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वाई मजीतमति एवं उसके समकालीन कवि
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नगर मझमी । नगर मझमी । हूंछ सुविचार । वन क्रीडा करी आवीयो । अंतेजर सू सार मनोहर ।। म्नान पूज जिन भोजन सजन सरसु कोष सुखाकर । ओह प्रान गिल वर जहू की पानंद प्रणार ।। एणी पिर हूं राज भोगव । मारीदत्त अवधार ।।१।।
अमृतमती रानी का कुबडे के गान पर प्रासक्त होना
एक समय अमृतमती, धवल ग्रह मझार ।। सही पर सूफरि गोठडी, मीठडी पतुर अपार ॥१॥ सेरिण समि सेवक अधम, कूबडो प्रति हि बिसाल । मालव पंचम प्रालवे, सुदापि सुरमाल ।।२।। तब ते गान श्रबण पडयो, पडिहरणाली जिम पास ।। दुती चतुर भली सदा, पटावी ते पास 11३॥ कृरूप देखी पाछी वली, चीतति चित्त अपार ।। काम चरित्र अचित्त छि, दुस्सह काम विकार 11४11 हे जाणे अपचारा. होय विस्मय देखी रूप ।। ले देवी कुबडु एहनि मन बरि, दुर्जय काम ए भूप 2 दतीइ देवो वीनबी, तेछि कम्प अपार ॥ नीचनिकष्ट निठोर तनु, तेह् सूमोह निवार 11६1॥ तव अमृतायि एम बोलीयू, सांभिल मुषी मन सध्य ।
कुल कुरूप कुतनु कह्मरे, के कहिं वेह कुबुध्य ।।७। ये हनि सम प्रमन्न भयो, त्रिभुवन विभई हेच H तेह नर नितू जापाने, कामिनीनि कामदेव ॥८| रूप यौवन फल तेह की, पामोयि स्त्री मन रस्न ।। ते सो मन एणि ग्रस्य, रूप न कसू यत्न III से कर एहधू जई, जेणी पिरिए बश याव ।। एह दिगा मुझ तन मन तपे, क्षरा एक रही न सकाम 11१०॥