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भट्टारक महेंद्रकीति रचित पद
राम ग्रासावरो
भ्रमस्य मूलि रह्यो संसार ।
मोह मगन ग्राम गुरण भूल्यो, भज्यो न जिनवत सार ||१||
सीत व्यथा पीडित ज्यु मरकट, ता गुंजा हार 1 कध मुख नलनी को सुबटा, कुपटक्यो हार ॥२॥
ज्यु नर मूड राचि विसयामिष, मगन भयौ तिहुं काल | सुष को लेस कहूं नहि सुपनं नरक निगोवामार ॥३॥ जैसे स्वान मूर्ती मंदिर में, केरि कूप गुंजार 1 फटकसिला मैं देबि आप गज, कोन्हौ दान प्रहार ॥१४॥
ज्यु मृग वन में देषि भाडली, मानि सरोवर धार ॥ च दिसि फिरोन पायी जलकरण, फूल्यो कांस गवार ||०||५||
पायकुच भयौ ग्रह घोरी, सब सिर प्रारची भार ||
एकलडी एम निरंतर, जामण मरण अपार ॥०॥६॥
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राग प्रासा
मेरो मन विषया स्युं राज्यो ।
सुम को साज नहीं सुपनायें, परत्रिय देखि देखि नाय ||
arat त्रिषा प्रीति वनितास्य देषि परिग्रह मांच्यो ||०||१||
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जख लग पल न घरं भनि प्रारणी, अशुभ कर्म नहि पाच्यो || महेन्द्रकत तब कहा करोगे, नरक निगोदिनि पांच्यौ । मेगा२॥