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________________ बाई प्रजीनमति एवं उसके समकालीन कवि ३ राग सारंग तथा पौर देषो मोह ती षिकाइ, सो मोदं कहियन जाइ 11 जिह टुप दीयो अनादि ही कालहि, फिरिफिरि तिह लपटाई || देना दुष्टदुर्गात दुखदाता, नरक निगोदि निसाई 11 छेदन बेदन ताड़न तापन, सूला सेज लुटाई |||||| चगति भ्रम्यो महा दुख पायो. पराधीन भयो भाई || परकी संगति निज गुगा सबै घटाई दे० ||३|| ३ ता सम्यक दर्शन सेवो, मव्य जीव सुषदाई 11 महेन्द्रकी त होइ निरंजन आवागमन मिटाई | | ० ||४|| १०५ राग श्रासावरी साधो अद्भुत निधि घर मांही । इस उत फिरें करें नहि सोधी, भ्रमतं जानत नाही || सा० ॥३१॥२ जैसे मृग कस्तुरी कारण वन हिंडत डोलें । मोह मिथ्यात विकल भयौ प्राणी, परम धर्म नहि तोलं ||०||२॥ पर पुरसारथ भीजन सोद्धा, घरमै घलि कुं भटकत अंधा || युध्यो जीव कामत सुष कारण, लागिरह्यो गृह धंधा || सा०||३|| समर कोडाकौडी सागर, मोह महायिति भागी ॥ कारण तौनि करि समकित राष्यौ, लब धातम निधि जागी ॥ सा० ॥४॥ सप्त प्रकृति उपनाम करि शखी, क्षय ते क्षायिक राई || वे ते निज पर गुणा वेदें, यही मोक्ष की साई ॥ सा०|||| . मोह कोयी सत चूरण, सठि प्रकृति बिनासी ।। महेन्द्रकी प्रभु जय जिनेश्वर लोकालोक विकासी ॥ सा०||६|| H
SR No.090071
Book TitleBai Ajitmati aur Uske Samkalin Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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