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धाई अजीतमति उसके समकालीन कवि
बाईस परीसा सहन समष । केहरि दलन पंप मृग मय ।। तीन प्रदचिना दई समीप । नमसकार सब कियौ महीप ॥२१७॥ हरषवंत मनमाठि अपार । संदे चरन कबल नरपार।। दंपति पुत्री मैनासुन्दरी । बैठी तहां शुद्ध मन खरी ॥२१॥ जप राउ हरष प्रति गात । स्वामी सुनौं कही इक बात ।। लाडू पुत्री मैनासुन्दरी । मपर्ने जिय एह इच्छा करी ॥२१६।। पुी कहै जोरि हूँ हाथ । विद्यादान देहु अगनाथ ।। नरपति कलौ सुनौ मुनि जाम । दया करी ता उपरि ताम ॥२२०।। अजिया एक साल का पत्र । दया धर्भ बहकीयो जांनि ।। मन बच काय सुधता चित्त । जान एक सत्र अर मित्त ।।२२।। रतनत्रय प्रत पालन प्राहि । मुनिवर पुत्ति समी ताहि ।। रानी राम हरष अति भए । नमस्कार करि थर तब गए ॥२२२॥ मैनासन्दरि के मन चाउ । अजिया को ता उपरि भाउ ।। प्रथम पढायौ बोवकार । दुःख हरन विभुवन में सार ।।२२३।। पहिया बारह मस बिसेस । जात उप. बुधि असेस ॥ पहि लीनों नी करि चाहि । लघु दीरघजे अक्षर पाहि।।२२४॥ जांनी लोयह थिसि बिचित्त । पढिया घरिस पुरान पबित्त । गन अरु अगन मिलेई जांनि । काम अनेक मुकई बानि ।।२२५।। जोतिष पढ्यो इसौ परवांनि । मागम अरु अध्यातम बानि ।। सीष्यो तिन संगीत पुरान । नाटिक साटिक कर बानि ॥२२६।। तर्क छंद पुत्री पढि लियो । छह दरसन तिन उत्सर दियो । भाषा सोजु अठारह पढी। विद्या करि दिन ही दिन बढी ॥२२।। कला दिनान बिचछन भई । पुनि मुनिवरह पढ़ांवन लई ।। चारि ध्यान अणुयत जु पंच । सोलह कारन भावना संच ॥२२८॥ रत्नत्रय विधि गुनह निधान । दह लछिन जो परम प्रवान ।। जो कछु दादांग मैं कही । सो विद्या सब सुन्दर लही ॥२२६।।
दोहा मुनिवर पै सद गुन पढ्यो, किंयौ कुवरि मानन्द ॥ मन वध काय त्रिशुद्ध , बान्यौ पाप निकन्द ॥२३०॥