीयो ए ।।३०।। यशोमती ए करि बहू सोक । हा हा मोर तू रुडो भावतु ए॥ हौंडतो ए प्रांगणे खेलंत । तुझ कलाप देखारतो ए॥३१॥ मोतीय ए रतनना चोक । फूल साथीयारो हों प्रमथकाए । नाचतो ए तू अपार । नेसर नाद सोहें साथका ए. ॥३२॥ चळी करी ए ऊंची प्रवास । मेहो मेहो कुरण बोलशि ए॥ जाणे ए जसोधर राव । प्राज मूवो एम वन बसे ए ॥३३॥ है है ए स्वान बलिष्ठ । ईष्ट एफ फोर्कमि मारयो ए ।। चावतो ए वाघनी फाल । वन माहिं वकारयो ए ॥३४॥ हरीणाए भूमि रहो रांन । तुझ वेरस ये कुण मारसए ।। ससलाए सू उजाल माहि । तुझ वीरण कोण विदारसि ए ३३॥ तेडीयए परोहीत तास । संस्कार क्रीया करी ए। ब्राह्मणनिए दीपलां वान 1 उझवयां बेह यह पिरिए ॥३६॥
अझै कांई न पाम पाम केवल दुःख ।। खरचीयि ते पूरब जलहिजे कहि ते सही मुर्ख ॥१॥ सुवेल नाम नदी सटि ! भीम नाम बनमण्झ ।। सेहेली गरमें दु:सहो । अवतारहउ म ॥२॥
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२३२
बशोधर राम मोर का सेहेलो के गर्भ में उत्पन्न होना
जण्यो मूखें पीड़यो । सूख तशी तेन होय ।। मोरनि मवे जे दुःस सद्यो । सेथी अधीका जोय ॥३॥ भूडो तन काटि भरघ । जीव तरणो वली भाहार *
पा पाप ज पाभयो । मारोदत्त अवधार ॥४॥ स्वान का सर्प होना
स्वान मरी सापज हो । तेह पनि प्रती विकराल ।। बख बखतो भूक्षो ममे । अनेक जीवनी काल ॥५ तव ते मम नबरें पडयो । ग्रहयो में में पूछ । खावा मदियो प्रसी बलो। हकर्ष तेह बल तुछ ॥६॥ प्रोडे थोडे सायतां । तरफ करि ते साप ।। करि कतकार घालि नहीं । नडयो मिथ्यात पाप ॥७॥ तरविक जीन एक आवयो, सेरिग हणयो हूं जाण ॥ पाप फले पती प्रति घणं । पाम्योहूं दुःख खाए । वर ते दुखनीज रही । बैंर अधारि संसार । वर ते धर्म विनासरणों । वर दुर्गती दातार ।। गुणा तरु बैर कोठारहो । बैर सुमति वन अग्गी ।। दयावल्ली वर हिम समो। तेह भणी वरम लगी ॥१॥ अम जाणी नियो करी । दर मधरसो कोय । समा रमा सूरंगे रमो । यम भव भमण न होय ।।११
भास ३व्य शोवोसीनी
उज्जयिनी की क्षिप्रा नदी का वर्णन
जुजरंगी नगरी में पासे । नदी ऊंडी नीर्मल जलें भासे ।। सीधा नाम के तासे ॥१॥
बेहु तटिय पंच वरण पारवाण । ऊपिर फोमल मोहि कठरण तू जाय। दुजगा समा घरवास ।।२।।
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बाई अजीतमती एवं उनके समकालीन कवि
सूर्य कांति सूरज ने तडिकि । दीसि कही एक मानी भरपके। मृग प्रावंतां संके ॥३॥
चन्द्राप्ति निसि चंपने तेजि । जल पर वाह भरण होड सिहिजि ।
नदी वाघि ससी हेजि ॥४॥ काही एक रातां किरण विस्तरए । आणी सीमाल रुधीर मही झरए। क्षण चाटता फीरए ।।५।।
कहीं एक पीला किरण विस्तार । हरी व भय न करे संचार ।
भूली ता गमार ॥६॥ नीलकिरण विस्तरए दीहि । चक्रवाक वियोग मुंयविहि । निसि समय लेखिसीहि ।।७।।
भीलते चंदुक सीलापि अपार । घसतां बाण वलगे ते वार ।
देवी कही मागि गंमार || तरु फूल रेणु पवन घणं, बड़ए । नदीम नीर माहि ते पडए । कनकह उपमा घडए ।।॥
धनबाडी सेह काठे सोहि । अनेक वृक्ष लक्ष मन मोहि। कोए तक नि:फल नाहि ।।१०।।
नदी कांठि तर फल्या अपार । अलिपिसि प्रतिबिंब विचार । कर वा प्रति उपकार ।।११।।
द्रह माहि चपल खेलता मछ। मोती सीपउ डा पुछि। पहि तसि मोती अनुछ ।।१२।।
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यशोधर राम
महल पूछ कहीयि जल अहालि | मकर कपाट मूजल अफाले । रोहीना वानर वीयि फाले ।।१३।।
तौहाँ थकी मरी सेहेलनो जीत्र । रोहीत मछी गरभ अतीव ।
दुःखें पाई रीव ।। १४॥ रोहीत मछ महा तनु मोटो । बहं परी गन्द्र गलंनो खोटो। घपल परिग घगणं छोटो ॥१५॥
जाडूगलू मुख छि विकराल । अनेक मछ सणो ते काल ।
खेल लि विसाल ॥१६।। चन्द्रमती जीय हतो जे साप । मरणो दुःख तो हवो व्याप ।
नेह बहिः हवो ते पाग ।।१३।। मछली मरकर संसुमार होना
सीसूमार मछी ने पटि। गरभ वेयणि दुःस्त्रीयो हवो नेटि ।
नही क्षण एक सुख भेदि ॥१८।। संसूमार ते वेशीयि जरायो। वाधता निज कुल सह हरायो। कुपुत्र ते कुल क्षय भणयो ।१६।।
मोटू' सरीर वदन अति गाद । कर दुषट बांकी तस डाळ ।
उदर जारगो गिरि खाउ ॥२०॥ जल मांहि हं दाठ फीरतो । संसुमार मुग्न धरयो तरतु । दाढ वचे चूरन ॥२१॥
राय तरणी नृतको तिहां पानी । रमझम करती सषी मन भावी। अनेक भूषणि सोहाधी ॥२२॥
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बाई श्रीमती एवं उनके कवि
कुबडी कहीमि कोमल अंगी । पिहिरी चीर बोली नवरंगी । संगीत नाच प्रसंगी ||२३||
वासंती मेखला खलकावि । चूडी सहीत बांहोडी लहकावि । लकि मधुर गात्रि ॥ २४॥
नदी देखनें घं संतूठी । धरणा सूजलि बेगि पेठी । सीमारि ते दीठी रक्षा
वदन पसारी ग्रहीते बाल । हूं रोहीत ना हाठो ततकाल । मूक्यो जाणे काल ॥ २६ ॥
राय आगल तब कीभी राय । सेवक सर्व जरणाच्यो भाव | वेर्गे धीवर डाव ।। २७ ।।
जाल सहीत माछो बहु मलयो । जाल नास्ति जलचर खलबलयो । तब कपाटि भलयो ||२८||
सीसुमार मुख थी हूं बांच्यु । नदी कपाक नहीं तव राज्यो । चपल पणुं धरणं खांच्यो ||२६|| सिसुमार को पकडना
जाल माहि पड्यो संसुमार । खांची नाउँ नाक्षु ते बार । टलवल कर अपार ॥३०॥
लाकड दमटे मुसलि मारयो । arrrr लोहि धरणं विदारयो । मरण पाम्यो दुःख भारघो ||३१||
नगरी समीप छाली उपनी । भ भाड घेर वृषी संपी। मोटी तब नोपशी ॥३२॥
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२३६
यशोधर रास
मर कर बकरो होमा
हि असार माली रमझी : किहां ए छाली दुःखनी खाणी । पाप तरण फल जाणी ।।३३॥
पीठ कूकडा हथ्यानां फल भासि । मारीवस बहू जीव तू' विणासि ।
न लहूं जे तुझ सूपासि ॥१४॥ दिवस केता हूं रह्यो दह मांहि । जलचरने बह ग्रसंतो ताहि । तव नोपन ते चाहि ।।३।।
अनेक माछी जाल लेई माया । दह देखी ने मनें सोहाव्या ।
जाल नाखी घणं फाध्या ॥३६।। लेह जाल माहि हूँ पडयो । पीठ फूफडा नो पाप ज नडयो । सनाक्षु माछडयो ॥३७॥
मारवा भाछी माव्या अनेक । तब बुध बली भाग्यु एक ।
म मारो बोल्यो विवेक ॥३०॥ मि जाम्प्यू मुझने मूकेसि । गरतोएं को दयालू वीसि । पण राक्षस इम भासि ।।३।।
रोहीत मल ती ए जारणो। पितर सराधने जोग्य वखाणो । एरिण भेटसूहविराणो ||४०॥
रोहित मध्य का पका जाना
तब सहुए मली ऊचली लीधो । माछी वा माहि नाली वीधो । भछ हा. सन वीथ्यो ll
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२३७
बाई अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
ढग दीसि लधु मछह केरा । माछसा पास ठामे ठाम वेरपा ।
हाड तणा ऊकेरा ४२॥ मोटा मछ वांसानां मोभ । मछ पसिसीना दीयां घोभ 1 सीनीध घेरि कहूं सोभ ।।४३।।
जाल तणां विहां मांडब' देखू। करंह मोटा मछ भरया सेख ।
नरक पटल पीवीसेखू ॥४४॥ हाड पारि वली भोम्य कठीण । अलेना छोहयो घणं खीण । करमें कीषु दीरा ।।४।।
भमर पस्रक हंसतू ले सूती। फूलडीच पण तनु नवि सूतो ।
करमे हूं एम वगूतो ।।४।। भूडडा मोहि करे मुझ वात । स्वान गान वायस वदि दात । इम जाप्यू मे परभात ॥४७॥
पदमनी नार तलां सती पाम । वाजिन वाहने गामण गाय ।
इम जागतो हूं राय ॥४८॥ हवडा प्रभात एणी पिरि जाण्यो । पाप तणो परभाव प्रमाणो । मारीवस मन माणो ॥४६॥
माछी सहू मली मुझने, राज मुवन लेई जाय ।। सय पागलहूं मेहेलीयो । राय दीषी पसाय ।।१। वेद पाठक स्मृत बाणीनि । वासयो तेणी बार ।। शास्त्र जारिए ते बोलया । राजानू तू अवधार ॥२॥
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यशोधर रास
रोहित मछए जारपीयि | उज्जल छि शीर मध्य ।। हच्य कव्य काजें कहो । उत्तम मछह मध्य ॥३॥ पंचवरण तनु दीसियि । प्रगट चपल भूभृग ।। साहामी मारिए चढि । एह पवित्र छि अंग ॥४॥ एहषि रूपि नरहरी । वाल्या वेद चार ।। भंग सहीत इम जाणयो । शाहास्त्र माहिछि वीचार || श्राद्ध कीजि जो पीतरन । कीजि ब्राह्मण भोज्य ॥ प्रखय तृप्ती पीतरनि सही । स्वर्ग जसोधर राज्य ॥६॥ तब रोहित पाउथ्यो । अमृतानि पिर जाण ।। माय प्रति जसोमती कहि। रोहित मझ वखाण ॥७॥ पितर काज ए कल्पीयि । सराफ कीजिए णे अाज ।।
चन्द्रमती साथि तृपती होय । जेम जसोधर राज || रोहित मच्छ को तल तम कर मारना
तब तेणीयि पापरणी। पूछ छेधू ततकाल । हींग म्यरी मीलू मली । मुल भरीयू बीकराल ।।। ताता तेल माहि तल्यो । पेर पेर पाडू रीव ।। नारकी पिर दुःख देखीयां । कष्टि गयो मुझ जीव ।।१०।।
परे ते मझ कल्पीयो । खाधो लेइ मुझ नाम ।। पिउ पाडी किहि चन्द्रमती । जसोपर स्वर्गे ठाम ॥११॥ भाहारी तृप्तानि कारणि । हूं खंड खंड कीयो जाण ।। बापनि दापज कलययो । जो जो लोक प्रयास ॥१२॥ अहो तो काई न पायू। मारीदस सुरण बात ।। फरन पाया पापज तणां । कीधु ते जीव घात ॥१३॥ इमजांणी म कलफ्नो । मूआ ने राहू कोय || गती अंतर जीवनि सही । संबल सुकृत ज होय ।।१४।।
मास हेलनी ई रोहीत दम जाण । विविष वेदना पामी मवो हेला चन्द्रमती - जीय । संसूमार मरीजे झाली हूषो ।हेल। १,
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बाई जीतमती एवं उसके समकालीन कवि
संमार का बकरी होना
तेहनिकूलि हूँ चंग। गरभ उपयो दुःखि भरघो हेल गरभ त सह्यां दुःख । जनम्यो मल मूत्रि भर हिल| २ |
वृषि पाम्यु हूं चंग | अनुक्रम भोजन पामवो हिल। मद करी तनु दुर्गन्ध । बृतकार करता दिन वामयो || ३ |
माधनो जीव वली माय । छाली सू संगम कियो । हेला दी बडेरे खाग | संगि करी पेट वीबीयो । हेला
बकरी मर कर फिर बकरी होना
मरी करी तेणी वार | तेह ज छाली गर्भि जपतो हेल आप पाते यदनुत्रः ।
1
जूउ जुउ कर्म बीचार | पोति पोता पुत्र स्थि हूंबो हिला धिकधिक गति तीच मायप्रति भाव कीऊ जूबो | हेल || ६ ||
1
बीखया वाहीयो जीव सुभ असुभ जाणी नहीं हिला हृदय सण खलां गेह । काम श्रगन लागि सही हिला ७॥
चतुरन जाणि वीचार । तु पशुनि वीवेक हुयि किम | हेल पशु पानी मिथ्याती । एत्रहणं भव नौस्फल गम | हेल || ६ ||
देवी काजि दीष अचेतन । तेह पापि बांधीयो । हेल। पोमी पशु अवतार से पाप बीज यिम बांधी हिला
विषय जलि सींचाय । श्रातमा मंडप वीस्तरि हिल पाप वेल थिम जाण । दुःख फल देई नीस्तरे हिल||१०||
गरम मोटु हृवो जाम | ताम राजा पारष चढयो । हेल जीवह हावा काज | परणीय तेह्र हाथि नव्म चढो हल।। ११॥
भमतो भमतो जाण । नगरी समीपि श्राघ्यु फरी करी । हल | राय तक सेणी वार । दृष्ट पडी छाली खरी | हेल।। १२ ।।
तेह उपरी मूक्यूँ बाण जीव गयो तेहनो सही हिला गर्भ भु पाम्पो दुःख | संसारिको कहि नु नहीं । हल || १३ ॥ राय छाली दीठ । गरभी मोई भोइ पडी ।हेला
ते देखी लेणी वार | रायनि मन दया चढी | हेल || १४ ||
२३३
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२४०
यशोषर रास
पेट चोरी करी जाग । काढ़ी पाल वादीयो ।हेला प्रयोनी संभव माट । मऊ अतन वीगेख कीयो हेल।।१५। ध्यायो अनेरी खालि । दिन दिन हूं मोटो थयो हेल। ललकि मोटा कान । लांबू मुख मद पामयो हेल।।१६।। बिब बोल नु भाग। बेला चरतु न माह फर हेल। हावि जाणं झूभेद । तेरिण मवि साचू न उच्चरूं ।हेल॥१७॥ बछे जीवन साथ । पुण्य पाप सही जागयो हिला अवर कुटंबनि बाथ । डाहा मोह म प्राशाजो हेिल।।१८॥ जसोघर सरखो राय । बोकडो यई वन माहि भम्यो ।हेला कोचो मिथ्यात पाप । तेणे भव मांहि सही एम दम्यो ।हेल|१ एक बार जसोमती राज । राज काज चिता वामीयो हेस) देवी काजि कारण । महीष तरणो बल मानीयो हिला।२०॥ सहजें सीम्यो काज । मूढपणो नीश्यो थरी ।हेल! महीस प्राण्या अपार । देवी भागलें हीसा करी ।हेल।।२१॥ मूढ़ मिध्याती अंघ । एत्रहरणे जाणो सरखा सही ।हेला हीडि पाप मुराद । धर्मनु मर्म न सुन ही हेिल।।२२।। मान नयन बिहीण । उगि इगि संकष्ट माहि पडि हिला भव माहि भमें अपार । मुधो मारम नही संपरे हेल२३॥ हणमा महीख ते लय । राज भुबन माहि आगया ।हेल। सुपकार तेणी वार । देखीन से न दखाण्या हेल।।२४॥ कुतरा काग अपार । ए पाडा विटालीया हेल। कम परवां षिकार । ए ऊपोष्ट न सोझालीया ।हेल॥२॥ ब्राह्मण तेहरा तेशी बार 1 बेद स्मृती जाण पापीया हेल। पूछयो महीष विघार | बोलता राम मर्ने मावीमा ।हेला२६।। प्रजोनी संभव जे छाग। ते सुचे जो एहने सही ।हेल। तो. ए श्रायि भोग्य । प्राड ने एम स्मृती कही ।हेल॥२७॥ राम बोल्यो तेणी चार । अजोनी संभव झालो कही ।हेला में प्राणों तेह । तेणे ए सुझवो हम सही । हेल.।।२८॥
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इग्रजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
वेनि म प्राय । सूघाड्या मही सत्रे हेल। मूचया महोख विचार 1 मारिदत्त कर्म एम परभवे | हेल॥ २६॥
ते महीख पत्राय । खायि तेह सहू मती हिला भुवन मभार। हूं लेवे जई बांच्यो क
'जीत' मन मार के मोई सही पापणी हिला गंध उठी छि पार । दामी किहिए पाडा तरी हिल||३१||
बीजी कहि तेणी बार। माछां वाती राणी लोभणी | हेल। अपनी तेही कोढ । ते गंधाय सो सही हिला |३२||
श्रीजी कहि रागो बेहेन । त ए भेद जागो नहीं हिला राय जोर मारी । कूबडा साथि संगम करो । हेल ।। ३३ ।।
शील महात्म्य
नार हृष्णो विन देय । प्रेम पापि पिसो हेल तर पायें वो कोड 1 सरीर सबै गली गय हल ||३४||
गील न पाल्यो जाता। तेह पाप फलें रोग भयो ।हेल। सही सुग्व कारणा सील सील संसार तू तारण हेिल ||३५|| हूगुण सागर सील सील सील सयल दुखवारण | हेला सगैरह मंडर सील सील ते दुरगति खंड हिल ॥ ३६॥
निरमल जम होय सील सील संसार विहंडगा हेल सील लोकें पूज्य 1 विकट संकट सील थी टले हिल ।। ३७ ।
सीलें देव करि साह्य । मालि पुत्र धन रीष मलि | हेला इस जाणी नर नार । सील पालो प्रती कजलो हिल ||३८||
जिम लहो संसार पार । सौध सुख पाभ्यो नीरमनो हिल सील न पालि जेह । नरनारी ते मुरख भण्यो हल || ३६ ||
अपकीरत पढो तेरा | लोक मोहि बतावीयो गणो हेला उत्तम गुण जेवन्न । तीरिण दावानल मुकीयो हिल॥४०॥
२४१
14
अनेक आपदा कष्ट । जाणे तेडवा संकेत कीयो हल | सरग मूगती दुआर | बार भोग लता लोभी जीवो हिल||४१||
त्रिभुवन चुडा रत्न | सील आपणो जीएि लोपीयो |ल| धोग धौग तेह अवतार। जिरिए मडो सील न पालीयो । हेल। १४२ ||
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यशोधर रास
मीफस हदो तस जन्म । मनुख भव वली राखीयो हिल। पाम्यो चीतामणी रस्न । सेह सही प्रालि गम्यो । हेल॥४३॥ पामी मनुख्य जम्म । जिणे रुडो सील न पागम्यो ।हेला इम जारणी नरनार । सील तणो लोप म करो।हेला जिम पाम्यु बहु सुख । संसार सागर हेलांतरो हेन।।४।।
कोल मष्ट होने से ममतमता की दशा
तब सेमि सहू सांभल्यू । कोढणी तेग विचार । जो अंता द्रष्टि पड़ी, मारीवत अवधार ॥१॥ प्रलतो भरी पगि चालती । रातां पगला पईत । हदि पगलां पर भरयां। बड़ा चित्त नईत ॥२॥ वीछोयडा झमकावती । जाती कुबड़ा सूजेरण। से प्रांमली मली गली पडी । पग्म थकी पापेण ॥३॥ धूटी पानी राती हती । मांस गली गदो जाण । हाड उवाडा बीसीयि । कोकसा चरण न ठाण ॥४॥ पग पौंडी सड़ी पड़ी । नसीमि कीडा कोट । कुबडो परतु जे हनि । सभास ऊपेर करी कोट ।। जोध परी सासमी हती। धूटण हुतो सुसोम । हाड ऊघाडां दीसियि । टाली तणो टल्यो थोभ ॥६॥ नीसंब रयो परीवेसतो । कूबड़ी खेरती जय । मांस मोटिम मली गई । हाउसाडरह्यो तत्र ॥७॥ उदरें नाभी वह हनु । ते परुपि भराय । स्तन कूबडो कर झालतु । ते तो गली गली बाय ।।।। कंठ संख समो हतो । हदि खातो मन न खाय । अपर कूबडो जे चूंबतो । गली गया नहीं ठाय ॥६॥ नाक हनो गली गयो। रह्यो इंडी बहु छन । प्रांष ते कुछ समी रुती । कूवता जोती प्रभद्रष्ट ।।१३ कूबढा पग घेणी लोहती । ते सीरन' बसवर्ण । कुंडल जिहां लिहिकावती । गली गया वेइ कर्ण ।।११।।
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बाई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
करें कूबडो प्रासंघती । ते कर रह्यां झाड । दांत उघाड़ा सबा रिहि । सकन खाणे संग ॥१२॥ रूप एह यो हो मिल गयो । कोदोयो सरीर ग़पार । काम ठाम कीठा मधवचि ! पासि फूरडो गमार ॥१३॥ तेहू पण वीठते हषु । हूं हरक्षो मन माहि । हवि ए जोडू सरळू ययू । देवतणी गत्य चाहि ॥१४॥ महिष मांस में रुचि नहीं। मम बोली से दुष्ट । कुपर जसोमती मन रली । क्लतु बोल्यो द्रष्ट ।।१५।। प्रयोनी संभव ए बोकडो । पितरानि कहयो योग्य । जसोधर नि चन्द्र मती । एगि स्थगि पामि भोग ।।१६।। तब तेणि जांघ छेवाबई । मझ तणी प्रतीय । भूष तरस दु:खि पीडियो । पिर पिर पांडू रीव ॥१७॥ से सेकी सराप करप । मुझ निकलप्पु चंग। खाधू मासु सुसे मली। लेई मुझ नाम उत्तंग ॥१८॥ मितु काई लहूं नही । सहयूतीयच गति दुःख । मिथ्यातहि साफल सही । साहू तृषा चहू भूष ॥१६॥
मास मारबाहुनी चन्द्रमती नु जीव स्वानमें साप । मरी इकोसिसो मार जे पाष । मरीनि खाली जे हवीसपो ए ॥१॥
जसोमती कुंअर हणी जे जाण । फलिंग देश हवो महीख वखाणों।
बरदत्त साहा घेर भारवाहिए ।।२।। परबत प्यापारी का महिष
तीणों सींग नयण छि रातो । मोटी मयोड़ी दीसि मद मातो। जातो हाथी सम मलपवोए ॥३॥
सासू मोटु' मुख मोटु विसाल । महिख सू बढतो जाणे काल । पालवी नाथ ते बस करधो ए॥४॥
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२४४
यशोधरशस
भार भरी वरदत्त एक वार । महिल साव्यो उजेपी मझार | जमरा काजे नवी कंठ रह्यो ए ॥५॥
तेह सहीख तीहां जल भोलि । सीस उछानि जल घरणं लीलि ।
वली कराड खणि बल करीए ।।६।। तीणि अरसर राय तगा घोडा । श्राव्या तिहां चपल नहीं श्रोडा 1
रोडा देता वली नद्री सटिए ॥७॥ घोडे एवं महिष की लडाई
वो बोकतारण महाविदछु । पूरव जनमनो वैर पईटो।
मठो जात बेर घणोए ।।।। तेह साहामो महील बसी च्याल्यो । अउर मध्य तस सींगम घाल्यो । माहाल्यो जम घेर वे गलें ए || ।।
संतक्षरण रायनि हवू जाए । सूपकार बोल्याच्या वाण ।
प्राण घणे महील घरयो ए ।।१।। महिख प्राण्यो ते राज दुनार । लोह तणा भाण्या खोलाची पार । पगें दृढ़ करी बांधीयो ए॥११।।
दोर घाल्यो ते नाक मझार। उचूमुख बांध्यु करय पोकार ।
मारदत्त पाप केम नटसो ए ॥१२॥ हेल पोही प्रगन प्रजाली। तीणि प्रकसरि एक बोल्यो हाली । धोली लग होग नगडू पायो ए ।।१३।।
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ई अजीतमती एवं उनके समकालीन चावि हिष को भून कर खाना
खारें जल भरी मेहेली कढाय । हेठल अग्नी घणी बलाय ।
बलि महीख घरणं री करिए ।।१४।। तरसे ते वली री पार करतो । अधीक प्रधी तेरिण मोक धरतो। नरक वेदना जिम दुःख साहिए ॥१५॥
ओर पापी शस्थि कापि। खारि जल छांटि दुःख व्यापि ।
पापं फल एह्वा दाखच्याए ।।१६।। पीठनु कुकटु हण्यो जोय । देवी पुज्यानां फलए होय । कोनम करणु मिथ्यात असोए ।1१७!
अण्य पगें रहयो हूं जोय । देखी परवार रघ्य घर रोय ।।१८।।
कोय न सार माहारी करिए ॥१८।। चारन नीरे नीर न पाय । अमृतणो सराध करी सह खाय । घणा राणा रायनो होतरचा ए॥१६।।
ब्राह्मण घरला मली सराध सरादे । राय कह्नि अंजली भरादि ।
न ख़ानि नरम माहारो लेईए ।।२०।। साकि अंगूठे पीड पहावि । पिडि पिडि गायि देवायि। मिहिखी अश्वाधिक धन घणं, ए ॥२१॥
बासमू काची कहि एम कहो। राय रायनी माय सरगी लहों। द्विष करहिं तिम कूपर करिए ।।२२।।
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यसोधर राम
सूनानीज नोई मुद्रिका दीपि । आमाल संकल्प करी विज लीयि ॥ जसोपर पामो मिम किहे ए ॥२३॥
मि जोन्यू माहारा तनू साहामू । पण प्राभरण एक नहीं पाम्यू॥
दाम्यु दी गलि दोरडू ए ॥२४॥ मांस तरणा तेणे पिष्ट पडाव्याए । सजन साई मांस खबराव्या ॥ बली वार्यान से दीयू' ए ॥२५॥
छेदवी छेदवी दीष लुलाय । एणी पिर मौन पलादिक खाय ।
नाम ब्रह्मा रुलेई करीए ॥२६॥ अन्य खायि मन्य जो दव्य पामे । बाडमेलोक पाल्या एम भामे । कामें चाहा ते प्रापगिए ॥२७॥
पुत्र जमे माता रही भूषि। मात अमें पुष थाय दुःखी।
मूना एका कोहो फिम लहे ए ॥२८॥ पुरष भव आपणा संतान । श्रा करी देता हसि दान । विणजिमें आपण भूक्षा सहीए ॥२६॥
एणि दृष्टांति पूरव के मरया। पाप पुण्य लेई प्रवतरया।
निज करणी सह भोगवि त् ॥३०॥ मारीदत्त प्रह्म काई अनलष । मिथ्यास पापि पिर पिर खघ । देघ सुषा भगर्ने षणं ए ॥३१॥
कूमर तणी हूं दृष्टि पडयो । जाए यम मझ कालज नड़यो। कह्यो वचन सूपकारनि ए॥३२॥
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बाई अजीतमती एवं उनके समकालीन कवि
महिन्ख बलि तीहा सेकीपारणो। वाले छःसने हो। वाणी सूणी मझनि सेई गयो ए ॥३३।।
प्रगन माहि तेरिण पिर पिर वाल्यो । अबेतन कूको बारणे वैर चाल्यो । पायो महिख सूजम घरिए ।।३४।।
नगरी बाहिर फलीही चांडाल । पर पण दीसि तेह सूगाल । वाल परम प्रस्ती भरयां ए॥३५!
अस्ति तणां कि डांडा लाख । मोटा अस्ती तशी बार साख । पाखल उपरि परम बीटी ए॥३॥
बांच्या ते तणां पसुप्रा नेस । रुषीर मांस फरि रहा बस बस । कसमसे मन दीठे घणं ए॥३७॥
पशूनां करंक दीसि ठाय ठाय । पाव्यानि ते वेसण देवाय ।
गाय मथोडीना पाटलाए ।३०।। पूछ बाहारशी कमर पथराय । मांस सणा ढग धि बहू ठाय । खाम कूतरा कर पूपडीए ॥३६॥
गृध्र काम समली पण फरए । मोसने खाई में कल कल करए। तीणि की प्रति बीहामक एमा
खाग महोख बेहू साथै सूमा। सीहा कुकडी पेटिइ हो मा। उदर भगन दाया धरणं, ए ॥४॥
ककड़ी तब हकी भारती। मोबारे तन खावा मंडी। ईडां तब नीसरी पडयां ए॥४२॥
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૪૬
चांडालरी कचरे चंपायो । समूर्द्ध हूं फेहूं फायां । काया लह्यांकेटले दीन ए ॥४३॥ |
माथ पोख बहूणां नीपंना । श्रीड फूटां पाखें संपन्ना । हलू हलू तिहां था वाय ए ॥४४॥
माय वहां अम् ऊ
करमें अपार दुःख करयां । सूख तरस पीड्यां सही ए ॥४५॥१
चांडाली ऊपरों कचरघ, नाख्य ं । तव हुए कोई कोई बोल भांशु प कचरो तेणी खोलमो ए॥४६॥
ब्रह्म बैहू कूक तेगीय देशां ।
रु गरज
कर घरी घिर लेई गई ए ॥४७॥
करण खवरावी तेरमयि पाल्यां । छोरुनी पेरे संसाया | होंडीयि कृमीनें खायता ए ॥४६॥
जेहू एवडो जसोधर राणो । चांडाली परों हृप्यो जागो । आणी मारीदत्त मानें पाप फल ए ॥४६॥
सिर पर छत्र चमर वीजंतो । ते कचार चरणें खजेतो । जतुनि एम पाप पीडंतु ए ॥ ५० ॥
राय सामंत हाथ झालंतु । रतन पावडीयि मही माहातो । घोडालनीमि ते पगि हृष्यो ए ।। ५१||
जनभूम्य बलहरं पिर रमतो । लोला करतो दिन नीगमतो |
भमतो हीं हूं दे
5
यशोधर रास
गए ॥५२॥
1
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Tई अजीतमती एवं उनके समकालीन ऋवि
सरस अन्न पंचामृत जमतो । भमर पलंग अपैरवी ममतो। ममनो कंडाल घिर वेदना ए ॥५३॥
फूल मुकुट गलि फूल हार । सुगंध वस्त्र तनु लातो अपार ।
अकरते हूं पड़ी रहूए ॥५४॥ अमूलक भीणां वस्त्र पहिरंतो । अनेक अषण हूं देह धरतो। ते हूं मीतादिक दुःख महूए ॥५५||
विवि परमानें: जीबडा कोण कुरण दुःष न पाये ।
भावे न कुरण कोण वेदना ए ॥५६।। इम जारणी मिथ्यामत टालो। जीव दया मम वच क्रम पालो । जिम दुःख जाल पड़ो नही ए ॥५७।।
यह कर्कट बेह कर्कट दाध्या सिंहां जाण । गती मोज़ा सिर सोभती । पोछ पुछ पांख पोदी होइन । पाछली गति तक चदीय । ऋक फह बोलत सोहोम ।। नमी कीटक घर्ष ग्यायंतां । वाध्यां तीहां विचार । पापे पापज बाघयो मारिदत्त अवधार ||१|| श्री तीर्थकरसन्मुखांबुजभवाश्वेताब्भवादामिनी । या माता शिलिबानी सुवरदा बेरपाक्षमालाधरा ।। पुस्तकाभूषित हस्तकात्रिनयना हारांवरा भूषिता । श्रीदेवेन्द्रसूविक्रमसुतपदा कुर्यात सतां मंगलं ।।
इति श्री यजोधर महाराज चरिते । रासचूडामणी काव्य प्रतिछंदे । मुदेव कवि श्री विक्रमसुन देवेन्द्र विरचिते यशोधर चन्द्रमती । रभित कृत्रिम कुक्कुंट टनोभूतपाप प्राप्न दुष्ट खंड भव भ्रमण । वर्णनोनाम पष्टोऽधिकारः ।।
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यशोधर रास
सप्तम अधिकार
भास पदललजीनी - राम रामगिरी कोलवाल का राजा के पास प्रामा
तिथि अवसरि तिहो प्राथयो । पटुलडीए । रायतणो कोटवास । सलं रणगाडीए । भी दीठो तीहां तिरिण रूवडा । पर । हाये लीयां ततकाल 1 सलं गडीए ।।१।। लेई करी ते बालयो। पंट | रायनि भेटानि काज स। राजा आगल माहे घरपा ।१०। हरपो जसोमती राज | | ब्रह्म दीढी मोह उपनो ५०। वली वली जूई राय ।स। करें करी अली पंपू पालयां पापुर स्नेह पसाय स॥३।। ये ब्रह्म पाली पोतो करयो प० ते अह्म करे संभाल ।स० प्रवलीगत जूउ करम तरणी ।प० ते करि प्रह्म प्रतिपास स||४11 राय रली प्रायन बोलीयो ।प०। भलो कूकडा सूध ।स। राखो राय कही अती सडी परे 1401 भला करमेतो युध ।स०॥५॥ कोटवाल ने प्री सोपयां ।प। पोळां करे वा काज सग कोटबाल घिर सेइ गयो ।५०) राख्यां पाजरा ठाम स०॥६|| कण चणं मी प्रति घणं, प०। पीयू कडू नीर हा दिन दिन डीले वाधयो ।प०। यौबन पाम्यां धीर स॥५॥ टं कड़ी कोटवा सो भने पाचरण कठण कंटाल ।स। माहोमाहिं वदंतमं ।१०। रीस भरया जेम काल ।सा। मधुरि स्वरे बली दासता ।१०१ राती सीखा ललकंत सग
कोटवाल घिरे सहू जणां 140 घणं, अशा जतन करत ।स०६॥ यशोमती का बन क्रीम के लिये प्रस्थान
एकबार जसोमती 14 चालु बन मंझार स] मंतेउर सूमनरली ।प। श्रीडा करवा उदार स०१०॥ पढो वजाग्यो ते लापन कम हो नाद नीसारण ।स। भागो परी हृदय घट ।१०। उलया वरी ग्राण ।स०॥११॥
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बाई प्रोतामति एवं उसके समकालीन कवि
श्री नारी नयन गल्यो ।ए! ए भोट प्रारंभ (सका यवर हण्या प्रवर भागा 1401 अयरथी गला अंभ |१२॥ हय गय पार न पामीयि पि। रथ धजा लेहे कंत ।स। पाला बह तब घसमसें ।०। चतुर्विध सैन्य महंत ।स।१३।। असंत क्रीडा रमवा चल्यो ।५० जसोमती कुमार ।स। अंत: पुर प्रादर घणो । ६० साधं कुरुगाम
: राय चालनो जारणीयो 1401 पनि चाल्यो कोटयाल ।स०। प्राय बेह न तो पांजरे ।पला ते लीषं सु विसाल ।स०।१५।।
बतमांहि छि रायतणो ।१०। सात षणो प्रावास ।सा डेरो प्रागलि विस्तरयो ।101 तिहां ब्रह्म पांजर निवास ।स।।१६।
वन के फल फल
कोटवाल तय जोनंतो ।१०। अनेक तरु छि रसाल ।स। पाबा रायगा प्रावली ३५० राय अामली विसाल स०॥१७॥ कोठ करणीके कदमदी 40 लीबू साकिर लीबू 1स नीब बकायन बीजोरी 40 | फरणस फोफल में अंबु सि॥१८ः।
गति फलें फलया बड 140। गंभीर छाय अपार ।स० पील पीपर चारोली ।१०। मालामी बद्रीसार स०॥१९॥
नालकेर खजुरडी १० ताल तमाल ताल स। अखोड बदाम नागकेसरा 140 किड तर गुणमाल ।स ॥२०॥
मोगरो मालती मंदार 140 मरुना मोटा मचकुंद स. पीला फलें फूल्या चोपला 401 पाइल बलसरी द स०॥२१।।
जाई जूई जोई जूखही 140 रूपमंजरी गुणमाल ।स। केसू जासू प्रणपणी ।०। केसर टगर मुलाल ।।स० ॥२२॥ बकुल केवहो केतकी ।प० स्थल कमल प्रसोक स० । पंथीयडा पंथ देखता 1401 व्याप व्यरह करि सोक ।स०॥२३॥ ठाम ठाम घर वेलमा 1401 मंडप फूल्ल बहील्ल ।स। वेषे यरहणी हरणाली प० रह्यो अंपारि काम भील्ल सा२४॥
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२५२
यशोधर रास
अबंती रेवती सही ।०। सेबत्री संदुवार ||स०॥ वंधु कराता फूलीया पि० करी भमरा रण झणकार ।।२।। केलघणी कोडाभरणी ।१०। द्वाख मंडप विसाल ||स०।। एलचि फूलि लची रही।प। मरी झूबका गुणमाल ।स।२६।। नागबेलना मंसप प०1 छाया सीतल होय ।स। ईशु वंड बाही घणी ।२० अरहं बहू पेर जोय सा२७।। रायतणी अंतेउरी ।१०। प्राधी कनुको साथ ॥स०॥
लखी मोती बना I मजीद्या मह त स०।।२।। राय याव्यो वन खेलवा ।१०। खलवारू संजूत ||स०॥ हामीयडा बहूँ प्रागल पि०। रथचालिहा संजूत सि ॥२६॥ सणगारचा घणा जलमती । | गज प्रबगाह छि कोटि ।।स।। सामंत छत्री परवरयो ।10। प्रागल पाला कोड स.||३०|| हय बेसी राम घालीयो ।१०। उजल व सोहता ।।स०॥
गज अवगाह चमर ढालि ।प०। जाये इंद्र मोहंत स०॥३१॥ राजा की सुन्दरता
के रूपि काम कहूं 1401 के नल का कुवेर ।1०॥ नाग कूअर के दिलु प०। धीर गुणि काहू मेर सम्॥३२।। सायर समए गंभीर प| पिम चौति नरनार ||स०1।
ठाम ठाम नुप जोपंती पण करे ए जय जय कार स॥३३॥ राजा की सेवा
एक मोती से वधावती प०! एफ भामणा लेय ||सा' एक ते फूलि पूजती ।प०। एक ते प्रासीस देय ॥३४॥ एक ते लाजा वीखरती १० लेती नृप गुप एक ॥स०॥ जीवनंद एक बोलती प०। एक ते विनय विवेक स० ॥३५।। नगरी पोलथो नीकल्यो ।प० दीठ तव जयान स०॥ पंखी साद सोहामणी प० बन जाणे दीथि मान ।स०॥३६॥ झीलोवाम तरुवर लहकि ।१०। फूसह रज ऊडाय ॥४०॥ थमखीन जाणी राय ने 1०। ए बीजणे पालि बाय |स०१३७॥ फूल पडि तिहां परी परी ।१०। उद्यान जाणे वधावनी ।स।। घलहर कलस सोना तरणे ।१०। सिखर यजा लिहिकाबि स॥३८॥
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' अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
२५३
धूपरी घण घणी मधमे ।१०। जामो राज गुग! गावि स ०॥ मेडी मोटा मतवारमा ।ए। राय देखी सुख पावि स॥३६॥ समय की राज्य उत्तरघप०। लील प्रवामि प्रायि स०॥ सबै संन विदा हवी 140 कुसुमावली मने भावि ।स।।४।। राणी सूरंगे रमि । ०1 दलडीए दारिख आसन भेद ।।स०॥ सुरन रमतां श्रम हवा ।प०. पवनें नौगमयो खेद० स०॥४१॥
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तवाल द्वारा मुनि दर्शन
कोटवालि उद्यम करी । जोयू सहू पाराम ।। असोक वृक्ष हेठल रक्षो । मुनीवर दीठु ताम ॥१| नासा अग्ने धागपू । अझैन्मीतीत नेत्र ॥ शुद्ध चोद्रूप ने ध्यायतो । अभ्यंन र पवित्र ।।२।। अंतरदृष्टे नीहालसो । अनोपम मात्म स्वरूप ।। न मित्र समलेखितो । समता रसनु कूप ।।३।। यावीस परीसह जोकतो। मूकतो चोवीस संग ।। रत्नत्रय करी मंडीयो । मुगती रमा सुरंग ।।४।। दम दिशि मंवर पेहेरगणे । मलमलीन तेह गात्र ।।
ध्यान करी लंकरगी । जागो दया नो पाव ।।५।। कोतवाल की चिन्ता
कोटवाल ग्राभीयो । चिता मने बहू थाय । मझ ऊपेर घणं खीजसे । जो देखसे एह राय ।।६।। ए नागो अमंगलो । मसुची दीसे एह देह ।। किहां थी ग मही पाबयो । लाज तो एह गेह ।।७।। वेव धरम धकी वेगलो। क्षण क्षण नंदे वेद ।। एखमणो जाय प्रही थकु । तो जाये मुझ खेद ।।८।। एहनि नीकलया तणो। मांडू काई उपाय ॥
काज सरे जेम मझ तगा ! प्रहीया नाय ।।७।। कोतवाल को बगुला भक्ति
अम चीती मुबि पागले । बेठो कपट सभाग ।। जिम बक बिसि नदी सटि । मनि बीजु अनुराग ।।१०।।
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२५४
पशोधर राय
प्रणाम करयो बिनय करी । भव्य जागी मुनिराय !! धर्मभुधि तेहनि कही । कपट रहीत गुण ठाय ।।११।।
मास बोपईनी कोतवाल मुनि का उत्तर प्रत्युत्तर
चंडफरमा योल्यो कोटयास । धर्म बुधि सी कही विसाल ॥ ते अझनें छि सदा मुमी जाण । भेद कहूँ तेहनो बखाण ।।१।। घमं धनुष पर चगुण होय होय । बाराह मोक्ष के नित नित जोय || तेह मणी ब्राह्मो धर्म इम लहूं। कवण विशेष वचन ती का ॥२॥ मनिबर बोल्यो मधुरीय बाए । नामि प्ररथ न होये जाण ।। हेम धतूरो कनक कहेवाय । पण गुण जाणी वीसेख जणाय ।।३।। मुनी कहि धर्म भेद छि भला । थोरथ सभिलो का केटला ॥ संसार माहे पडतां जेह । धारे धरम कहीजे लेह ।।४॥ वती तहाँ सरीरे दीसो कांक्षीण । बस्त्र रहीत को दीसो दोए ॥ मल मलिनकोतनु तह्म तरणो । चालो वस्त्र भूषण दीयू घणो ॥५॥ भूम्य समने खेदापि देह । सीत उठरण लागि बली रह ।।
स्नान वीलेपन पर आदरो । फोकि वाघट ती काय करो ।।६।। मुनि का उपदेश
मुनीवर बोला मधुरीय वाण । सांभलो कोटबाल सुजाण ।। वस्त्राभूषण घर भवे भवे लयो । पण रत्नत्रय कहीअन ब्रह्यो ।।७।। मू घ्याउ जे का वचन 1 ते भेद कहूं सुणो सज्जन ।। जीव कर्म मल्या अनादि काल 1 पायरण हेम संजोग गुणमाल ।।८।। पाखाण थकी कनका घरे । तेहनो काज घणो जेम सरे ।। तिम आतमा कर्म एकठा मल्या 1 ध्याने करी करसू वेगला !) तेह भणी पातम ज्ञान स्वरूप । अछेद अभेद अनंत ग्ररूप ॥ चेतन तेज तरणो पूसलो । जनम मरा भयथी बेगलो ॥१०॥ एहो पातमा ध्याऊं जाण । वां लहवा सास्वत ठाण ॥ मजरामर पद लहवा सार । प्रसह दुःख छ ए संसार ॥११॥ अनादिकाल जीव भमनो जोय । पुरुष नारी नपुंसक होम ।। चंद्र सौम्य हो जय समनूर । के वारे गह मम के बारें सूर ॥१२॥
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पाई अजिप्तमती एवं उसके समकालिन कवि
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के वार राय प्रतापह ठाय । के बार पालो पागल' पलाय ।। के वार काम रूप एम जोय ! रूप बिहीण के बारें होय ॥१३।। के बारें उत्तम कुल हो । के बारे नीच गोन यिम जूयो ।। कं वारे हवो जीव जीव बलीण । के वारि रांकह वो दीग ।।१४।। प्रार्यखंड म्लेछ खंड मझार । नरभव पाम्यो जीव के बार ॥ धनहीन हवो बली धनवंत । हदो श्रोत्री चंडाल दुरंत ॥१५॥ भवगति दुकह जाणो कोटवाल । सोक बिमोग संताप विकराल ।।
तिर्यंच गति वाष सिंघ ज हुवो । तृण चर रजाणी जीव मूरो ।।१६।। नरकों के दुःख
रत्नप्रभा प्रादि नरक उपन । छेदन भेदन घणं संपंन ।। नारकी माहोमाहि छदे तन । भूख्य घरणी मले नहीं सीथ अंन ॥१७॥ तरसें जाणे सायर सोलबो । पण पावयें नहीं जल बिदुवो ।। गीरी समो लीह गोलो गली जाय । एआबू उष्ण ने सीत सहिवाय ।।१८।। सहथ बीछी बलगायी घणो । दुःख ऊपजे मृतीका स्पर्स तणो । सूला कंटक मंडित मही : म भाग्यमानी नही ।।१६।। मृतिका गंध सही मध्य जाय । मुखें बल यो तेह ज खाय ।। बेतरणी रुधीर भय नीर । पीतो मल तो पाडम रीर ॥२०॥ करवतें नारकी छेदे काय । ए कलर अहनू करी पाप ।। एक भगन थंभ सू करें भेट । साते व्यसन तणां फल नेट 11३१२॥ पलयो प्रसीपत्र बन तलि जाय । पत्र पडता छेदें काय ।।
गिरि प्रत्येगयें गिरि टूटी पडे । जीव में नरके कम एम नष्टि ।।२२।। तिर्यस्च गति के बुःख
वली तिर्यच माहिं भमतो जोय । जलचर थलचर वली वली होय ।।
नभवर गरूा भेरंड आदि भम्यो । मूख तरस छेद भेदें दम्यो ।॥२३॥ देव गति के बुल
सुरगति पाम्रो मानसीक दुग्न । म भमतो किहीं नहीं ललो सुख ।। इम जारिण बोहो गती संसार । मंडमें कर्म नदयावो अपार ।।२४।। बहू परी बेख सेवाडे जाण । जीव नृत्य कीनि नाचाये वताए । इम जीबि जीव सिम वली मरे । घाबर जंगम माहि एम फरे ॥२५।।
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यशोधर रास
संसारी जीव
यिम संसारथी बीहू घणं । विषय सौख्य नेहू अवगणं ।। नारभेद बली सप प्रापर। पर घर पासुक भीक्षा करू ।।२६।। बनें नीरंजन ठामे बसू । प्रागम तत्त्व घरणं अभ्यसू॥ धर्म कहूँ वली मौनि रहूं । निद्रा जीतू मोह निग्रह्म ॥२७॥ क्रोध मान माया लोभ त्य। कपट हास्य रति अति न भजू ।। चिता सोक उद्वेग न धरू । मद तरणों मद हूं दूरि करूं ॥२८।। अंष नारी नीहालचा । हृदय मून्य अवगुण जाणवा ॥ राग गीत सूबहे रो जाण । पर मपयाद मूंगो बखाण ॥२६॥ कुतीरथ जाषा ने पंगली । कामकेलि बिखय दलो ॥ भाश्रव्यो अधेसन घेतन तनु होय । बेसने वहीयि सकट इम जोग ।।३०।। वृषभ विना सकट नवि चली । तिम तनु चेतन सरिसोमलि ।। जीब अन्य फलेवर अन्य । इम लहि दिगंबर हवो धन्य ॥३१॥ परने ननद मोच ईस्टत । बगानामत रस पीयू' नीत ।। ग्लासरीद्र दाए मुदुर । झील धर्म शुक्ल ध्यान पूर ॥३२॥ केवली कहयो लीयू प्राहार । रुघू हूँ पापाथव द्वार 11
इम यंद्री बल ने जीतऊ । कर्म कलंक नहीं छीपऊ ॥३३॥ कोतवाम का पुन प्रश्न
कोटवाल इम जपे चंग । गोस्तन मूकी दहि कुरण शृग ।। ठेली कनकथाल मिष्टान्न । कवरण करि वीजा पिर मन ||३४|| प्रत्यक्ष संसार सूखनि यजि । मूरख जे मोक्षकारण भनि ।। विण छत्रि छाया नदि होइ । विरण जीवे मोक्ष पावे कोय ।।३।। फोकि देह संतापु नाज । म कहा करु तु सीमि काज ॥ देह जीव ए भिन्न न होय । जिम तर कुसुम परीमल जोय ॥३६॥ फूल विनासे गंध विनाश 1 तिम तनु नासे जीव निरास ॥ भूत चोहो बंधायो देह । पवन योगि यंत्र पिर फरे एह ।।३।। गुड महु छाल उदक पावडी । मलि उन्माद सक्ति तिन घडी ॥ तिम ए जीव वेहें बार कहिवाय । किहां थी न माची किहां थी न जाय
॥ 5॥
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बाई अजीतमात एवं उसके समकालीन कवि
दीप सिन्वा पवने लोप । कहो ने कावण दिसे ते जाइ ।। तर लोपायें लीपायि खाय । सिम सनू जातां जीव न ठाय ||३६।। पवन से समन सीसो गति । पानो सम्पजेमा दुःख दलि ।। जीवन बंधायन बमू काय । फोकि गहवी भ्रांतज थाय ॥४०॥
सुक नतीका पर बंछो जेल । विरण बधि बंत्र लेखे एम ।। मुनि का उत्तर
मुनीबर बोल्या बोल वीचार । कर्जा ए जीव मल्यो भूत च्यार ॥४१॥ माटी पात्र अलिवली भरय । पवन जलीत आग ऊपरे धरयो ।। चार मलि जु उपजि जीव । माटी पात्र तो होय प्रतीव ।।४२।। जे गुड मादि कए दृष्टांत । ते तुझान के मोटी भ्रांत ।। जीव चेतन म्यानमु पूतलो 1 अपेत नए दृष्टांत न भलो ||४३|| वली मद शक्ति घेतन ने जोय । काठ पूतला ने मद नध्य होय ।। गल गंध दृष्टांत जे दीप । भबला वाल गोपाल प्रसीद्ध ।।४४।। फूल त्यजी गंध तेन सु रमि । पवर देह लेइ तिम जीव भचे ॥ जो पूर्व भव जीवनं न होइ । सीसु वाछह नु धावे न कोय ।।४।। जण्यू' पाछरु जाणि स्तन ठाय । प्रण मोखव्यू लगिते पाय ।। जारगे काल प्रनाद बीव भौ । करमें सीखवयो काल मीगमि ।।४६।। जीव तनु प्रति जूजूवा जाणवा । साधु असाधु भेद प्राणवा ॥ एक राय एक किकर जाग । वाहन एक बडीया वखाए 110) धनवंस एक एक धन हीन । एक मुन्द्री एक दीसि दीन ।।
कोतवाल को पुन शंका
कहि कोटयाल मुनी अवधार । चोर एक घर , पेइ मझार ॥४॥ लाख विछो न राख्यो ठांम । त्याहा पको चौर मरी गयो ताम ।। छीद्रन पडभो एकज रसी । जंतु गयो कुण मारगि प्रती ।।४।। एक चोर तोली मारघरे । बली तोल्यो ले तु भारयो ।। हलयो न मारे हबो लगार । तो किम जीव छि तनु मझार ॥५०॥ एक चोर करयो खंड खंड । जोयो दृष्ट लगाडी प्रचंड ।। जीवन जातो दीठो तेह तणे । एह उत्तर अहण्यें मुझ भरगो ॥५१॥
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यणोपर राम
मनि का उत्तर
मुनी बोलि एक प्राणी मजूस । संख सहित नर रह्यो पेस ।। लाक्षा बीडी तीवं संख वाजयो । लोक कानें सबद छाजयो ।।१२।। श्रीगन पडयो तीरिंग लगार । स्मूल शब्द बली छे अपार ।। नाल ने मडके गीरीवर ध्रसि । प्राप प्रमुरत क्रेम दृष्टी असि ॥५३॥ चर्म मसक वाली तो लेप । वायू भरी पुनरपि तो लेय || भार समान जो पवन प्रचण्ड । तरु अऊ मेने करे खंडो खंड ।।५४॥ रूपी वायु जे नध्य देखाय । प्रात्मा केम दृम गोचर थाय ॥ समडी काष्ठ खंडो संघ करयो । जोयो अगनी पण नहीं नीसरभो ।।५।। जे वन तरुवर नगर दह य । एह वा अगन ने नयरण नग्रह य ।। मूर्ति पदारथ ने दृष्टी अग्रह । क्षयोपसम योग्यता ए हि ।।५६।। खठग धार तीखी नभ न छेदाय । घपल बालके नीज खंधन चढाय " तीम नीर्मल ए दृष्टि छि घरणी । नाप रूपन देखि प्रापणी ।।५।। नव्य देखीयि ते नी जे कहि । साहू मूर्ख माहिव उपए लहि ।। मास तात लपू पण थी मूयो । विरण दीठि तिणे केम मानव ॥१८॥ भूत प्रेस व्यंवर राक्षसो । विण दीठि छि केम भानसो ।। दूर पावतो सबद न देखाय । पण कान सू मलयो भी जाय ॥५६।। इंद्रि निज निज विखय महेवाय । अमूरत सानोनिमी बाय थाय ।। मा केसू कमि रूप देखाय । कामें सू भोजन स्वाद जणाय ||६०॥ जीणीमि निज निज सही जोग्यसा । रूपीयि रूपनी भोग्यता ।। सूक्ष्म भाप स्पूले न जणाय । हाथी सूहे राई न लेवाय ॥६१।। तिल मांहि तेल मली जेम रह्यो । दूध माहि यम वृतित करो ।। काष्ट माहि वम अग्नी समाय । तिम तनु माहि जीव जणाय ॥६२।। सूरज कौति माहि जिम अग्गी। चंद्र काति जल रह यो विलम्गि ।। पाखारा माहि जिम छि धात । सिम तनु मांहि जीव विख्यात ।।६।। सुख दुखादि दृष्टांत अनेक । चेतना लक्षण जाण विवेक ।। बुद्धि व्यापार जू जू आजोय । मातमा उपजो गमय होय ।। ६४। केम जीव देहांतर परि । किम संसार माहि ए फरि ॥ मुनीवर कहि सांभलो थोर चित्त । जिम होद तह्मा जीवह हित ।।६।। आठ करम अठताल सुप्रकृत । अवादि मल्यो पण एहछि विकृत ।। झानदर्शनावरण ए वेहो । वेदनी मोहनी अायुछि भेह ॥६६॥
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बाई अजितमती एवं उसके समकालिन कवि
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नाम गोत्र कही यि प्रतराय । पाठ करम प्रागमे कहियाय ।। मंद कहू पहना वेगला । संस्खेपि जाणि जो भला ॥६॥ ज्ञान माचरें ते ज्ञानावरण । पंच प्रकार तेह बिस्तरण । सिद्ध इष्टपद नव्य घेखीय । देवमुख परी वस्त्र लेखीयि ।।६।। दर्शनावरण देखावान देय । दरसन प्राचरे छे नवभेय ।। इष्ट वस्तु तेश्री नथ्य पामीयि । गज पोलीयानी पिरवामीयि 11६६11 मुख दुख:नि जणावि जेह । वे प्रकार वेदनी कही सेह ।। खडगधार मधुलीप्त छि जेम । सुख दुःख जीबि लहीयि तेम ॥७०।। आत्मानि मोहि जे घण । मोहनी नाम कहीपि तेह सणं ॥ भेद अठावीस तेहना ते सही । मदिरा माया कोइ वपिरत कही ॥७१॥ अायुकरमि भव माहि रात्रीयि । च्यार प्रकार केवली भाखीयि ॥ हर माल्या नरनी पिर ओय । भबधी नीकलवा नही दीपि सोय ॥७२॥ नाना रूप कारण ए लह्यो । ताणं भेद नाम करम कह्यो ।। चीत्रक पिर परिलखे चोत्राम । नाम करम एहवा परीणाम ॥७३॥ गी करमना छे वे भेद । ऊंच नीच जाणो त्यजी खेद 11 कुंभकार भाजन परी जेम । जीप ऊंच नीच कुल लहे तेम ।।७४।। इष्ट वस्तु पामता जोय । अंतरकर मंतराय कर्म होय ।। पच प्रकार आमम माहूँ को। मंडारी परि गुणे ते लह्यो ।।७।। पाठ करमि करी ए जीव । अनाद कालनो दौथो अतीव ।। मिथ्यात अविरत प्रसाद कषाय । बंध हैत कह्या मन वच काय ॥७६॥ एकांते प्रथम मिथ्यात बिचार । क्षण प्रातमा ते मानि गमार ।। कम खटमास अवधि कहिवात । पुण्य पाप कुण लहि मात तास ।।७७॥ विपरित से जे दयामने कहि । विधि बीसेखि हीसा ने प्रहि ।। सात व्यसन शास्त्र माहि पारि । ते केम पर तारि आप तरे ॥७८।। खर कूतर गो महीखह तणो । तरूवर पथर गौरीनो भयो । विनय करि गुणविण देव कही । बिनय भीथ्यात कहो ते सही ।।७६॥ नर निमुगति स्वीनि सिं नहीं । एह प्रादि संसथ रहि ग्रही ।। धर्म माहिं करि संदेह । संसय मिथ्यात फहीपि तेह ।।50॥ प्रशान मिध्याप्त पंचेंद्री हों । एकद्री मोडतो कण करिण ।। देव धर्म प्रतिमा उखेद । पंच पापना कहया भेद ।।८१॥
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यशोधर रास
क्रोध मान माया ने लोभ । सोल प्रकार दीयि भव थोभ ।। कूड कपट वली काम विचार । पंचेंद्री वस्ती विषय विकार ।।८।। कृष्ण नील कापोत जे नाम 1 जीव ने एमट करें परिणाम :: प्रात्तरोद्र ए बहू दुष्यान । जीनि भमाडिए भवरान ।।३।।
प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश । बंध तणो भेद का विशेष ।। ईखें वंचायो जीव षणं भमें । चारों गति माहि काल निगमें ।।४।। नाम करम नाना रूप करि । प्रानुपूर्वी गत्यंतर घरे ।। जीबनो ऊर्य गति छे सभाय । कम बलि विचीत्र गत्य जाम ।।८।।
संगमन खेम अगनीही जाल । भही पली बाय धंधोलि बिसाल : अथवा मंकड संकलि भरघो । जिम फेरवीयि तिम जीव फरयो ।।६।। संहार विस्तार कर्म प्रमाण । कथू प्रासम वली हाथी समान ।। जिम लघु षट माहि दीपज परयो । षटमाहि पर घट उद्योत करयो
ते बडो देहते बडो व्याप । कहयो केबलीयि नि:पाप ।। पाति करम क्षय होप ए प्राप्त । दोष रहीस गुण त्रिभुवनि व्याप्त ।।८।। जीवनमुक्त महंत भगवंत । सर्वक से कहीयिए संत ।। तरिण प्रागलि कहयो जेह । जीव स्वरूप कहो त्याहा एह ।।८।। द्रव्य नये छ प्रात्मा एक । पर्याय भावे कहीपि अनेक ।। कर्म कलंक रहीत जब थाय । अछेद प्रभेद अनंत कहिबाय ||१०|| नित्य कहियि द्रव्यिं सही। पर्यायि भनित्यज कही ।। नित्य कहिता नव्य मरय न होय । प्रनित्य कहिता गगन सम जोय |६|| जिनवर कहि जीव नाना भेद । काय एह भवि भमि सखेद ॥ एक रीसाल कहिमें एक साध । एक सरोग अने एक न व्याध || ६२।। एक छे गुरु अनेक छ सीध्य । एक मूर्ख अमेक छि दक्ष ।। एक छे राय अनेक थे भृत्य । एक करि पुण्य अनेक प्रकरय ६३॥ रागढ़वष बिखई कहि ह । वचन प्रमाण न कहीयि रोह ॥ ने पितृबनें नाचतो भमि । निज महीला सूरंगे रमि || जोह करें गदा सकति त्रिसूल । क्रोध कपट के राजे मूल ।। तेह बचन प्रमाण केम होय । स्वयं सीध पागम एम जोम |शा लोक ए स्थिरकम कहिवाय । न करे कार्य तो नास न थाय ।। बंधायो ते कहीयि नमू काम । गुर सीक्षादी भेद न जणाय ॥६६॥!
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बाई प्रजीवमति एवं उसके समकालीन कबि
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ईसि सृष्टि कारज जो करयो । ईस सरीर को घडी घरयो ।। थिए सन् ईस जो कारज करे । विरण तनू बेद वाणी उच्चरि ||७|
गगन फूले कंठ हार सू' होय । व्यंध्या सुत जातो ए जोय ॥३ सस सृगह धनुष कर धरी । मृगतृष्णा जल नाही करी ||८|| करुरणा ईस जगनी पाय । एक सुखी एक दुःखी को बाय || मात तात सीसु नव्य मारेय तो किम कहीयि संहार करेय ॥ ६६॥ एक ब्रह्म सह व्यापी रह्यो । सवे घट चंद्र बिंब पेर को || ब्रह्म ने बेद कहि नीकलंक | जय ए जीव मलिन सकलंक ।। १००॥ एक कहि जो मन बंधाय । जीव कमल परें रहयो जल द्वाय ॥ सुक नलीका पेर उपजि भ्रांत । कोकि देखाडो एदृष्टांत ॥ १०१ ॥ मन बंधन कारण सही होय । सुक परिजीव बंघातो होय || कोलीयो बंधाय जिम नीज लाख । तिम जीव बंधातु स्वयं भाल ।। १०२ ।। जो ए जीव धाय नहीं तो दीन दुखी को दौर्सि नहीं || जागो जीव करमि बांधवो विषय बलूषो दुखि घाषयो । १०३|| इन्द्रियों के कारण बन्धन
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स्पर्शन विषय बांध्यो हाथीयो । खाड पडयो अंकुश बस श्रीयो || बहू पेर भार लेईजे भम्यो विषय तृष्णायिए घणुं दम्यो ।। १०४ ।। रसना विषय वाहीयो होय । माछलो दुःख सहतो जोम |
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रसना विषय जीया कि जीवं । माछला पिर दुःख पावे श्रतीव ।। १०५ ।।
areer in at लोभीयो । भमये कमल माहि थोभीयु 11
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बांस कोरि एलो कठण सभाज । तिहां मूल विषय अनुराज ॥ १०६॥ | नवरण विषय छे तरामु पतंग | दीबा मांहि नावे निज मंग ||
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काई पण काज सरम गणो । फोकिं खोहि जीद प्रापणो ॥ १०७॥ पारधी घोट नाद वन सुखी । बेधाया हरणां हरणी ||
श्रवण विषय भोगव्याने पसाय । प्रथं न साध्यो प्राणे जाय ॥ १०८ ॥
हम जाली विषया मन त्यजो । सुष नीरंजन श्रायें भजो ॥ जिम पामो सुख केवल णाण । प्रवीचल पद पामो निर्धारण ।। १०९ ।। समों के कारण दुखी हुये मनुष्य
द्यूत वसन जुधिष्टर राव राज रुष्य हारि कहिवाय ॥
पायां दन मह पिरपिर दुःख धूत क्रीडाइ गयो राहु सुख ॥ ११०॥
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यशोधर रास
मांस तणो लोभी बक हयो । भीमसेन हाधि से मुयो॥ मुनिष्य खातो काहाव्यों राक्षसु । नरकगति ते कर्मइ कस्पो ॥१११।। मद्य नियोगि यद् राजीया। माहो माहि वडो क्षय गया । मद्य निगोद पासिक नो ठाम । जीवनि नरकि प्रापि विश्राम ।।११२॥ प्रवटि मूल्यू जेहे ऊसारण । वेश्यानि ते सरखी भणं ।। कूसरा एक प्रावि छ । चारुदत पर दुख हाय । ११॥ पारष बसने ब्रह्मदत्त भरणो । हिंसा दौखि नरक भयो गरगो॥ बापता तृण पर किहिन न खाय । दुर्शन प्राण लेवा पूठि धाय ।।११४१३ परपारा व्यसनि भागजो । रावण क्षय गयो मन प्राणजो॥ प्रवर पुरुष कर केही मात्र । व्यसन ध्यलधो नरकह पात्र ॥११५।। चोरी व्यसन ते मुक्यो दूर । तीणि पाप लागि अति पूर ।। मरी नरकि सिवभूली गयो । परधन हरतां दुखीयो थयो ।११६।। सात व्यसन ए मुकि जाण । प्राणी पामि सुखनी खाए ।
एछ लोक परलोक जय होस । अनुक्रमि शिवपद पामि जोय ॥११७१० पया धर्म का प्रमाण
समता रस सहूसू पादरो । कर चिप्त कोई पर मत करो॥ समा घरता जीवनें जोष । पदे पदे घरम अनौपम होय ।।११८॥ कोमल मन आपणं कोणीइ । जीव जयणा करी धर्म लीजीई। मार्दव त्रिकरण शुधि अरो। भवसागर यम हेला तरो ॥११॥ प्राजय कहोइ कपट रहीत । जीव दमा उपरि घरजें चित्त ॥ कलुम भाव टारलीजे जोय । नश्चेतो अविचल पद होय ।।१२।। सत्य वचन बोली में सही । एटला ऊकर पुण्यज नहीं ।। पर अपवाद रिकथा । त्यसो । गती नारी सूवेगि भजो ।।१२१॥ लोभ रहीस कीजि अंतरंग । परमातम सूलीजि रंग ।। बाह्य अम्र्पतर शौच धराय । मुगति नारी लीला बस भाय ॥१२१॥ कीजे संयम करत विधान । इन्द्रिय रोधी धर्म निवान ।। काम महागज बम प्राणी । संयमि मृगति कजी जामोयि ।।१२३!। बार भेद ये तप प्रापरि ! धीरवीर मेद उरि ।।। कर्म महावन अग्नी समान । पाम नीमल केवल ज्ञान ॥१२४।।
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बाई अजीनमति एवं उसके समकालीन कवि
सर्व परीग्रह कोच स्वाज्य | अथवा विविध पात्र दोन भाग | प्राकांक्षा रहित जे करि । ते संसार माहि नव्य फरि ।। १२५ ।। परीग्रह सह दूर मुए । अथवा मनसंबर कए । तृष्णा नदी उलंधि जेह । मुगली मारग सही लागो तेह ।। १२६ ।। त्रिकरण सु घरि ब्रह्मचर्य व्रत माचार माहिये वयं 11 तेरिग ग्राचारयो सही सहू धर्म
। करितु मुर्गात माननी सुख सर्म ।। १२७ ।।
दूहा
लेश्या वर्णन
सिद्ध स्वरूप
1
इस प्रकार धर्म का मुनीवनि उत्कृष्ट । अंस पर जो पाए. श्रावकनि परण सुष्ट || १॥
पीत पद्म शुक्ल कही, गण्या लेस्या जे अन्य ॥ सुगति जावा कारण सही जे जाशि ते धन्य || २ ||
धमं शुक्ल ने ध्यान ते. आपि श्रविचल वास ॥ मन पवन षा की नई अस्था अनुभवावा सिद्ध सौस्य न स्वाधीन नी जे || इन्द्रीय रहीत जे प्रनुपसू सास्वसू कही यि ते
१९४ ||
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कोटवाल तब बोलियो, जाणं हे सिद्ध भेद || गुटिका सिद्ध भंजन सिद्ध, ग्रहस बीसि नहीं खेद ॥ ५ ॥
मुनि कही ते कपटी सही व्यसनी लोटा अपार ।। सोध नीरंजन नीरूपमो, जान तो आाधार ॥ ६ ॥
२६३
संभम तेजस रूपए, कोणि के तेज न हरणाय 11 से से कुछो नैन दूख रहा बराबर समाय ॥७॥ ज्ञान तेज मोटिम परिंग, राम्रो सहू मध्य गख ।। किहिनि नही मागाडि, जल कमलह पेर भाख ||5|| केवलीनि गोचर होय, जीव मुक्त विशेष ॥ तेह बिना गोचर नही, जोहू जारिए छि अमेस 11६11
मूको ते साकर खाया, करसीर धूणी देखाय ।। स्वाद जाणि हरखीत होय, जिम जीभि न कवित्राय ॥१०॥
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यशोधर रास
ब्रह्म सिद्ध स्वरूप छि, व्यापक प्रफल प्रनत ॥ जामी पनि पाराघवो, अजर अमर छि महंत ।।११।। विष्णु संमु संकर कयो । ब्रह्म सुबुष दली होय ॥ सलख निरंजन प्रकलए । नाम अनंता जोय ।।१२।। भोला विष्णु व्यापक कहि । जल थल गिहि में अपार ।। माया मोही वेगलो । बली कहि धरि प्रवतार ।।१३॥ भगत उद्धरवा कारणि । निरंजन काम परि रूप ।। करम काया भी बेगलो । ब्रह्म जो सहज स्वरूप ॥१४॥ मम आणी मम दुढ रुझम बरियतार। अहिए हण्यो ब्रह्म जलिहिए कि वचन व्यापार ॥१५॥ ध्यान बलि कर्म जीकीयि । होय ब्रह्म ज्ञान प्रयास ॥ तेज सुतेज जई मले । काल अनंत विलास ॥१६॥ पुत्र कलत्र मित्र नहीं । नहीं नगर पुर हाट । वरण तणो मेघष नहीं । नहीं पीता उचाट ॥१७॥ भोजन भाजन सजन नहीं। नहीं प्रम सेवक भेद ।। पगतला सवा सूवू नही । नही मुख नो पली छेद ॥ इस्यादिक गुण सिझना । गुण गातां होय पुण्य ।। freम देवेने स्तम्यो । तेह कई होई धन धन्य ।।१६।।
भार मम्मामलोनी कोटमास की स्तुति
तब कोटबास मनें हरस्त्रयो तो। भाम्मारुली । धनषन मुनीवर भासतो ।। खेद मद थीको वेगलो तो भग क्षमातगो भावास तो ॥१॥ जीव द्रव्य एणि उलस तो ।म। हम स्वरूप ललो जोय तो।। गाल फूलावे बीजा सही तो भि० तत्व ज्ञानी एह सही होय तो ॥२॥ मखीजवयो बहु पगै तो भ०) वांझो वचन बोलय तो ॥ जीवक याप्यो बड्ड परी तो भला धारबाक मत सेय तो ॥३॥ बलीए निधो में घर तो भिमा नागो प्रसूची प्रजासो" पण ए हरी सचढी नही तो भि। ए सही अतीही सुजाण ठो ॥४॥ सत्रु मित्र एह मने समा तो भ० लोष्ट कनक सम भावतो ।। विकार अंग एहन नहीं तो भला ए भवसागर नाव तो ॥५॥
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माई जितमती एवं उसके समकालीन कवि
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कामरूप एह जाणीयि तो ।भका कामतणो क्षयकार तो। काम करें ए पापणं तो म०। कामतणो दातार तो ॥६॥ हम कही दोए कर जोडीया तो ।म। सीस नमावी लागी पायतो ।। मझ जन्म सफल हवो तो भिः। तुदीठ, मुनीराय सो ॥७॥ हंग्यू कर सही ब्रह्म तणो तो ।भ० मझ सरखं दीयो काजतो।।
जिम मुझ देह सफल होय तो भिल! तू सही मुनीवर राज तो ।।८।। धर्म की महिमा
मुनीवर स्वामी बोलीयो तो म। मधुरीध सुललीत यास । काम कहूं एक रुबड्डू तो भिका कोटवाल सुखो सुजाण तु ॥६ घरम करो तो नीरमलो तो।। विमुवन तारण हार तो ।। जिणि फल पण, पामीइ तो । म जीव दया भंडार तु ॥१०॥ घमि नवनीधि संपजितो ।म०। हरीबल पद धमें होइ तु ॥ चक्रवति पद धर्मपी तु म। धर्म सभो नहीं कोय तो ॥११॥ लाख बोरासी हाथीया तु भा रथ तेता तूं जोम तो ।। कोड अठार तुरंगम तो मि० परम फलें सपो लोय तो ॥१२॥ कोड चौरासी पाला भला तो मला चउद रतन घर मांहि तु ।। छनऊ सहश्र अंतेडी तो ।भ०। घरम तणा फल चाह तु ॥१३॥ बत्तीस सहन मुकुट मंष सो भय राय करे नित सेब तो ।।। सोल सहन गणबष देवता तो ।म। अंगरक्षक सेवे देव तो ||१४|| छखंड तरणो से राजीसो तो भ०। ग्राम छे छनऊ कोड तो ॥ मागध वर्तन छे मादि तो मि०१ जांक्या देव सेवि कर जोड तो ।।१५।। एरिण माने प्रवर रीध तो। भगशास्त्र को बहू भेद तो ॥ धरम फलि पहा सुख लहो तो । म०१ नहीं सोक संताप देख तो।।१६|| धमि तीर्थंकर पद वली तो भला नहीयि पंच कल्याण तो । मेरु सोलर पूजा हि तो भला घरम तणि परमाण तु ।।१७।।
श्रीस लाख बिमान पणी तो भ०। इन सेमिनीत नीत तो।। जाणे फिकर घर तरणों सो भव। भगत भाव धरी चीत्त तो ।।१८।। जान धरम परकासने तो भला बरीजे मुगसी नार तो॥ त्रिभुवन जस विस्तारयो तो भ०। परम तरिग विस्तार तो ॥१६॥ इन्द्र नागेंद्र उपेंद्रनो तो भका पद पामीयि धर्मि जाणतो॥ देवांगना सू क्रीडा करता तो ना अनेक देव माने प्राण तु॥२०॥
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यशोधर रास
विद्याधर विद्या भली तु मन पर्मिचंद्र सूरय थाय तो ।। देवांगना नाटक रचि तु म०१ नारद किन्नर गुण गायतो ॥२१॥ कामदेव सरखं रूप तो । भ०, नारी मन मोहंत तो ।। रूप देखी देवो भूलि तु भ०। धरमि होइ भूप महंत तो ॥२२॥ सीर पर छत्र उजलो तो भला चमर ते गज प्रवगाह सु ।। गज तोरंगम रथ घरणा तु भि पराक्रम बय तरणो ठाह तो ।।२३॥ धमि सात खणा घर तु भा रतन तणी सोंहि भीत तु ॥ पन करण कयण रयणे भरथा तो भि। पट कोल वस्त्र वीधीत्र तो॥२४ धरमि नार सोहामणी तो भि.1 रूप रती अवतार तो ।। मुनीवर नां मन मोहती तो भ०। सोहंती सील भंडार तो ।।२।। ममती सासू नवंद ने लोभ गमती नाहने मने सो।। रीस न धरती रस भरी तो में हर व वा का तो॥ हंसगामिनी मृगलोचनी तो भ०। घरमिबह गुणवंती तो।। जीव तणं जतन करती तो भला कोमल वचन महंत तो ॥२७॥ निज कुलनि मजू पालती तो भि चालती लक्ष्मीय होय तो।। परत विधाननि पालती तु भ०। परम करती बोय तो ।।२।। दान देती सुपात्रनितु भ०। मानती सगा सजन तो।। जिनपूजा करती रंगे तो भ०। निरमल घरती मन तो ॥२६॥ प्रोहोणा सगानि संतोषती तु ।भ। चतुर पणानु ठाम तो ॥ भाग्यवंती विनयवंती तो भ०। कंतना पूरती काम तु ।।३।। पमि पुत्र भला होय तो भला मातपीतानि मानत तो ।। घरमवंत गुणि प्रागला तो भि० नपर्ने प्रारद देय सो ।।३१॥ धर्म पुत्री पामीयितो म०। रूप सोभागनी रेहतो । सीलवंती गुरिण प्रागली तु ।०1 विनय विवेकनो गैह तो ।।३।।
मि मित्र भला सहित भन्। पाप यी मारय ह तो ।।। हीत मारगर्ने उदेसि तो ।। अगर अंबर प्रावि भोग सो।।३३॥ परम तणे फल पामीपि तो भला अनेक ईदनो संयोग तो 11 मरिण मारिएक मुगता फल तो भि। मोती नक्सर हार तो ||३४|| पालखी रथ सुखासन तो म। धरम तणो विस्तार तो। कनक सांकल हीदोलार भला तो 1भ०। हीदोलि हीदोलि दास तो।।३।।
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बाई जिनमती एवं उसके समकालीन कवि
माननीसूं मननी रली तो । भ० धरमि लीला विलास तो ॥ पकवान बहुजात तु ॥ भ० हा प्रश्न अनेक प्रकार तु ।। ३६ ।। भोजन सजाई भोजन शक्ति तो 1० 1 दधि दूष घृत सुविचार तु ॥ तो रास कपुर नाग बेल दल तो भ० । फोफस एलबी लवंग तो ॥ ३७ ॥ ए आदि भोग उपभोग तो भ० धरम फलि उत्तंग |०||३८||
वस्तु छम्छ
धरम ना फल धरमनां फल । तरारे विस्तार |
भव भव जीव सुख लहि । दुःख लेस एक क्षण न पानि ||
दूर देसतिर पावतो । धरम एक सखाय माथि | जल गिरि र यन मांहि पडयो | जीवनें रात्रि धर्म ॥ इस जारी धर्ममाचरो र मुको पाप कर्म ||१||
मास जीषडानी राग देशाख
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पथ के कारण विभिन्न गतियों में भ्रमरण
पापतरं फल भब बने हो । जीव भमें अपार
दुःख सहि श्रीहो गती माहि हो । सुख न पावि लगार हो ।।
पायें दुःख दालीद्र सहि हो । भव माहि भमतो जोय हो ||१|| जीवदा
नोत्य निगोद सात लाख कही हो । इत्थर निगाँव तेनी हीय फूल कंद मूल माहि हो । जीव भमतो जोय हो० ॥
नील
पाप तणां फल होय । पायें दुःख दाली सहि होय । हो० ॥ माहि भ्रमती जोप हो० ||२||जीवडा ।।
भद्य मांस सरीर माहि हो । कंद मूल मांहि जेह
फूल फल छाल पहलब हो । नीगोदे भभ्यो जीव एह हो ||३||
गात लाख पृथ्वी काय हो । मृदु खर पृथ्वीभेद ।
गेरु गौरी मांटी सीला हो । जीव अपनो ललो खेद हो जी० ॥४
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सात लाख अपकाय मांहि होय हो० । जीव अनंती बार । नयी सायर सरोवर कूश्रा हो । उपनो एद्द मकार । हो जी०५।।
तेजकायक साल लाख कला हो । अगनी काम उपन || काल अनंत जीव भमतो हो । कहीं नहीं सुख संपन | हो श्री० ॥ ६ ॥
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यशोधर रास
वायकायक लाख सात हो । तनु धन घनोदधी नाम । चर वायु माहि बली हको हो । जीव मम्मी ठाम ठाम हो जी ||७|| अनेक वेल्ल' तब तृण प्रादि हो । बनसपती दस साष । जीव मनंतीवार प्रक्तरचो हो। केवली मोलि भाख । पाप सा फल होय । पापि दुःख दालीद सहि हो हो बी०॥ बिलाख वित्री माहि हो । अलसीयां शंख सीपोरिए । क्रीडा लालीयर्या मेहर प्रादि हो। जीव भम्पो बहू जोण हो जी ||६|| श्रेण्द्री बेसाख लेखा हो। वीछी कीडी मंकोच ।। जीव एह भमनो बापडो हो । कमि लाई मोटी खोड हो जी०||१|| बे लाख चोरेन्द्री सीहो। हबो जीस गतीगार । माहि गोमाखि हंस मसाहो । भ्रमरा प्रादि मझार हो जी०।११।। च्यार लाख नारफी जोर्ने हो । धतूरा फूल प्राकार । हूंडल संस्थान हबो हो । सह्यो दुःख भपार हो जी०।१२।। तीर्यच यार लाख माहि हो । वन नम जलचर जात ॥ वार मनंती भवतरयो हो । वेसमेई बहू भात हो जी०।१३।। चार लाख देवगती मांहि हो । भावन व्यंतर जाण ।। जोतपी कल्पवासी हो हो । मानसीक दुःख वखारण हो जी०।१४।। चौद लाख मनूष गती हो । प्रार्य म्लेच्छ न जोय ॥ भोगभूमीया विद्याधरा हो । ममतो जीव अबलोय हो जी ॥१५॥ लाख घोरासी योनि भन्यो हो । थावर जंगम हो एह ।। सूक्ष्म बादर रूप धरया हो । दुःख तरणो नहीं छेह हो जी०।१६।। पंच परावर्स पूरा हो । भमतों बार अनंत । संसार धनी भीतरि हो । करमनि फलि महंत हो जीगा१७|| खोंडा पांगसा प्राधला हो। मूगा गहिला जेह ।
पूरव भव पाप करयो प्रति हो । उदय पामो सही एह हो जी ||१८॥ पाप का फल
कोढी द्राव चांदा बणा हो। वीवची पामा थाय ।। गज चमं वात रक्त आदि हो । पाप तरिण पसाय ही जीगा१६।। कंठमाला गडबडा हो । पाठां हरस प्रादि व्याधि । प्रक्ष का रोग पीडयां हो ! क्यूही न पामि समाधि हो जी०॥२०॥
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बाई ग्रजीतमसी एवं उसके समकालीन कवि
मुखें घणं घणं पीउधौ है । मोडधो बरी नह ।। भीख मागतां घर घरै हो । पाप तणा फल एह हो जी ।।२१।। तगतले छाई झपर हो । वरसालि गलत ॥ भोयें पडिया सांतपि हो । झूटो खाट ढलंत ही जी ॥२२॥ कोशी सल्या झोला माय हो । नीरस जमें मन्न । परदेसी सेवावरती हो । पार्षे नीगमें दन्न ।हो जी ॥२३॥ पाप तणो फल होय । पापि दुःख सरीर सहि हो । भवे भव भमनो जोय ।। फाटा बेटा लगडा हो। जूई' भरया असेल ।। चाचड माकरण मसान डि। देय ए दिन मम लेख हो जी ॥२४॥ नारी घिर करूपिणि हो । सापिरिण पिरि साना धाय || मोर पगी रीछ गती हो । पाप तरणे पसाय हो जी०।२५।। नख कूपा मांगली बरली हो । घूटी मोटी जाण ।। जांष कर रोम घा हो । दौर्भाय तरणी खाण हो जी०।२६।। मादल ढोल सम पेट हो । महिषी जेटलू खाय ॥ सांझि व्याहाणि सूती दीसि हो । सौल हीणी पाप पसाय हो जी०॥२७॥ उत्तर दक्षिण स्तन म्यम्या हो । कोटित मस तणो ठाय ।। गालेतु खाडा पड्या हो । स्त्री लही इ पाप पसाय हो जी॥२८।। होठ काला ढाकणी समा हो । नाक ते चीजेस ।।। कान छूटा साकिनी स्मी हो । पीली टुकड़ी सीर बेण ।हो मी ॥२६॥ सिहिथि भमरा कातरी हो । ऊचू पोहो लू कपाल ।। सरीर कठरण अंगे सूकी हो । खरसा दे विकराल हो जी०॥३०॥ ... लोभिण ने चंचल पणी हो । पहरोमा प्राबि गेह 11 चढवा बीशेषे करें हो । नाहसून सषि नेह ।हो जी॥३१॥ होठ पीसंती दौसीमि हो । कूलनी लंपण कार ॥ साहस करि मायावणी हो । देह दुर्गच अपार हो जी ।। ३२।। प्रलय काल लीला जाणो हो । कपट तणो एह गेह ।। मूर्ख प्रशूची नीच मती हो । पाप तरणो फल एह हो जी०॥३३॥ वीनय रहीत वीभधारणी हो । पापिरपी पाप करत ।। मुख मीठी अंते खोटी हो । परधर घिर फरत हो जीगा३॥
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यगोषर राम
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बान पूजा नव्य गमि हो । धरम कथा न सुहाय ।। विकथा कुटि कपटणी हो । जीव जसन न कराय हो जी॥३५।। पुत्र पुत्री होह नहीं हो । होइ तु मरीनि जाय ।। घमं कहीं करें नहीं हो . व्यसनि भूडा सहाय हो जीना३६॥ मित्र तेछि तारा मलि हो । सायि पापह बाट ।। इष्टतणां वियोग होइ हो। परि परि पामि उचाट हो जी०॥३७।। मीच फुलि बली अवतरि हो। करतो नीच जे काम ।। पोखि पिड पापि आपणो हो । न पाणि धम्म नू नाम हो जी०॥३८॥ लांच लेइ चाडी करी हो। धूतारी भरे पेट ।। पर अपवाद जूठा दीयि हो । पापन कारण नेट हो बी०॥३६॥ पाप प्रारंभ पोढां करि हो । करि पाप व्यापार ।। पापी यूं संगत करि हो । पाप मारण ए वीचार हो जो||४०॥ साधु साधीनी मीदि हो । धर्मनी वाटि न जाय ।। दान पूजाये कलेश करि हो । तीणि किम सुखलहाय हो जी ०॥४१॥
कोटवाल द्वारा धर्म के स्वरूप को कहने के लिये प्रार्थना
कोटवाल कहि धर्म नो । कोहो स्वामी स्वरूप ॥ जिम भेद आणं घो। धरम लेऊ सुख कूप ।।१।। मूनिवर स्वामी कोलीया। दया परम करु सार ।।
सुरग मुगती फल पामीयि : जिभ तरीयि संसार ॥२॥ कोटवालका पुनः प्रश्न
कोटवाल तन्न बोलीयो । ब्राह्मण कहित क्यम् ॥ दान दीजि विप्र सेयथी । भूट नहि धर्म एम ॥३॥ क्षत्रीनि हींसा कही । पारघे प्राधिक कर्म । मांस खायते दोष ज नहीं। न्याय पालि होय धर्म ॥४॥ मद्य मांस दूषण नहीं । बेस्या सग प्रकृति ।। ए जीव सहिल छि प्रती भलं । नो करे एह थी नीयत ॥५॥ ब्रह्माई पशू सरजयां । ममृति कहि यन्न काज ।। वेद कहि पशू पा थी। लाहि ते स्वर्गद्द राज ।।६।।
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चाई अजीतमति एवं उसके समकालीम कवि
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भास साहेलडीनो मुनि का उतर
बलता मुनीवरउ । उता बोलि सुरणों तो कोटवाल ।। क्षत्रीकुल उत्सम साहू मध्ये । क्यंम हिंसा करि विकराल ॥ जूहूं परम विचार । जीवदया मंडित सही प्राणो । सुरग मुगति सुखकार ॥१॥ अत्री धरम रणपणे पायो । जीसको साहामोपचारी ।। नाहा सता परता दाति तृण धरता। तेहने अत्री नक्य मारी ।साहे॥२॥ चापड़ा हरण दाति तृगा घरता 1 माहासता पडता अपार ।। क्षत्री पारध किम एहने मारि । चतुर करो विचार ।साहे०।३।। तीर्थकर हरी हलधर उपजि । क्षत्री वंश पवीत्र 11 मांस भक्षण जीव हिंसा । किम बोसी । जूउ वीचारी मीत्र साहे०॥४॥ जीव हता धर्म जो होय । तो माछी पूजीजि ।। मांस साधि को पाने कही। दु : गुरए लोजि रहेगा। ध्यान मौन जीव हिंसा करता । पामि जु उसम ठांम । तु नदी काठि मौन ध्यानी । ककनि दीजि मुनी नाम साहे।६।। जीव ववंतां धर्म जो कहिइ । अधम कहोनि कहिवाय ।। फेवस स्नानि जो धर्म होय । माइला तो सीव जायं ।साहे॥७॥ ब्रह्मायि पालू या निसरज्यो । जे तो बोलो बपन । वाघ सिंह सरभ परजि कहयां । ते हस्ावान करि मंन ।साहे०।।६।। से क्रूर औब वलतीं सीख देवे । अज बापड़ा बल हीण ।। रोह घणं यानि माबरखा । देखे दम्बाये दीन साहा जीव अहिंसा परम परम कह्यिो । वेद स्मृती मझार ।। जीवा लंपट जे विना । स्पसनी पपरीत चापि विचार ।। जूउ परम वीचारी.। जीव दया मंरित सही सा१०॥ जीवत दान एक जीवनें दोष । भूम दीयि एफ असेख । एक मेह सम कनक देयंता । जीवत दान विसेष सा ॥११॥ एम जागी निज दृउ मन पाणी । छांडो मिथ्या प्रांत ।। केवली भाषीत धर्म वली मारणो । त्रिभुवन माहि विख्यात साजरा
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૨૭૨
यशोधर रात
प्रष्ट मूल गुण
मद्य मोस मधुवर जीयि । बली पंचूकर परीत्याग ॥
पाठ मूल गुण एहने कहीयि । भावकनु ए मार्ग सा०।१३।। बारह वत
अहिंसा त पहिलं कहीमि । बीनू सत्य वरतइ अम जाणरे ॥ अचोरीज व्रत पड़प 'मूक्यून चोरीजि । स्ववारा संतोष वसामो स.१४ परिग्रह परीमाण वली रोजे । रात्रि भोजन टालीजि ।। जीवदया आदि ती जागो । मणुनत एक पालीजि सा०।१५। दीगदरती देसवीरती अनरथ । दंडन्नती ए देषो । गुणव्रत त्रुहि गुणे वष पामे । संसार तारण लेखो ।सा॥१६॥ सामायक पदवें उपवास । भोग उपभोग संख्या ।। प्रतीभविभाग ए च्यार प्रकार | सीक्षावत मुभ सीक्षा सा॥१७॥ समकित सहीत बारि अस कहां । संलेखना तनु स्याग ।। दृतु मन करी ला ए पालो । सरग मुगती नु मार्ग सा॥१८॥ चंडकरमा बलतू इम बीमवि । ए सहू पाल सुजाण ॥ जीव दया पण नवि पलयेमे । होयि कुल धर्म हाए ।सा०।।१६।। बिकट खोटा चुरटा जे मोटा । निग्रह करु तेह करे ।। भली परीह नगरी ने राखें । कर कर्म छि महारो ।सा॥२०॥ मनी बोलिहजी तह्म मन करी । श्रोत ते काय न जाय ॥ कुलि पांगलो कोदो को व्यसनी । तिम भापणी सुथवाय ।सा०॥२१॥ वरली राजानो भय तह्म होसि । कूटभ भरण तणो मह । साधा काजि कुटंब सहू मलयू । दुःख सहिसि जीव बहू सामा२२॥ परता तहा निदृष्टा तज दाख । सांभलो मन पिर राखी ॥ जसोधर चन्द्रमती भव भमयां । ए कुकडा बेहूँ सासी ।सा॥२३॥ पीठ कूकडो हसायो देवी प्रागलि । ते पाप बहू लागो ।
अमृतामि जसोधर चन्द्रमती मारघ।। मोर कत्यस भव भय भागो ।सा.।२४ यशोधर एवं चन्द्रमती के जन्म
तीहां थी मरी सिहिलो साप हवां बनी रोहीत मंसूमार || चानमती छानी वी । नेद्र गधि नाग नो पे वार साना२५॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
२७३
चन्द्रमती महिष योनि पायी । तिहां थी कुकडा हवां बेह ।। वत्रिम जीव हिंसा फल पाम्य ! भवि भमता नहीं लेह ।सा०||२६।।
कोटबाल का संसार से भय
तब कोटवाल प्राचंभ मनि पाम्यो । काप्यो थर थर देह ।। राक्ष राक्ष करुणा करी मनीवर । किम होसि पाप छेह ।सा ॥२७॥
कोटवाल मुनी पायं सीर नामी । वरत मागि मनि सुद्ध। समकित सहित श्रावक वत रुद्रां । मुनी करुणा करी दीघ ।सा॥२८।। तब ब्रह्म वेहू कूकडे महु सुरण्यू । घर मनि भवांतर सार ।। जाती समर ऊपनू' सही । ब्रह्म पण लीषा वरत भवतार सा०||२६||
जाती समर वली वरतज पाम्यां । हरष ऊपनो अपार ।। कुकू कूकू इम मधुरज वास्यां । मारीदस सुगरे वीचार सा०॥३०॥
कुसुमावली सूरगि रमतां । काने पडयो ब्रह्म साद ।। जूउ जूज सबद बेधी बाण मूकनू' । बारण लीचू करी वाद ।सा०॥३१।।
वारण देगि राजाइ मूक्यू । मूकमो अह्म तव प्राण ।। कुसुमावली गरभे ऊपना । जोडुन त प्रमाण सा०॥३२॥
कोटवाल मुनीवर पद नांदी । स्तवन करघ मन रंग ।। धन्य धन्य मुनीवर तह्म तरणी वाणी । नौरमल गंग तरंग सा ||३||
पापकलंक महारा पखन्नाया । तुम वाणी जल पूर ।। मझ मन पाप कादव सह सूको । मुनिवर दीठ सूर सा॥३४॥
संसार सागरि बूडतां । मुभा तह्म दीध हाथ ॥ हूं पाप लहिरी झंपायु घणीयिरे । मोहि प्रावो अनाथ ।सा।।३।। प्राज चितामणि रत्न मैं पाम्यू। पाम्यो धर्म कल्पवृक्ष ।। जिनवाणी जिनमत जिनशासन । जिणि जाग्यो ते दक्ष ।सा ॥३६।। जुहूं नीच कुल अवतरघु । तु मुझ भाग्य त्रिसाल । समकित रयरा धरम मिल हयो । जीव दया गुणमाल सा०॥३७॥ कोटवाल मुनी नमी निज स्थान के । पोहोतो मुनी गुण गातो।। मुनीवर मोटो गरुद्ध महंत । रहयो चीद्रूप घ्यातो ।सा०।।३।।
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२७४
यशोधर रास
बस्टु बेहु कूकड बेहू कूकाड मरीते जाण । कुसुमावली गरभिहवा । सने सने ते गरम वाध्यो । गरभ वेदना व्याकल हुदां । नवमासे अवसार लौंधु ॥ अभयदान जो होलो हवो। अभय मभयमती नाम । पुत्रने पेटेज पुत्रज हघु । भव एहबु दुःख ठाम ॥१॥ श्रीमंतो वृषभादयो जिनवरा वोरावसानाः सदा । संसाराावनीसमाः समदमध्यानातसद्वोधका:। सद्भव्यप्रतिबोधकाबुधनुता. षडवेदशुभद्गुणाः । श्रीदेवेन्द्र सुविक्रमस्तुततपदाः कुर्वतु वो मंगलं ॥७॥ इतिश्वी जसोधरमहाराज चरिते । रास चुडामणो कायप्रति छदे । भूदेखकवि श्रीविक्रमसुत देवेंद्र विरचिते । यसोमती कुमार । वसंतक्रीडाबनागमन कोट्टपालमुनी विचार ककूट लब्ध। सद्धर्मप्राप्ताभयरुच्यभयंमत्यवतार वर्णनोनाम सप्तमोधिकारः ।।७॥
प्रष्टम अधिकार
__ मास रासनी प्रभयमति एवं अभयचि का शिशुकाल
सने सने मोटा हवाए। अहाँ नेहू सुदर बासतु॥ बत्तीस लक्षणि संकर पाए । चन्द्रकला गुणामालतो घरमाहें हीडीयो ।।१।। रीखतांए मोतीचोक चूरततो । रतनसाथीया वेरंतडाए । वली बली तेह् पुरततो।।१।घरमाहें हीडीयो ||२|| रतन प्रागिणि खेलंतडाए । दीसि ब्रह्म प्रतिछाहीय तु ॥ नागकुमर नागकुमरीए । जाणे ब्रह्मसू खेलायतो ॥३॥ क्षण क्षीजा शरण हसतढाए । क्षण क्षण घरणी पड़ततो॥ रतन खेलणां पागल परिए । तेहूं पण पाछे बढ़ततो ।।४।। अनुक्रमि ब्रह्म मोटा हवाए । सुललीत तनु सुकुमाल तो ।। विविध वस्थे भूखणे भराए । कठि मुक्ताफल मालतो ।।५।। माटा उछव संभ्रम करीए । मूल्या भणवानी सालतु ।। प्रक्षर ग्रंक राजनीत भण्याए । लपलक्षण विसालतु ।।६।।
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माई अभीतमति एवं उनके समकालीन कवि
२७५
सातबरसना ब्रह्म हवाए । मऊ लघु परिण बहु लाजतो ।। यसीमती राय देखी चीतवेए ! प्रोहोरणाचारनि काजतो 113 | पारध तूर बाजीवडां ए । याज्या अनेक प्रकार तो 11 पारधी सहूए सज थया ए। हाथ अनेक हथियार तो ॥६॥ पाग केटला हाय धरीए । केटलां मूसल प्रचंड तो ।।
जड़ां हाथें धरि केटलाए । केटला लोढा दंडतो ।।६।। गर्ज लोह लाकडा धरीए । हाथ घरघां कलीहार तो।। पानवाटी प्रोडण धराए । सीचाणा बेहेरी प्रकार तो ।1१11 गृघ पनि सकरा धरी ए । चौत्री रथ पिर विठतो ।।
मा सांकल ना पंन्दगी ग! ढीठे मन भय पेठतो ॥११॥ पोचसि स्वान बीहामा ए । वख वखता जाणे काल तो।। लोकी राती जीभ ललकि ए । नयण पीला विकराल तो ।।१२।। लांमा कान धां दीसिए । बेहू पेर का कान तो ।। कता घोला केता रातडा ए 1 केता दीसि पंचवन्ग तो ॥१३।। वकारचा वाघ साचि वदिए । वांकडे पूछ रीसाल तो॥ दांत ते जम डाल समा ए । मुख मोट विकराल तो॥१४॥ कनक सांकल घणं सांकल्याए । रतनपाटी गलि सोहि तो ।। झल झलकि पंचवर्णनी ए। राजानं मन मोहितो ।।१५। राय चाल्यो तव बेगलि ए । प्राग्यो वन समीप तो ।।
र बाजिव सुरांतड़ा ए । तीरीयंच पंखी कंपतो ।।१६।। मुनि सुदत्ताचार्य पर पांच सौ शिकारी कुत्तों को छोड़ना
सुदत्ताचारज मुनीवरए तीणि अवसर भूप दीठतो ए ।। अपसुहोरण पारध वा ए। राय मान कोप पईठ तो ॥१७॥ गांबसि स्वान मंकावयाए । मुनी ऊपेर तेणी वार तो ।। मुनीवर पत्येसे धामयाए । जाणे जम प्राकार तो 11१८।। मुनीवर तेरणे वीटीयो ए । सोहिते गुणमाल तो ।। सिंह पराक्रम पुजलो ए । जिम वीबो सीमाल तो ।।१६11 मुनीवर तरणी तप बलिए । स्वान नम्या थया सांत तो॥ चित्रसख्या सम देषी करीए । राय मने हवो भ्रांत तो ।।२०।।
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यशोधर रास
मझ पारध विषन करघू ए । स्वान खील्या एरिण जाए तो ॥ ए कपटी को दीसीयिए । एहने करूह विहारण तो ।।२२।।
तब खडग करें धरी । बसमस चाल्यो भूप तो ।। कल्याण मित्र को मुनि बन्दमा
राज मदें जीष प्रधिलोए । न लाहि न्याय सरूप तो ॥२३॥ तीरिण अवसरें सुनी बंदवाए 1 कल्याण मित्र वन मांहि तो ।। प्राथ्यो भावसहीत भलो ए । राय दीठो तरिग त्याहि तो ।।४।। अपुरव भेट लेई मल्यो ए ।गय दोषो बहमान तो ॥
घालों नरेंद्र मुनी वंदीपिए । कीजि धर्म नीथानतो ॥२५॥ राजा के विचार
तब राजा कहि मित्र सुरणो ए | महा कीफो अपसोण तो ।। पारष फावेया तणो ए। एह बांदि गुण कोरण तो ।।२६।। वली एणि स्वान नीलीया ए । मझ सरणा अति कर तो॥ वली नागो ममंगलो ए । कुल एह जगायतु ।।२७॥
हूं कुलवंत राजा सहीए । किम एहने नमायतो ।।२८।। कल्याण मित्र का उत्तर
तब कल्याण मित्र वोलीयो ए राज मरणो मम वात तो ।। पारध अपसुरण ती कलो ए। ते बोल सत्य वील्यात तो ॥२६॥ पाप कारज एथी नव्य होय ए । होय पुण्यनो एथी काम तो ।। स्थान स्वील्या ते फोक फहोए । कपटनो न लहि नाम तो ॥३०॥ तप परभाव एह मन गल्यो ए । सांत हवा ए प्रपार तो । नागो को ते ऊसर कहूए । सहूजन सहिनि विचार तो ॥३१॥ लोक नागो जण्ये नागो मरिए । नागो साधि सीव मोक्ष तु ।। जीव स्वभाव नागो होय ए । पहिरो ए विकृत लेख तो ॥३२॥ बली ईश्वर नागु कहो । नागो सही क्षेत्रपाल तु 11 सुरविद्याधर एहनि नमें ए । नगन काजि गुणमाल तो ।।३३।। वेद धर्मयी वेगलो कह्यो ए । वेद कहीयि एह ज्ञान तो । बझ विद्या उपनिषष ए । ब्रह्म लष्टि जेम भान तो ॥३४॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
२७७
मलमलीन सरीर सही ए । घण घण घोषय जोय वो ॥ सात पात मल मूत्रे भरघोए । पवित्र सुगंध नहीं तोयें तो ॥३५॥ सील संयम तप पालताए । एह होये पवित्र तो।। मसूची कहो ए किम हो ए । ज्ञान नदी झोले नौत्यतो ।।३६।। सील प्रवाह तट सत्य तो। दया कलोल गीताएं का ए॥ प्रात्मा नदी संयम जल ए । पांडव ताा नीत्यतो ।।३।। कुल एहनु कहू' सांभलो । कलिंग देशनु रायतु ।। . मुदत्ताराय नाम रुपए । क्षत्रीय कुल गुण ठाय तो ।।३।। सपताग राजे मंडीयो ए । राजपाल तो एक वास्तु ।। कोटयालि घोर धरी प्रारण्यो ए । रायप्रति फहि वीचार ती ।।३६॥ एणि चोरि गृहपती मारयो ए । वित्त बोरथ उत्तंग तो।। चंड देवा ब्राह्मण पूछीया ए। ते बोल्या सुचंग तो ॥४०।। नाक हस्त पग खंड करोए । राय कहि कोहि पाप तो॥ ब्राह्मण कहें पाप रायने ए । मूक्यां करि पाप व्यापतो ॥४१॥ ते पाप पण रायने सही ए । तब राय लह्यो वैराग्य तो।। राजभार सुतने दीउए । संजम लीधो मोक्ष मार्ग वो ॥४२॥ कोष फरि नहीं सह्म तणो ए। घाय फूल हार तो॥
सुर नर फण विवाषर ए । पूजि चरण सुखकार तु ।।४३।। राजा द्वारा वाबमा करना
तब राजा बोल मानीयो ए। मुनीवर भागल जाय सो ॥ नमोऽस्तु करप बहू जारिगए । जोग पारयो मुनीराज तो॥४४॥ प्रासुकं ठामें बेसीयाए । धर्म वृद्धि हुने दीषतो । राय पणं प्राचंभीयोए । मनसू पीचार तम कीपतु ।।४।।
मुनीवरनि रामा कहि, कवण देउं उपमान ।। सगष दीसि नही । क्षमा तणो नीधान ॥११॥ ब्रह्मा कहूँ तो उर्वसो चल्यो । हरी तो गोपी लुब्ध ।। सौच कहू तो पीतृ वने फरि । रवि कहू तो ताप कीष ।।२।।
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यशोधर रास
• २७८
चंद्र कह तो कलंकी सई । गूळ पतनी दोष इन्छ । सगर हूं तो खारो खरे । मेरु तो जर लोभ मंद्र ।।३।। नारद कहूं तो कलह करे। दुर्वासा तो बहु रोष । विश्वामित्र वसिष्द कहूं । मातंगी उर्वसी सुत दोष ।।४।। कपिल सगर सूत बालया। जमदग्नी रीसह ठाय ।। व्यास कहूं तो चूको प्रपछरा । धीवरी सुत.काहिवाय ।। ५) सुक तु अपसरा सूडीयि जण्यो । हरणीय जम्यो एक ग। इम जोतां कुल सील थी। अनोपम मुनी उतंग ।।६।। वली एहनि स्वान मूक्रया । कोपि चहा बिसेस । हूं पररा खडग काही मायो । रीदर न ही बनेगा || साषु तरसी निंदा करी । किम छूटसू ए पाप ।। सिर छेदी मुनी पादें वरू। तो टलिए संताप ||८||
इम चिंतें राम कोटि भट | खडगि घालि जब हाथ ॥ मुनि द्वारा सम्बोधन
राय प्रति वली वोलियो । दयावंत मुनीनाथ ॥६11 भाभो भूप भलं नहीं । सिर छेवघानू काम ।। आप हत्या ए मानीयि । दुरगति केरो ठाम ॥१०॥ पि करी पाप पखालियि । तप करि छटि पाप बंध ।। तप करी सरम मुगतो सुख । अवर जाणे सई घंध ।।२।। राय मने प्राश्चर्य हो । कल्यणमित्र सूकही बात ।। मुझ मन भाव किम जागयो ए ता कहो मझ भ्रात ॥१२॥
भास अंबिकानी
कल्याण मित्र द्वारा राजा को समझाना
कल्याण मित्र बोल्यो तेरणी बार । राय सुणो बागी मुझ तणी ॥ ए कारण तो थोडु विचार । ए मुनीवर ज्ञानी घणी ए ।।१।। तप करतडा अती स्मृयो । रीघ ऊपनी छि प्रती घणीए । रिधि सति जे मुनी कन्हें होय । विस्तारी कई कोडामणी ए ॥२॥ जो जिन नाम रुधी स्मरण करत । विसुचिकायादि रोग टलेए । अवधी जिनमुनी स्मरण थी नार) । सर्वज्वर रोम गले ए ॥३॥
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Tई अजितमती एवं उसके समकालीन कवि
परमाकषि मुनी स्मरण विशेष 1 रोग मस्तकनो आय गली ए ।। सर्वावधि मुनीने जन्ममूर्त । जाणे । हणि पनीर ।। अनंत अवधि जाणे जग स्वरूप । शम्म ग्रह रोग हरिए । कोष्ट बुधी रुधी परभाव । शूल गुल्मोदर नाश करेय ।।५।। सर्वशास्त्रनू बीज प्रबर लही जाणि सर्वशास्त्र ।। बीजबुधी स्वास सही होए । श्रुत लही माहोमाहि वैर लहंत ॥ और तजि पदानुसारी गुरिणए ।६॥ सभीन श्रोत्र मुनी रीध्य ध्यायंत । स्वास खास क्षय रोग हरे ए ॥ सयं बुधी रुषी मुनी तणं, ध्यान | कवित कला फल जगि जोविए ।।७।। वाद विद्या होय जेहनि ध्यान । प्रत्येक बुषि मुनी कला ए॥ बोत्रीत बुधि वुधी गभिर । तत्त्व पदारथ जारपी रह्या ए ।।८।। सरलपणे मन चीत्पो पदारथ । जाणे रुजू मनी रुधो घणीए ।। विपुलमती कहिं कुटिल विचार । मन अर्थ चिता घणी ए ॥६॥ जेहनी भक्त नर सहं जाणि अंग । दशपूर्व रुधी गुण जाणीथिए । स्वसमय पर समय लहि मेद । चौदस पूर्व बसारणीयिए ।।१०।।
अनेक प्रकार जाणे निमित्त । अष्टांग निमित्त कुशल मुनीए ।। ऋद्धियों का वर्णन
प्रणीमा महिमा प्रादि रोधी दातार । विकुर्वण कृघि छि पावनी ए ॥११॥ लघु प्रणु सम मोटू मेक समान । सरीर करि रिधी बलें ए ।। प्राकाशगामिनी ध्याता दीधि । सीधी विद्याधर रिषी फलिए ॥१२॥ हृदयचीता मुष्टीगत वस्तु । चारण रुघी जाणि सहीए ।। अंग साथि जारिग श्रुत मुनीन्द्र । पण समणाण रुधी कहीं ए ।।१३।। मेरु सीखर जई स्पर्श करत । आकाशगामि रुध तणे फलिए ।। प्रासी वीखि रौसि दांत पीसंत । चक्रवत्ति सैन्य क्षणि बलिए ॥१४॥ जो फरवति तनु करे बेखंड । कोप न करें सही क्षमा बलिए ।। दृष्टि दिख जो क र करि दृष्टि । चक्रवत्ति सेन नो ठाम टले ए ॥१५॥ घन धन मुनीए बडी छती सक्त । पप को प्रति कोप न करिए। तेह रूपी मुनी ध्यातां सुणो राय । अनेक प्रकारे विख हरिए ॥१६॥ धीर परिण तप थी न चलंत । उग्र ताप कधी फल लह्यो ए । सरीर कांति जाए मंधकार । जिनवाणी जिके मिथ्यात कझो ए 1१७॥
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यशोधर रास
मन सणो पाप संसय सह जाय । दित्त तप रिच घणं ए॥ एहनि घ्याने करता फस होय । स्तंभन पोढी सेन्या सणं, ए ॥१८॥ तासा लोढा पिर पड्मो जल जेम । तम अन्न पान विघटी जाय ए॥ तप्त रूपी प्रभा विध्याता जाणे । विघ्न तणं स्तंभन थाय ॥१६॥ छ भट्ठम पक्ष मासोपवास । मन्न पीनी पामि नहीं ए॥ महातप रोधी तणे परीणाम । जलस्थंभन ध्याता सही ए ॥२०॥ क्रूिर माया नही मुनीं श्रीकृती ती न भजेए ।। षोर पि फोर मुगिवनी रुधि । परीसह कीषि नव्य घूजिए ॥२१॥ पोर गुण पराक्रम जोय । कर्म विरी साथि वहिए । घोर गुण ब्रह्मचारी गुरणय । नारी परीसहि नदि पडे ए ।।२२।। मामोसहीए पत्त परभाव । प्रामय पिर पिर ना लिए ।। खीलो सही रुधि थूकने स्पर्श । रोग सहू दूरे पलिए ॥२३॥ साँग मेलथी साप विख रोग । चीस प्रांती फीफरू जाय ए॥ जल्लोसही पति मरकी विनांस 1 रोग जाय रुषी ध्यायतां ए ।।२४।। सर्वोषधीय पत्त गुण जोय । सांग उषध जाण्यो ध्यायताए ।।२।। अंतरमूत्ति द्वादश अंग । अस्वन मरकी इणि तेरिण बलीए ॥२६॥ कायवली जु ऊंचलि श्रीलोक । सक्त अन्य स्थानकि धरिए । हस्त पाम्यूते दूध सही होय । खीरस वीण रुषी करिए ।२७।। हस्ति बीषादी तें घुत सही थाय । सष्यीसवीण कधी पौर कहीए । हस्ति अन्न अमृत गुण होय । प्रमी म सवीण गुण नहींए ।।२।। प्रक्षीण महानसीरुध्य मुनींद्र । जेह घेर पाहार लेई मायए ।। च्यार हाथ चक्री सैन्य समाय । अनहान अक्षय पाय ए ॥२६॥ बर्द्धमान रुधि रिण धन धान्य । विद्या तणी वृधी मोहे ए॥ सबसिद्धायद णाण प्रमाण । सर्बोसधी माहा पुग्य सोहिए ॥३०॥ बर्द्धमान बूधी रूपी नाम । सायं सौषी मोक्षादी देइए ए ! एह रुषी मुनी कह्नि छिसार । विनय करी गुण लीजोथिए ।।३।। सुर असुर नर जोडि हाथ । ए मुनी मोटो राजीउ ए ॥ अनेक सास्त्र छि अरथ मंडार । नव नय घणं ए गाजीउ ए ॥३२॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
२८१
सुफल ध्यान करि खडग थरेम । मोह विरीमिए नया ए।। काम मान मद माहाठडा जाय । पाप पाटरप त्रास पडयो ए ।।३३।। करम वैरी रणे रोलया जेरण । रत्नत्रय निधान लीयू ए ।। निभुभवन मांहि एकल्ल मल्ल वीर । सह लोकि जय जय कीउ ए ॥३४।। क्षमाराणी सूरंग रमत । ध्यान निद्राए निसि सुचेए ।। नित्य नप पदारथ जाए । पातम तत्त्वनिसही जूविए ||३५।। अठार सहस्र सील रम राखि । चौरासी लाख उत्तम गुण ए ।। सुभट सर्व पंचाचार प्रधान । एह समु पुरि कुणए ॥३६।। उपसम गज़ चढी करे काम । ठाम विनय बेरी नो टालिए । पोढी प्रजा चतुर्विध संघ । बचन धनि घणं पालिए ।।३७।। पुण्य पाटए। राजधीनि जाए । सरग धघल गृह सोभत्तां ए 11 व्यंतर ज्योतिक विविध विमान । परजामंडीत पुर सोभतां ए ॥३८॥ एणी पिर राज करे मुनीराज । प्रातमा चिंतन राजवट भलीए । पापी प्रभव्य ने मोहोल न होय । न्याय मारगे थालि बलीए ॥३६।।
हा भवांतर पूछू रुबडा, मात पिला तपा माज ॥ ए मुनीवर न्याने प्रागलो । सुणो असोमती राज ||१|| तव जसोमती कर जोडीनि । मूनीनि लागो पाय 11 मिनमाणि अविनय करम । तम्हे स्वमजो मुनीराय ।।२।। मुनीवर कहि राजा सुगो । लाख चोरासी जीव ।। ते उपरि क्षमता सदा । समता धरू अतीव ।।३।। भवांतर मऊ भात तातना । कहो तमे ज्ञान भंडार ।। मुनीवर कहिते जू जूना । सुणो जसोमती कुमार ।।४॥
मास तेम मनावोजी गौतनी।। यशोमतो राजा के भवान्तर
राय जसोधर तह्म पिताजी । अमृतमती तम मात के ||राय अवधारोशी संसारना सुख भोगवतां जी । तम हवा पुण्य पसाय के ||राय।। सांभलतां सही जारपीयिजी । पुण्यनि पाप विचार के । असोघर तम्हारो पीतामह जी । देखी पनीतमो पालके ।। बैराग्य घरी तप प्राचरी जी । सरंग पाम्यो गुणमान के ।।१३। राय
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यसोपर रास
पूरब करम पसाय थी जी । राणी फुवडा सू लब्ध ।। जसोधर मन तह सू सहीं जी । बहू परमोहि अद्ध के ॥२।। राय रापी प्रज्ञानी सी जागीयो जी। राय हवो मन मंग के । रति वैराग्य भावती गई जी । प्रभात हवं उत्संग के 11३।। राय सामंत क्षत्री मंडीयो जी | राय सभा बईठ॥ चन्द्रमती तिहाँ प्रावई जी । सृत दी हरख पई ॥४॥ राय० जसोधर दीक्षा लेवा सही भी। कहिं क्रू र सपन उपाय ।। चन्द्रमती चलती वदे जी । देवी कोपी राय ।।५।। रामक देवी मढ़ जीव पाचौदिये जी । होगी। मिना !! उत्तर प्रति उत्तर कहिया लगी जी । जसोधर दवा निबास ।।६। राय मायि प्रेरघो लानिं पडों नी । पीठ कुकडी करेया । भाव करपो हंसा तण्यो जी । देवी ने बलि देय ॥७॥ राय. देवी नू स्तवन करप जी । मझ विघन करो दूर ।। त् चन्डी कास्पायनी जी । सींह पाहनी तू कर ||८राय. ते समरथ केम राबवा की। जो प्राब्व मृत पास ।। भोला कोकि मिथ्यात करी जी । पडिते पापने पास 118! राय देव स्वरूप जाणि नही जी । सुख वाछि गमारि ।। जे पर जीवना प्राण हरि जी । ते किम तारि संसार ।।१०॥ राय. धिर आवी तुम्ह राज दीयूजी । संजम लेबा सजथायें । तब अमृतायि पीतवूजी । जाण्यो मुझ प्रन्याय ।।११॥ राय० ते प्रावी विनय कर जोडी जी । दीक्षा लेस्यूतुम्ह साथ ।। माय माथि मुझमंदिर की प्राज जमो मुझ नाथ के ॥१शाराम. रायें बीसवास तेन करवुजी । जेसूपड़ी चीत खाउ ।। वली वसेखिनदी नखी जी। नारी मातु साह के ॥१३|| राय विश्वास करवो नहीं जी 1 राय से घणो सूजाण के || पण तेह घिर जमवा गयो जी। कम तणो परमाण के ॥१४॥राय विस्ख देई तीरिग बेहूं जणां हण्यां जी । प्रचंतन कूकडा ने पाप के ॥ राय मोर माय स्वान होई जी । पाउँ पाम्यो संताप के ।।१५।।राय. भौर मरी सेहेलो थयो जी । स्वान थयो ते सार ।। सेहेलो मरी रोहात हवो जी । सापते ससुमार पाप ।। १६॥राय.
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वाई अजितमती एवं उसके समकालिन कवि
२०३
पापि पापजि वाथयो जी । सुणो जसोमती भूप के ।। माय बेटा बिर बिस्त रथ जी । संसार दुःखनो कूप ।। १७शारायः माछामि तम ने भेट घरयो जी । जे-रोहीत विख्यात । अमृता ए जे तेल माहि तल्यो जी । ते सही जाण्यो ता तात ॥१८॥
सीसु मार जेणी कुबडी हणी जी। नृत्यकी नायती सार के ॥ माछीतही सेमारथ जी । ताती बेल समार के ॥१६॥राय. होतां वीरज पोति ताहा हवो जी । संसार त् हबो विचीत्र के ॥ तह्म खाली हरणी तिहाँ । तल पिता जी । पोति पीता पोति पुत्र के ।
२०। राय छाली मरी महिस हवो जी । तर अश्व हणो ण के ।। प्रजोनी संभब छाग सह्म पिताजी । दुःखी हदो जाग होण के ।।२१।।
राय महिष मारघो वाल्यो चन्द्रमतो जीवजी । छाग बाल्यो पिर तण के ।। छाग महिख साथि मूग्रा जी । कूकडां हां पापेग ।।२२।।राय बन क्रीडा तो प्रावया जी । वन सोधी कोट चाल के ।। मझसू बाद करतडा जी । प्रतियोषायो बिसाल के ।। २३५॥ कूको तब भव सांभल्या जी । मुझ बचन थी सार के ।। कोटवालें सार्थ दूत सीयो जी । हरखें बासां ते वार के ।।३४।। कूमावली सूखोलतज्ज्ञां जी । मुफ्यू शब्द बेंष बाग के ।। युसुमावली गर्भ जोडि अवतरयां जी । कुकड़े मुक्ति प्राए के ।।२५शारायः अभयमती अभयरुची जी । रूप सोभाग अपार के ।। मिथ्या पाप तरिय फलि जी। इम बांध्मी संसार के ॥२६॥राया अमृतायि पाप करयो घणं जी । नाह मारपी देई विख के || मील न पाल्यो मिथ्या करो जी । पांच मे नरके पापी सीख के ।।२७।।
राय.
राजा का नशा
राय मनें तव गहि वरयो जी । नयणे आंसू पायके ।। झरी झरी मापने नंद तो जीके । रा। थरथर कापि काय के ।।२८॥ माहारा मात्त पिता तणो जी । महारि हाथि व्यध कीध के ।। जीरिप हं पाल्यो पोठो करपो जी । तेहने में दु.ख वीध के ||२६।। रायः
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२८४
कल्मा मित्र प्रति बोल तो जी। मिकीधा बहू पाप के ।।
जलचर नभचर यलवर जी
यशोधर रास
हराया कोष संताप के || ३० ॥ राय०
से पातिक हति छेद सु जी
I
ले संजम योर के ।।
तनु मव भोग विरक्त हवो जी
दुर्धर तप करी घोर के ||३१|| राय ० इन्द्रिय चोर के |
दुर्घर तप करी घीर के ॥३२शाराय ० धू मन ए पिर के ।।
मयण मान मर्दन करू जी । कल्याणमित्रनि वली का जी । कूअर ने देजो राज के ||३३|| राय •
दु:फर्म विरीजी पसूजी जीकू तनु भव भोग विरक्त हवो जी।
अहिछत्र राय के नरसू भरी नी । करजो वेद्देवांनू काज के || नोज हाथि वेयो राज के ||३४|| राय
वल कल्याण भित्र बर्दि जी
I
परजानां सरि काज के ||
यम कूं भरने राज भोगपडिजी राजापि राज स्वस्त होइ जी
।
स्वस्ति मुनी तथा योग के ||३५|| राय० सोनचि चम योग के ||
स्वस्ति सहू शास्भ सांभाल जी
राए तेह बोल मानीयो जी । तब जाणू नगरी मझार के || ३६|| राय
:
सोमती के वैराग्य साथ से चारों और चिता
जसोमती राय वैराग्य हवी जी | तब ह हाहाकार के 11
I
तय अंतेजर खल भल्यू जी मोती प्रोतीतिम रह्यो जी एक असे मूल जोती जी एक अंजन करि घरधो जी । वेगुलि कम मह धाय के || एक वेणी गंथती जी । एक ते पीठी लायके ||३६|| राय०
एक कताबसी जाय के ।। ३७।। राय ० ते पण वन मांहि चाय के ॥ एक सागारती काय के ||३८|| राय ०
एक हार पिहिखा करि धरयो जी । वेगुलिवन मांहि घायके ।। एक सिंहिधी सीरे रोपती जी एक करि तिलक बराय के ||४०|| राय
एक फूली करिग्रही जी । वेगुलि वन मोहि चाय के ॥
एक चंदन तनु लायती जी । कंचोली हाथि सेवायें के ११४१|| राय
एक भोजन थाल स्मजी जी । वेगुलि बन माहि वायके एक प्रधुरे पान बीडी धरी जी । अधुरी छि मुख ठायके ॥ ४२ ॥ राय • वीर पहिरो बोली बोसरी जी बेगुलि वन मांहि घाय के ।। एक अवलिं खीर पिहितीजी । एक घाटडी वीसराय के ॥४३॥ राय
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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अंवोटो शूटि बेगी ललि जी । बेगुलि वन माहि पाय के एक ते घसमसी चालती जी ! परती काय काय के ॥४॥राय. एक के.थी मेखला पडि जी 1 गुलियन मांहि घाय के 1. एक वीछीया नीसरी पडि जी । एक धूपरा छुटी जाय के ॥४॥राय एक मूडी करि थी पडि जी । वेगुलि वन माहि धाम के । एक मोती हार रातो जो । एक फिर नोय ॥ एक वेणी पाछाहती जी । वेगलि वन मांहि षाय के॥ एक मही पगि खूचती जी । एकते सास भराय के ।।४७॥राय एक विलाप करतही जी। गुलि वन मोहि धाय के ।। नयन काजल जलि चोली तणा जी । मोती हस काला थाय के ॥४८॥ एक नाहना गुण बोलती जी । वेगुलि वन माहि धायके ।। एक प्रसूपि चोली भीजती जी । सेऊ कांबली जगाय के ।।४६॥ नपण नीर करी नाहती जी। बेगुलि बन मांहि धायके । कुसुमावली राणी वीनवती जी । सुगो जसोमती राय के ।।५।। तप फलि स्वर्ग पामी जी । तेरिण ता कंस काज के । नयरी अमरावती समी जी। हूं तो परस्पक्ष इंद्र के ||५१॥ राय हं इंद्राणी प्रपछरा जी । राणी केरोद के॥ वली योवन रस लीजियिनी । राज भोगो मन रंग के ॥५शाराय० कोथु मात्रम तप करूजी । दीक्षा लीउ उत्तंग के। चूना चंदन नव्य गर्मि जी ! मन भमि मह्म तुम पास के १५३।। सय. मह्मने एकला नथ्य मूकीयि जी। कीजीयि लील बीलास के ।। फूलहार अंगार समा जी । भूषण तम दिण भार के ॥५४ाराव मयण दावानल तनु दहि जी । दहीवली चंद्र अपार ।। तह्म विण सूनी सेजडी जी । गोठडी कोणसू पाय के ॥५५शारायः किम छांडो एबी प्रीतडी जी । ब्रह्म तह्म विण नर वाय के । पविन्द्री पखदु होथि राणी । तिहा जलगरण रुडू जाणीइ जी ।।५६||राय जब जरा दूरे जैथ के । राय कहि र.सी सुणो जी ।। ज्यांही तनु रोग न संभदि जी । ज्यांही नव्य खूटि प्राय के | राया पात्महित ते टालि करो जी। पाछि काइय न पाय के ॥ पर जबलागू बार पकी जी। मांड्यो जसवबा उपाय के ।।५८॥राय.
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२८६
कूप लगवा तंब मांडयो जी। किम तेरणी अगदी उहलाय के || मारदित्त श्रवधारीयि जो । श्रह्मं जाण्यो राय दिश्वार के ॥ ५é पालखी वेसी बेह्र जणां जी द्याव्या बनह् मकार के || मुनीवरनिं पाये पडयां जी । वीनव्यो जमीमती भूप ॥६०॥ शय ताविण परवार सोहि नहीं की। तारा विएससी रूप || तीखरी गहू चीनशी जी पहनते सर के ।।६१।। मदन दावानल बली रह्यो जी मु उपरि नांखो भंगार || तुम नयतें भी करें जी । तुसही मेघश्रवतार | ।। ६२॥रा०
यशोधर रास
प्रेम जल वरसी करी जी । एह संताप निवार के ।। मानें लघु परिए किम तजो जी केम सरि प्रजा दो काज || निमित्त हवं ते वल कहो जी । दीक्षा जेवा श्राज || ६३॥ राम
बूहा
राजा का निश्चय
राय कहि पर सुखो, सुन्यो जसोवर भव जाण ॥ मोर आदि तझ लगि सही । पाप पुण्य भेद प्राण ||१||
भवसुतां मा बहूनि । हवो जाती स्मरगा सार ॥ सात भव दुःख सांभलयां । मूर्द्धा प्रावी तेणी वार ||२|| सीतल बायु चंदनें करी । कोषां सावन ॥ सूर्छा कारण ब्रह्म का । तौणि दृढ धर्म विधान ||३|| राय कहि सह राजि लोउ । पालो प्रजा परिवार ।। क्षम तम सहूं साथि करी । श्रह्मे लीउ संजम भार ॥४॥ दीघो राजमि ताने । बलतो केम लीड ब्राज ॥ राजनीति इम रहित नहीं । कवि प्रती बहू लाज || ५ || श्रथवा लीं तात मुझ तथा । वांछीजं जोय हीत || मोह काद विनास तां । एदीसी बोपरीत ॥६॥
4
बाप घोनि सूख करि । गुरु कद्रीयि से माट ॥ से राज रान मांहि भोलवि । बलिनांखिक बाट ||७|| जु बापत होत फरथ । तो देवाडो दीक्षा खार ॥ काज सीभि यम आपण दुस्तर तरीयि संसार ||६||
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बाई जीतती एवं उनके समकालीन कवि
पूर्व कथा
राज रुडं जो तझ भने । तो ए छोडो कांय ॥ गोलि बालक छे तारीमि । चतुरछे तारो न जाय ॥६॥
2
कन्या मित्र मानि का राज लीयो त आज || जिमनीसल्य राय तप लीखि । पछि फौजो श्रातम काज ॥ १० ॥ तव में ते बोल मानीयो । रायें नीज पद दीघ ॥ दोन पूजा क्षम तप करी । सत्य रहीत मन की ।। ११ ।। ef श्रीमना निगदितं ज्ञानं सदष्टांगकं ॥ वृत्तं तस्त्रिदशाचितं त्रिवास भवोद्धक ॥ सद्गबोध सुवृत्त कानिगदिता न्ययैिः सुरत्नानि में 13 देवेन्द्रविक्रममुतपदं कुर्वंतु वो मंगलं ||4||
इति श्री यशोधरमहाराजचरिते रासचूडामणौ काव्यप्रतिछंदै । भूदे कवि श्रीविक्रमसुत देवेन्द्रविरचिते । यशोमती राजपायाद्विनी गंमनमुनिदर्शन प्राप्तक्रोध कल्याणमित्रयोग | नृपलब्ध प्रतिबोधयसोमती वैराग्य लक्ष्य भयरुचि । राज्यांगी का रथ नोनाम मष्टमोऽधिकारः ॥ ८ ॥
नवम अधfere
X
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भास गीता छंदनी — गोर गोरे व वीनवूए 1
मुनीवर स्वामी बोलीया ए । मधुरीय सुललीत वाण ।।
सोष यसोभर जसोमती ए । सह्य प्रायि भवांतर खाए || १||
पुष्य पाप फल जूजुधा ए । भवतणु विस्तार ॥ inपुर छि सोहम ए गंधर्व राजा उदार || २ ||
N
व्यंऊती राणी तिसरणी ए । रूप सोभागनी खारा ।। से नेहू कूति उपनोए । बर्बसेन कूपर बाण ॥ ३॥ बली तेह्र पुत्री ही कहोए । गंघर्ष सेना नाम || रूपसोभाग सोहामणीए । सयल कलागुण ठाम ||४| तेह राजानो मंत्री सोए । राम नाम विख्यात ॥ तस नारी चन्द्ररेखा सहीए । रूप लक्षण सुजात ॥५॥
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यशोधर रास
तस बैहू कूखि अवतरघां । सुदर बेटा बेस ।। जीतसत्रु पहिलो कह्यो ए । भीम नाम दूजा होय ॥६॥ बेटी रायनी जेह कहीए । गंध्रव सेना सार । जीतसत्रु कूप्ररि स्वयंवरे वरीए । प्रीत ऊपनी ते वार ।।७।। राममंत्री मृत सुख भोगवे ए । राजकुमरी सुमाहंत ।। गंधवराय एक वार गयो ए । पर कोज कुत्ता ll अन मांहि मृग देषीयो ए। योष सोपतु देख ।। हरणी वेगें भारी रही ए। हरण मरंतो लेख ।।६। बाग तेणि ओरि मकयुए। बेधी हरणी अपार ॥ वारण नै घाइ मोड़ पड़ी ए। प्राण गया तेणी वार ॥१०॥ जो जो जीत हरणी तखी ए । नाह पाहि घरच देह ।। प्रीत राखी प्राणनी गम्या ए। एहव कहीइ सनेह ॥११॥ सरणे पायी जाणे प्रीतहीए । हरणीने देह गेह ।। प्रीत राखी प्राण नीगम्या ए । एहबो कहीपि सनेह ।।१२॥ प्रीतडी जाणे धन समीए । मन पेई माहि घरी एह ।। प्रीत राखी प्राण नीगम्या ए । एडवो कहीयि सनेह ।।१३।। प्रीत कहीइ खीर नीर समीए 1 जलदहि नाखि देह ॥ प्रीत राखी प्राण नीगम्याय । एहबो कहीइ सनेह ।।१४१! रखेनीगमाय प्रीत रतनऊ ए ! जाणे ऊपालो भारधी एह ।। प्रीत राखी प्राणनी गम्या ए। एहवो कहीयि सनेह ॥१५॥ मारएस राक्षस सरीखडा ए 1 कोपतां वार न होय ।। प्रीति प्राण दीपो हरणलीए । पशुमा तणो नेह जोय ॥१६॥ केटला लोटाला पालो भिलटिए । प्रीत करीहणि सोय ।। प्रीति प्राण दोघो हरणली ए । पूसूमौ तणो नेह जोय ।।१७।। फेटली नारी मायावती ए 1 नाहनि बचती जोय ।। प्रीति प्राण दीधो हरपली ए । पशूपा तणो नेह जोय ॥१८॥ नाह ने प्राण पाथरे ए ! पापणी व्यभचर सोय ।। प्रोति प्राण दीपो हरणाली ए 1 पशूमा तरणो नेह जोय ॥१६॥ भाई पुत्रादी कुंटव बहूए । माहो माहि वंचि सहू कोय 11 प्रीति प्राण दीपो हरणलीए । पशूनां तपो नेह जोय ॥२०॥
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बाई श्रजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
air aisa बातें सुत ए । कलह कलंता होय ।। प्रीति प्राण दीधो हरणली ए । पशुओं तरणी नेह जोय ॥ २१॥
बांधा हरणी भृत्यें तथा ए । सांषि घाली लेणी वार ।। राय नगर भरणी पाछो बल्यो ए| हरणें न दोठी नार ॥२२॥
राय पूठि मृग पाछो बल्यो ए। राय दीठो ने जाए || हरलो तरिण मोहि व्यावियो ए । पामीयो दूखीनी खारा ||२३||
धारि मेह् सींचतु ए । दस दिश जुइ अपार ॥
नम्य देखिने हरणली ए । व्यरह व्यापो अपार ।। २४ ।। पूठि धावतो ए । रडतो दुखीयो होय ॥ फोट
पंथ
राय बीचारे नीजको
न्यांन विण्डो ए पसू ए । भाषा रहीत ते होय ॥ विरह पकी ए दुःख घरे ए मोह तरणी गत्य जोय ||२६|| संसार वन ए दुःखे भर ए । जीवने भमाडि सोय || वीय व बह्वल करी ए मोह तणी गरम जोय ॥२७॥ संसार सागर ए दुस्तर ए । जीवनें मोलि सोय ॥ कुटुंब पाषाण कंठे करीए । मोह ती गरम जोय ||२८|| लाख चोरासी जोन चछूटडांए । संसार नगर ए होय || तारि जीवनें लोभि करीए । मोह तशी गत्य जोय ॥ २६ ॥
लाख चुरासी रुप धरभा ए| जीवने तचावि सोय || श्राप नदूवो यई करीए मोह तरमी गल्य जोय ||३०||
क्रोध मानादिक चोरडाए । संसार कूप ए होय ॥ जीवने नखाची प्रेय करीए मोहतणी गत्य जोय ।। ३१ ।।
मंसार तणी गत्य जोय । में पीडे सोय । एासा पास
संसार ग्रटवी जीव मृग ए ॥ नाखी करीए ||३२|| राजा मृग देखी दुःख भरे ए एहने कीधु संताप || विषय केरे लंपट प िए। केम छूटे सूं पाप ।। ३३ ।।
वैराग्य मन मांहि चींतवतो ए । पुत्र ने दीनू राज || दीक्षा लोधी बने जई ए करवा श्रतम काज ॥ ३४ ॥
तप करी भती ऊजलो ए । जीते इन्द्री चोर ॥ ध्यान मोनें करी लंकारयो ए । कर्मण्यो घन घोर ||३५||
.२.८६
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२६g
यशोधर रास
कूपर राज पालि न्यायसूए । वाधयो सपतांग राज ।। गजबोहा रथ मंडार घरपोए । परजानां सारिकाज ।।३६॥ एक वार कुंअर दीठो मुनीवर। ए मज घोडा बहू परिवार ।। ते देषी मोह ऊपनो ए । नाणं बाध्यू तेणी बार ।। ३७॥ सपकरी व्रत प्राचरी ए। नागा, म बांधसो कोय 11 नारिंग तप नौ:फल जाइए । कोडी हाथी बेच्यो जोय ।।३८।। से रतन मापी काम लीजीयिए । घोडा साटि स्वर लेवि तेष्ठ ।। आमलां मोती साटि लीयि संखलो ए । तप करी नाणं बांधि जेह ।।३।। परधन पर रामा घर रुधा ए । मारपेज बाधि देख ।। हाथ चीतामणि सांपडिए । काम कडाडतो लेख । ४०11 त कर्म क्षय ईछीयि ए । संसार दुःख बिछेद ।। मोक्ष सणां सुख वाधीथिए । नव्य परीयि मन खेद ॥४॥ मरण पाम्यो मुनीवर तदाए । मालब देश जेए । जसोबंध राजा तणो सपोए । जसोपं हबो गुण तेह ॥४२॥ गंधर्वराय राणी व्योमणीश्री ए ! मीभ्यात तप करयो आण" चन्द्रमती हवी ते सहीए 1 जसोधनी राणी बस्सारण ।।४३।। देवीने दोधु पाठनु कुकडो ए । व्यखें करीमोई तेह ।। मिथ्यात पाप उदय हवो ए । सात भष भमी जेह ॥४४॥ गंधवसेना पुत्री रायनी ए । सीस लोप्पूदुःख खाए । भीम देव रमू अति घणंए । विषयासक्त ते जाण ॥४५॥ नार तणो मणाचार सही ए। जीत शत्रु हवो बंराग्य ।। मोह मच्छर राग परहरीए । दीक्षा पामी भलो भाग ॥४६॥ तप करी तेणे प्रती पणोए । पाल्यू' संयम मील । संन्यास लेई प्रारण भूकयाए । पाम्यो माहाराज सील ॥४७॥ राज जसोधर' ते हवो ए । राणी वीखि मरेय ॥ पीठ कूकडा पाप उदय हो ए । भव साते एम फरेय ।।४।। राम मंत्रीयि बहु वीचार सुण्यो ए । बीम धीग काम असार । नारी सहीत तीणे माचरयो ए । सील करत भवतार ||४|| सील प्रतिघार विण पाली मूपाए । हवां विद्याधर तेह ।। रूप सोभाग विद्या भस्त्रीए । सोलतणां फल एह ॥१०॥
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बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
अष्ट महाविध भोग |
पुरुष नारी बेहते थयां ए रोग संतान दीसि नहीं ए । पामया पुण्य संयोग ।। ५१ ।। गंधवसेन राजा ए' लयो ए। बेहेन तो प्रत्याय ॥ तब बंराग्य मन बसो एष
गुण
संजम पायो प्रति निर्मलोप वी की एह अवतरघो ए
गंभव श्री बेटी रायनीए तप करी सोखी काय || सेमर करि उपनीए । ममृतावी रूपठाय ॥ ५४ ॥ भीम देवर जे तेहनोएले भनें करो जार ।। पोका पाराणि कलिए । कुबडो वो गमार ।। ५५ ।। पूर भवि शासक इसी ए नाही प्रपार ।। पुणे भवि नेह तिम धरयो ए
A
नाणं बांध असार । मारीत विचार ॥५३॥
राम मंत्री विद्याधर हवो ए । पालीय प्रावकाचार | मेमरी करी भवतश्यो ए। अमोमती कुमार ।। ५७ ।।
चरेश राजे बीयावरीए । तेणे करमो धर्म बा || कुसुमावली सही हवी | परणी जसोमती जाए ||५|| चित्रांगद बापत सो ए। तेरो छोड दराज ॥ नापस धीमा मादरी ए । कुतप कर मुखका ।।५१ कुती मात्रा कीधी बली ए । घाइयो दीदी स्पन || देवी देवी मोह पांमयो । नाणो माध्यु अज्ञान ।।६०
मरी करी ते देवी इषोए। मारीदत सुग्गो विचार || ना मत पारवे मोह कर मं प्रसार ।। ६१॥
मारी निज भरतार ।। ५६ ।।
2
रेखा माय त सरणीए ती पाप कश्यो दीन रात || रवानद मरी ते हवो ए| घणो कराज्यो जीवबात ।। ६२ ।।
माया जीव माटि मोह धरणोए संसार माहि जीव व
ए
यसोष पिता जे यश ते मरी भगदत्त राम सुत ए
सह जाणो सही राय ।। भए । मिथ्या लग्गो पसाय ।। ६३||
गंधर्व राणी कोय मरी हवी
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वषालु भइ परिणाम || वो सुदत्त सुनाम ।। ६४ ।।
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चंद्रलक्ष्मी यसोहु नार ॥
मिष्यात फले मरी घोडो बीए | महीने में इमो विचार ||६५।।
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यशोधर राम
ते वली श्रेष्ठी घिर वछ हवोए। मरतां पाम्यो नवकार ।। ते मारीदत्त तह्म सुत स्सिए । छिते राणी गर्ने सार ॥६६॥ मुनीवर तणी वाणी सांभलीए | मारीदत्त वो वैराग्य ।। संसारनी स्थिति भावतो ए । सरग मुगति तरणो ठाम ।।६।।
भरवानन्द प्रादि को वैराग्य होना
रागी ते राज बेसारी करीए । पत्रीस राजा सहीत ।। दीक्षा लीधी निरमलीए । जीब तणं, करथ हीत ।।६।। मैरवानंद जोगहि परयो ए | जीव हिसा करपो पाप ।। तेह हवे किम इट सूए । मुनिवर टाल्यो.संताप ॥६६॥ प्राय थोडी जाणी करीए । दीक्षा अपसरण सीध ।। बाचीस दीवस लगि तिगए । अरणसण पाल्यो प्रसीष ७०|| पापारवडो जो नो क्षय करच ए । प्रणसण घरया माट ।। जोगी टली देव हवा ए। धन धन परम महंत ।।७१।। पाप एवंडो जो नो क्षय करम ए । अणसण घरया माट ।। उपवास वरत संजम तप ए। सही सरग मोक्ष वाट ||७२।। ब्रह्मचारी बाई जेहतीए । प्रतीबोध्यो जेरिण मारीदत्त ।। हिंसा ठाम उछेदीयो ए वी संबोधी महंत ११७३॥ तीरिण महावत प्रादरोए । प्रावरियो तप अपार ।। सील संयम घर पालीयू' ए। भासण लेई तेणी बार 11७४|| बोजो देव लोक साघीयो ए । संपुट सीला अवतार ॥ सातचान रहीत तनए । मोती पिर विचार ।१७५।। कनक 'उन्न मुगट भादि ए । पहिरया भूषण होय ।। अंतरमुहूर्त मांहि होय ए । सात हाय तनू सोय ।।७६।। जय जय कार देवी करेए । वरे घाली फूल माल ।। देवीय सूक्रीडा करे ए । सोख भोगवि विसाल ||७७॥ प्रकृत्रिम चल्य कल्याणक ए। यात्रा करें मनरंग ।। पूजा अभिषेक प्रती घणं, ए । पुण्य जोडे उत्तंग ।।७।। सुदत्ताधारय मुनीवरें ए । अणसण लीधो उदार ।। समाधि सरीर मूकी करीए । सोलमि सरग अवतार ||७||
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बाई अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
२६३
सुख भोगवि तिहाँ प्रती घणं ए। दीयीय मानस मोग ।। प्रनेक यात्रा कल्याणक करे ए ! पुण्य तरणो संयोग ।।८०॥ मारीदत्त प्रादि मुनी सहीए । तप कीधो महंत ।। प्रापापणा तप फलीए । सरग साध्यु जयवत ।।६१॥
वस्तु राय जसोधर कथा विस्तार । गौतम स्वामी इम कह्यो । दया तगो मंशार जारणो । अचेतन जीव हण्या थी ।। सात भवांतर भम्पा वखाणो । पुण्य पाप फल दाखध्यां ।। स्वामी ज्ञान मंडार 1 बार सभा सहीत तदा ॥ श्रेणीक हरषु अपार ।।२॥१॥
मास वषामगानी-राग धन्यासी मगवान के धर्मोपवेश का प्रभाव
वीर स्वामी तणी सार । दीव्यश्वन प्रती नोरमसीए । गणधर गौतम स्वामी । विस्तारी प्रती सोहोजलीए ॥१॥ सुरवर फणधर स्वामी । ध्यंतर ज्योतिकि सहमलीए ।। बली तिर्यच नर जाण । विद्याधरे घणे सांभली ।।२।। हरख पाम्या सहू कोय । मानंद घणो मन मांहि वस्यो ए॥ चन्द्र पूरण जिम जोय । सामर कस्लोल उत्सस्योए ॥३॥ केता सील व्रत लीष । केते अहिंसा व्रत प्रादरथ ए॥ फेता मिध्यातनि स्वीप । केते मणुव्रत महावत भाचरपो ए ॥४॥ सोभली श्रेणीक राय । हरख ऊपनो मनमाहि घणो ए । जिनवारणी मुरण्ठाय । स्तवन करि हवि तेह तरणो एशा वीर वाणी जाणे मेह । तब नय रूपं राजती ए॥ वरसि धर्मामृत जेह । मीथात पंखी मद भांजती ए ॥६॥ स्वर्ग मोक्ष सुख क्षेत्र । द्धिप माडती दिन दिन ए। ज्ञान प्रवाह पवित्र । बुधि नदी बाषि क्षण सण ए ॥७॥ सुरपति मादि भय्य जीव । मोरनि घणं नचावतीए ।। संसारतापनें प्रतीव । निवारती भली भावती ए ।।
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यशोधर रास
वरणवगति नहीं बाणी । नाद अपरंपर नीबजे ए॥ सहू जीव संसय हाणी होय । ए पाश्चर्य ऊपजे ए ६ मदनीवगति न होय । तुष्टादि व्यापारन नीपजे ए ।। प्रीछि जीव सह कोय । मोटू पाश्चर्य मने उपजि ए ॥१०॥ सुरय प्रभा जिन बारिण । मिम्मात तिमिरनि टालती ए ।। भव्य कमल सुख खाए । पातक पंकनि रालती ए ।।११।। चनकोति सम जिन भास । भव भ्रम खेदनि खेदती ए॥ हरस समूद्र उल्लास । कुबादीयां मान उछेदती ए ॥१२॥ मेक सुदर्शन जाम । पैतालासू नादिज वलगिए ।। पूरती भषीयो काम । महावीर वाणी नांदो तब लगिए ॥१३॥ लवणादि स्वयंभू समुद द्विीप सहीस नाशिजब लगिए ।। मेष समीए माद्र । महावीर वाणी नांदो तब लगिए ॥१४॥ विजयारष गिरि जाण । बेह घेणसूनादि जब लगिए ।। तत्व रतन राणी खाण । महाबीर वाणो नोदो तब समिए ।।१।। कुल गिरि हिमवंत मादि । पनद्रह नादि जब लगिए । हरती विषय विषाद । महावीर वाणी नांदो तब लगिए ॥१६॥ गंगा प्रादि नदी परवाह । सिंघ बीन अभीषेक जब लगिए॥ सुरणता प्रापि उछाह । महावीर वाणी नांदो तब लगिए ।॥१७॥ गंगादि महानदी चौद । नदी पर वरी मांदि जब लगिए॥ प्रतिद्वीपे सुप्रमोद महा।।१८) गजदंत गिरि बीस संख्य । जिन मुवन सूनादि जन लगिए । अपरंपरए प्रलक्ष ।महाग१६॥ विदेहादि प्रारज खंड । घरम सहीत नादि जब लगिए ।। म्लेच्छ खंड साथि प्रचंड महा॥२०॥ चक्रो हरी बलदेव । प्रगट पराकम जब लगिए । सुर नर करें अह सेव ।महा०।।२१॥ जिनयर पंच कल्याण । इन्द्र रछित नादि जब लगिए । वेहेरमाण जिण भाग महा०॥२२॥ प्रतीहरी रुद्र प्रग्यार । नारद प्रगटि जब लगिए ।। त्रिभुवन जन सुखकार |महा०॥२३॥
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बाई भीनमति एवं उसके समकालीन कवि
मुनीवर रुधी निधान । केवल ज्ञानादि जब लगिए । प्रगदि धर्म विधान महा०||२४||
कर्म ही मुनी संत | शिव पद पामें जब पनि ए६ ॥ अनंत सौख्य महन्त | महा०||२५||
चक्रवर्ती नामि जुत्त | वृषभात्रत्र नादि जब लगिए । योजन विस्तारें अदभूत |महा०|२६|| नीषानीलोपरि जारण रवि शशी उदय जब लगिए ।।
ग्रह नक्षत्र सू बखारण | महा०||२७||
रवि शशी ग्रह नक्षत्र 1 मेरु प्रदक्षिण जब लगिए ।। करो दिन रात्रि विचित्र | महा० ॥ २८ ॥
त्याला नांदि जब लगिए ।।
असंख्यात योतकलोक सुतां टलि सहू शोक | महा०|२६||
व्यंतर जे प्रसंख्यात । प्राठप्रकारि नादि जब लगिए ।। त्याला सुविख्यात | महा० ॥ ३० ॥
भवनवासी दस माख । चैत्याला सू नांदि जब लगिए । सात कोड बोहोत्तर साल | महा०||३१||
सुधर्म ईसान प्रादि होय । सोल सरग नांदि जब लगिए ।। कल्पवासी विमान जोय | महा०||३२||
प्रवेयक नवोत्तर | पंध्योत्तर नांदि जब लगिऐ ।।
कल्पातीत भ्रमर | महा० ॥ ३३५
लाख चौरासी सहस्त्र | ससाण बेदीस संख्य जब लगिए । त्याला विमान वांस | महा० ।। ३४ । ९
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मुगती शिलाची अंतरीक्ष । सिधावगाह नांदि जब लगिए ।। त्रिगुण त्रिव मलक्ष महा० ॥ ३५ ॥
वातवलय हु भेद । त्रिभुवन घरी रही जब लबिए ॥ चट् द्रव्ये भरयो भछेद | महा०||३६||
जिनभाषित दयामें । भबिकनें उधरि जब लगिए ।। सास्वतो मापे सर्म । महावीर नांदो तब लगिए । ३७|| इम वाणी स्ववी राय । श्रेणिक भागी हरष घणो ए ॥ महावीर पूजवा सुठाय । भ्रष्टप्रकारी सामग्री भयो ए ॥ २८॥
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२६६
यशोधर रास
रतन जडीत भंगार | नीरमल जल पूजा करे ५ ।। धीर पागल दीयि अण्यधार । जनम जरा मरण हरिए ।।३।। ककुम केसर सार । करी चंवन पूजा भलीए ।। सुगंधि शरीर उदार । जिनगुरण पाममा मन रलीए ।१४०॥ नीरमल मोती जाण । तंदुल पंच पूज करिए। अक्षय पद नीर्वाणं । दीयो स्वामी इम भाव घरीए ।॥४१॥ जाई जुई मापद। चंपा कमल आदि फुल ग्रहीए । ती कोषो काम नीकंद । एह गुण लिहिता पूणिह सहीए ॥४२॥ पंचामृत नैवेद । उतारि हेमथाल भरीए ।। नहीं तुझ क्षुघा तृषां खेद । तेह गुण प्राप्त होय करीए ॥४३।। रतन कपूरना दीप । उतारि जोन भागलिए । तत्त्व प्रशासन रूप | केवल शान लहिया बलीए ॥४॥ कृष्णागुरु मादि धूप । जिन भागलिउ खेवितां ए॥ कर्मदाह करो भूप । अह्म तणो इम मन भावतो ए॥४५॥ मोच चोच जबीर । ग्रांवा मादि बहू फल ए ।। शिव सुख फल दीयो वीर । ती स्वामी गुण प्रागला ए ।।४६।। कनक थाल भरि करी प्रर्ध । वीर प्रालि उतारतु ए॥ रत्नत्रय जे अनर्थ्य । मागी भव दु:ख तारतु ए ।।४।। पूजा करी अष्ट भेद । श्री महावीर स्वामी तरणी ए करवा भव उछेद 1 नृत्य भावना भावी परणी एYell कूटनपोर धन धन्य । बीर जनमे जे पवित्र करयो ए ।। सीधारय नृप धन धन्य । जेह घर स्वामी अवतरपो ए ।।५।। धन धनपति यक्ष ! षट नवमास रत्नवर्षतो ए।।
चउनीकाय असंख्य । देव समूह सही हर्षतो ए ।।५।। मगवान महाबोर की स्तुति
धन धन्य त्रिमूल्यो मात । जीपीयि वीर जिन जनमयो ए॥ घन नाथ वंस विख्यात । त्रिभुवन माहि जे उपमयो ए ॥५२॥ एन धन सोधम इन्द्र' । मेरू सीखर स्मपन की ए । धन धन जिन बालचंद्र । वृधियां में जग उद्योतीयो ए ॥५३॥
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बाई अजितमती एवं उसके समकालिन कवि
२१७
धन जिन लनु सात हाथ । दश सत लक्षण मंडी ए । कनक बरण वीरनाथ । अण्यज्ञान करी मंगयो । ॥५४।। कुडल मुकटं मणि हार । इन्द्र त्रिकाल जिन मुखतो ए।। नमन करतां अपार । भाल पुरक्षर भुसतोए ।।५५।। घिस वरस कुमार । वैरामि लोकांतिक सेविज ए ।। दीक्षा कल्याणफ सार । कीयो सीप नमी संजम लीड ए ।१५६।। घाति करम क्षय कीष । केवलज्ञान रवि प्रगटयो ए ॥ लोकालोक कीध प्रसिद्ध । मिथ्यातम विघटयो ए॥५७।। समोसरण प्रादि होय । अनत चतुष्टय भाबीथो ए । तिहमण भवीयरण लोग । सेचि वीछित फल पावीयो ए ।।५।। सिंह लांछन जय वीर । बर्द्धमान महावीर सन्मतीय ।। महती महावीर धीर । जयो जयो अगगुरु जगपती ए ।१५६।। जमो ब्रह्मा ब्रह्मा विष्णु । थ्यापक शिवशंकर ए॥ चुस अलक्ष निःकर्म । हरी हर तू पातफहरो गए ।।६।। बोहोत्यर बरस जिन प्राय । विक्रम देवेन्द्रि पूजीयो ए । जयदेव त्रिभुवन राय । भनीप्ररण जन जय जय कीयो ए । ६१।। इम स्तबी जिन वीर । पुष्पांजलीय वधावतो ए ।। श्रेणीक साहस धीर । गणधर नमी पुण्य पावतो ए ॥६२॥ हरखीस गुणह समुद्र । बीर, इन्द्र भारती करें ए । साढीबार कोच प्रती गंद । वाजिन ध्वनी प्रति विस्तरे ए ।।६। करतो जय जय कार । इन्द्र उतारे भारती ए ।। नरखंता हरष अपार । दौठरि दुरीतनी बारती ए ॥६४।। रतन अडीत हेम थाल । रतनदीवि उग्रोतनीए । रखना रतन फूल माल । बाणे ज्ञान सुसंतती ए ।।६।। खोंसठ समर ढलंत । किनर किनरी गुण गावती ए॥ ता ता थेई थेई करंत । पछरा नाचे भवी भावतीए ।।६।। करता स्तवन बस्तु जयमाल । छंद प्रबंध मरिण सुरवर ए॥ माननी मंगल विशाल । भवीयरण जन जय जय करीए ।।६७।। करता जय जय कार । इन्द्र उसारि भारती ए । नरखता हरष अपार । दीउडे दुरीत नीवारती ए ।।६।।
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२६
यशोधर रास.
जय जीवंत तू देव । वीर जिन जगदीपवर ए॥ विक्रम पेवेन्द्र करि सेव । जय जय देव नुत इम उचरि ए ॥६९)
वस्तु इन्द्र भारती इन्द्र भारती कीष उदार । भवतणी प्रारती मंजती रंजती भवीया चीत्त दीठीय ॥ सुरित तिमिर निवारती। बंदी सुर नरें अती गरीबीय ।। हरखीत घणिक नृप तदा । जिन गणपर नमी पाय ॥ चेलणा तथा परिवार सूमाव्यो निजपुर ठाम ||१||
मास साहेलडी नी। राग घुस धन्यासी ।।
प्रशस्ति
नव सहस बेस सदा भलो । साहेलडीए । हाम ठोम बह गाम ॥ नयर पुर पाटन घणा साहेलडीए । खेढा द्रोण सुनाम ।।१।। धन करण कणय रमणे भरा ।स। गोधन तणो नही पार तो ॥ महिखी मोटी दीसि घणी साला दूथ छि तेहनो फारतो ।।२।। कनक भाजन मोइ मेहेली ।सा०। दोहता होइ धार नादतो ।। पंखीया बासि पामि साग मोर नाचि सुणे सादतो ॥३॥ सालक्षेत्र सौहि घणां ।सा। सूढा साद सोहत तो ॥ परीमल दही दश बिस्तरे सा र झरण भमरा करंस तो ॥४॥ अनेक धान्य क्षेत्र भला ।सा गीरी समा पाम्य अंबार तो॥ ओबां बन विविध परी ।सा । ठाम ठाम वन विस्तार तो ॥शा नदी कुत्रा व्यावधनी सा। सरोवर भरयां अपार तो।।
कमल राता नीलो नीलो ऊजला ।सा भमर तणा गुंजार तो ॥६॥ महा नगर वर्णन
तेह देस माहि सोहि सा महमा नयरी बसंत तो ।। धन करण काय रतने भरी ।सा | माहाजन बसय महल ती ॥७॥ ब्राह्मण वेदने मभ्यासे ।सान नाहि पूर्णा नवी माहितो । भवर वरण घणा वसि ।सा नित नित होइय उछाह तो ॥८॥ मोटा मंदिर मालीयो ।सात तोरण भादि बह सोभतो ।। मेडी गुखने जालीया ।सा कहो नहीं तस शोभतो ॥६॥
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बाई अजोतमति एवं उसके समकालीन कवि
चहूर्दा मोटा हाट श्रेण ।सा०। क्रियाणे भरी सारतो । नारगोटी दोसी घरणां ।सा०। कणहट तरा। नहीं पार हो ||१|| चंपा बकुल वेल नोकतानलाई जुन गया तो ताल तमाल मांबा जांबू ।सा०1 बाडी वन सुवर्षीवेकतो ।।११। सिंहपुर कुल मंडरा सा०1 वहिवारीया श्रावक वसंत तो ।।। दान पूजा व्रत अभिषेक सास बहु यरी घरम करत तो ।।१२।। ते नयरी माहि ऊनत 1सा०1 जिन प्रासाद विसाल तो।। तोरण कालस घजा लहिकि सा०। सारका सोहि चित्रसालतो ।।१३।। वेदी स्थंभ भना भावि साग जाली गोख सूत्रंग तो ॥ गर्मगृह कंबाड भला ।सान चंदोषक पंचरंग तो ।।१४।। रंगमंडप मोतीजाली ।सा। नाटक साला रसाल तो ।। भीत चियाम चतुर चमके सा। ललके बहू फूल माल नो ।।१५।। मोती फूल तणा चोक ।सा०। चोक मोटी पटसाल तु॥ कलस भृगार चमर रूडा ।सा। भामंडल झाक झमाल तो ॥१६॥ रतम कनक पीतल रूपां |सा। पाराम प्रतिमा उत्तंग तो ।। तेजि सुरज जीपता सा। दीठि होय पाप तम भंग तो ॥१७॥ ताल कंसाल घंटा घणी सा। घूघरी झल्लरी सार तो।। अनेक यती पंडीत भणि सा। दोठि हरख पार तो ।।१८|| भूलनायक चन्नप्रभ 1सा। सोम म्रती रूप ठायतो ।। चन्द्रपुरी महासेन धन सा०। घन घन लक्ष्मण माय तो ।।१६।। डेक्सो धनूख ऊनत सही । सा! चन्द्रवरण सोही देह तो।। धन धन धन्द्रवदन भलं सा० बर्मामृत जागि मेह तो ।।२०।। श्रांणु गगरि सेवीउ सा० धन धन कमल सूनेष तो ।। धन धन चन्द्र लांछन भलं ।सा। धन धन जिन जग तो ।।२१।। आयु दश लाख पूरव ।सा पूरवि वांछीत काम तो ।। काम मोह थी वेग लो ।सा होय नवनीध जेह नाम तो ।।२२।। धन घन जिन त्रिभुवन पती ।सा। धन धन जग विश्राम सो 1॥ धन धन तू जगदीश्वर 1सा। वन धन चंद्रप्रभ नाम तु ।।२३।। यादि विधन बेंगि टालि ।सा। विकट संकटनो विनास तो 11 विक्रम देवेंद्रि पूजीजछ ।साडी भवीनगनी पूरि प्रास तो 1॥२४॥
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यशोधर रास
बीस मो जीन गितीलो साग पास विधन हर नाम सो॥ वाराणसी पुरी बीस्वेसन प्रभु सा ब्राह्मी जनम्यो अभीराम तो ॥२५॥ नीलवरण तनु नव हस्त सा। मरनर रचीत कल्याण तो।। धरणे परमावली पूजीयो ।साल। बेह नामि होय कल्याण तो ।।२६।। नागलांछन नवनिधी पूरे सा चूरि वीधनतणी रास तो॥ हाकणी साकिणी ब्यंतरा सा। भूत भय जेह नामि त्रास तो ।।२७/1 पुत्र कलत्र मित्र संपदा सा भवीयां पूरि मास तो ।। कषि देवों पूजीयो ।साल। भयो जिन विघनहर पास तो ।।२।। जिन सासन रक्षा करो ।सा जयो जायो श्री खेत्रपाल तो ।। नागो नाग विभूषणो तो सा०1 हाथि डमरू जटाल तो ।।२६।। घूधरी पायें धमधमे |सा नेउर रम झमकार तो ।।
मागीभर भरी मदचूरी सारा संनि करो जयकार तो ॥३०॥ मारक परम्परा
मूलसंघ सरसती गछ ।सा. बलातकार गण पभिराम तो ।। पवमनंग गुरु गछपती ।सातवेंद्रकोरतो गुण ठामतो ।।३१।। विद्यान वि विद्यानीलो ।साल। तस पाटि सोहि नीधान तो ।। मल्लिभूषा महीमा भलो सा। मानीयो जेह सुलतान तो ॥३२॥ ललित अंग लकमीचा सा०। तेहपाटि मलनीधी चन्द्र तो॥ तप से करी सोहीयो ।हा। वीरवर सुमुनींद तो 1॥३३॥ लामवंस सोभा करू साह पटि सार सणगार तो॥ जामभूषण ज्ञाने भलो साका प्रभिमयो गोयम अवतार तो ॥३॥ सुमतिकीरतो सूरी प्राचार्य सा०। सेक्यो गेह अनुदीन सो ॥ रस्मभूषण सूरी वरि स्तथ्यो ।साल। मानभूषण सूरी धन्य तो ॥३४॥ तेह पाटि घुरघर |सान पीला हूंचड वंसतो ।। प्रभाचंद्र महीचाँदलो सा। ज्ञान सरोवर हंस तो ।।३।। कल्याण कोरती प्राचार्य साक। सेक्यो गेह सुभ मन तो 11 बारिराजला स्तव्यो ।सा०। प्रभाचा बन धन तो ॥३६|| तेह पाट उदयाचल सूर सारा मिथ्यावादी मदचूर तो ।। वाविना वादिस्वर सारा दीठडि होई माणंद तो ॥३॥
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यशोषर राप्त
बीस मो जीन जगितीलो साग पास विधन हर नाम तो।। वाराणसी पुरी वीस्वेसन प्रभु सा० बाझो जनम्यो प्रभीराम तो ।।२।। नीलवरण तनु नव हस्त सा० सुरनर रचीत कल्याण तो ।। भरणेन परमावती पूजीयो ।साल। जेह नामि होय कल्याण सो ।।२६।। नागलछिन नवनिधी पूरें ।सा। चूरि बीघनतमी रास तो ॥ डाकरणी साकिणी ध्यंतरा सा भूत भय जेह नामि पास तो ।।२।। पुत्र कलत्र मित्र संपदा साथ भवीयां पूरि प्रास तो ।। कवि देवेंद्र प्रजीयो सा। अयो जिन विधनहर पास तो ।।२।। जिन सासन रक्षा करो सा०1 जया जायो श्री क्षेत्रपाल तो 11 नागो नाग विभूषण तो सा०हाथि इमर जटाल तो ।।२।। धूपरी पायें धमधमे सान नेउर रमझमकार तो ॥ मारणीभत्र परी मदचूरी ।सा०। संघनि करो जयकार तो ॥३०॥
मटारक परम्परा
मूलसंघ सरसती मछ |सा | बलातकार गण अभिराम तो ।। पवमनंव गुरु गछपती ।सा। देवेंद्रकीरती गुण ठामतो ॥३१॥ विशम वि विचानीलो।सा तस पाटि सोहि नीधान तो ॥ मल्लिभूषण महीमा भलो सा०। मानीयो जेह सुलतान वो ॥३२।। ललित अंग लखमीची सात तेहपारि जलनीधी चन्द्र तो ।। तप सेगे करी सोहीयो ।हा। बोरचं सुमुनीत तो ।।३३।। लाडवंस सोभा का सा तेह पटि सार सरपगार तो ।। सानभूषण जाने भलो ।सा०। प्रभिनवो गोयम अवतार तो ॥३३॥ सुमतिकीरती सूरी प्राचार्य ।सा। सेबयो गेह मनुदीन तो ।। रस्ममूषण सूरी बरि स्तव्यो ।
सामानमूषण सूरी धन्य तो ॥३४॥१ सेह पाटि पुरंधर सारा वीप्ता हूंबड वंसतो ॥ प्रभाछ महीचादलो सा। ज्ञान सरोबर हंस तो ।।३।। कल्यारण कीरती पाषाय ।साल। सेक्यो ह सुभ मन तो। माविराण ब्रह्म स्तम्पो सा०। प्रभार धन धन तो ।।३।। तेह पाट उदयाचल सूर सात मिथ्यावादी मदचूर तो ।। पारिचा वादिस्वर सा०। दीठडि होई पारद तो ।।३७।।
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यशोधर रास
मूलसंघ भारती गछ ।साof परमनंदी गछ राय तो ।। तेह पारि सोहि दीनकर ।सान सकलकीरती गुण काय हो ।।५।। मुबमकोसि भुवि विख्यात सा०। तस पाटि सार सणगार तो ।। शामभूषण ज्ञानदायक सास गोयम सम प्राचार तो ॥५२॥ विजय कीरती गुरु गमछपती ।साल। धन सिपी मुनीहंस तो ।। तस पटोपर मुभी सा0। वादीपकर यर वंस सो ॥५३॥ हूंबड कुल सां साबने ।साल। सकल भूषणों नुत पाय तो ।। वापीयां मानमर्दन ।सा० षटदशंण वादी राम तो ॥५४॥ तेह पाटि सुमतीकोरसी सूरि साo| तेह पाटि उपयोमान तो।। भवीयो कमल विकासवा (सा0। गुणकीरती गुण जाणतो ॥५५॥ एह गछपती तणि प्रन्यम सा०ब्रह्मचारी जिणदास तो । सोतिबास तस पद घर सान ब्रह्म हंसराम गुणवास तो ।।५६।। राजपाल ब्रह्म सेह पाटि सा0। सांप्रति श्री शांतिशास तो ।। तेह उपदेस धनपोर ।सालश्री जिनधर्म उल्हास तो ॥५॥ जैन ब्राह्मण सोहि तीहां सा। श्री संघ अनेक प्रकार तो ॥ संघवी मैकी प्रादि सहू ।सा०। करि जिनधर्म उदार तो ॥५८|| धन पन सालकोरती गुरु ।सा०। जेहने एह्या सीस निधान तो॥ धन धन ब्रह्म श्री जिगनास सा०। रच्या शास्त्र रास निधान तो ॥५६।। चन पम जिलास ब्रह्मवाणी सा०। प्रतीयोध्या ब्राहाण राज तो॥ प्रमंत पंडयाना नाम भतू सा०। जाणे जेहने राज समान तो ।।६।। ताणें आदर को समकीत रत्न साo। यले जीवदया प्रतिपाल तो ।। पट सर्पदीय करथ साo! कुतुलूखांन सभा विसाल तो ॥६१।। अनधर्म तिहां थापीयो साo। व्यापीयो जस अपार तो।। बिंब प्रासाद उद्धार करपा ।सान तस सुप्त केवजी उदार तो ।। ६२॥ तस पुत्री पावती सा०। परणी घरत सर्कत तो॥ चोवीस ब्राह्मण कुलि सा0। सोहि महीमावंत तो ।।१३।।
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बाई अजीतमती एवं उसके समकालीन कवि
३०३
सस पुत्र दोए पवित्र ।साल। बीकम गंगाधर नास तो ।। अनवादी विद्यानिला ।सा०। समकित रतन सुठाम तो ।।६।। गंगापरें सप उद्धरयो ।साल। भाग्य सौभाग्य समुद्र तो ।। बिसालकीति पाटि हरा सा०। देवेन्द्रकीति सुरेन्द्र तो॥६५॥ प्रकलंक सुरीने साo1 का प्रतीक यो । जिनधर्म तीहां उद्धरयो ।सा अनराजायि पूजा कीवतो ।।६।। त्रिविष प्रागम जारिण भला ।साल। विक्रमभट्ट विख्यात तो ।। विद्यादान जीणि दीयां । साo! महीयसकोति सुजात तो ।।६।। प्रजवाई तस भामिनी ।सा० सीससमकित गुण खाणतो ।। तसवि पुत्र बीशारद ।सा०। वेवेन्द्र वासुदेव जाणतो ।। ६८।। जिनवर चरण कमल सेवि साणा करि जिन शास्त्र अभ्यास तो ।। कवी देवेनें एह रच्यो ।साo! राय जसोधर तणों रास सो ।।६।। सभिल सर्व सुख संपजि सा०। पर्मबुधी होइ प्रकास तो ।। पुत्र पौत्र धान्य बन ।सा०] मंगल पानंद उत्सास तो ॥७॥ संवत १६ पाठभीसि | सा० पासी सुद बीज शुक्रवार तो। रास रथ्यो नव रस भरमो ।साल। माया नयर मझार तो ।।७।। लझे लखाविजे मणि ।सा भाव सहित सुरिण जेह तो ।। तेह घिर नष्य नध्य संपजि सा०। नित मंगल तेह गेह तो 1७२।। मुनीसुव्रत जिन अगितीलो ।साल। विकमदेवेन्द्र करि सेव तो ।। वासुदेव चक्रीरामे ।साot जयदेव कहीं स्तव्यो देव तो ५७३।। पंचकल्याणि पूजीयो |सा०। देवकीय सुयश प्रकामा तो ।। श्री सिंघने मंगल करो !सा०। सो जिन पूरवो पास तो ॥७४|
वस्तु जिन चोचीस तणा जिन चोवीस तणा
नमीते पारा । राय जसोहर तह तणो । रास रयो मे सार नीर्मल . सरस्वती माय प्रसाद थी। श्रीगुरुतरणी महिमाय उज्वल ।।
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________________ यशोषररास प्रकार मात्र पद स्वर, जो कोई चूको होय भादरयो कवी मुष करी, क्षमा करयो सहू कोय // 1 // श्रीरस्तु उत्तमदानसीलगुणभृत् संवायतुर्यात्मने नंबत्वे तदनसकीति महिमाईई क्सत् शासनं // जीवंतु ज्वलयाक् सुघोभितहता तापीः कवीन्द्राः सदा सनम : किलबबंता त्रिभुवने जनो बयालक्षणः / / 1 / / इति श्री यशोधर महाराज चरित्रे रासनूडामणी काव्यप्रतिछंचे भूदेवकवि श्रीविक्रमसुतदेवेन्द्र विरमिते यशोष यशोधर राजादि भवांतर यथाक्रम स्वर्गगमनोनाम नवमोऽधिकारः / यशोधर रास संपूर्ण / / परहंतः / / संवत 1644 वर्षे भाद्रया सुदि 2 भृगौ / प्रहमाफरपुर वास्तम्यं / उदीय जातीय राउल सोमनाथ सुत विश्वनाथ लोखतं / शुभं भवतु / प्रय संख्या पांजीससे पूरा / लोक 3500 1 इति शुभम् /