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देवेन्द्र कवि
हुए
१७वीं शताब्दि में जितनी संख्या में हिन्दी के जैन कवि हुए उतने इसके पूर्व कभी नहीं हुए । देवेन्द्र कवि ऐसे ही कवि थे जो १७वीं शताब्दि के प्रारम्भ के इस भाग में और जिन्होंने हिन्दी काव्यों के लेखन में अपना नाम प्रशस्त किया। जिस प्रकार बाई श्रजीतमति, धनपाल एवं भट्टारक महेंद्रकीति भब तक अचचत रहे हैं उसी प्रकार देवेन्द्र कवि भी नामोल्ले के यतिरिक्त क्षेत्र दृष्टि से अचत्रित कवि ही रहे हैं जिनका विस्तृत परिचय यहां प्रथम बार दिया जा रहा है ।
में
शास्त्र भण्डार
देवेन्द्र कवि का प्रथम बार नामोल्लेख मैंने राजस्थान के जैन की ग्रन्थ सूची पंचम भाग में किया था और उनकी अब तक उपलब्ध एकमात्र कृति यशोधर रास का उल्लेख किया था। इसके पश्चात् किसी भी विद्वान ने उनका कहीं परिचय दिया हो वह मेरे देखने में नहीं आया। अभी जब मैं नवम्बर ३ में दर्शनार्थ एवं वहां के शास्त्र परमपूज्य श्राचार्य धर्मसागर जी महाराज के भण्डार की खोज में प्रतापगढ ( राजस्थान ) गया तो जुना मन्दिर के शास्त्र भण्डार यशोधरस की एक प्राचीनतम पाण्डुलिपि मिल गयी जो अपने रचना काल के ६ वर्ष पश्चात् ही लिपिबद्ध की गया थी । इस प्रकार देवेन्द्र कवि ऐसे चोथे प्रचित कवि हैं जिनका यहां परिचय दिया जा रहा हैं।
देवेन्द्र कवि के पिता मूदेव विक्रम थे जो स्वयं भी कवि थे तथा अपने नाम के पूर्व कवि उपाधि लगाते थे । वे जैन ब्राम्हण थे इसलिए भूदेव शब्द का प्रयोग करते थे। देवेन्द्र के पूर्वज अनन्त पंड्या थे जो भट्टारक सकलकीति के अनुज एवं शिष्य ब्रह्मजिनदास द्वारा सम्बोधित हुये थे । प्रनन्त पंड्या का राजाओं की तरह सम्मान था । उसने सम्यकत्व की प्राराधना की थी तथा जीवदया व्रत का पालन किया था। कुतुलुखान की सभा में उसने जैन धर्म की प्रभावना तथा सर्प को घड़े में डाल दिया था। यही नहीं अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण