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राग आसावरी
साधो अद्भुत निधि घरि पाई ।
भट्टारक महेन्द्रको सि
तुति श्री जिनराज बताई ||सा०||१||
अपना पुरुषों की भ्रूणी, घरणा काल की राषी ।।
बीजक सहीत पत्र ज्यों निकस्यो, सांप्रत भयो सुसाषी ||सागर ||
ज्यु परमातम देह भूमि में, त्युं कंचन पाषाणे 11 अनि काष्ठ तिल तेल ही वासो में श्रातम निधि जाणे || सा ||३||
भ्रष्ट कर्म्म रजसू प्रायादी. भेद बिना नहीं पायें ।।
सम्यग्दर्शन शान चरण बल, सद्गुरु यतन लषावं ॥ सा० ॥ ४ ॥
सो गुरु चौतिस प्रतिसय जाके अनन्त चतुष्टय सोहै ।
प्रष्ट प्रातिहार्य प्रभु सोभित, भव्य जनन मन मोहे । सा०||५||
निकट भव्य सो महा उपसमी, भद्ररूप परिणामी || महेंद्रकीत्ति भात्म निषि परसै, मुकति नयर पदगामी ॥सामा६||
राम प्रासावरी
देवो कर्मन की गति न्यारी । नही टरल कहौ नहि टारी ||
रावन सरीखे सुभट महानर कहे मंदोदरी गणी ।
सीता सती देहु रघुपती को, राज करों अती जाली ॥। १॥
अंतेवर जाकै सहय अठारा रूप कला गुण सोहे । विद्याधर पुत्री अति सुंदर, अनिश पिय मन मोहे ॥ दे०||२|| राव यशोधर विष दे मारो अति देवी राणी ।
द्रमती माता की संगति, मिथ्या बुद्धि वषाली । दे०॥१३॥
और असंख्य भए महाराजा, तेहू कर्म बसि हारे । सम्यक् भाव विना जीव जेते, चहुंगति माही मारे || ७ ||४||
इस जानि जिन धर्म्यं श्राराधो, हितु न जो कोई महेंद्रकीति जिन चरण शरण लें जन्म मरण नहीं होई ॥३०॥५॥