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राग सारंग
चेतन का भरम मुलाना ॥ टेक ॥
सहज स्वभाव राचि निज अपनी छिन में रिव पुरि जाना ||०||२| खांड प्रमोलिक रतन धनोपन, काच की किरच लुभाना ||०||३|| दृष्ट अनिष्ट मिध्यात महा विष, रचि रचिमेव घराना ||०||४|| स्वपर विवेक महा सुख कारण, सेवो समकित राना ॥ सहज यलन परगट होइ भैंसे, ज्यु कंचन पाषाना ॥२०॥४॥ जन्म जरा कहूं मरण न व्याचे, सुद्ध रूप ठहराना || महेंन्द्रकीर्त्ति तब अंतर कैसो जल करण सिंधु समाना ॥१६
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राग सारंग
भट्टारक महेन्द्रकी
चेतन चैतत क्यूं नहि मनमै ।
मोह प्रमाद महापद पीयो यो धरणि घर घन में | यो जड़ रूपक को दाता, राचि रह्यो तू तन में चे० || बट्स भोजन बहुविधि पोषो, तो हू नहीं गुरगनमें ॥
प्रन मिध्यात घटा है झाडी, सूर्य लबै ना घन मैं ||२||
बिनु समकित ज्यु तत्व न मासे, कहा भयो जोजन मैं ||
महेंद्रकीति कस्तूरी कारण, ज्यु कूंढत मृग वन मै ॥ ० ॥ ३ ॥
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