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________________ बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि ३७ जाक राज सुख हम लयो । दुस्ख दरिद्र सब ही को गयो ।। जाकं राज धर्म का बास । सर्व करतु है भाग विवास ॥१४५।) जाकं राज पाप की हानि । जा हिरदै दया की षांनि ।। जाके राज सूल सब गये । हम धन परियन परे भए ११४६।। जाके राज सुबस ह्र बसे । कबहूँ दुर्जन दुषन केसे ।। जाक राज सबै जन सुखी । जीव रूप कोऊ नहि दुषी ।।१४७।। कुष्ट रोग अब ताकौं भयो । नासा पाइ पंगु गरि गयो ।। प्रस जे ग्रंग सातसै बीर । तिनहू को गरि गयो सरीर ॥१४८।। तिनकी महा दुगंधा होइ । सब ही पुर में फैली सोई ।। दिन हूँ मारि प्रन बिनि भए । कछूक मूए कछू भजि गए ।।१४६॥ जो जैसी कई सुनिए कान । तो भोजन नहि जाई खांन ।। फैली वास नांक रुधि रही । अब D हम तुमस्यौ नहि कही ।।१५।। महा कष्ट भूले सब चाउ । सब ही नगर भयो कह राउ । क्यों हूं कोक पीर न घरं । स्वामी हम पं रहो नहि परं ॥१५१।। प्रजा का महत्व सनि मनमॉनि चितौ राउ । अब यह कीजै कहा उपाउ । जो घर में श्रीपाल रहाइ । तो मोते राब रइयति जाइ ।।१५२।। रस्थति विनि सोभा नहिं रहै . रइयति विनि को राजा कहै ।। बिन पनि है पंषी जिसौ। ई रहयति विनि दीस तिसो ।। १५३।। विन पाननि तरवर जो चाहि । रइयति विन जो राजा पाहि ।, विन पानी है जिसौ तलाव । रइयति विन है तैसो राय ।।१५४।। जैसी है उडगन बिनु चंद । रइयति विन है तिसो नरिन् । बिन रुखनि जैसो वनु जांनि । बिन रइयति भूपति त्यौं मानि ।।१५।। जं सौं सघन घटा विनु मेह । रइयक्ति विनि त्यौं राजा एह ।। बिन हथ्यार ज्यों सु भट अनूप । तैसो रइयति दिनि है भूप ।।१५६।। बार बार बिचार राउ । अब तसौ कीजिय उपाउ । बस सव रक्ष्यति जो बहै । श्रीपाल सब मारगु गहै ।।१५७।। रक्ष्यति की हम उपरि छोह । रइयति बस हमारी बांह ॥ मैस कहै सयाने सोइ । राजा नजा बरावरि दोइ ॥१५८।।
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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