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________________ श्रीपाल बरित्र बीरदमन यह चित्त घरी राष रइयति राज उपगर ।। बीरदमन भैसी मनि लाइ । मंत्री लीने पास बुलाई ॥१५॥ तुम कहाँ श्रीपाल सौं जाइ । जैसी बाक हिए समाइ ।। रइयति के मनको दुस्ख जिसौ । कहियो भांति भांति करि तिसौ ॥१५८। सब मंत्री नुपको सिर नाइ । बिनयो श्रीपाल सौं जाइ । कछु बस्न लो मनमैं रही । मंत्री जाइ राइसौं कही ।।१५।। सुनन बात प्रानंचो राज्ञ । मनमै फछु म कियो कुभाइ ।। समो देषि मंत्री उटि गयी । देम बटी को कारण थयो ।।१६०॥ तीज पान को बीरा लबो । पापुन श्रीपाल को दयौं । वन उद्याननि साहस धीर । जाह प्रसभ मजो बरबीर ||१६२।। जौली कुष्ट व्याधि तुम अंग । जौली अंग सातसै संग ।। इह असुभ मुजौ वर वीर बनमें बाइ मठ देवल तीर ।। १६२।। जौली उदं कुवर तो पाप ! तौलों नहि कीजिए संताप ।। जौलो शुभ न प्रसिद्धं पाई । तौलों पर मति प्राव राइ॥१६३।। होइ पून्य प्रगदै तुम तौ। आइ गज कीज्यौ पापनों ।। जाको राज भार तुम देह । सौई कर धरै जिय नेह ।।१६।। यह सुनि श्रीपाल उचर्यो । कछु कुभावन जिय मैं घर यो ।। कर्म तनों जान्यौं सुभ भाव । मनमें विचार कियौ सब यह ।। सुनह तात भाष्यो न्यौहार । मेरो ऊहो इह विचार ।।१६ मेरी बढी दुर्गधा धनी । होत दूी नगरी मो तनी ।। बिनती करि न सके को आई । मेरै चित बाती इह भाइ ।।१६६॥ मेरो दुःष वियाप्यो हियो । मैं हू बन ही को मनु कीयो ।। भली भई तुम निकसन वाह्यो । या को सुप बहुत में लघी ।।१६७।। तुम सब लट्ठ राज को भार । परजा कीज्यौ सकल प्रतिपार ।। न्याव नीति करि कीज्यों सुषी । सुपिन कोई होइ न पी ॥१६॥ सोरठा जो उबरंगे प्रांन, कुष्ट रोग जो नासि है। तौहूं इंद्र समान, राज करौंगो पार्क ॥१६६।। जौं लग पूरब पाप मौ, उदै फिरंगी साथ ।। तौं लग अपनों भुजि हो, राज तुम्हारे हाथ ।।१७०।। दोहा
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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