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बाई प्रजीनमति एवं उसके समकालीन कवि
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राग सारंग तथा पौर
देषो मोह ती षिकाइ, सो मोदं कहियन जाइ 11
जिह टुप दीयो अनादि ही कालहि, फिरिफिरि तिह लपटाई || देना दुष्टदुर्गात दुखदाता, नरक निगोदि निसाई 11
छेदन बेदन ताड़न तापन, सूला सेज लुटाई ||||||
चगति भ्रम्यो महा दुख पायो. पराधीन भयो भाई || परकी संगति निज गुगा सबै घटाई दे० ||३||
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ता सम्यक दर्शन सेवो, मव्य जीव सुषदाई 11 महेन्द्रकी त होइ निरंजन आवागमन मिटाई | | ० ||४||
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राग श्रासावरी
साधो अद्भुत निधि घर मांही ।
इस उत फिरें करें नहि सोधी, भ्रमतं जानत नाही || सा० ॥३१॥२
जैसे मृग कस्तुरी कारण वन हिंडत डोलें ।
मोह मिथ्यात विकल भयौ प्राणी, परम धर्म नहि तोलं ||०||२॥
पर पुरसारथ भीजन सोद्धा, घरमै घलि कुं भटकत अंधा || युध्यो जीव कामत सुष कारण, लागिरह्यो गृह धंधा || सा०||३|| समर कोडाकौडी सागर, मोह महायिति भागी ॥
कारण तौनि करि समकित राष्यौ, लब धातम निधि जागी ॥ सा० ॥४॥
सप्त प्रकृति उपनाम करि शखी, क्षय ते क्षायिक राई ||
वे ते निज पर गुणा वेदें, यही मोक्ष की साई ॥ सा०||||
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मोह कोयी सत चूरण, सठि प्रकृति बिनासी ।। महेन्द्रकी प्रभु जय जिनेश्वर लोकालोक विकासी ॥ सा०||६||
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