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बाई भजीत मति एवं उनके समकालीन ऋषि
राग नाषी
करुणा वर्ग भगत जिनेश्वर पय न।। जिनमण सिंच अपार, पार कहि कैमे पाव।। इन्द्री बुधि मनहीन कहीं प्रभु श्यू करि गाधु ।। भेरु चढरण कुंपांमुलो उदधि तरण मज हीन ।। पंछी उई माकास मैं ताहि गिग दिग छीन जिन ।।१।।
गूगो मुखि कुवर, मालसी नभ को पास । मूड हलाहल भष, अगनि ज्वाला मुख ग्रास ।। ज्युसूर्य जल कुड मैं, पकड्यौ चाहे बाल इमो सुभट नर कौन है जो गहि राख काल जिने।२।।
श्रीत राग सवंश सिद्ध परमातम स्वामी । निर्विकार निदोष सुद्ध पद गो के गामी । निज भाषा स्तुनि ये करें समयसरण तिरजंच 1 ज्यु जलनिधि जल से गरबौ चिड़ी लेब भरनु च ।।जिने ।।३।।
दोष अठारह रहित देव अरहन भिमेश्वर । प्रतिसय वर चौतीस दिव्य सोम परमेश्वर । प्रष्ट प्रातिहायं भले अनंत चतुष्टय पाय ।
सरि प्रकृति विनासिक भए त्रिभुवनपत्ति राय जिने।।। जिनवर रूप अनंत काही क्यू मनही समावै । नेति नेति कहै वेव नाहि कछु अंत न प्राव । अपनी ममता मारिको रहै अंतरि लो लाइ। मैतै मिटै कुदुद्धी बी तब दरसन दे अाह जिने।५।।
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जाको सम्पक ज्ञान ध्यान रज कर्म त्रि.स । सकल तत्व को रूप परम झीए परमार्स ।। चिदानंद छिद पहै विद्विलास चिदधाम ।। महेंद्रकीति मनि निरा बसौ सिव पात्र विसरसम नि । ६१३